Tuesday, November 13, 2018

मन, बुद्धि और आत्मा



मन, बुद्धि और आत्मा 
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 22 में मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओं का वर्णन हुआ है।

वैशम्पायन जी कहते हैं: सुभगे! इसी विषय में इस पुरातन इतिहास का भी उदाहरण दिया जाता है। सात होताओं के यज्ञ का जैसा विधान है, उसे सुनो। नासिका, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और पाँचवाँ कान, मन और बुद्धि- ये सात होता अलग-अलग रहते हैं। यद्यपि ये सभी सूक्ष्म  शरीर में ही निवास करते हैं तो भी एक दूसरे को नहीं देखते हैं। शोभने! इन सात होताओं को तुम स्वभाव से ही पहचानों।

ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं (इसीलिये कहा गया है कि ये एक दूसरे को नहीं देखते हैं)। जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु नासिका उसका अनुभव करती है। नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है। नासिका, जीभ, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रूप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु नेत्र इनका अनुभव करते हैं। नासिका, जीभ, आँख, कान, बुद्धि और मन- ये स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते, किंतु त्वचा को उसका ज्ञान होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, मन और बुद्धि- इन्हें शब्द का ज्ञान नहीं होता है, किंतु कान को होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान और बुद्धि- ये संशय (संकल्प-विकल्प) नहीं कर सकते। यह काम मन का है। इसी प्रकार नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान, और मन- वे किसी बात का निश्चय नहीं कर सकते। निश्चयात्मक ज्ञान तो केवल बुद्धि को होता है।

मतलब हम जो कुछ भी कार्य किसी इंद्री विशेष से करते हैं वह सिर्फ वो ही इंद्री कर सकती है, दूसरी नहीं परन्तु उसके परिणाम का बोध सिर्फ बुद्धि को ही होता है। अब आप समझ गये होंगे कि कहा जाता है “विद्वान और मूर्ख दोनों दिखने में एक होते हैं” क्यों?? क्योकिं मूर्ख कुछ जानता नहीं अत: क्या बोले। वहीं विद्वान सोंचता है कि एक होता का अनुभव या ज्ञान दूसरे होता के द्वारा कैसे बताया जा सकता है। अत: चुप। जैसे जिसने लड्डू नहीं खाया वह स्वाद कैसे बतायेगा। जिसने खा लिया वो भी शब्दों में कैसे वर्णन कर सकता है। ब्रह्मज्ञान कुछ ऐसे ही है। अपना अनुभव मुख से शब्दों में कैसे बता पाओगे।
इसीलिये ब्रह्म वर्णन के बाद बोला जाता है नेति नेति। मतलब न इति जो समाप्त नहीं।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ (6/35)
हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं के त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास के द्वारा वश में किया जा सकता है।

भगवान ने हमें समस्त भौतिक कर्मों को करने के लिये तीन वस्तु दी हैं, (१) बुद्धि, (२) मन और (३) इन्द्रियों का समूह यह शरीर। बुद्धि के द्वारा हमें जानना होता है, मन के द्वारा हमें मानना होता है और इन्द्रियों के द्वारा हमें करना होता है।

इसके लिये पहले इच्छा और कामना का भेद समझना होगा, कामनाओं का जन्म बुद्धि के द्वारा होता है, और इच्छाओं का जन्म मन में होता है। बुद्धि का वास स्थान मष्तिष्क होता है और मन का वास स्थान हृदय होता है, बुद्धि विषयों की ओर आकर्षित होकर कामनाओं को उत्पन्न करती हैं और इच्छायें प्रारब्ध के कारण मन में उत्पन्न होती हैं। कामना जीवन में कभी पूर्ण नहीं होती है, इच्छा हमेशा पूर्ण होती हैं।

बुद्धि के अन्दर विवेक होता है, यह विवेक केवल मनुष्यों में ही होता है, अन्य किसी योनि में नहीं होता है। यह विवेक हंस के समान होता है। इस विवेक रूपी हंस के द्वारा "जल मिश्रित दूध" के समान "शरीर मिश्रित आत्मा" में से जल रूपी शरीर और दूध रूपी आत्मा का अलग-अलग अनुभव किया जाता है, जो जीव आत्मा और शरीर का अलग-अलग अनुभव कर लेता है तो वह जीव केवल दूध रूपी आत्मा का ही रस पान करके तृप्त हो जाता है और शरीर रूपी जल की आसक्ति का त्याग करके वह निरन्तर आत्मा में ही स्थित होकर परम आनन्द का अनुभव करता है।

