Sunday, June 24, 2018

ग्रंथों को जानना वास्तविक ज्ञान नहीं। कुछ उत्तर



ग्रंथों को जानना वास्तविक ज्ञान नहीं।
कुछ उत्तर
खोजी देवीदास विपुल
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
मित्र कोई भी ग्रंथ आत्मज्ञान नहीं दे सकता। मैं यह दावा तो कर ही सकता हूँ।
यह सब ग्रंथ सोंचने का चिन्तन करने का अच्छा और सार्थक सामान प्रदान कर देते है।
यह ग्रन्थ सत्वगुण की प्रेरणा देते है ।
पर यह मात्र वाहीक है। सत्य नही।
यह तर्क देते है।
जगत में सममान धन शोहरत सब दे सकते है पर आत्म ज्ञान नही।
यह बता सकते है कि तुम सही मार्ग पर हो। आगे क्या हो सकता है पर ज्ञान हेतु हमे इन सबसे अलग हट कर खुद को पढ़ना होगा।
आवश्यक नही। पहली आवश्यक सीढ़ी है कि हम अंतर्मुखी हो।
जिसके लिए तमाम विधियां है।
साथ ही हम वाहीक प्रयास भी निरन्तर करते रहे तो समय कम लगता है।
जैसे फ़िल्म देखने का मन है तो सन्तो की फ़िल्म देखे।
पढ़ने का मन है तो गीताप्रेस गोरखपुर का उत्कृष्ट साहित्य पढ़े। बच्चों को उनके कॉमिक्स पढ़ने को दे।
यदि कही घूमने जाए तो कोशिश करे वहाँ के मंदिर सन्तो की समाधि इत्यादि पर भी जाये।
कोशीश करे कि आपके दिमाग मे ईश दर्शन सम्बन्धी विचार या प्रश्नों के उत्तर चल रहे हो।
इसके आगे की यात्रा। आपकी विधि या मन्त्र जप स्वयं कराता है।
सबसे पहले या आपकी कुण्डलनी जागेगी। 
या
देव दर्शन होंगे यदि आप साकार उपासक है।
निराकार है तो कुछ अनुभूतिया।
फिर आपको योग होगा यानी अहम ब्रमास्मि की अनुभूतिया।
इसी के साथ आपका आत्म गुरु या अल्लह की वाणी जागेगी।
यह सहायक होती है अंत नही। यह वाहीक प्रक्रिया को दुरुस्त करती है।
बहुत मुश्किल है। हो सकता है कही मानसिक रोगी न हो जाये।
यह सन्तो पर लागू नही।
आपके मस्तिष्क में अचानक आपको आपकी जिज्ञासाओं के उत्तर खुद मिलने लगते है। ऐसा लगता है कि कोई अंदर से बोल रहा है।
लेकिन कुछ समय बाद मन भी जागकर गलत सलट राय देकर भृमित भी करता है।
यहाँ पर शिवोम तीर्थ जी महाराज ने कहा है जब तक आपको कोई निर्देश लिखकर या साफ साफ ध्वनि में न सुनाई दे। आप उसको मन की चालबाजी मान सकते है।
जी ध्यान में स्पष्ट लिखकर स्वप्न में बिलकुल साफ दिखता है।
इसी आत्म गुरू या अल्लह की वाणी की जगह अपने मन की वाणी को सत्य मानकर मोहम्मद साहब वह कर बैठे जो आज बताया जा रहा है और जिसकी निंदा होती है।
यह हमारी बुद्दी सलाह देती है। आत्मा सदैव सही मार्ग दिखाती है।
मन भटकाता है।
हा अपरिपक्व को भटकाने हेतु। यह मन की चालबाजी ही होती है।
जब तक स्वप्न में ध्यान में स्पष्ट आदेश न हो यह करना भटकना है।
गुरू रामदास को मंडप में कान में आवाज आई कई बार भाग जा भाग जा ।
तो वह फिर आएगा। स्पष्ट। या किसी मानवधारी के रूप में मिलेगा।
मैंने बोला न मोबाइल को मिक्सर में पीसकर चटनी बनाओ और पेड़ो में डाल दो।
सब जगह अधकचरा ज्ञान भी मिलता है। देख कर ज्ञान मिलता है क्या।
हा अच्छी बातें भी दी है।
पर सब सही नही
दोनो सत्य नही। एक माध्यम है खुद को जानने का। एक अवस्था है विश्रांति की।
सरकारी नौकरी है ट्रांसफर हो जाये।
