क्या है बद्ररायण ब्रह्मसूत्र या उत्तर मीमांसा??
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
मो. 09969680093
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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जैसा कि हम जानते हैं कि वेदों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य यह है कि हम जान
सकें कि “सर्वस्य ब्रह्म। सर्वत्र ब्रह्म” और सर्व खलुमिदंब्रह्म”॥ यानि इस सृष्टि
का निर्माण ब्रह्म से हुआ। यह सृष्टि ब्रह्म में ही समा जायेगी। इस जगत की
प्रत्येक वस्तु ब्रह्म ही है।
सनातन का या हिंदुओं का धर्मग्रंथ है वेद। वेद के 4 भाग हैं- ऋग, यजु, साम और अथर्व। चारों के अंतिम
भाग या तत्वज्ञान को वेदांत और उपनिषद कहते हैं। उपनिषदों की संख्या लगभग 1,000 बताई गई है। उसमें भी 108 महत्वपूर्ण हैं। ये उपनिषद छोटे-छोटे होते हैं। लगभग 5-6 पन्नों के।
इन उपनिषदों का सार या निचोड़ है भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कही गई गीता।
इतिहास ग्रंथ महाभारत को पंचम वेद माना गया है। वाल्मीकि रामायण और 18 पुराणों को भी इतिहास ग्रंथों
की श्रेणी में रखा गया है।
मेरा विचार है कि यदि हम वेद को गौशाला मानें। तो उपनिषद है उसकी
गाय।श्रीमदभग्वदगीता है दुग्ध। वहीं राम चरित मानस है उसका मक्खन, जिसमें पात्रों के नामों और कर्म के
साथ योग और ब्रह्मप्राप्ति को साधारण भाषा में समझाया गया है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र प्रमुखतया ब्रह्म के
स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के
संबंध में भी विचार प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह
पादों में विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत् है।
ब्रहमसूत्र, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना
जाता है। इस पर अनेक भाष्य भी लिखे गये हैं। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ
माने जाते हैं - उपनिषद्,
भगवदगीता
एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें
उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और
ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म
सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः
तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र
प्रमुखतया ब्रह्म के स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के संबंध
में भी विचार प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में
विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत् है।
प्रथम अध्याय का नाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध
श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में किया गया है। इसमें भी खंड या पाद हैं जैसे प्रथम अध्याय प्रथम
खंड
में 32 सूत्र है। दिव्तीय में 32 तृतीय में 44 और चतुर्थ में 28 श्लोक हैं।
वेदान्त से संबंधित समस्त वाक्यों का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी
प्रतीत होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन नहीं है
एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध प्रकार के
विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया है।
दूसरे अध्याय का साधारण नाम 'अविरोध' है। प्रथम खंड में 36 सूत्र है। दिव्तीय में 42
तृतीय में 52 और चतुर्थ में 19 श्लोक हैं। इसके अन्तर्गत श्रुतियों की जो परस्पर विरोधी सम्मतियाँ हैं, उनका मूल आशय प्रकट करके उनके द्वारा
अद्वैत सिद्धान्त
की सिद्धि की गयी है। इसके साथ ही वैदिक मतों (सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत आदि) एवं अवैदिक सिद्धान्तों (जैन, बौद्ध आदि) के दोषों एवं उनकी अयथार्थता को दर्शाया गया है। आगे चलकर
लिंग शरीर प्राण एवं इन्द्रियों के स्वरूप दिग्दर्शन के साथ पंचभूत एवं