मनुष्य शरीर रथ के समान है। आपने देखा होगा कृष्ण अर्जुन का रथ हांकते हुये। इस रथ में घोडे इन्द्रियाँ रूप हैं, लगाम रूपी मन है, बुद्धि सारथी रूपी है और तुम अर्जुन हो। परंतु जब तुम बुद्धि से जान लेते हो अरे सारथी तो ब्रह्म है और तब तुम उसको समर्पित हो जाते हो तब तुम्हारा रथ सही दिशा में चलकर जीवन रूपी कुरूक्षेत्र में विजयी हो जाता है। जब मानव जीव कर्ता - भाव में अहंकार से ग्रसित रहता है। अपना रथ खुद चला रहा हूं यह सोंचता है माया मोह में फंसा रहता है। आत्मा के द्रृष्टा-भाव मुक्त रहता है। तब तक जीव का विवेक सुप्त अवस्था में रहता है तब तक जीव स्वयं को कर्ता समझकर शरीर रूपी रथ के इन्द्रियों रूपी घोड़ो को मन रूपी लगाम से बुद्धि रूपी सारथी के द्वारा चलाता रहता है, तो जीव कर्म के बंधन में फंसकर कर्म के अनुसार सुख-दुख भोगता रहता है।

बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

जब जीव का विवेक भगवान की कृपा से गुरू की कृपा से सत्संग के द्वारा जाग्रत होता है तब जीव मन रुपी लगाम को बुद्धि रुपी सारथी सहित आत्मा को सोंप देता है तब जीव अकर्ता भाव में द्रृष्टा-भाव में स्थित होकर मुक्त हो जाता है।

जब तक जीव के शरीर रूपी रथ का बुद्धि रूपी सारथी मन रुपी लगाम को खींचकर नही रखता है तो इन्द्रियाँ रुपी घोंडे अनियन्त्रित रूप से विषयों की ओर आकर्षित होकर शरीर रुपी इस रथ को दौड़ाते ही रहते हैं, और अधिक दौड़ने के कारण शरीर रुपी रथ शीघ्र थककर चलने की स्थिति में नही रह जाता है फिर एक दिन काल के रूप में एक हवा का झोंका आता है और जीव को पुराने रथ से उड़ाकर नये रथ पर ले जाता है।

आत्मा ही जीव का परम मित्र है, वह जीव को कभी भी अकेला नहीं छोड़ता है, वही जीव का वास्तविक हितैषी है, इसलिये वह भी जीव के साथ नये रथ पर चला जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक जीव स्वभाव द्वारा बुद्धि सहित मन को आत्मा को नहीं सोंप देता है।

मन चंचल कभी नहीं होता है, बुद्धि चंचल होती है, बुद्धि की चंचलता के कारण ही मन चंचल प्रतीत होता है। क्योंकि मन बुद्धि के वश में होता है बुद्धि मन को अपने अनुसार चलाती है तो बुद्धि की आज्ञा मान कर मन उधर की ओर चल देता है, हम समझतें हैं मन चंचल है।

मनुष्य को अपने मन रूपी दूध का बुद्धि की मथानी बनाकर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि असुरों और धैर्य, क्षमा, सरलता, संकल्प, सत्य आदि देवताओं द्वारा अहंकार की डोरी से मथकर भाव रूपी मक्खन का भोग प्रभु को लगाना चाहिये। यही माखन कृष्णा को अत्यन्त पसन्द है। जो छाछ बचेगी वह कान्हा आपसे स्वयं माँग कर खुद ही पी लेगा, मन रूपी दूध का कोई भी अंश नहीं शेष नहीं रहता है। यही मनुष्य जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

मन आत्मा का साधन है। इसके द्वारा ही आत्मा की इच्छित क्रियाएं होती है। आत्मा का मन से, मन का इन्द्रियो से ओर इन्द्रियो का विषयो से (बाहरी संसार से) सम्पर्क होने पर ही आत्मा को ज्ञान तथा उसकी इच्छित क्रियाएं होती है।ज्ञान आत्मा का गुण है, मन का नही।