देखो तुम्हारे गुरू है उनसे पूछो। अब तुम्हारे लिए गुरू आज्ञा सर्वोपरि। ब्रह्मचारी दीक्षा या सन्यास दीक्षा वो ही देंगे। या उनकी आज्ञा से कोई और।
उनकी आज्ञा बिना तुम कुछ न करो।
जब हमें देहभान नही रहता है। तब या तो निद्रा में होते है, या मूर्छित या ध्यान में। इन तीनो अवस्थाओ में हम जगत के बाहर होते है। अतः हम जगत के कर्म किस प्रकार कर पाएंगे।
इस कारण हम देहभान तो जगतकार्य हेतु छोड़ ही नही सकते।
तो जगत में कैसे रहेंगे।
यहाँ पर कर्म योग ही हमें यह अवस्था दे सकता है। अर्थात निष्काम कर्म ही हमे जगत के बंधनों से मुक्ति दिला पाएगा।
सुख तो हमारे मन की अवस्था है। इसकी कोई परिभाषा नही होती। वैसे ही दुख है।
एक बार जब हम आनन्दमय कोष में पहुच जाते है तो सुख अपने आप दिखने लगता है। दुख का निशान नही रहता। हम दिखावे के लिए दुखी होते है पर हम भीतर से आनन्दित ही रहते है।
यह सब हमारे चाहने से नही होता है। निरन्तर प्रयास और श्रम के साथ होता है। प्रभु कृपा तो परम् आवश्यक है ही। साथ ही सन्त दर्शन सहयोग करते है।
जो गुरू दीक्षित है उन्हें गुरू कृपा भी प्रभु कृपा से प्राप्त हो जाती है।
अतः एकमात्र उपाय है कि प्रभु का सतत स्मरण और समर्पण। जो मन्त्र जप से ही सम्भव और सहज है।  यह ही अपने आप सब प्रदान कर देता है।
एक सलाह भी देता हूँ।
जब कभी मौका मिला सन्तो की समाधि और मन्दिर जाओ। वहाँ जाकर सिर्फ प्रभु स्मरण करो और देखो। बुराइयों और व्यापार से मन खिन्न न करो। सम्भव हो तो सेवक को पैसे दे दो। दान पात्र में दो। पर प्रभु को मत चढाओ या दूर से फेको।
उसको हम क्या दे सकते है। हमारी औकात क्या।
मत दो दान पर अपना मूड मत खराब करो कम से कम। जो चल रहा है चलने दो।
समर्पण सिर्फ शब्द नही है, जो भी समर्पण को समझेगा उसे सुख व आनन्द की अनुभूति होगी।मन से समर्पण होता है तो प्रभू भी सहाय होते है,मीरा ने स्वयं को प्रभू को समर्पित कर दिया,तभी ज़हर का प्याला भी अमृत मे परिवर्तित हो गया। जय बाबा महाकाल जय हिन्द जय माँ नर्मदे।
इसमें कोई दो राय नही भारत तब तक सुरक्षित और सर्व भौम जब तक हिन्दू जीवित है। ईसाईयत या मुस्लिम इसको निश्चित रूप से समाप्त ही कर देंगे। क्योकि उनके अनुसार दूसरे धर्म को जीने का अधिकार नही। जो समझदार ईसाई या मुस्लिम भाई है उनकी संख्या बेहद कम है। वह चाहाकर भी कुछ नही कर सकते। अतः चुप ही रहते है।
अतः
*आज आवश्यकता है 
 हर हिंदू परिवार अपने बच्चों मे यह आदत डाले...*
*1:* मंदिर घुमाने लेकर जाइये !
*2:* तिलक लगाने की आदत डालें !
*3:* देवी देवताओं की कहानियां सुनायें !
*4:* संकट आये तो नारायण नारायण बोलें !
*5:* गलती होने पर हे राम बोलने की आदत डालें !
*6:* गायत्री मंत्र, हनुमान चालीसा व महामृत्युन्जय मंत्र आदि याद करायें !
*7:* अकबर, हुमांयू, सिकन्दर के साथ शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसे शूरवीरों की कहानियां भी सुनायें !
*8:* घर मे छोटे बच्चों से जय श्री कृष्णा, राधे राधे
हरी बोल, जय माता दी
राम राम कहिये, और उनसे भी जवाब मे राम राम बुलवाने की आदत डालिये !
*9:* बाहर जाते समय bye न कहे बच्चो से जय श्री कृष्णा कहे।
*अपने धर्म का ज्ञान हमको ही देना है ! कोई और नहीं आयेगा |

