Sunday, December 30, 2018

सनातन के पुनर्स्थापक : शंकराचार्य



सनातन के पुनर्स्थापक : शंकराचार्य 

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818 
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मेरा मानना है कि यदि शंकराचार्य का जन्म न हुआ होता तो सनातन की मृत्यु निश्चित थी क्योकि बौद्ध धर्म के प्रचार के कारन जिधर लोग निष्क्रिय और निठल्ले होते जा रहे थे वहीं मुगलों के आक्रमण से सनातन की धरोहर नष्ट होती जा रहई थी। शंकराचार्य का प्रकट होना वास्तव में सनातन की संजीवनी थी।

आदि शंकराचार्य, अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है।

शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल में अवस्थित निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के 'कालडी़ ग्राम' में 788 ई. में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर भारत में व्यतीत किया। उनके द्वारा स्थापित 'अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय' 9वीं शताब्दी में काफ़ी लोकप्रिय हुआ। उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया। उनके अनुसार अज्ञानी लोग ही ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं। ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र व माया से मुक्त करना एवं ईश्वर व ब्रह्म से तादाम्य स्थापित करना होना चाहिए। शंकराचार्य ने वर्ण पर आधारित ब्राह्मण प्रधान सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया। शंकराचार्य ने संन्यासी समुदाय में सुधार के लिए उपमहाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। 'अवतारवाद' के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन आदि शकराचार्य के रूप में हुआ।

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इन्होंने जहाँ काशी में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडनमिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्न्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है।

शंकराचार्य ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं। उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता पर लिखे गये शंकराचार्य के भाष्य को 'प्रस्थानत्रयी' के अन्तर्गत रखते हैं। शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया। उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है। शंकराचार्य अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान् एवं दार्शनिक थे। इतिहास में उनका स्थान इनके 'अद्वैत सिद्धान्त' के कारण अमर है। गौड़पाद के शिष्य 'गोविन्द योगी' को शंकराचार्य ने अपना प्रथम गुरु बनाया। गोविन्द योगी से उन्हें 'परमहंस' की उपाधि प्राप्त हुई। कुछ विद्वान् शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं तथा उन्हें 'प्रच्छन्न बौद्ध' की संज्ञा देते हैं।

आदि शंकराचार्य को हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ़ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ़ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया। सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें 'प्रछन्न बुद्ध' कहा गया है।

आचार्य शंकर जीवन में धर्म, अर्थ और काम को निरर्थक मानते हैं। वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान की परम साधना मानते हैं, क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। सृष्टि का विवेचन करते समय कि इसकी उत्पत्ति कैसे होती है?, वे इसका मूल कारण ब्रह्म को मानते हैं। वह ब्रह्म अपनी 'माया' शक्ति के सहयोग से इस सृष्टि का निर्माण करता है, ऐसी उनकी धारणा है। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार सृष्टि के विवेचन से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि परमात्मा को सर्वव्यापक कहना भी भूल है, क्योंकि वह सर्वरूप है। वह अनेकरूप हो गया, 'यह अनेकता है ही नहीं', 'मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ' अद्धैत मत का यह कथन संकेत करता है कि शैतान या बुरी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कहीं दिखाई भी देता है, तो वह वस्तुतः नहीं है भ्रम है बस। जीवों और ब्रह्मैव नापरः- जीव ही ब्रह्म है अन्य नहीं।

ऐसे में बंधन और मुक्ति जैसे शब्द भी खेलमात्र हैं। विचारों से ही व्यक्ति बंधता है। उसी के द्वारा मुक्त होता है। भवरोग से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है विचार। उसी के लिए निष्काम कर्म और निष्काम उपासना को आचार्य शंकर ने साधना बताया। निष्काम होने का अर्थ है संसार की वस्तुओं की कामना न करना, क्योंकि शारीरिक माँग तो प्रारब्धता से पूरी होगी और मनोवैज्ञानिक चाह की कोई सीमा नहीं है। इस सत्य को जानकर अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का भाव, आलस्य प्रसाद से उठाकर चित्त को निश्चल बना देगें, जिसमें ज्ञान टिकेगा।

आचार्य ने बुद्धि, भाव और कर्म इन तीनों के संतुलन पर ज़ोर दिया है। इस तरह वैदान्तिक साधना ही समग्र साधना है। कभी-कभी लगता है कि आचार्य शंकर परम्परावादी हैं। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। उनकी छोटी-छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण रचनाओं से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी उनका लक्ष्य 'सत्य' प्रतिपादन करना है। प्रश्नोत्तरी में कहे इस श्लोकांश से संकेत मिलता है, पशुओं में भी पशु वह है जो धर्म को जानने के बाद भी उसका आचरण नहीं करता और जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, फिर भी उसे आत्मबोध नहीं हुआ है। इसी प्रकार 'भज गोविन्दम' में बाहरी रूप-स्वरूप को नकारते हुए वे कहते हैं कि "जो संसार को देखते हुए भी नहीं देखता है, उसने अपना पेट भरने के लिए तरह-तरह के वस्त्र धारण किए हुए हैं।" 

जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर होते हैं। मानो त्याग-वैराग्य और निवृत्ति के मूर्तरूप हों, लेकिन प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है, उनमें श्रीराम, श्री कृष्ण की तरह। 

चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्न्यास को सुव्यवस्थित रूप देना, सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास, हरिहर निष्ठा की स्थापना ये कार्य ही उन्हें 'जगदगुरु' पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ जैसे युवा सन्न्यासियों ने विदेशों में जाकर जिस वेदांत का घोष किया, वह शंकर वेदांत ही तो था। जगदगुरु कहलाना, केवल उस परम्परा का निर्वाह करना और स्वयं को उस रूप में प्रतिष्ठित करना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आज भारत को एक ऐसे ही महान् व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जिसमें योगी, कवि, भक्त, कर्मनिष्ठ और शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही जनकल्याण की भावना हो, जो सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने को उद्यत हो। 

शंकराचार्य का कथन है कि अद्वैत दर्शन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उपनिषदों की शिक्षा पर अवलम्बित है। अद्वैत दर्शन के तीन पहलू हैं- 

1.   तत्व मीमांसा
2.   ज्ञान मीमांसा
3.   आचार दर्शन

इनका अलग-अलग विकास शंकराचार्य के बाद के वैदान्तियों ने किया। तत्व मीमांसा की दृष्टि से अद्वैतवाद का अर्थ है कि सभी प्रकार के द्वैत या भेद का निषेध। अन्तिम तत्व ब्रह्म एक और अद्वय है। उसमें स्वगत, स्वजातीय तथा विजातीय किसी भी प्रकार का द्वैत नहीं है। ब्रह्म निरवयव, अविभाज्य और अनन्त है। उसे सच्चिदानंद या 'सत्यं, ज्ञानं, अनन्तम् ब्रह्मा' भी कहा गया है। असत् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह सत्, अचित् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह चित् और दु:ख का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह आनंद है। यह ब्रह्मा का स्वरूप लक्षण है, परन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि सत्, चित् और आनंद न तो ब्रह्म के तीन पहलू हैं, न ही ब्रह्म के तीन अंश और न ब्रह्म के तीन विशेषण हैं। जो सत् है वही चित है और वही आनंद भी है। दृष्टि भेद के कारण उसे सच्चिदानंद कहा गया है- असत् की दृष्टि से वह सत् अचित् की दृष्टि से चित् और दु:ख की दृष्टि से आनंद है। 

शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ ज्योतिषपीठ, बद्रीनाथउत्तराखण्ड (हिमालय में स्थित) गोवर्धनपीठ, पुरीउड़ीसा शारदापीठ, द्वारिकागुजरात श्रृंगेरीपीठ, मैसूरकर्नाटक

यह निर्गुण, निराकार, अविकारी, चित् ब्रह्म ही जगत् का कारण है। जगत् के कारण के रूप में उसे ईश्वर कहा जाता है। मायोपहित ब्रह्म ही ईश्वर है। अत: ब्रह्म और ईश्वर दो तत्व नहीं हैं- दोनों एक ही हैं। जगत् का कारण होना- यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। तटस्थ लक्षण का अर्थ है, वह लक्षण जो ब्रह्म का अंग न होते हुए भी ब्रह्म की ओर संकेत करे। जगत् ब्रह्म पर आश्रित है, परन्तु ब्रह्म जगत् पर किसी भी प्रकार आश्रित नहीं है, वह स्वतंत्र है। जगत् का कारण प्रकृति, अणु या स्वभाव में से कोई नहीं हो सकता। इसी से उपनिषदों ने स्पष्ट कहा है कि ब्रह्म वह है जो जगत् की सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है। जगत् की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्म को किसी अन्य तत्व की आवश्यकता नहीं होती। इसी से ब्रह्म को अभिन्न निमित्तोपादान कारण कहा है। जगत् की रचना ब्रह्मश्रित माया से होती है, परन्तु माया कोई स्वतंत्र तत्व नहीं है। यह मिथ्या है, इसलिए ब्रह्म को ही कारण कहा गया है। सृष्टि वास्तविक नहीं है, अत: उसे मायाजनित कहा गया है। माया या अविद्या के कारण ही जहाँ कोई नाम-रूप नहीं है, जहाँ भेद नहीं है, वहाँ नाम-रूप और भेद का आभास होता है। इसी से सृष्टि को ब्रह्म का विवर्त भी कहा गया है। विवर्त का अर्थ है कारण या किसी वस्तु का अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अन्य रूपों में अवभासित होना, अर्थात् परिवर्तन वास्तविक नहीं बल्कि आभास मात्र है। 