यस्मान् न ऋते किच्चन कर्म क्रियते। (यजुर्वेद )
अर्थात् — यह मन ऐसा है जिसके बिना कोई भी काम नही होता। यही कारण है कि इसके  सम्पर्क न होने पर हम देखते हुए भी नही देखते तथा सुनते हुए भी नही सुनते। यह आत्मा के पास ह्रदय मे रहता है। वेद मे इसे (ह्रदय मे निवास वाला ) कहा गया है। यह जड़ पदार्थ है। इसीलिए आत्मा से पृथक होकर कोई भी क्रिया नही कर सकता। यह आत्मा के साथ जन्म जन्मानतर मे रहता है।

मृत्यु पर भी आत्मा के साथ दूसरे शरीर मे जाता है। इसके पश्चात् आत्मा को नया मन मिलता है। इसे अमृत इसलिए कहा गया है कि यह शरीर के नाश होने पर नष्ट नही होता। क्योकि यह  एक जड पदार्थ है। इसलिये इस  पर भोजन का प्रभाव पडता है। जैसा खावे अन वैसा होवे मन। यह  संस्कारो का कोष है। सभी संस्कार इस  पर पड़ते है तथा वही जमा होते है। जो संस्कार प्रबल होते है वे ही उभर कर सामने आते है। जो दुर्बल होते है वे दबे पड़े रहते है। जैसे किसी गढ्ढे मे बहुत प्रकार के अनाज डाले जाये पहले गेंहू, फिर चने, फिर चावल उसके उपर जौ, उसके उपर मूंग, उड़द आदि। देखने वाले को वही दिखाई देगा जो सबसे उपर होगा, नीचे का कुछ भी दिखाई नही देगा ।

वैधक शास्त्र सुश्रुत के अनुसार –इसमें  मे सात्विक गुण प्रधान होने पर मनुष्य की स्थिति -अक्रूरता, अनादि वस्तु का ठीक ठीक वितरण,सुख, दु:ख मे एक सम,पवित्रा, सत्य, न्याय प्रयता शान्त प्राकृति ज्ञान ओर धैर्य। 

मन रजोगुण प्रधान होने पर :-1. घूमने का स्वभाव 2.  अधीरता  3.  अभिमान 4. असत्य भाषण 5.  क्रूरता 6. ईष्या 7. द्वेष 8. दम्भ 9.  क्रोध  10. विषय सम्बन्धी इच्छा।

तमस मन के गुण :- 1. बुध्दि का उपयोग न करना 2.  आलस्य- काम करने की इच्छा न होना 3.  प्रमाद — अधिक नींद लेने की इच्छा 4.  ज्ञान न होना 5. दुष्ट बुद्धि रहना।

महाऋषि मनु लिखते है: यदि कोई मनुष्य किसी दुष्कर्म से छुटकारा चाहता है तो मन से उस दुष्कर्म को खूब भर्त्सना (सराहना का उलट) किया करे। जैसे-जैसे वह दुष्कर्म की निन्दा करेगा वैसे वैसे उस दुष्कर्म से छूटता चला जायेगा।

हमारे शरीर में मन के कार्य करने की गति बहुत ही तेज है, यह एक सेकन्ड में हजारो मील दूर पुहंच जाता है। जैसे कि किसी का बेटा या बेटी अथवा भाई बंदु प्रदेश में रहते है तो उस के बारे में सोचने लग जायेगा। हम को वहा जाने में दो दिन लग सकते है, लेकिन मन उस के बारे झट पट सोचने लग जाता है। यह एक मिन्ट भी टिक कर नहीं बैठता यह कुछ न कुछ कार्य करता रहता है। मन हम को बाहरी दुनिया में लगा कर रखता है, यह कार्य करता रहता है क्या आप सब को पता है की हमारा जन्म क्यों हुआ है?

हमारा जन्म भक्ति करने और भगवान की प्राप्ति करने की लिए हुआ है। जो हमारा मन है यह हमको भक्ति करने नहीं देता, यह हमको जो संसार की बाहरी वस्तुए दिखाई देती है उसमे लगा कर रखता है , लेकिन यह सब नश्वर है एक दिन सब नष्ट हो जाना है यह सब झूठ है इस झूठ से ऊपर उठो, यह सब मोह माया का जंजाल है, इसमें हम सब फसते चले जाते है। मन के कारण हम सब परेशान रहते है।

जब नवजात बच्चा होता है, कभी हसता है कभी रोता है। सवा महीने के बच्चे को कहते है की इसे पिछले जन्म का सब याद है जैसे जैसे वह बड़ा होता है हम उसे नए नए खिलोने बाजार से लेकर देते हैं। जिसके कारण वह पिछले जन्मो का सब भूलता जाता है। इस संसार के जाल में फसना शुरू हो जाता है, वस्तुओ में लगाव होना शुरू हो जाता है।

जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है , लालच होना शुरू होता है, जब हम बच्चे को कोई खिलौना देते है और वह उस खिलोने से खेलता है तो बहुत खुश होता है, अगर वो टूट जाता है तो वो रोता है। वह जिद्द करता है फिर हम उसे नया खिलौना लेकर देते है, तो वह खुश हो जाता है।

इसी प्रकार बड़ो के साथ होता है, यह काल का लोक है यहां का राजा काल भगवान है जिसे ब्रह्मा कहते है, इसलिए जो हमारा मन है वह ब्रह्मा का है। क्यों?? क्योकिं ब्रह्मा निर्माण करता है। यही काम हम भी करते हैं। चाहे वह विनाश के लिये पर हम करते हैं।

स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज कहते हैं “यह जगत हमारे मन का विस्तार है”। यह जो मन है हमारी इन्द्रियों को आपने अधीन बना कर रखता है और उनसे वही काम करवाता है जो चाहता।  अब मन को बुद्धि के अधीन करना है, हमारे ऊपर मन भारी है। कई लोग कहावत कहते है, कोई आदमी शराब पीता हो या कोई नशा करता हो कहते है इसकी बुद्धि भृष्ट हो गयी है। वो आदमी मन के अधीन होता है।

हमें बुद्धि के अधीन मन को करना है। वह तभी होगा जब हम कर्म इन्द्रियां का मुख अंदर की तरफ मोड़ेंगे, हम आंतरिक होंगे। हमारे दो मन होते है, एक बाहरी मन और एक आंतरिक मन। हमें बाहरी मन को छोड़ना है और आंतरिक मन को पकड़ना है। हमने अंतर मन की आवाज़ को सुनना है। बाहरी वस्तुओं में लगाव स्वत: कम हो जायेगा।

मन को मारने का तरीका यह है, छोटी छोटी बातो से अपने मन को अजमाना शुरू करो। जैसे स्वामी विवेकानंद को केला खाने का मन हुआ। तब उन्होने केले खरीदे। गूदा फेंककर छिलका खाने लगे और मन को डांटते हुये बोलते जाते “रे खा केला”।

1) जैसे जैसे बुद्धि ऊंची उठती है वैसे वैसे हम अपने आप को हल्का महसूस करते हैं। जो हमारे अंदर विचार आते हैं वह हमारे ऊपर मन के भारी होने के कारण आते हैं।
2) मन को कुछ भी सोचने ना दो, जिस भी इष्ट देव को आप मानते हैं उस का मंत्र जाप नाम जप करो। ऐसा करने से आप मन के ऊपर दो तरफ से वार कर रहे हो, एक तो अन्दर से जाप कर के, दूसरा मन कि अन्दर से न चलने दी।  

बुद्धि हमको उलझाती नहीं है वह हमसे ठीक कार्य ही करवाती है। बुद्धि द्वारा किये गए सभी कार्य ठीक होते हैं। तभी तो कहते हैं सोच समझ कर कार्य करो। मन को हराने का एक और तरीका है, आपके पास करने के लिए बहुत सारे काम हैं, और हम परेशान हैं, कौन
सा काम पहले करें, सबसे पहले सारे कामो की एक लिस्ट बना लें, फिर बुद्धि द्वारा आराम से सोचें की कौन सा काम पहले करना है और कौन सा बाद में, अगर आप बुद्धि से काम करेंगे तो 10 में से 5 काम चुटकी बजा कर ही कर लेंगे। हो सकता है की आप सारे के सारे काम ही कर लें। यह सारे काम बुद्धि द्वारा ही होंगे, आप कभी परेशान नहीं होंगे, ऐसा करने बुद्धि ऊंची उठती है और मन हारता है।

मन ब्रह्मा का है, बुद्धि पूर्ण परमात्मा की है, हम ने पूर्ण परमात्मा के पास जाना है। मन को हराना है, ऐसा करो आप जीत जाओगे और आप ऊंचा उठ जाओगे, मन पर आपकी विजय हो जाएगी, आप सभी सुखी रहोगे, हमे सादा और सात्विक भोजन खाना चाहिए, मीट अंडा शराब आदि नशीले पदार्थ नहीं खाने चाहिए, यह चीजे हमारी बुद्धि को ऊंचा नहीं उठने देतीं।

