Wednesday, October 3, 2018

किस देव की पूजा करें ?? कर्म क्रिया का मर्म



 किस देव की पूजा करें ??  कर्म क्रिया का मर्म 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


यह उनके लिये है। जिन्होने गुरू दीक्षा नहीं ली है। जिनके न कोई कुल देव हैं और न इष्ट। आप अपने नक्षत्र के अनुसार देव का चुनाव कर उस देव का मन्त्र जप या नाम जप कर सकते हैं।

पृथ्वी तत्व PRITHVI TATVA शिव जी SHIV JI
धनिष्ठ DHANISHTHA
रोहिणी ROHINI
ज्येष्ठ JYESHTHA
अनुराधा ANURADHA
श्रावण SHRAVAN 
अभिजीत ABHIJIT
उत्तराक्षदा UTTARASHADA

जल तत्व JAL TATVA : गणेश जी GANESH JI
पूर्वाक्षदा POORVASHADA
अशिलेशा AASHLESHA
मूल MOOLA
आद्रा AADRA
रेवती REWATI
उत्तर भाद्रपदा UTTARBHDRPADA
शतभीक्षा SHATBHISHA

अग्नि तत्व AGNI TATVA: MAA DURGA JI
भैरणी BHARINI
कृतिका KRITIKA 
पूष्य PUSHYA
माघ MAGHA
पूर्व फाल्गुनी POORVA FALGUNI
पूर्व भाद्रपदा POORVBHADRPADA
स्वाती SWATI

वायु तत्व VAYU TATVA: VISHNU JI.
विषाखा VISHAKHA
उत्तरा फाल्गुनी UTTRA FALGUNI
हस्त HASTA
चित्रा CHITRA 
पुनर्वसु अश्ववनि PUNRAVASU ASHVANI 
मृगशिरा MRIGSHIRA

अपने मन को इंद्रियों के माध्यम से व्यक्त करना है कर्म। इसमें हमारी बुद्धि भी सम्मिलित होती है।
अपने चित्त में संचित संस्कारो को क्रिया के माध्यम बिना बुद्धि का उपयोग किये स्वतः होने देना क्रिया।
कर्म हमारे चित्त में संस्कार संचित करता है।
क्रिया हमारे चित्त के संस्कार नष्ट करती है।
ध्यान देनेवाली बात है यदि क्रिया में बुद्धि या मन को लगाया तो यह कर्म बन जाती है।
अतः कर्म में लिपप्ता। 
क्रिया में नही।
कर्म हमे गिरा सकते है।
क्रिया हमे उठाने का प्रयास करती है।
कर्म सुप्त मनुष्य का कार्य है।
क्रिया जागृत मनुष्य को ही होती है।
एक बात समझो यदि क्रिया के प्रति झुकाव हुआ या मन मे यह भावना आई कि यह क्रिया हो तो वह कर्म बन जाती है। मतलब क्रिया द्वारा संस्कार नष्ट होने की जगह वह क्रिया का अकर्म फिर कर्म बन संस्कार संचित कर देता है।

मेरे एक मित्र है ग्रुप सदस्य है उनका आसान ऊपर उठ जाता था। वह डर कर मेरे पास आये अब ठीक है। उनकी शक्तिपात दीक्षा करवा दी अब मस्त है।
देख जाए तो यह एक सिद्धि है। अब मान लो यह साधन में हुई। पर तुमको अच्छा लगा तुमने फिर यह करने की इच्छा की तो फिर यह हो गया। अब होता क्या है इसी प्रकार अन्य सिद्धियां होती है जो संस्कार पैदा कर देती है और सिद्धिप्राप्त मनुष्य मुक्त नही हो पाता है क्योकि सिद्धि रूपी संस्कार गहरे रूप में संचित हो जाते है।

अतः मुक्ति हेतु उनको कोई योग्य शिष्य ढूढना पड़ता है जिसको सारी सिद्धि विद्या प्रदान के अपने संस्कार को नष्ट कर तब उनको मुक्ति मिले।
अतः मैं कहता हूँ मार्ग में सिद्धि इत्यादि स्वर्ण के टुकड़े है। अब बोझ तो बोझ चाहे पत्थर हो या हीरा। रास्ते मे चलने में रुकावट तो डालेगा ही।
अतः अपने संस्कारो को नष्ट होने दो स्वतः। उसमें दखल मत करो। स्वतः सिद्धियां आ सकती है आने दो कुछ अनुभव देकर चली जायेगी। जाने दो। उनके पीछे भागने से पतन होने की संभावना अधिक है उन्नति होने की कम।
जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

