Wednesday, March 13, 2024

 गुरु की क्या पहचान है?

आर्य टीवी से साभार

गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। कहीं मैं ठग न जाऊं। कहीं मेरा धन सम्पत्ति न छिन जाये। इत्यादि इत्यादि। बात सही है आज धर्म के नाम पर सबसे अधिक दुकानदारी और ठगी हो रही है। मंदिर, मस्जिद, चर्च के निर्माण की आड़ में लोगों के घरों का निर्माण पहले होता है। श्रद्धा से दिया गया दान ऐयाशी में प्रयोग होता है। गुरु, उस्ताद, फादर के नाम पर शोषण के समाचार आये दिन देखने को मिलते हैं।

बस यही सब देखकर और सोच कर पत्रकार डा अजय शुक्ला इस विषय पर चर्चा करने के लिए सनातन चिंतक और विचारक, पूर्व परमाणु वैज्ञानिक, कवि लेखक विपुल लखनवी जो सनातन पुत्र देवदास विपुल के नाम से ब्लॉग और वेब चैनल के द्वारा सनातन के प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के माध्यम से जनमानस तक पहुंचा रहे हैं, के पास पहुंच गए।


डा. अजय शुक्ला: प्रणाम सर, मैं आपको अपना गुरु बनाना चाहता हूं। आपकी बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया मैं इतने संतों से मिला लेकिन आप जिस तरीके से जिज्ञासाओं और समाधान को शांत कर देते हैं मैं उससे बहुत प्रभावित हूं? आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करें।


विपुल जी: (हंसते हुए) प्रिय अजय शुक्ला जी मैं गुरु नहीं हूं और न ही अपने को कहलाना पसंद करता हूं। क्या बिना गुरु बने काम नहीं हो सकता? क्या आज कलियुग काल में गुरु रूपी दुकान खोलना जरूरी है? क्या बिना गुरु बने सनातन की सेवा नहीं हो सकती, सामान्य जनमानस की सेवा नहीं हो सकती। जिज्ञासाओं को शांत नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिक मार्ग के अनुभव के साथ मार्ग नहीं दिखलाया जा सकता?


डा. अजय शुक्ला: लेकिन लोग कहते हैं बिना गुरु के जीवन सफल नहीं हो सकता इस पर आपका क्या विचार है?


विपुल जी: रमन महर्षी के कोई गुरु नहीं थे अरविंद घोष के भी कोई गुरु नहीं थे। यहां तक नारद मुनि के भी गुरु नहीं थे। क्या वे जीवन में सफल नहीं हुए। देखिए गुरु केवल और केवल परमपिता परमेश्वर ही होता है और कभी-कभी किसी मानव रूपी शरीर में कुछ विशेष कृपा कर शक्ति प्रदान करता है जिससे कि वह जगत का कल्याण कर सके।


डा. अजय शुक्ला: जी यही तो मैं भी कह रहा हूं कि मैं आप में वह सब देखता हूं इसलिए आपका शिष्य बनना चाहता हूं।


विपुल जी: अजय जी गुरु शिष्य का बंधन एक बहुत बड़ा बंधन होता है गुरु बनाने में कभी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। कलयुग में 99% दुकानदारी करने वाले गुरु मिलते हैं। गुरु बोलो तो वह प्रसन्न होते हैं। किसी भी तरीके से सामनेवाले को अपना चेला बनाना चाहते हैं। मेरे एक जानकार ने गुरु भक्ति में आकर ढाई लाख रुपए का कर्जा लेकर गुरु की मांग पूरी करी और इसके बाद भी उनका कोई फायदा नहीं हुआ। यदि आप कहे तो मैं उनका नंबर आपको दे सकता हूं। बस इसी कारण मैं यह कहता हूं पहले अपने आप को मजबूत करो अपनी स्वयं की ऊर्जा को बढ़ाओ उसके पश्चात अपने आप गुरु प्राप्त हो जाएगा।


इस कारण गुरु बनाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। 


डा. अजय शुक्ला: तो फिर शिष्य बनने के लिए क्या करें?