ब्रह्म की सृष्टि का कारण कहने से यह मालूम पड़ सकता है कि ब्रह्म की सत्ता कार्य-करण अनुमान के आधार पर सिद्ध की गई है। परन्तु यह बात नहीं है। ब्रह्म जगत् का कारण है, यह ज्ञान हमको श्रुति से होता है। अत: ब्रह्म के विषय में श्रुति ही प्रमाण है।[1] किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है। श्रुत्यनुकूल तर्क वेदांत को मान्य है। स्वतंत्र रूप से ब्रह्मज्ञान कराने का सामर्थ्य तर्क में नहीं है, क्योंकि ब्रह्म निर्गुण है। इसी से तर्क और श्रुति में विरोध भी नहीं हो सकता है। दोनों के क्षेत्र पृथक-पृथक् हैं। श्रुति और प्रत्यक्ष का भी क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण उनमें विरोध नहीं हो सकता। श्रुति पर-तत्व विषयक है और प्रत्यक्ष अपरतत्व-विषयक। इसी से विद्या भी परा और अपरा दो प्रकार की मानी गई है। 

ऐसा कहा गया है कि जगत् ब्रह्म का विवर्त है, अर्थात् अविद्या के कारण आभास मात्र है। अविद्या को ज्ञान का अभाव मात्र नहीं समझना चाहिए। वह भाव तो नहीं है, परन्तु भाव रूप है-भाव और अभाव दोनों से भिन्न अनिर्वचनीय है। भाव से भिन्न इसलिए है कि उसका बोध होता है, तथा अभाव से भिन्न इसलिए कि इसके कारण मिथ्या वस्तु दिखाई पड़ती है, जैसे रज्जु के स्थान पर सर्पाभास। इसलिए कहा गया है कि अविद्या की दो शक्तियां हैं- आवरण और विक्षेप। विक्षेप शक्ति मिथ्या सर्प का सृजन करती है और आवरण शक्ति सर्प के द्वारा रज्जु का आवरण करती है। इसी से रज्जु अज्ञान की अवस्था में सर्वपत् दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अज्ञान के कारण जगतवत् दिखाई पड़ता है। अत: वेदान्त में तीन सत्ताएं स्वीकृत की गई हैं- 

1.   प्रातिभासिक (सर्प) - जो हमारे साधारण भ्रम की स्थिति में आभासित होता है और रस्सी के ज्ञान के बाधित होता है।
2.   व्यावहारिक (जगत) - जो मिथ्या तो है परन्तु, जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक सत्य प्रतीत होता है, और ज्ञान हो जाने पर बाधित हो जाता है।
3.   ब्रह्म - जिसे पारमार्थिक कहा जाता है। इसका कभी भी ज्ञान नहीं होता है। यह नित्य है। ब्रह्मज्ञान होने से जगत् का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। शरीर तीन प्रकार का होता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है। कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मा में स्वभावत: नहीं होता। जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एककारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है। 


आत्मा और ब्रह्म की एकता अथवा अभिन्नत्व दिखाने के लिए उपनिषदों ने कहा है- 'तत्वमसी' (तुम वही हो)। इसी कारण से ज्ञान होने पर 'सोऽहमस्मि' (मैं वही हूँ) का अनुभव होता है। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है। सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर कैसे हम कहते कि सुखपूर्वक सोया? वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है- मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही कहा गया है कि आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है। चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है। जीवात्मा अनेक हैं, परन्तु आत्मा एक है, यह दिखाने के लिए उपमाओं का प्रयोग होता है। जैसे आकाश एक है परन्तु सीमित होने के कारण घट या घटाकाश अनेक दिखाई पड़ता है, अथवा सूर्य एक है, किन्तु उसकी परछाई अनेक स्थलों में दिखाई पड़ने से वह अनेक दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा एक है फिर भी माया या अविद्या के कारण अनेक दिखाई पड़ता है। 


जीव और ईश्वर में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है। जीवन बद्ध है, ईश्वर नित्यमुक्त है। मुक्त होने पर भी जीव को नित्यमुक्त नहीं कहा जा सकता। नित्यमुक्त होने के कारण ही ईश्वर श्रुति का जनक या आदिगुरु कहा जाता है। ईश्वर को मायोपहित कहा गया है, क्योंकि माया विक्षेप प्रधान होने के कारण और ईश्वर के अधीन होने के कारण ईश्वर के ज्ञान का आवरण नहीं करती। परन्तु जीव को अज्ञानोपहित कहा गया है, क्योंकि अज्ञान द्वारा जीव का स्वरूप ढक जाता है। इसी से कभी-कभी माया और अविद्या में भेद किया जाता है। माया ईश्वर की उपाधि है- सत्व प्रधान है, विक्षेप प्रधान है और अविद्या जीव की उपाधि है, तमस्-प्रधान है और उसमें आवरण विक्षेप होता है। 