मैं धर्म की बात नही करता मार्ग की बात करता हूँ और प्राचीन सनातन सिध्दांतो की बात करता हूँ। विश्व के 23 देश अपने यहाँ इस्लाम को बैन कर चुके है। यह कितना दुखद है  आज समझदार मुसलमान भाइयो को सोंचना होगा। पूरी दुनिया क्यो विरूद जा रही है। आप लोग आगे आये।
कितने देशों ने कहा कि बैन करने से अपराध में 72 प्रतिशत की गिरावट आई है।
क्या यह हमें सोंचने पर मजबूर नही करता कि हम अपने मुस्लिम भाइयो को जो समझदार है उनका समर्थन करे।
यह बात अकाट्य सत्य है कि भारत यदि मुस्लिम या ईसाई बाहुल्य बन गया तो यह धर्म निरपेक्ष नही रहेगा। अमेरिका तक ईसाई देश है सेकुलर नही।
अतः जब तक हिंदुत्व जैन जैसे धर्म बाहुल्य रहेगे भारत बचा रहेगा।

माता का दिन आज है, होगी जय जय कार।
बाकी दिन कोने पड़ी, है बेबस लाचार।।
चित्र खींच कर डालते आधुनिक श्रवण कुमार।
ढेरो मिली लाइक जो, भूले माँ का प्यार।।
यह कलियुग की देन है, नही है सच्चा प्यार।
कलियुग की औलाद हैं, माँ पर अत्याचार।।
दांत दिखाने के अलग, जैसे हाथी पाय।
झूठी पोस्टे डालकर, जग को ये भरमाय।।
दास विपुल यह कह रहा, किसे छलावा कौन।
परमपिता सब जानता, बेहतर बैठो मौन।।
सरवनकुमार  जगत में, मिल जायेंगे आज।
चरन पखारेगा विपुल, दावा करता दास।
दो जून रोटी दे दी, बहुतेरे मिल जाय।
पर अकेली खाट पर, माता पास न आय।।
नही समय मिलता उन्हें, मात दवाई लाएं।
पर बीबी संग घूमते, प्रतिदिन पिक्चर जाँय।।
कभी जो पूछा हाल क्या, पोपले मुख मुस्कान।
लाख जिये बेटा बहु, बलिहारी माँ प्रान।।
नमस्कार मैं शत करूं, जो माता का पूत।
मेरी वाणी उन्हें है, हुए पूत कपूत।।
दास विपुल की प्रार्थना, माँ को दो सम्मान।
पिता तुम्हारे पालक है, ऋण जिन वृक्ष समान।
देवीदास विपुल। नवी मुंबई।

ॐ शब्द किसी एक खास धर्म का शब्द नहीं है यह ब्रह्माण्ड में हमेशा गुंजने वाला शब्द है। आइये जानते हैं ॐ के महत्त्व को।

*ॐ शब्द का वैज्ञानिक अर्थ और उसका महत्व*

ओ३म् शब्द में हिन्दू, मुस्लिम, या इसाई जैसी कोई बात नहीं है। बल्कि ओ३म् तो किसी ना किसी रूप में सभी मुख्य संस्कृतियों का प्रमुख भाग है। उदाहरण के लिए अगर हिन्दू अपने सब मन्त्रों और भजनों में इसको शामिल करते हैं तो ईसाई और यहूदी भी इसके जैसे ही एक शब्द “ओमेन” का प्रयोग धार्मिक सहमति दिखाने के लिए करते हैं। हमारे मुस्लिम दोस्त इसको “आमीन” कह कर याद करते हैं। बौद्ध इसे “ओं मणिपद्मे हूं” कह कर प्रयोग करते हैं। सिख मत भी “इक ओंकार” अर्थात “एक ओ३म” के गुण गाता है।

1) अंग्रेजी का शब्द “omni”, जिसके अर्थ अनंत और कभी ख़त्म न होने वाले तत्त्वों पर लगाए जाते हैं (जैसे omnipresent, omnipotent), भी वास्तव में इस ओ३म् शब्द से ही बना है। इतने से यह सिद्ध है कि ओ३म् किसी मत, मजहब या सम्प्रदाय से न होकर पूरी इंसानियत का है। ठीक उसी तरह जैसे कि हवा, पानी, सूर्य, ईश्वर, वेद आदि सब पूरी इंसानियत के लिए हैं न कि केवल किसी एक सम्प्रदाय के लिए।

