Sunday, September 23, 2018

क्यों मानता हूं मैं ओशो को महापापी



क्यों मानता हूं मैं ओशो को महापापी

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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मित्रों, यह लेख मैं उन अनुभवहीन, मात्र शब्दों से विद्द्वता को परखनेवाले किताबी ज्ञानियों हेतु लिख रहा हूं। जिन्होने न गीता को ढंग से पढा और न सनातन को जाना। बुद्ध का दर्शन ओशो की निगाह से पढा। पूर्वाग्रहित होकर ओशो के प्रवचन सुनकर भक्त हो गये। दुनिया से तर्क कुतर्क करने लगे। लेकिन मेरा दावा है कि जिसने ईश का अनुभव कर गीता को पढा और सनातन को समझा वो उसको पापी ही मानेंगे।

चलिये कुछ चर्चा की जाये।

कुछ जीवनी का ज्ञान का गूगल गुरू से।

ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है भगवान श्री रजनीश साधारणतः ओशो – Osho, आचार्य रजनीश और रजनीश के नाम से भी जाने जाते है, वे एक भारतीय तांत्रिक और रजनीश अभियान के नेता थे। चन्द्र मोहन जैन का जन्म भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में हुआ था अपने जीवनकाल में उन्हें एक विवादास्पद रहस्यवादी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक माना गया था।

रजनीश बचपन से ही गंभीर व सरल स्वभाव के थे, वे शासकीय आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पढा करते थे, विद्यार्थी काल में रजनीश एक विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति हुआ करते थे, जिसे परंपरागत तरीके नहीं भाते थे। किशोरावस्था तक आते-आते रजनीश नास्तिक बन चुके थे, उन्हें ईश्वर और आस्तिकता में जरा भी विश्वास नहीं था. अपने विद्यार्थी काल में उन्होंने ने एक कुशल वक्त और तर्क वादी के रूप में अपनी पहचान बना ली थी। किशोरावस्था में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी क्षणिक काल के लिए शामिल हुए थे। वे अपने पिता की ग्यारह संतानो में सबसे बड़े थे। उनके माता पिता श्री बाबूलाल और सरस्वती जैन, जो कि तारणपंथी दिगंबर जैन थे, ने उन्हें अपने ननिहाल में ७ वर्ष की उम्र तक रखा था। ओशो के स्वयं के अनुसार उनके विकास में इसका प्रमुख योगदान रहा क्योंकि उनकी नानी ने उन्हें संपूर्ण स्वतंत्रता, उन्मुक्तता तथा रुढ़िवादी शिक्षाओं से दूर रखा। जब वे ७ वर्ष के थे तब उनके नाना का निधन हो गया और वे गाडरवारा अपने माता पिता के साथ रहने चले गए।

ध्यान दे,  वर्ष 1957 में संस्कृत के लेक्चरर के तौर पर रजनीश ने रायपुर विश्वविद्यालय जॉइन किया। लेकिन उनके गैर परंपरागत धारणाओं और जीवनयापन करने के तरीके को छात्रों के नैतिक आचरण के लिए घातक समझते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति ने उनका ट्रांसफर कर दिया। अगले ही वर्ष वे दर्शनशास्त्र के लेक्चरर के रूप में जबलपुर यूनिवर्सिटी में शामिल हुए। 1960 में उन्होंने सार्वजनिक वक्ता के रूप में पुरे भारत का भ्रमण किया था और महात्मा गांधी और हिन्दू धर्म ओथडोक्सी के वे मुखर आलोचक भी थे। मानवी कामुकता पर भी वे सार्वजनिक जगहों पर अपने विचार व्यक्त करते थे, इसीलिए अक्सर उन्हें “सेक्स गुरु” भी कहा जाता था, भारत में उनकी यह छवि काफी प्रसिद्ध थी, लेकिन बाद में फिर इंटरनेशनल प्रेस में लोगो ने उनके इस स्वभाव को अपनाया और उनका सम्मान किया।

1970 में रजनीश ने ज्यादातर समय बॉम्बे में अपने शुरुवाती अनुयायीओ के साथ व्यतीत किया था, जो “नव-सन्यासी” के नाम से जाते थे। इस समय में वे ज्यादातर आध्यात्मिक ज्ञान ही देते थे और दुनियाभर के लोग उन्हें रहस्यवादी, दर्शनशास्त्री, धार्मिक गुरु और ऐसे बहुत से नामो से बुलाते थे।