अज्ञान के कारण जीव अपने स्वरूप को भूल कर अपने को कर्ता-भोक्ता समझता है। इसी से उसको शरीर धारण करना पड़ता है और बार-बार संसार में आना पड़ता है। यही बंधन है। इस बंधन से छुटकारा तभी मिलता है, जब अज्ञान का नाश होता है और जीव अपने को शुद्ध चैतन्य ब्रह्म के रूप में जान जाता है। शरीर रहते हुए भी ज्ञान के हो जाने पर जीव मुक्त हो सकता है, क्योंकि शरीर तभी तक बंधन है, जब तक जीव अपने को आत्मा रूप में न जानकर अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के रूप में समझता है। इसी से वेदान्त में जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति नाम की दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी हैं। ज्ञान हो जाने के बाद भी प्रारब्ध भोग के लिए शरीर कुम्हार के चक्र के समान पूर्वप्रेरित गति के कारण चलता रहता है। शरीर छूटने पर ज्ञानी विदेह मुक्ति प्राप्त करता है।
ज्ञान प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम ज्ञान का अधिकारी होना आवश्यक है। अधिकारी वही होता है, जिसमें निम्नलिखित चार गुण हों

1.   नित्यानित्य-वस्तु-विवेक
2.   इहामुत्र-फलभोग-विराग
3.   शमदमादि
4.   मुमुक्षत्व

इन गुणों से युक्त होकर जब जिज्ञासु गुरु का उपदेश सुनता है, तब उसे ज्ञान हो जाता है। कभी-कभी श्रवण मात्र से भी ज्ञान हो जाता है, परन्तु वह असाधारण जीवों को ही होता है। साधारण जीव श्रवण के उपरान्त मनन करते हैं। मनन से ब्रह्म के विषय में या आत्मा के विषय में या ब्रह्मात्मैक्य के विषय में जो बौद्धिक शंकाएं होती हैं, उनको दूर किया जाता है और जब बुद्धि शंकामुक्त होकर स्थिर हो जाती है तभी ध्यान या निदिव्यसन सम्भव होता है। कर्म से अविद्या का नाश नहीं होता, क्योंकि कर्म स्वयं अविद्याजन्य है। कर्म और उपासना से बुद्धि शुद्ध होकर ज्ञान के योग्य होती है। इसी से इन दोनों की उपयोगिता तो मानी गई है, परन्तु मुक्ति ज्ञान या अविद्या नाश से ही होती है। मुक्ति के उपरान्त कर्म और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती। फिर भी मुक्त पुरुष जन-कल्याण के लिए या ईश्वरादेश की पूर्ति के लिए कर्म कर सकता है। जैसे आचार्य शंकर ने किया। 


वे लोग जो इस पर ज्यादा जोर देते हैं कि इतिहास सच और पौराणिक कथाएं झूठ हैं, वे वास्तव में आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद की मूल भावना के खिलाफ जाते दिखते हैं. शंकराचार्य का दर्शन कहता है, ‘जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्यम.’ मतलब कि वैज्ञानिक निष्कर्षों सहित तमाम दुनियावी चीजें भ्रम हैं और जो शाश्वत-सात्विक सत्य है, वह है ब्रह्म. इस सच को और भी तमाम नाम दिए गए हैं. जैसे, ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘चेतना’ आदि.


शंकराचार्य का दर्शन स्पष्ट रूप से वैदिक है. बौद्ध और जैन विद्वानों से इतर वे वेदों से ज्ञान हासिल करते हैं. उन्होंने अपने भाष्य और प्रकरणों में बार-बार निराकार ब्रह्म का उल्लेख किया है. एक उसे ही सच माना है. ब्रह्मसूत्र भाष्य में उन्होंने जो टिप्पणियां की हैं उनमें और विवेकचूड़ामणि व निर्वाण शतकम् जैसे काव्य और आत्म-बोध नाम की पुस्तक में इसके प्रमाण मिलते हैं. कई लोग शंकराचार्य के लेखन को बौद्ध विचारों के वैदिक संस्करण के रूप में भी देखते हैं. वे शंकराचार्य पर प्रच्छन्न (दबे-छिपे रूप में) बौद्ध होने के आरोप भी लगाते हैं. लेकिन शंकराचार्य का ही काव्य (स्तोत्र) इस धारणा को तोड़ता भी नजर आता है. इसमें तमाम जगहों पर ‘सगुण-साकार ब्रह्म’ का उसी तरह उल्लेख किया गया है, जैसा पुराणों में मिलता है. उनकी तीन रचनाएं हैं - दक्षिणमूर्ति स्तोत्र, गोविंदाष्टक और सौंदर्य लहरी, जिनमें क्रमश: शिव, विष्णु और शक्ति की आराधना की गई है, उनकी लीलाओं का गान किया गया है. ये रचनाएं उन्हें वेदव्यास के बाद पहला ऐसा रचनाकार बनाती हैं, जो साकार और निराकार दोनों तरह के ईश्वर की बात कर खुले तौर पर पौराणिक और वैदिक हिंदूवाद को जोड़ता है. शंकराचार्य ने तंत्र पर भी लिखा है और उनके उस साहित्य ने भी समय-समय पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है. 

