Friday, December 14, 2018

कृष्ण भक्ति के रस की खान “रसखान”



कृष्ण भक्ति के रस की खान “रसखान”

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
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रस खान का मूल नाम सैयद इब्राहिम था और वे दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है।


प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

रसखान (जन्म: १५४८ ई) कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है।माना जाता है की इनकी मृत्यु 1628 में वृन्दावन में हुई थी । यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है।


रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों ने इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।


रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1590 ई. में हुआ था।


रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए। रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें।


दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के अनुसार:


महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के पुष्टि सम्प्रदाय में वार्ताओं का बड़ा महत्त्व है। इनमें पुष्टि-सम्प्रदाय के भक्तों की, जिनमें हिन्दी के आठ प्रमुख कवि भी सम्मिलित हैं, जीवनियाँ संकलित हैं।


'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में वल्लभाचार्य के शिष्यों की कथाएँ संकलित हैं और
'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्यों की कथाएँ संकलित हैं।


वार्ता साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' है। इस वार्ता के अनुसार रसखान दिल्ली में रहते थे। एक बनिए के पुत्र के प्रति आसक्त थे। इस आसक्ति की चर्चा होने लगी। कुछ वैष्णवों ने रसखान से कहा कि यदि इतना प्रेम तुम भगवान से करो तो उद्धार हो जाए। रसखान ने पूछा कि भगवान कहां है? वैष्णवों ने उनको कृष्ण भगवान का एक चित्र दे दिया। रसखान चित्र को लेकर भगवान की तलाश में ब्रज पहुँचे। अनेक मंदिरों में दर्शन करने के उपरांत अपने आराध्य की खोज में ये गोविन्द कुण्ड पर जा बैठे और श्रीनाथ जी के मंदिर को टकटकी लगाकर देखने लगे। आरती के पश्चात श्रीनाथ जी इनका ध्यान करके द्रवीभूत हो गए और चित्र वाला स्वरूप बनाकर दर्शन देने आये। रसखान उन्हें अपना महबूब जानकर पकड़ने दौड़े।  श्रीनाथ जी अंतर्धान होकर  गोकुल पधारे और श्री गोसाईं जी को संपूर्ण घटना सुनाई। उसके बाद श्री गोसाईं जी ने रसखान को दर्शन दिए और अपने मंदिर में बुलवा लिया। रसखान दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए। वहीं रहकर लीला गान करने लगे। इस वार्ता के अनुसार उन्हें गोपी भाव की सिद्धि हुई। इस वार्ता से यह पता चलता है कि रसखान का संबंध स्वामी विट्ठलनाथ जी से रहा। वार्ता में वर्णित कुछ घटनाओं के संकेत रसखान के काव्य में भी मिलते हैं। रसखान ने भी प्रेमवाटिका में छवि दर्शन की चर्चा की है। 'सुजान रसखान' में लीला वर्णन भी मिलता है। वार्ता के अनुसार ये लीला के दर्शन करके ही कवित्त, सवैयों और दोहों की रचना करते थे और इन्हें गोपी भाव भी सिद्ध हुआ था।


सो वह रसखान दिल्ली में रहत हतो। सो वह एक साहूकार के बेटा के ऊपर बोहोत आसक्त भयो। सौ वाको अहर्निस देखे। औ वह छोहरा कछू खातो तो वाकी जूठनि लेई और पानी पीवतो तोहू बा को झूठो पीवे। - तब वा वैष्णवन की पाग में श्रीनाथ जी को चित्र हतौ।... सा काढ़ि के रसखान को दिखायों तक चित्र देखत ही रसखान को मन फिरि गयौ।  तब श्रीनाथ जी मन में विचारे, जो रसखान कों तो कछु देहानुसंधान है नाहीं। यह दसा देखि के श्रीनाथ जी के मन में दया आई। जैसो सिंगार वा चित्र में हतो तैसोई वस्त्र आभूषण अपने श्री हस्त में धारण किए। गाय ग्वाल सखा सब साथ लै कै आप पधारे।  सो ऐसो निरधार करि के श्रीनाथ जी को पकरन दोरयो। तब श्री गुसाईं जी ने कृपा करिके वाको नाम सुनायो पाछे खवास सो कही, जो इनको मंदिर में ले आयो। तब रसखान ने श्रीनाथ जी के दरसन किये, सो बहुत प्रसन्न भयो।  सो जहाँ जा लीला के दरसन करते तहां करते तहां ता लीला के कवित्त, दोहा, चौपाई सवैया करते। सो इनको गोपी भाव सिद्ध हुआ।- दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219






(कथन, तथ्य गूगल से साभार) 





 MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

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