1974 में रजनीश पुणे में स्थापित हुए, जहाँ उन्होंने अपने फाउंडेशन और आश्रम की स्थापना की ताकि वे वहाँ भारतीय और विदेशी दोनों अनुयायीओ कोपरिवर्तनकारी उपकरण” प्रदान कर सके। 1970 के अंत में मोरार जी देसाई की जनता पार्टी और उनके अभियान के बीच हुआ विवाद आश्रम के विकास में रूकावट बना।

1981 में वे अमेरिका में अपने कार्यो और गतिविधियों पर ज्यादा ध्यान देने लगे और रजनीश फिर से ऑरेगोन के वास्को काउंटी के रजनीशपुरम में अपनी गतिविधियों को करने लगे। लेकिन फिर वहाँ भी राज्य सरकार और स्थानिक लोगो के मदभेद के चलते उनके आश्रम के निर्माण कार्य को घटाया गया था।

1985 में कुछ गंभीर केसों पर छानबीन की गयी जिनमे 1984 का रजनीश बायोटेरर अटैक और यूनाइटेड स्टेट प्रतिनिधि चार्ल्स एच. टर्नर की हत्या का केस भी शामिल है। इसके बाद अल्फोर्ड दलील सौदे के अनुसार वे यूनाइटेड स्टेट से स्थानांतरित हो चुके थे।
२१ अन्य देशों से ठुकराया जाने के बाद वे वापस भारत लौटे और पुणे के अपने आश्रम में अपने जीवन के अंतिम दिन बिताये। पुणे के आश्रम में अपने कार्य करना शुरू किये, जहाँ 1990 में उनकी मृत्यु भी हो गयी थी। उनकी मृत्यु के बाद, उनके आश्रम, ओशो इंटरनॅशनल मेडिटेशन रेसॉर्ट को जूरिक आधारित ओशो इंटरनॅशनल फाउंडेशन चलाती है, जिसकी लोकप्रियता उनके निधन के बाद से अधिक बढ़ गयी है। रजनीश के विचारो का ज्यादातर प्रभाव पश्चिमी नव-युवको पर पडा है।

आगे बढने के पूर्व हम पाप और पुन्य की परिभाषा देख ले। पाप और पुण्य की परिभाषा देश काल परिस्थिति को देखकर बदलती है। कोई ठोस पैमाना नहीं है। इसकी व्याख्या भगवान श्री कृष्ण के इस वाक्य से समझी जा सकती है। “हे अर्जुन, जो कार्य समाज के विपरीत होगा वह तेरे अनुकूल कैसे हो सकता है”। मतलब समाज के प्रतिकूल कार्य उस समाज में पाप और अनूकूल पुण्य माना जाता है। जैसे उन्मुक्त काम क्रीडा को भारतीय समाज में पाप माना जाता है किंतु विदेशो में महज एक कर्म और सुख का साधन। मतलब जो भारत में पाप वह और देशों मे पाप नहीं हो सकता है। अत: यह कृत भारत मे गैर कानूनी है। 

चलिये अब ओशो के कुछ पाप देखें। जिन्होने ओशो को महापापी बना डाला1

अपने को भगवान बनाया। पहले आचार्य फिर भगवान फिर जापानी भाषा मे ओशो। स्वयम बुद्ध जीसस, जिनकी बात की, वह अपने को भगवान नहीं मानते थे।  

अब लोग तर्क देंगे अह्म ब्रम्हास्मि की अनुभुति, सोअहम, आत्म षट्कम मच्छ्शंकराचार्य विरचित, चिदानद स्वरूपा शिवोहम शिवोहम  और अष्टावक्र की गीता अकोअहम द्वितीयोनास्ति का।