विपुल जी: ईश्वर की कृपा से जो मेरे इस शरीर द्वारा निर्मित सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि निर्मित हो गई है। उसके साथ आप अपने इष्ट का मंत्र जप आरंभ करें। आपको जब सनातन का अनुभव होगा तो आपकी निष्ठा आस्था और अधिक बढ़ जाएगी। जब आपका मंत्र जप परिपक्व हो जाएगा तब यदि आवश्यकता होगी तो आपका ईष्ट आपको स्वयं आपके गुरु के पास पहुंचा देगा। मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं गुरु को मानता ही नहीं था सिर्फ मां दुर्गा को ही सब कुछ समझता था। समय आने पर मां ने मुझे स्वप्न और ध्यान के माध्यम से अपनी गुरु परंपरा में पहुंचा दिया और जहां पर जाकर मैंने शक्तिपात की दीक्षा प्राप्त की।


डा. अजय शुक्ला: फिर भी गुरु की पहचान क्या होती है।

विपुल जी: उपनिषद मे इस बारे मे कहा गया है कि 

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।

गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम्,

शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥ अर्थात 

जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते पर चलते हैं, जनहित और दीन दुखिओं के कल्याण की कामना का तत्व बोध करते-करातें हैं तथा निस्वार्थ भाव से अपने शिष्य के जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करतें हैं  उन्हें गुरु कहते हैं।

क्या ऐसा गुरु आपने देखा है?


मैं कहीं पढ़ा था “ सच्चे गुरु की पहचान का पहला लक्षण यह है कि गुरु किसी वेशभूषा या ढोंग के अधीन नहीं है और उसके चेहरे पर सूर्य के सामान तेज दिखता है और उसकी छठी इंद्री पूर्णत: विकसित होती है जिसके द्वारा वह भूत, वर्तमान और भविष्य को देख पाता है | 

सच्चा गुरु ज्ञान देने में प्रसन्न होता है ज्ञान को छुपाने वाला या भ्रमित करने वाला सच्चा गुरु नहीं होता। यह बात भी सभी जानते है कि संसार में जीवित रहने के लिए धन की आवश्यकता है, अकारण आवश्यकता से अधिक धन का मांगना गुरु के लालची और स्वार्थी होने का चिन्ह है।


गुरु कही भी मिल सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि गुरु किसी विशेष वेशभूषा में ही होगा, वेशभूषा का प्रयोग निजी लाभ के लिए मूर्ख बनाने या दिशाहीन करने में भी किया जा सकता है। सच्चे गुरु को वेशभूषा या दिखावे में कोई रुचि नहीं होती, न ही वह अपनी प्रशंसा सुनने का इच्छुक होता है।

साधू की वेशभूषा भगवा रंग की होती है इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवा पहनने वाले सारे लोग साधू विचारों के होते है इनमे स्वार्थी और कपटी लोग भी हो सकते है। साधू के भगवा पहनने का अर्थ यह है कि इस व्यक्ति ने पारिवारिक सुखों का त्याग करके भगवा धारण कर लिया है और अब पारिवारिक जीवन नहीं चाहता, बाकि का जीवन सांसारिक वस्तुओं और लोगो से दूर रहेगा। प्राय: लोग आशीर्वाद पाने के लिए साधू को आवश्यकता से अधिक सुविधा उपलब्ध करा कर उनका मन भटकाते है, सुख सुविधा को देखकर सच्चे साधू का मन भी संसार की और आकर्षित होने लगता है। ऐसा करके वह लोग अपने पाप कर्म की पूँजी जमा करते है क्योंकि सुविधाओं को भोगने पर साधू अपने लक्ष्य से भटक कर दूर हो जाता है।


कहा गया है

अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः।

प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।


अर्थात जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूर्ति करता है (पदैः) श्लोक के भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दूध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।

कुछ यूं समझें यानि योगी होता है।


डा. अजय शुक्ला: इस संदर्भ में वेद क्या कहते हैं?


विपुल जी: यजुर्वेद कहता है।

अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम्

वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम्


अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के  उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।

भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्यान्ह  को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।

मतलब वाहिक रूप में यह सब दिख जाता है।


डा. अजय शुक्ला: शिष्य में क्या गुण होने चाहिए?