वेदव्यास के बाद शंकराचार्य ऐसे पहले रचनाकार माने जा सकते हैं जिन्होंने पौराणिक और वैदिक हिंदूवाद को आपस में जोड़ा था. 

निराकार ब्रह्म और मिथ्या जगत की बात करते हुए भी शंकराचार्य 12 ज्योतिर्लिंगों, 18 शक्तिपीठों और चार विष्णुधामों की ऐसी तीर्थयात्रा पर निकले थे जो मिलकर भारत को एक करने का काम करती थी. एक ऐसा भारत जो तमाम विविधताओं से भरा था. जहां बौद्ध थे और मीमांसक (प्राचीन वैदिक पद्धति को मानने वाले गृहस्थ) भी. शैव, वैष्णव, शाक्त (देवी को सर्वशक्तिमान मानने वाले) थे और वेदांती (उत्तर वैदिक पद्धति वाले संन्यासी) भी. शंकराचार्य के विपुल साहित्यिक योगदान में इन सभी का उल्लेख मौजूद है.

शंकराचार्य केरल से कश्मीर, पुरी (ओडिशा) से द्वारका (गुजरात), श्रृंगेरी (कर्नाटक) से बद्रीनाथ (उत्तराखंड) और कांची (तमिलनाडु) से काशी (उत्तरप्रदेश) तक घूमे. हिमालय की तराई से नर्मदा-गंगा के तटों तक और पूर्व से लेकिर पश्चिम के घाटों तक उन्होंने यात्राएं कीं. इस तरह वे सिर्फ विशाल व्यक्तित्व वाले दार्शनिक के रूप में ही नहीं, बल्कि एक ऐसे राजनैतिक संत के तौर पर भी स्थापित होते हैं, जिसने एक बड़े भू-भाग को एक सूत्र में पिरोने में मदद की. वह भारतीय उपमहाद्वीप, जिसका वर्णन हिंदू, बौद्ध और जैन साहित्य में कहीं जम्बू द्वीप (जम्बुल के पेड़ के आधार पर रखा गया नाम) तो कहीं भारत वर्ष (राजा भरत के नाम पर रखा गया) के रूप में मिलता है. कहना गलत न होगा कि शंकराचार्य ने अपने दर्शन, काव्य और तीर्थयात्राओं से उसे एक करने का प्रयास किया.

शंकराचार्य अपनी रचना ब्रह्मसूत्र में एक जगह (1.3.33) टिप्पणी करते हैं, ‘कोई कह सकता है कि यहां कभी कोई चक्रवर्ती सम्राट था ही नहीं, क्योंकि अभी इस तरह का कोई राजा नहीं है.’ उनकी इस टिप्पणी से यह बात पुख्ता होती है कि उनके समय में समाज बंटा हुआ था और उस वक्त तक चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को नकारा जाने लगा था. जबकि हिंदू, बौद्ध और पौराणिक जैन कथाओं में यह अवधारणा असरदार तरीके से मिलती है. शायद यही वजह है कि ज्यादातर इतिहासकर मानते हैं कि शंकराचार्य आठवीं शताब्दी यानी बुद्ध के 1300 साल बाद के दौर में रहे होंगे. यह भारतीय इतिहास में एक तरह के संक्रमण का दौर था. 

उस दौर में शंकराचार्य ने पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करते हुए हर जगह सिर्फ एक ही भाषा ‘संस्कृत’ में संवाद किया, जो इस भूभाग के उच्च बौद्धिक वर्ग को जोड़ती थी. 