जीव से सम्बद्ध शंकाओं का निराकरण भी किया गया है।
इसके प्रथम पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है।
द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है।
चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।
तृतीय अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के
बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है। प्रथम खंड में 27 सूत्र है। दिव्तीय में 40 तृतीय में
64 और चतुर्थ में 52 सूत्र हैं। इसके अन्तर्गत प्रथमत: स्वर्गादि प्राप्ति के साधनों के दोष दिखाकर ज्ञान एवं
विद्या के वास्तविक स्रोत्र परमात्मा की उपासना प्रतिपादित की गयी है, जिसके द्वारा जीव ब्रह्म की प्राप्ति
कर सकता है।
इस उद्देश्य की पूर्ति में कर्मकाण्ड सिद्धान्त के अनुसार मात्र अग्निहोत्र आदि पर्याप्त नहीं वरन्
ज्ञान एवं भक्ति द्वारा ही आत्मा और परमात्मा का सान्निध्य सम्भव है।
चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर
विचार किया गया है। प्रथम खंड में 19 सूत्र है। दिव्तीय में 20 तृतीय में 15 और चतुर्थ में 22 सूत्र हैं। चतुर्थ अध्याय साधना का परिणाम होने से फलाध्याय
है। इसके अन्तर्गत वायु, विद्युत एवं वरुण लोक से उच्च लोक-ब्रह्मलोक तक
पहुँचने का वर्णन है, साथ ही जीव की मुक्ति, जीवन्मुक्त की मृत्यु एवं परलोक में उसकी
गति आदि भी वर्णित है। अन्त में यह भी वर्णित है कि ब्रह्म की
प्राप्ति होने से आत्मा की स्थिति किस प्रकार की होती है, जिससे वह पुन: संसार में आगमन नहीं करती।
मुक्ति और निर्वाण की अवस्था यही है। इस प्रकार
वेदान्त दर्शन में ईश्वर, प्रकृति, जीव, मरणोत्तर दशाएँ, पुनर्जन्म, ज्ञान, कर्म, उपासना, बन्धन एवं मोक्ष इन दस विषयों का प्रमुख रूप से विवेचन किया
गया है।
ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्रांजलता, सौष्ठव और प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शांकर भाष्य
सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है।
ब्रह्म ही सत्य है। 'एकं एवं अद्वितीय' अर्थात वह एक है और दूसरे की साझेदारी के बिना है- यह 'ब्रह्मसूत्र' कहता है। वेद, उपनिषद और गीता ब्रह्मसूत्र पर कायम है। ब्रह्मसूत्र
का अर्थ वेद का अकाट्य वाक्य, ब्रह्म वाक्य। ब्रह्मा को आजकल ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा कहा जाता है। इसका संबंध
ब्रह्मा नामक देवता से नहीं है।
'एकं ब्रह्म द्वितीय नास्ति नेह ना
नास्ति किंचन' अर्थात एक
ही ईश्वर है दूसरा नहीं है, नहीं है, नहीं है- अंशभर भी नहीं है। उस ईश्वर
को छोड़कर जो अन्य की प्रार्थना, मंत्र और पूजा करता है वह अनार्य है, नास्तिक है या धर्म विरोधी है।
पुनश्च,
यदि प्राचीनता, तार्किकता तथा उपनिषदनुकूलता की कसौटी माना
जाए तो शंकराचार्य का भाष्य ही बादरायण के
अभिमतों के सर्वाधिक निकट है। उनका दर्शन उपनिषदों के 'एकमेवाद्वितीय' सत् या ब्रह्म का ही प्रतिपादन करता है। शंकराचार्य के इस कथन को सभी भाष्यकार
मानते हैं कि ब्रह्मसूत्रों का मुख्य प्रयोजन उपनिषद के वाक्यों को संग्रथित करना है। अत:
बादरायण अद्वैतवादी थे। उनके प्रथम पांच सूत्र उनके दर्शन का सार प्रस्तुत
करते हैं। ये निम्नलिखित हैं-
जन्माद्यस्य यतः । ( ब्रसू-१,१.२ । )
संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता । यह इस सर्वत्र प्रसिद्ध जगत् को देखने से हमें पत्ता चलता है। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा और यदि चल रहा है तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा , जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े।
अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग पर चलाने वाला, कोई महान् सामर्थ्यवान् होना चाहिए।
जन्माद्यस्य यतः । ( ब्रसू-१,१.२ । )
जन्म
अध्य अस्य यत: ।
यानि