यही होता निष्काम कर्म। और यही पातञ्जलि के द्वेतीय सूत्र को समझाता है। कि वह कर्म जब निष्काम होगा तो वह कर्म होते हुए भी करता को संस्कार न देगा तो वह वृत्ति को नही बनेगा।
मतलब। चित्त में वृत्ति का निरोध। यानि वृत्ति नही आई।
क्योकि मनुष्य की बुद्धि मन के नीचे चली जाती है अतः राह कठिन प्रतीत होती है।
यही बात है कि मनुष्य आलस्य और निष्काम कर्म में भेद नही कर पाता। 
सभी इंद्रियां खुली है और कुछ करने का मन नही वह आलस्य।
जब हमारी इंद्रियां बन्द हो जाये। मन मे तरंग न हो तब यदि कुछ न करने की इच्छा वैराग्य माना जा सकता है।
अज्ञानी के लिए फल ही कर्म हेतु प्रेरित करता है।
ज्ञानी सिर्फ प्रभु आदेश और प्रकृति का नियम समझ कर बिना फल की सोंचे पूरे उत्साह से कर्म करता है।

भगवान श्री कृष्ण ने इसीलिए योग की पहिचान दी है। कर्मेशु कौशलम। मतलब जो अपने निर्धारित कर्म को बिना फल की सोचे पूरे उत्साह से करे। वो योगी के लक्षण है।
वेदान्त महावाक्य : आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है।
पातञ्जलि : योगी के आंतरिक लक्षण : चित्त में वृती का निरोध योग है 
श्री कृष्ण : जिसमे समत्व है, जो स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ हो। यह योगी के लक्षण है।
जो अपने कार्य को कुशलता से करता हो। यह भी लक्षण है।
तुलसीदास : जिसमे संतोष हो यह योगी के लक्षण है।
जब हम द्वैत से अद्वैत का अनुभव करते है। तब योग घटित होने को योग कहते है। स्नातनपुत्र विपुल
जब हम अहम ब्रम्हास्मि का अनुभव कर लेते है। तब योग घटित होता है।

सर कलियुग है सोंच सही हो ही नही सकती। पर मन्त्रो में वह शक्ति है कि रावण को राम बना दे। कंस को कृष्ण बना दे।
अतः जो इष्ट देव अच्छा लगे। मन्त्र नाम अच्छा लगे जुट जाओ। 
हा पहले mnstm कर लो। यह बेहद सहायक होता है।
वृत्तियों का दमन बेहद कठिन कार्य होता है। इसको गुरू प्रददत साधन और बाकी समय मन्त्र जप से किया जा सकता है। प्रणायाम भी इसमें सहायक होता है। और कोई मार्ग नही।
जी करे। ब्लाग के लेख पढ़ लो। अधिकतर समाधान मिल जायेंगे।
इंद्रियों के बन्द होने का अर्थ है। मन से अलग होना। यानि सिर्फ कार्य करना। उसको बुद्धि में मन मे संचित न होने देना।
जैसे किसी ने बातचीत में कुछ किस्सा बोला। यदि वह मुझसे सम्बंधित नही तो उस चितन क्यो करे।
यह कान से सुना। दिमाग मे नही गया।
किसी की सहायता को कर देना स्वतः। मन मे कुछ सोंच न आने देना।
मतलब इंद्रियों अनावश्यक सम्बन्ध मन से बन्द हो जाना।
जैसे भोजन मिला। जो मिला खाया। यह क्या सोंचे अच्छा बुरा।
भाई गणित है। जब दिमाग खाली ही नही रहेगा तो विचार कैसे आ पायेगे।
मन्त्र जप विचारों को आने रोक देता है। 
बैंक बैलेंस की तरह शक्ति को संचित करता जाता है।
आवश्यकता पड़ने पर सहायक हो जाता है। हमें मालूम भी नही पड़ता।
अंत मे स्वतः विलीन होकर ध्यान में सहायक हो जाता है।
कारण यह है समय के साथ सारे मन्त्र नाम जप सब अनेको बार सिद्ध हो चुके है।