चलिये एक एक कर इनको समझे।

अहम ब्रम्हास्मि एक अनुभूति है। जो हमें ब्रह्म होने का अनुभव कराती है। हमें हमारा वास्तविक स्वरूप जो प्रभु ने निर्मित किया था उसका अनुभव कराती है। जब यह अनुभूति होती है। उस समय हमारे मन बुद्धि अहंकार सहित हमारे आकाश तत्व की सभी विमायें पूरे होशोहवास में रहती है पर सब ही तरफ यह महसूस होता है कि हम ही ब्रह्म हैं। जैसे मन बुद्धि एक तरह से जड़ हो कर सिर्फ ब्रह्म के भाव मे आ जाती है। 
मुख से स्वतः वह शब्द जो कभी पढ़े होंगे। अहम शिव अहम दुर्गा अहम सृष्टि अहम सूर्य इत्यादि निकलने लगते है। यदि हम शिव की अनुभूति तो हाथ मे ऐसा लगेगा जैसे त्रिशूल आ गया हो। उस वक्त ऐसा लगता है जैसे हम ही सब कुछ है। यह आवेग कुछ मिनटों तक चलता रहता है।  शरीर के अंदर ऐसा लगता है जैसे कोई घुस गया और मैं शक्तिशाली हो गया होऊँ।
पर मैं इस अवस्था को सिर्फ एक क्रिया ही मानता हूँ। अपने मन में ब्रह्म होने का विचार बाद में अहंकार बढ़ा देता है।
फिर ईश वह जिसके अधीन माया। मानव वो जो माया के अधीन।।
इस अनुभूति में भी हम माया के अधीन ही रहते है। अतः मेरी निगाह में यह मात्र एक सर्वोच्च क्रिया है। इसके आगे कुछ नही।

अब क्रिया को समझने हेतु मेरे ब्लाग पर लेख देखें।

सोअहम : एक अजपा जप होता है। जब आप सांस लेते हैं तो आपकी सांस के साथ हं ध्वनि और छोडते समय स: निकलता है। सांस लेने और छोडने की प्रक्रिया में हं स: निरंतर निकलता है अत: सांस ग्रन्थी को हंस: प्रदेश कहते है। जब वाल्मीकि की भांति सघन मंत्र जप साधना होने लगती है तो यह क्रम उल्टा हो जाता है। यह कुंडलनी जागरण की पहिचान है। इसीलिये संत पलटूदास का नाम कुछ और था। पर इनकी दशा देखकर इनके गुरु गोविंद साहब ने, इनमें 'पल पल पर अजपा जप में लग जाने की दृढ़ प्रवृत्ति पाकर इन्हें पलटू कहना आरंभ कर दिया। तब इनका नाम पलटू पड गया।
मतलब सांस के साथ निकलता है स: हं। अब इसकी संधि करें। तो यह हो जाती है सोअहम। इसी लिये इसे अजपा जप कहते हैं। पर मूर्ख नकली ज्ञानी सीधे सीधे इस शब्द का जाप आरम्भ कर देते हैं। जो कालांतर में भ्रम पैदा कर देता है। देखें मेरा लेख। मत करना शिवोहम का जाप”।

जगद्गुरू शंकराचार्य ने आत्म षटकम लिखा है। वह तब लिखा जब उन्हे अद्वैत का अनुभव हो चुका था साथ ही वह सनातन परम्परा में सन्यास दीक्षा ले चुके थे। सनातन में सन्यास दीक्षा सर्वोच्च आध्यात्मिक पद है। यह तब मिलता है जब मानव को शिवत्व प्राप्त हो। संसार से पूर्ण वैराग्य हो। गृहस्थ्य को सन्यासी नहीं बोल सकते। यध्यपि सन्यास मन की अवस्था है पर सनातन के वाहिक बंधन भी होते हैं।

दूसरे किसी भी ज्ञानी ने इन अनुभुतियों का अनुभव किया किंतु इनमें लिप्त होकर भगवान होने का ढिंढोरा नही पीटा। इसे मात्र लीला समझ कर छोड दिया। जिनको ओशो मानते थे, उन्होंने अपने को भगवान कभी नहीं बोला।

2. बुद्ध की बात की पर बुद्ध पाँच पंचशील शिक्षा नही मानी

पंचशील:
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलो का पालन करने की शिक्षा दी हैं।
अहिंसा : पालि में – पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी !
अर्थमैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
अस्तेय : पाली में – आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थमैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
अपरिग्रह : पाली में – कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थमैं व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
सत्य : पाली नें – मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थमैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
सभी नशा से विरत : पाली में – सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी।
अर्थमैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

चौथी बात की औरत से दूर रहो। पर इस पापी ने सेक्स की वकालत की यानी बुद्ध का भी अपमान किया। बकवास की बात है कि 10000 बुद्ध पैदा करेगे बुद्ध के विपरीत जाकर।

बुद्ध की शिक्षाओं का लिंक मेरे लेख में देखे। “सनातन और बुद्ध धर्म” ।

3 गीता के अनुसार पाप वह जो समाज के विरूद्ध कार्य है। खुला सेक्स भारत मे पाप। विदेशो में नही। इसकी भारत मे वकालत कर महापाप किया। गीता का भी अपमान किया।