जन्म जिसका वह धारणा से परे नियमित हुआ जानो। मतलब जो भी जन्म हुआ यानि इस धरा पर
उत्पन्न हुआ वह धारणा यानि तुम्हारे ज्ञान के परे और जो नियमित यानि सतत निरंतर
कार्यशील उसको जानो। या “जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है और हमारी बुद्धि से परे
है, उसको जानो।”।
संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता । यह इस सर्वत्र प्रसिद्ध जगत् को देखने से हमें पत्ता चलता है। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा और यदि चल रहा है तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा , जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े।
अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग पर चलाने वाला, कोई महान् सामर्थ्यवान् होना चाहिए।
यह सिद्धांत सर्वमान्य हैं कि बिना कर्ता के कर्म नहीं होता। इसका
वर्णन
दर्शनाचार्य व्यास मुनि ने
भी ब्रह्मसूत्रों में भी किया है।
यानि
जन्म जिसका वह धारणा से परे नियमित हुआ जानो। मतलब जो भी जन्म हुआ यानि इस धरा पर
उत्पन्न हुआ वह धारणा यानि तुम्हारे ज्ञान के परे और जो नियमित यानि सतत निरंतर
कार्यशील उसको जानो। या “जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है और हमारी बुद्धि से परे
है, उसको जानो।”।
शास्त्रयोनित्वात् । ( ब्रसू-१,१.३ । )
शास्त्र योनि त्व आत।
शास्त्र उसकी योनि से उत्पन्न अर्थात वह शास्त्र मतलब ज्ञान का जनक
है। त्व आत। उसी से आते है या जन्मते है। यानि ज्ञान भी उसी के द्वारा उत्पन्न होता
है।
अर्थ हुआ ब्रह्म में जगत् का कारणत्व दिखलाने से उसकी सर्वज्ञता सूचित हुयी, अब उसी को दृढ़ करते हुये कहते हैं- अनेक विद्यास्थानों से उपकृत, दीपक के समान सब अर्थों के प्रकाशन में समर्थ और शास्त्र का योनि अर्थात् कारण ब्रह्म है। वेद उपनिषद इत्यादि जो भी सर्वज्ञगुणसंपन्न शास्त्र कि
उत्पत्ति सर्वज्ञ को छोड़ कर अन्य से संभव ही नहीं है। यह तो लोकप्रसिद्ध है।
ब्रह्मसूत्र में कहा है –
सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् । -ब्रह्मसूत्र 1 -2 – 1
अर्थात् - जो सब स्थान पर , और सब काल में प्रसिद्ध है उसके ज्ञान से परमात्मा की सिद्धि होती है। कैसे ?
जन्माद्यस्य यतः । - ब्रह्मसूत्र 1 - 1 – 2
व्यतिरेकानवस्थितेश्चान्पेक्षत्वात।। - ब्रह्मसूत्र - 2 - 2- 4
अर्थात् - प्रकृति की गति उलट नहीं सकती , जब तक कोई बाहर से उस पर प्रभाव नहीं डाले।
अतः पृथ्वी , चन्द्र , तारागण इत्यादि कभी चलने आरम्भ हुए थे। उक्त सिद्धांतों से स्पष्ट है कि इतने बड़े - बड़े पदार्थ बिना किसी बाहरी शक्ति के हरकत में नहीं आ सकते। साथ ही ये जो अंडाकार मार्ग पर चल रहे हैं , वे बिना किसी महान शक्तिशाली के निरंतर प्रयत्न के नहीं चल सकते थे। वह सामर्थ्यवान् ही परमात्मा है।
वस्तुतः परमात्मा एक है। वह सृष्टि को रचने वाला है। उसने यह सृष्टि रची है प्रकृति से । प्रकृति चेतना रहित है । प्रकृति को , सृष्टि रचना को स्वयंभू नहीं माना जा सकता , क्योंकि इसमें अपने - आप बनने की शक्ति नहीं होती । जल ऊपर से नीचे की ओर गिरता है , इस कारण कि पृथ्वी में आकर्षण है । यदि यह आकर्षण न हो तो यह गिर नहीं सकता । इसी प्रकार जल समुद्र से ऊपर चढ़ आकाश में बादल रूप बन जाता है। यह सूर्य के उष्णत्व के कारण है। बिना सूर्य के आकर्षण के जल आकाश में नहीं जा सकता । इसी प्रकार प्रकृति से कुछ भी नहीं हो सकता , जब तक इसको कोई हिलाने - डुलाने वाला न हो । पृथ्वी और सूर्य में आकर्षण के रूप में परमात्मा ही है जो इसको अस्थिर करता अर्थात हिलाता - डुलाता है। तत्व रूप में यह शक्ति परमात्मा की ही है। इसको प्राण कहा जाता है । प्राण इस अचेतन शक्ति में हलचल उत्पन्न करता है ।
(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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