सिद्ध का अर्थ विज्ञान वाला है। जैसे पढ़ते थे प्रमेय सिद्ध हुई।
बिल्कुल वैसे ही इस मन्त्र ने अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध कर दिया।
बस अंतर यह विज्ञान वाला सार्वजनिक
यह वाला व्यक्तिगत।
इसी को दूर करना है कर्म हमारा स्वभाव हो हमारा मार्ग दर्शक नही।
यही खूबी है। मन्त्र जप आवश्यकता होने पर खुद चालू होगा। खुद बन्द हो जाएगा।
पर यह एक अवस्था के बाद ही होता है।
शक्तिपात दीक्षा के बाद यह अस्त्र अपना जौहर  दिखा कर धीरे धीरे नष्ट हो जायेगे। बस इतना ध्यान रखो कि साधन की क्रिया में कर्म कर लो यदि आवेग हो उसको रोको मत। फिर पुनः साधन करो।
कोई भी संस्कार जिस भाव के कारण पैदा होता है। वह उसी भाव की क्रिया कर के ही बाहर निकलता है।
दीक्षा के बाद इनमे तेजी आ जाती है क्योकि एक तो जगत के क्रम और दूसरे क्रिया के संस्काररुपी कर्म। दोनो एक साथ तो अधिक महसूस होते है।
तुम बहुत सुधर गए हो। एक अच्छे और सच्चे साधक बन रहे हो।

समस्त मानव जाति का। अब सन्त नापने के स्केल तो है नही। अतः सन्तो की भी श्रेणी बनाई जा सकती। किंतु यह केवल सनातन और भारतीय सन्त ही समझते है।
ईसाई या मुस्लिम चूंकि संकुचन का ही पालन करते है। अतः वह वास्तविक सन्त नही धर्म प्रचारक ही होते है।
यह धारणा के कारण ही होता है। निराकार को कुछ नही। पर साकार को देव। यह धारणा के कारण।
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी तीन मूरत वैसी।।
अब यह वह सन्त जाने। मैं क्या बताऊँ। अब बोलो कृष्ण ने पहले mmstm क्यो नही बनवाई। 


अब अमर महर्षि सप्त ऋषियों के सम्पर्क में थे। क्यो थे मैं कैसे बता सकता हूँ।
ईश्वर अलग अलग कार्य हेतु अलग अलग पर विलग लोगो का चयन करता है। अब उसकी मर्जी। जो है तो है।
वे फोटो नही खिंचवाते थे। इक्का दुक्का उनके आश्रम में होंगी।
क्योकि वे आत्मज्ञानी थे। वे जानते थे ये रूप उनका नही ये तो मिथ्या आभास है। मुझे भी फोटो खिंचवाने में आनन्द नही आता। पर मित्रो की प्रसन्नता हेतु खिंचवा लेता हूँ।
वही कुछ लोग रोज फेस बुक पर नेट पर अलग अलग पोज में ज्ञान के उपदेश डालते है।
अब आप सोंचे वह किंतने बड़े ज्ञानी पर किताबी।
यदि हमारे अंदर अपने सम्मान के प्रचार की अपनी फोटो डालने की पृवृती है तो हम निवृत्त कैसे हो सकते है।
हमें सब व्यर्थ कर्मो से दूरी बनाने का प्रयास करना चाहिए।
महाराज जी कहते है। जो खुद बन्धन में बंधा हो वह तुमको कैसे मुक्त कर सकता है।



एक सरदर्द देखे।
देखिये आप देवी भक्त है। आपको परीक्षा लेने है तो माता जी से पूछे आपको जवाब मिल जाएगा।
बस नमस्कार। कृपया समय की महत्त्वता समझे।
मुझे नौकरी के साथ सैकड़ो को डील करना पड़ता है।
मैं न गुरु न सन्यासी और न इसकी चाह।
आप को कुछ पूछना नही ग्रुप में आना नही तो क्यो मुझे परेशान कर रही है। मेरे पास समय बेहद सीमित रहता है।
क्षमा करें।