बुद्धि को ऊंचा उठाने के लिए सबसे पहले अपने विचारो को दृढ बनाना चाहिए, किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले उसकी रूप रेखा और योजना अच्छी तरह से बना लेनी चाहिए, उसके बाद जब हम उस कार्य को प्रारंभ करें तो हर हालत में उस कार्य को पूरा करने की इच्छा मन में लेकर ही कार्य प्रारंभ करें, और जब तक वह कार्य पूरा ना हो जाये तब तक हमारे मन में किसी प्रकार की भी दुर्बलता या कमजोरी ना आवे, इसी स्थिति में ही हम अपने जीवन में सफलता हासिल कर सकते है, कार्य अच्छा और ऊंचे विचारो वाला होना चाहिए, जिस से आप का तो फायदा होगा ही दूसरों को भी फायदा मिलेगा।

जिसको हम मन समझते हैं वह सत्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी मन आत्मा नहीं है। यह मन जिसका प्रतिबिम्ब बनकर सामने आया है वह भीतर छिपे हुए मूल मन का बिम्ब-रूप है। वही आत्मा है। आनन्द-विज्ञान का वह सहचारी है, अत: व्यवहार में जीवन के तीन स्तर ही कार्यरत दिखाई देते हैं।

शरीर और बुद्धि का कार्यक्षेत्र बहुत सीमित है। शरीर यूं तो बुद्धि के निर्देश पर ही कार्य करता है, फिर भी मन अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से, इन्द्रियों के माध्यम से करता रहता है। शरीर का कार्य श्रम की श्रेणी में आता है। शरीर को यदि अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जाए तो उसका प्रभाव भी सामने वाले के शरीर तक देखा जा सकता है।

बुद्धि का प्रभाव भी बुद्धि तक ही होता है। बुद्धि का कार्य तर्क पैदा करना है। व्यक्ति एक-दूसरे की बात को तर्क में डालता है, अपने तर्क को सही साबित करने के लिए हठ करता है अथवा अन्य तर्क प्रस्तुत करता है। शुद्ध बुद्धि सामने वाले व्यक्ति के मन को प्रभावित नहीं कर सकती। केवल श्रम की श्रेष्ठता बढा सकती है। उसे कौशल/शिल्प का रूप दे सकती है।

मन का प्रभाव व्यापक होता है। उसको किसी भाषा की आवश्यकता नहीं है। उसका कार्य भाव प्रधान है, अत: मन के कार्यो में भावों की अभिव्यक्ति जुडी रहती है। ये भाव ही श्रम और शिल्प को कला का रूप देते हैं। कला मन के भावों की अभिव्यक्ति का ही दूसरा नाम है। चाहे गीत, संगीत, नृत्य, चित्रकारी, कोई भी भाषा दी जाए, यदि उसमें भाव जुडे हैं तो उसका प्रभाव मन पर होगा ही, यह निश्चित है।

आपकी अभिव्यक्ति के साथ यदि मन का जुडाव नहीं है तो मान कर चलिए कि उसका प्रभाव सामने वाले व्यक्ति के मन पर नहीं होगा। आप कितना ही कौशल दिखा लें, कितनी ही मेहनत कर लें, मन का जुडाव जितना बढेगा, प्रभावशीलता उतनी ही बढेगी। पूर्ण मनोयोग (होल-हार्टेडनेस) शत-प्रतिशत प्रभावी होता है। यही सफलता की पहली और अन्तिम कुंजी है।

मन चाहता है आनन्दमय रहना। रसयुक्त, निर्मल, स्वच्छ रहना। बिना मन के किया गया कार्य मन में रस पैदा नहीं करता, नीरस होता है। परिणाम भी वैसे भी आते हैं। मूक भाषा में भी मन के सन्देश प्रेषित होते रहते हैं। मन मूल्यवान है, व्यक्ति की पहचान है, अत: इसको साधना होता है। जीवन में सभी लक्ष्य मन से ही जुडते हैं।

अन्तर्मन ईश्वर से जुडा है। यही ईश्वर में मिलता है। इसको साधने के लिए शरीर और बुद्धि का साधना आवश्यक है; क्योंकि इनको साथ तो रहना ही है। अत: सबकी एक भाषा होनी चाहिए। सब स्तरों में सन्तुलन होना चाहिए। आज शरीर और बुद्धि पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है। मन कमजोर होता जा रहा है। जीवन-संघर्षो से जूझने की क्षमता घटती जा रही है। आज शिक्षा से भी मन निकल गया। विकसित देशों में मन की दयनीय हालत देखी जा सकती है। बात-बात में व्यक्ति टूटता दिखाई देता है। हम भी उधर ही जाने में लगे हैं।