विपुल जी: व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।

दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते 


(व्रतेन) दुर्व्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।

मतलब पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा।


डा. अजय शुक्ला: आप यह सब संक्षेप में बताएं इतना सारा तो समझ में भी नहीं आएगा। 


विपुल जी: यह बात सत्य है। सद्गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज जो शक्तिपात के कौल गुरू थे आपने गुरु के जो लक्षण बताये है जो अधिक प्रभावी और तत्कालिक हैं। जिनमें एक आंतरिक और कुछ भौतिक लक्षण हैं। 


स्वामी जी ने लिखा है कि जब आप दो रूपये का एक घड़ा खरीदते हैं तो ठोंक बजाकर देखते हैं अत: जिसको आप अपना जीवन समर्पित करने जा रहे हैं उसको तो अवश्य ठोंक कर देखें। 


कुछ वाहिक लक्षण:

जो आडम्बर से दूर हो। जिसके वस्त्र साधारण किंतु स्वच्छ हो। जो तरह तरह की मालाओ अंगूठियों वेश भूषा से दूर हो। मूछें बार बार न ऐठें। (यह गर्व का प्रतीक हैं)। सद्गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज कहते हैं जो स्वयं ग्रह नक्षत्रों के बंधन से बंधा हो वह आपको क्या मुक्त कर पायेगा। जो अपने  नाम के आगे बडे बडे नामपट्ट न लगाता हो। (जैसे भगवान, अखंडमंडलाकार, जगतगुरु, जगतमाता इत्यादि)। 

जिसमें समत्व हो यानी न कोई बड़ा शिष्य न छोटा। 

ऐसा न हो जिसने दक्षिणा अधिक दी उसको अधिक प्रसाद। जिसने कुछ नहीं दिया सिर्फ प्रणाम किया उसे कुछ नहीं। चेहरे पर सौम्यता हो, दीनता हो, प्रेम हो पर मलीनता न हो। 

तेज हो निस्तेज न हो।

जो न अधिक बोलता हो, चपल न हो। व्यर्थ बहस में न पड़े न उलझे। 

कम खाता हो, खाने का लालची न हो। इस तरह के अनेकों गुण हों।


परंतु अंतिम जो आन्तरिक है। 

वह मनुष्य जिसके पास बैठने से आपको क्रिया होने लगे (जैसे घूर्णन, कम्पन, रोमांच, ठंड, गरमी, आवेग, कुछ वो जो अचानक हो और आप के लिये अनहोनी),  ध्यान लगने लगे, सिर भारी होने लगे, चक्कर आने लगे, नींद आने लगे। जो आपको स्वप्न में दिखाई दे। वह आपके गुरु होने लायक है। आप उससे अनुरोध कर सकते हैं। क्योंकि वह आपको कभी धोखा नहीं देगा।


डा. अजय शुक्ला: आपके अतिरिक्त अन्य कोई उदाहरण है आपके पास?


विपुल जी: जी मेरी इंजीनियरिंग कॉलेज एचबीटीआई के पास आउट मित्र श्री अंशुमन द्विवेदी को शक्तिपात परम्परा के एक सन्यासी गुरु से मिलाया, जिसको देखकर अंशुमन बोले स्वामी जी आपको तो स्वप्न में देखा है। अरे मैं स्वयम् स्वपन और ध्यान के माध्यम से अपने गुरु तक पहुंचा हूं। 


डा. अजय शुक्ला: कोई और विशेष बात?

 

विपुल जी: प्राय: जो साकार सगुण अराधना करते हैं उनको आवश्यकता पड़ने पर साकार देव इष्ट बनकर समर्थ गुरु के पास स्वयं पहुंचा देते हैं। यह अनुभव तो मेरा भी है। पर जो निराकार निर्गुण साधना करते हैं उनको प्राय: मनोचिकित्सक के पास तक जाने की नौबत आ जाती है। 


अत: मित्रों आप गुरु को ढूंढना छोडकर अपनी साधना में लग जाइये। मेरा सुझाव है सगुण,साकार, आराधना और उपासना ही करे तो बेहतर है। अच्छा तो यह रहेगा आप अपने घर पर सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि करने के साथ अपने इष्ट का मंत्रजप सतत, निरंतर, निर्बाध आरंभ कर दे। यह मंत्र जाप आपको गुरु से लेकर ज्ञान तक भौतिक सुखों से लेकर आध्यात्मिक स्तर की ऊंचाई तक यहां तक मोक्ष भी प्रदान कर सकता है।


डा. अजय शुक्ला: आपका बहुत-बहुत आभार। 

विपुल जी: जी आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप जनकल्याण की सेवा हेतु लोगों को आध्यात्मिक जानकारी बताने हेतु मेरे पास अपना समय व्यतीत करते हैं।