गुप्त साम्राज्य का इस दौर में पतन हो रहा था और मुस्लिम साम्राज्य की दक्षिण एशिया में जीत पर जीत हो रही थी. कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी. नर्मदा के दोनों किनारों पर राष्ट्रकूट साम्राज्य का बोलबाला था जिनके उत्तर के प्रतिहारों, पूर्व के पाल और दक्षिण के चालुक्यों से लगातार संघर्ष हो रहे थे. उस वक्त तक क्षेत्रीय भाषाएं और लिपियां जो आज के दौर में चल रही हैं, उभरी नहीं थीं. दक्षिण भारतीय मंदिरों में ‘गोपुरम’ (मुख्य प्रवेश द्वार) का जो गुणशिल्प आज मिलता है, उस दौर में नहीं था. रामायण का तमिल में अनुवाद नहीं हुआ था. और जयदेव ने उस ‘गीत गोविंद’ की रचना भी तब तक नहीं की थी, जिसने पहली बार दुनिया का परिचय कृष्ण की राधा से कराया था. इस दौर में शंकराचार्य ने पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करते हुए हर जगह सिर्फ एक ही भाषा ‘संस्कृत’ में संवाद किया, जो इस भूभाग के उच्च बौद्धिक वर्ग को जोड़ती थी. 


शंकराचार्य का जन्म केरल के एक गरीब ब्राह्मण (नंबूदरी) परिवार में हुआ. उनके पिता का नाम शिवगुरू था. यह नाम इस बात का संकेत देता है कि वे शायद शैव सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते होंगे. शंकराचार्य छोटे ही थे, जब उनके पिता का निधन हो गया. ऐसे में उनका पालन-पोषण उनकी मां ने किया. उन्हें आर्यम्बा के नाम से जाना जाता है. वे कृष्ण भक्त थीं, जो वैष्णव सम्प्रदाय के आराध्य देव हैं. मां के काफी विरोध के बावजूद शंकराचार्य ने संन्यास का रास्ता चुना क्योंकि वे वेदान्तिक दृष्टिकोण के समर्थक थे. यहां बताते चलें कि उनके समय में वैदिक दृष्टिकोण दो हिस्सों में बंट गया था. पहला - वेदान्तिक, जो कि संन्यास मार्ग या ज्ञान मार्ग का समर्थक था. दूसरा- मीमांसक, जो ग्रहस्थ मार्ग या कर्म मार्ग का समर्थक था. बहरहाल, शंकराचार्य के गुरु का नाम था, गोविंद भगवत्पाद, जिनके नाम से ही लगता है कि वे वैष्णव थे. वे नर्मदा के किनारे कुटिया बनाकर रहते थे और बौद्धवाद से काफी प्रभावित थे. 

मध्य भारत में अपने गुरु के पास काफी समय तक रहने के बाद शंकराचार्य काशी चले गए. वहां उनकी मुलाकात एक चांडाल (श्मशान घाट में काम करने वाला) से हो गई. तब हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था में चांडाल का काम सबसे निम्न स्तर का माना जाता था. जब शंकराचार्य का सामना उस चांडाल से हुआ, तो उन्होंने उससे रास्ते से परे हटने को कहा. जवाब में वह हाथ जोड़कर बोला, ‘क्या हटाऊं? अपना शरीर या आत्मा? आकार या निराकार? सीम या असीम?’ इन सवालों ने शंकराचार्य भीतर तक झकझोर दिया. उन्होंने उस चांडाल को अपना गुरु बना लिया. चूंकि उस वक्त वे पारंपरिक वर्ण व्यवस्था में ही पूरी तरह रचे-पगे हुए थे, जिसमें जातिगत शुद्धता और प्रदूषण आदि मायने रखते हैं, इसलिए उनका यह कदम विशेष अहमियत रखता था. इस घटना ने उन्हें ‘मनीष-पंचकम’ की रचना के लिए प्रेरित किया, जिसमें उन्होंने द्वैत का निर्माण करने वाले विभाजनों से आगे देखने की कोशिश की और अद्वैत की पुष्टि की. जाति से ऊपर उठने के लिए यहां बौद्धिकता एक उपकरण की तरह नजर आई.

कहा जाता है कि शंकराचार्य अपनी योगशक्ति के बल पर कश्मीर के राजा आमरू की मृत देह में समा गए थे. इस तरह उस देह को चेतन्य कर उन्होंने उसमें रहते हुए लम्बे समय तक सभी तरह के दैहिक सुखों का भोग किया.

इसके बाद बिहार में शंकराचार्य का सामना महान मीमांसक विद्वान मंडन मिश्र से हुआ. शंकराचार्य ने उन्हें इस बात पर सहमत कर लिया कि कर्म मार्ग की तुलना में ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ है. लेकिन इसी दौरान, मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती ने बड़ी चतुराई से शंकराचार्य के सामने कामशास्त्र के ज्ञान के बारे में सवाल दाग दिया. इसके जवाब में जब शंकराचार्य ने अनभिज्ञता जताई तो वह बोली, ‘आपने (शंकराचार्य) एंद्रिक आनंद और भावनात्मक निकटता को महसूस नहीं किया. उसके बारे में आपको जानकारी नहीं है, तो आप कैसे दुनिया को जानने-समझने का दावा कर सकते हैं.’ इस घटना के बाद क्या हुआ, यह रहस्य है. बल्कि बाद में शुद्धतावादियों ने इस जानकारी को भी संपादित कर दिया.