आप क्या चाहती है। लिखे क्या प्रश्न है।
माता जी आप परीक्षा न ले। जो आप कर रही है करती रहे। माता जी सब खुद दे देती है।
मैं जो कर रहा हूँ। सिर्फ मजबूरी है। मेरी बिल्कुल इच्छा नही होती। 
कई बार ग्रुप भी छोड़ा है।
बस कर रहा हूँ कैसे भी।
भाई जी हम भक्ति मार्ग के अदना से प्राणी। जो सिर्फ मन्त्र जप गुरू प्रददत साधन और प्रभु समर्पण जानते है। हम न सिद्धि के न जगत वैभव के अभिलाषी है। हम सिर्फ और सिर्फ माँ के चरणों मे मिटने में धन्य हो जायेगे। जो माँ की इच्छा होगी वह सर्वोपरी।
आप गलत ग्रुप में फंस गए है। लगता है। यह पागल और पा  गल लोगो का ग्रुप है। यहाँ सभी पा  गल बनना चाहते है।

शायद इक्का दुक्का है जो गुरू पद के लिए लालायित शिष्य ढूढते है। पर वह भी इस ग्रुप में शांत है।
मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नही की हमारी कल्पना से साकार की उत्तपत्ति होती है। आप किसी भी मन्त्र को बिना साकार मूर्ति के निराकार रूप में करे। वह मन्त्र देव प्रकट हो सकता है।
यह बात मैं पढ़कर या सुनकर नही कहता हूँ। थ मेरा अनुभव है। मैंने माँ दुर्गा के चित्र की छवि बनाकर उनकी ही फोटो के सामने वर्षो नवार्ण मन्त्र जाप किया। मेरे साथ जो हुआ वह विज्ञान की सीमाओं से परे था।
एक गणेश जी मॉ सरस्वती माँ लक्ष्मी, माहामाया का अजीब घूमता हुआ रूप जो कभी सोंचा न था। जो 25 साल बाद में समझ मे आया कि यह माहामाया का रूप था और माँ काली खड़ी हो गई।
इन लोगो की मैंने न कल्पना की न सोंचा। मेरे डर के मारे पूछने पर माँ काली बोली मूरख यह मेरा ही मन्त्र है। मैंने दुबारा फिर कहा मैं माँ दुर्गा का मन्त्र करता हूँ। मुझे डांटकर फिर बोली गधे यह मेरा ही मन्त्र है। तूने मुझे ही बुलाया। और क्या लिखूँ मेरी स्वकथा में आगे की कहानी पूरी लिखी है।
अतः मैं सहमत नही की साकार दर्शन कल्पना रूप है। और जो हम सोंचते है वो ही होते है। यह सही नही।
मेरा अनुभव है जो मन्त्र आप करते है। आप भले ही उस इष्ट की कल्पना न करे। वह मन्त्र अपनी प्रवृति के अनुसार साकार रूप में जीवित हो जाता है।

सत्य है। बहस सिर्फ टाइम पास और अपनी विद्वता दिखाने का द्योतक होता है।
यदि आकृति सोंच ली तो निराकर कैसा।
सभी ऊर्जा निराकार ही है। यह सत्य है पर मानव ने उस ऊर्जा को अपनी आराधनाओं के बल पर मन्त्रो द्वारा साकार रूप में लाकर सिद्ध कर दिया है।
अतः हर मन्त्र की आकृति निर्धारित है। आप चाहे उस रूप को सोंचे या न सोंचे। वो ही रूप स्वतः प्रकट हो जाता है।
कल मैंने एक नया अनुभव और व्याख्या प्राप्त की। कुछ अंश लिखता हूँ।

देखो सम्पूर्ण जगत का अंत एक ऊर्जा ही है। ऊर्जा से निर्माण हो रहा है। सबसे अंत मे ऊर्जा में ही विलीन हो जाना है।
ऊर्जा ही शक्ति देती है। अब प्रश्न है शिव क्या दुर्गा क्या।
जैसा कि मुझे बताया गया। किसी भी मानव में जब शक्ति रुपी आत्मा निकल जाती है तो वह शव कहलाता है। मतलब शक्ति ही सर्व व्यापी और पालनहार है।
अब जब उस शव को शक्ति मिली तो वह मानव हुआ।
उस निराकार जगत को संचालित करने वाली शक्ति को निराकार दुर्गा ही कहा जा सकता है। इसी शक्ति ने सारे रूप आवश्यकतानुसार बनाये। मतलब शव से शिव पैदा किया। रतात हम भी शिव स्वरूप हो सकते है पर शिव नही। क्योकि वो शक्ति हमारी अधीनता स्वीकार नही करती।