 2) बोस्टन कनेक्टिकट  की एक वैज्ञानिक महिला ने ओ३म् पर शोध करने पर बहुत रोचक तथ्य पाया। ओम की आवृत्ति (frequency) और अपनी ही धुरी के चारों ओर पृथ्वी के घूमने की आवृत्ति (frequency of earth’s rotation around its own axis) समान है।

 3) वास्तव में हरेक ध्वनि हमारे मन में कुछ भाव उत्पन्न करती है। सृष्टि की शुरुआत में जब ईश्वर ने ऋषियों के हृदयों में वेद प्रकाशित किये तो हरेक शब्द से सम्बंधित उनके निश्चित अर्थ ऋषियों ने ध्यान अवस्था में प्राप्त किये।

4) ऋषियों के अनुसार ओ३म् शब्द के तीन अक्षरों से भिन्न भिन्न अर्थ निकलते हैं। यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ, , म। प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है। हिन्दू धर्म के अनुसार चले तो ॐ शब्द मे ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों के गुण मिल जाएँगे।

5) ओ३म् बोलने से शरीर के अलग अलग भागों मे कंपन होते है जैसे की ‘अ’:- शरीर के निचले हिस्से (पेट के करीब) कंपन होता है। ‘उ’- शरीर के मध्य भाग (छाती के करीब) कंपन होता है। ‘म’- शरीर के ऊपरी हिस्से ( मस्तिक में) कंपन होता है।

6)  ओ३म् इस ब्रह्माण्ड में उसी तरह भर रहा है कि जैसे आकाश। ओ३म् का उच्चारण करने से जो आनंद और शान्ति अनुभव होती है, वैसी शान्ति किसी और शब्द के उच्चारण से नहीं आती। यही कारण है कि सब जगह बहुत लोकप्रिय होने वाली आसन प्राणायाम की कक्षाओं में ओ३म के उच्चारण का बहुत महत्त्व है। बहुत मानसिक तनाव और अवसाद से ग्रसित लोगों पर कुछ ही दिनों में इसका जादू सा प्रभाव होता है। यही कारण है कि आजकल डॉक्टर आदि भी अपने मरीजों को आसन प्राणायाम की शिक्षा देते हैं।

इसके कई शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक लाभ हैं। यहाँ तक कि यदि आपको अर्थ भी मालूम नहीं तो भी इसके उच्चारण से शारीरिक लाभ तो होगा ही। यह सोचना कि ओ३म् किसी एक धर्म कि निशानी है, ठीक बात नहीं। 

यहॉ पर ब्राह्मण के साथ आश्रम शब्द आया है। अतः अर्थ भिन्न हों सकते है जो दिखते है वह नही।
तू ब्राह्मण यानि यदि तू ब्रह्म का वरण कर चुका है तो तू किसी वर्ण का नही है अर्थात तू सिर्फ ज्ञानी है जिसे ज्ञान है कि वह किसी वर्ण का नही है सिर्फ आत्म स्वरूप है। चूंकि लोग जब आत्मज्ञानी हो जाते है तो घर को त्याग कर जंगल इत्यादि में आश्रम बनाकर रहते है। यहाँ पर कह सकते है तुमने ब्रह्म का वरण कर लिया है तो तुम्हारा कोई आश्रम भी नही हो सकता। चारो आश्रमो में कोई और न वन आश्रम। तुम इन सबसे ऊपर आत्म स्वरूप ज्ञानी।और नही इस स्वरूप को कोई इंद्रियों के द्वारा जान सकता है। विशेषकर आंख। यानी जो दिखता है जगत को और तुमको वो भी नही हो। 
जो इन बातों को जान यानी अनुभव कर लेता है वास्तव में वो ही सुखी रह पाता है। क्योंकि वह आनन्दमय कोष में स्थित हो जाता है।
इन शब्दों के और भी अर्थ निकल सकते है। पर संक्षेप में। तू इस जगत में कुछ भी नही सिर्फ आत्मस्वरूप है इसको जो जान लेता है वो ही वास्तविक सुखी है।
ज्ञानी जन एक बात समझाएं जो मैं मूर्ख ध्यान में समझ न सका। आगे क्या है मालूम नही।
यह शिव की शाक्तय उपासना क्या है। इसके कई शब्द चित्र कर्म लगातार दिखे पर मैं कुछ समझ न पाया।
क्या यह शिव के तंत्र रूप की कोई पद्दति है।
जय महाकाल। जय शक्ति।
दे दो भक्ति।


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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