वैसे कहा जाता है कि शंकराचार्य अपनी योगशक्ति के बल पर कश्मीर के राजा आमरू की मृत देह में समा गए थे. इस तरह उस देह को चेतन कर उन्होंने उसमें रहते हुए लंबे समय तक सभी तरह के दैहिक सुखों का भोग किया. उन्होंने अपने कामोत्तेजक प्रेमकाव्य ‘आमरू-शतक’ में इन अनुभवों का वर्णन भी किया है. उसके बाद उन्होंने पहले कश्मीर और फिर श्रृंगेरी (इन दिनों कर्नाटक में) में शारदा के मंदिर बनवाए. इन मंदिरों में स्थापित देवी प्रतिमा के एक हाथ किताब है, इससे पहली नजर में यह सरस्वती की मूर्ति ही मान ली जाती है. लेकिन इसके उसके दूसरे हाथ में बर्तन और एक तोता भी है, जो कि गृहस्थ और ऐंद्रिक जीवन के प्रतीक हैं. इससे शंकराचार्य द्वारा भौतिक सुखों की पुष्टि करने का संकेत भी मिलता है. दूसरे शब्दों में तंत्र की पुष्टि. श्रीयंत्र, जो देवी का ज्यामितीय चिन्ह है, से उनका संबंध भी इसकी पुष्टि करता है. शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह देवी - शारदा - उभय भारती से प्रेरित है या लगातार बुद्धिमत्ता की बातें करती रहने वाली उनकी मां से यह अनुमान ही लगाया जा सकता है.


एक और खास बात है कि शंकराचार्य अपनी मां का अंतिम संस्कार करने के लिए केरल लौटे थे. उन्होंने अपनी मां से उन्हें सन्यासी बनने की अनुमति देते वक्त ऐसा करने का वादा किया था. वैदिक परंपरा के मुताबिक, एक बार गृहस्थी छोड़ने के बाद संन्यासियों को गृहस्थ जीवन के कोई भी संस्कार करने की इजाजत नहीं होती. लेकिन शंकराचार्य साधारण संन्यासी नहीं थे. वे स्थापित मान्यताओं को नकारने वाले क्रांतिकारी थे. जब उन्हें श्मशान घाट में अपनी मां का अंतिम संस्कार करने की इजाजत नहीं दी गई तो उन्होंने अपने घर के पीछे वाले हिस्से में उनका अंतिम संस्कार कर दिया और अपना वादा निभाया.

कई लोग मानते हैं कि शंकराचार्य का दर्शन आम जन के लिए नहीं है. वह अभिजात्य बौद्धिक वर्ग के लिए है. और ऐसा मानने वाले ज्यादातर लोग भी खुद को इसी वर्ग का प्रतिनिधि मानते हैं

इसके बाद वे पूरे देश में घूमे. चारों दिशाओं में अपने मठ स्थापित किए. संन्यासियों के लिए अखाड़े स्थापित किए, जिनमें शामिल होने वाले साधुओं को उनकी बौद्धिक, शारीरिक और यौगिक शक्ति से हिंदू धर्म की रक्षा का भार सौंपा गया. माना जाता है कि उन्होंने ही तीर्थ क्षेत्रों और कुंभ मेलों में इन अखाड़ों के जुटने का चलन शुरू किया. इन सारे कामों को करने के बाद महज 32 साल की उम्र में हिमालय क्षेत्र में शंकराचार्य का देहांत हो गया. 

ऐसा कहा जाता है कि उनके पिता की पुत्र की कामना पूरी करते हुए भगवान ने उन्हें दो विकल्प दिए थे. एक - कम जीवनकाल वाला लेकिन विलक्षण प्रतिभा से संपन्न पुत्र, दूसरा - अधिक जीवनकाल वाला साधारण पुत्र. पिता ने पहला विकल्प चुना. उनका जन्मजात प्रतिभा से संपन्न पुत्र एक बार आठ साल की उम्र में ही देह छोड़ने चला था, लेकिन ईश्वर ने प्रसन्न होकर उसे आठ साल की उम्र और दे दी. ताकि वह वेदों के सत्य की खोज कर सके. फिर उसकी प्रतिभा और कौशल को देखकर खुद वेदव्यास ने उसे 16 साल की उम्र और वरदान में दी थी. ताकि वह युवक अपने अर्जित ज्ञान को पूरे भारत वर्ष में फैला सके. जो शंकराचार्य ने बखूबी किया.