4 गेरुआ वस्त्र सनातन में सिर्फ ब्रह्मचारी और सन्यासी पहन सकता है इन्होंने ग्रहस्थ्य को पहनाया। जो सनातन का अपमान है। समाज में भ्रम पैदा किया। चलो इसने नव - सन्यासी बोला पर इसके चेले सांसारिक होते हुये सन्यासी लिख रहे हैं। जो सनातन की अवहेलना और समाजिक पाप है।

5 बिना गुरु परम्परा के गुरु बने। दीक्षा दी। अनुभव हीन गुरूओं की फौज खडी कर दी। आये दिन इन गुरूओं के विरूद्ध अश्लीलता के किस्से सुनने को मिलते हैं।

6  भगवे वस्त्र में क्रिया की आड़ में यौनाचार की अनुमति और खुले सेक्स को बढावा।  

होता यह है कि जिसको अह्म ब्रम्हास्मि की अनुभुति होती है उसकी कुंडलनी जागृत हो चुकी होती है। अत: वह अपनी शक्ति से दूसरों की भी कुंडलनी जागृत कर सकता है। कुंडलनी जागरण के बाद मनुष्य के चित्त के संस्कार उदित होकर करोडों प्रकार के अनुभव देती है। जो वाहिक और आंतरिक दोनों हो सकते हैं। इसी श्रंखला में काम वासना के संस्कार भी उदित हो सकते हैं । प्राय: मनुष्य क्रिया के आवेग में होश तक खो बैठता है। जिसे यदि आम दुनिया वाले देखें तो मानसिक रोग, पागलपन का दौरा, या भूत प्रेत का चक्कर ही समझेगें। क्योकि यह अंदर की और अनुभव की बात होती है। इसी लिये जागृत कुंडलनीवाले एकांत साधना करते हैं क्योकि सामान्य प्राणी डर भी सकता है। अधिकतर स्थानों पर यौन क्रिया की अनुमति नहीं दी जाती है। इस क्रिया के होने के पहले साधक को होश में ले आते हैं। अथवा समर्थ गुरू इस प्रकार की क्रिया को रोक कर शिष्य को बाहर कर देते हैं। अथवा घर भेज देते हैं। 

यहां पर ध्यान दे इस आवेग की क्रियात्मक पूर्ति करने की छूट ओशो ने अपने आश्रमों में दे दी थी। अक्सर नये साधक को दूसरे की क्रिया देखकर प्रेरित क्रिया भी होने लगती है। जिस कारण इस क्रिया को किर्यांविन्वित करनेवालो की संख्या बढने लगी। फिर हुआ यह इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु कई लोग नकली क्रिया कर इन कार्यों में लिप्त होने लगे। साधना का मुख्य उद्देश्य सिर्फ काम वासना ही बन गया। जिस कारण चेलों की संख्या तेजी से बढने लगी।

मैंनें किसी किताब में पढा था कि किसी स्त्री ने बताया था कि उसने ओशो आश्रमों में 200 से अधिक पुरुषों से सम्बंध बनाये होंगे। उसे ठीक से कुछ याद नहीं” । अब आप इस बात का अर्थ समझायें।  

7 बिना अनुभव के सन्यासी बनाये और उनको भी ओशो लगाने की अनुमति दी।
कुल मिलाकर ओशो ने सनातन गीता और भारतीयता की धज्जियां उड़ा दी।

आप यह तर्क दे सक्ते हैं कि आप ओशो की बराबरी नहीं कर सकते तो मित्रों बस इतना ही कहना चाहूंगा कि शून्य आध्यात्मिक चेतना वाले अनुभवहीन लोगों अंधों में काना ही राजा होता है। जगत में ओशो के बाप पैदा हुये थे, अभी भी हैं और आगे भी पैदा होते रहेगें। 

रावण के मरने के समय पार्वती ने शिव से पूछा कि रावण से बडा आपका कोई भक्त नहीं है। फिर भी आपने रक्षा नहीं की। तब शिव ने बोला रावण ने धोखे से पर स्त्री हरण किया। यह तो पाप है ही। किंतु उसने सन्यासी का रूप धर कर यह पाप किया। जो अक्षम्य है। मतलब सारी दुनिया में सन्यासी की छवि खराब की। जो सनातन का घोर अपमान है। लगभग यही काम ओशो ने किया। अत: मैं सनातनपुत्र देवीदास विपुल ओशो को महापापी ही मानता हूं।

सत्य सनातन की जय हो।
जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल। 



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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1 comment:

  1. बहुत सुंदर जानकारी प्राप्त हुई, धन्यबाद🙏🇮🇳

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