फिर प्रश्न किया कि सुप्त ऊर्जा निराकर कृष्ण क्यो। तो वो इसलिए क्योकि कृष्ण यानि जिसका साकार विष्णु जो जगत का पालक अतः यही रूप इस स्थूल जगत में सशरीर आ सकता है।
मतलब
निराकार सुप्त ऊर्जा निराकार कृष्ण।
जीवित ऊर्जा निराकार दुर्गा।।
मतलब आदि पुरुष कृष्ण हैं विष्णु नही। 
जिस ऋषि ने जिस देव के मन्त्र आराधना द्वारा ज्ञान प्राप्त किया। वह निराकार ऊर्जा उसी रूप में प्रकट हो गई। अतः वस्तु एक नाम अनेक। यह ही रहस्य जानना और समझना ब्रह्म ज्ञान की श्रेणी में आता है। जिसमे ब्रह्म की लीला का ज्ञान आभास हो।
यह केवल दुर्गा के निराकर रूप से ही मालूम पड़ सकता है।
वही सुप्त ऊर्जा जो निराकार कृष्ण हैं और जागृत ऊर्जा जो निराकार दुर्गा है उनके बीच एक पर्दा रहता है जिसे महामाया कहा जाता है जो सृष्टि के निर्मान में उतपन्न सब जीवो को मोहित करके रखती है।
जय महाकाली। जय गुरुदेव।


सर कोई प्रैक्टिस नही कोई कोशिश नही। सिर्फ  कुछ बातो पर अमल किया जाए तो स्वतः होता है।
1 सघन मन्त्र जप। यदि गुरु है तो गुरु प्रददत साधन। 
2 कोई लालसा जैसे सिद्धि इत्यादि की और सबसे बड़ा विध्न है गुरु बनने की चाह। यह तो पतन का कारण बन जाती है।
3 हर कार्य को ईश शक्ति द्वारा कृपा से ही पूरा होना मानना
4 किसी मान सम्मान से प्रभावित न हो। यह ईश का सम्मान। ईश का ही सब कुछ।


मुझे यह नही लगा।
शिव इत्यादि बाद में आये। विष्णु तो और बाद में आये। मजे की बात इसी निराकार दुर्गा रूप ने ही विभिन्न कार्य सपंन्न करने हेतु खुद ही रूप बना लिए और फिर उनको उन कामो में लगा दिया।
मेरे हिसाब से
पहले ब्रह्मा सिरष्टि निर्माण हेतु
फिर रुद्र संहार हेतु
फिर विष्णु पालन हेतु
साथ ही शिव ज्ञान और इनको समझाने हेतु।
इन्ही के साथ इनकी शक्तियां
फिर गायत्री रूप ज्ञान हेतु। साकार रूप।
फिर बाद में तमाम देवता।
सर मैं आपको गलत नही कह रहा हूँ। बस अपना अनुभव लिखा। पढा बहुत कम।
मतलब
निराकार कृष्ण सुप्त ऊर्जा
महामाया का पर्दा
इसका कम्पन 
जागृत ऊर्जा बनी निराकार दुर्गा
ब्रह्म बने 
रुद्र बने
विष्णु बने
शिव बने
गायत्री निर्माण
वेद ज्ञान
मन्त्र बने आराधना बनी
विभिन शक्तियां अलग अलग दिखी
देव बने
साकार हुए ये सब
मानव की कहानी आरम्भ।


भाई अग्नि यानी ऊर्जा। इसी से सब कुछ बना है जल थल वायु।
मतलब मैं सही।
मित्रो जिनके को इष्ट न हो उनके लिए बेहद फायदेमंद है। ऐसे नए साधकों हेतु यह बेहतर होगा अपने नक्षत्र के अनुसार देव चुन कर मन्त्र जप करे।
जिनके पहले से मन्त्र है गुरु मन्त्र है तो वे अपने नक्षत्र के अनुसार देवो की कुछ आराधना माला इत्यादि कर ले।
किसी की भी आराधना व्यर्थ नही जाती है।


यह इसलिए क्योकि 12 दिन तक बच्चा स्थिर नही कहा जा सकता। मतलब उसकी पूरी देखरेख चाहिए। पूजा पाठ के कारण उसको कुछ गलत न हो जाये।
दूसरे सौर की माता बच्चा अशुद्ध माने जाते है।
Medically बहुत सफाई चाहिए।
यह कारण था। पर मन्त्र जो आप कभी भी करे। बस अनुष्ठानिक जप न करे।



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

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