इसका अर्थ है, सन्तुलन आवश्यक है। अलग-अलग धरातलों की अलग-अलग दिशाएं होना घातक है। ये व्यक्तित्व को नष्ट कर देती हैं। जीवन के सभी स्तर एक दिशा और एक ही गति से चलने वाले हों, तभी जीवन में समरसता आती है। यही तपस्या और साधना का मूल है। यही सुख का मूल आधार है।

मन और आत्मा के इस भेद को पाश्चात्य संस्कृति के हिसाब से अनुवाद कर दिया गया है। आत्मा पाश्चात्य संस्कृति में कोई द्रव्य/तत्त्व नहीं अपितु एक अच्छाई का द्योतक शरीरमात्र में व्याप्त दिव्य ताकत है। जिस पुरुष में आत्मा नहीं होता, वह अधम और नीच है और जिसमें आत्मा है वो धर्मी है। इस प्रकार आत्मा अच्छाई का एक प्रतीक रूप है।
आत्मा सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है, ज्ञान का अधिकरण है और नित्य है, शाश्वत है और अमर है। यह आत्मा सुख, दुःख और मोह से परे है।

जैसे घट में जल डालने पर वो घटजल, कुण्ड में डालने पर कुण्डजल, नदी में रहते नदीजल, समुद्र में रहते समुद्रजल कहलाता है, लेकिन तत्त्व तो एक ही है, उसी तरह आत्मा शरीर में प्रवेश करने पर तत्तत् शरीर के गुणों का आधान मन के द्वारा करता है। आत्मा स्वयं सुख, दुःख और मोह भोगने में अक्षम है अतः मन ही जीवात्मा में व्याप्त होकर सुखादि को भोगता है। आत्मा प्रत्येक जीव में अलग नहीं, बस हरेक में व्याप्त होने से अलग लगता है। वो मूल में तो एक ही तत्त्व है।

आत्मा का अपना कोई स्वर नही होता जो आपको बोलेगा। मन का ही कार्य है सङ्कल्प-विकल्प करना। सङ्कल्प-विकल्प यानी करूँ नहीं करूँ? झूट बोलूं या नहीं? इत्यादि। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये अन्तःकरण कहलाते हैं और ये जीवात्मा में रहते है।

आत्मा इन सबसे परे है, एक व्यापक तत्त्व है बस। वो कोई स्वतन्त्रता से कार्य नहीं करता। वो बस है और उसको एक ही चीज़ का ज्ञान है - मैं वो ब्रह्म का अंशरूप हूँ, और उससे अपृथक् हूँ, तद्वान् हूँ, तन्मय हूँ, और वोही हूँ (अहं ब्रह्मास्मि)। मैं उसका अंश होते हुए भी उसी का स्वरूप हूँ और उससे पृथक् नहीं जैसे जल की तरंग जल से पृथक् नहीं, समुद्र की बूंदे समुद्र में रहते समुद्र से पृथक् नहीं। और इस ब्रह्मज्ञान का अधिकरण रूप आत्मा तत्त्व है।
जीवात्मा एक शरीर है, जो सूक्ष्म है। उसके ऊपर स्थूल शरीर है। जीवात्मा जन्म मृत्यु के बन्धन में पड़ा है और उसे ब्रह्मत्व पुनः पाना है। यही जीवन का सार है जो इसमें मैंने बताया है।

मन को वश में करने के लिए योग, तपस्, भक्ति आदि उपाय हैं। लेकिन जबतक भूमि पर हो, तबतक इंद्रियाध्यास तो रहेगा ही और उससे छूटना कलियुग में असम्भव के बराबर है।

बुद्धि उस ज्ञान का द्योतक है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, अनन्त है, नित्य है, शाश्वत है और पूर्ण है जो आत्मा के आश्रित है। आत्मा इसी बुद्धि/ज्ञान का आश्रय है। बुद्धि दिमाग को नहीं कहते, दिमाग मस्तिष्क को कहते हैं।

इसी आत्म तत्व के मूल स्वरूप जानना ब्रह्म ज्ञान है। जब यह प्राप्त होता है तो योग होता है।

जय महाकाली गुरूदेव। अयम आत्मा ब्रह्म। 

(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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1 comment:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी |

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