बड़े-बड़े विद्वान भी अक्सर सोचते हैं कि क्या ज्ञान के भंडार और दार्शनिक शंकराचार्य वही थे जिन्होंने भक्ति काव्य भी लिखा है. जिन शंकराचार्य ने तीर्थयात्राओं को मान्यता दी क्या उन्होंने ही बेकार की परंपराओं का विरोध भी किया था. वे वैदिक थे या तांत्रिक. शैव थे या वैष्णव या शाक्त. वे बौद्ध धर्म के विरोधी थे या खुद भी उसे मानने वाले थे. उनके जीवन के ये तमाम पहलू उन विचारों को भी प्रतिबिंबित करते हैं जो उस समय भारत को गढ़ रहे थे.

शंकराचार्य को समझने के लिए हमें एक असली और बाकी नकली भगवानों वाली सोच के बजाय उस हिंदूवादी सोच की ओर जाना होगा जहां भगवान साकार और निराकार सहित कई स्वरूपों वाला हो सकता है.

शंकराचार्य अपने चारों ओर की दुनिया को छोटे-छोटे, क्षणभंगुर और सीमित सत्यों से भरा हुआ मानते थे. लेकिन बौद्ध धर्म के उलट वे यह भी मानते थे कि ये सभी एक ऐसे सत्य पर टिके हैं जो अखंड, शाश्वत और असीमित है. पहला हमारी पहुंच में हैं जबकि दूसरा बेहद गूढ़ और अप्राप्य है.

बौद्ध धर्म के भारत में ज्यादा लोकप्रिय न होने की एक वजह इसका कला को विलासिता मानना भी था. जबकि पौराणिक आराध्य नाचने-गाने को ज्ञान देने के माध्यम की तरफ उपयोग में लाते थे. शंकराचार्य को इस बात का पता था कि कथा-कहानियां और गानों के जरिये लोगों से आसानी से जुड़ा जा सकता है. इसलिए उन्होंने पौराणिक मंदिरों और परंपराओं को अपनाने से परहेज नहीं किया. इस वजह से हिंदू धर्म को बचाने वाले योद्धा की उनकी ख्याति जमकर और चारों ओर फैली.

कौन सा कथन, तीर्थ, विचार, काव्य और ईश्वर बड़ा है इस पर बहस करने के बजाय उन्होंने सिर्फ इस बात पर जोर दिया कि ब्रह्म ही वह एकमात्र सच है जो महत्व रखता है और जिस तक तर्क, समझ आदि से नहीं बल्कि केवल आस्था रखकर वेदों के जरिये ही पहुंचा जा सकता है.

यह सच है या रणनीति थी, हमें नहीं पता. लेकिन इतना पक्का है कि जब कोई बड़ा छोटा नहीं, सारा जगत भ्रम हो तो एक दूसरे के प्रति सम्मान बढ़ता है और हममें दूसरों का स्थान लेने के बजाय उनका साथ देने की भावना आती है
शांति तब तक नहीं आ सकती जब तक हम ज्ञान से मुंह मोड़े रहते हैं, ज्ञान तब आता है तब हम दूसरों के विचारों को जानने की तीर्थयात्रा करते हैं, वैसे ही जैसे शंकराचार्य ने अपने गुरुओं - चंदला, उभय भारती और अपनी मां - के साथ किया था.

कई लोग मानते हैं कि शंकराचार्य का दर्शन आम जन के लिए नहीं है. वह अभिजात बौद्धिक वर्ग के लिए है. ऐसा मानने वाले लोग भी ज्यादातर खुद को इसी वर्ग का प्रतिनिधि मानते हैं. लेकिन वास्तव में उन्होंने शंकराचार्य के विविधतापूर्ण योगदान को ठीक तरह से समझा ही नहीं. भारतीय इतिहास के कई अन्य व्यक्तित्वों की तरह ही शंकराचार्य के जीवन को भी कल्पना और वास्तविकता के घालमेल से बचा पाना बेहद मुश्किल है. जानकार भी इस बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हैं कि कौन सा काम प्रामाणिक रूप से उनका अपना है और कौन सा ऐसा है, जिसे बाद के लोगों ने वैधानिकता और लोकप्रियता हासिल करने के लिए उनसे जोड़ दिया. उनके बारे में अपने हिसाब से कौन क्या चुनता है, यह उसी पर निर्भर करता है. उदाहरण के लिए, उन्हें भगवान शंकर का अवतार कहा सकता है. हिंदुत्व का प्रणेता भी, जिन्होंने बौद्ध सम्प्रदाय को बाहर का रास्ता दिखाया. सवर्ण जाति के हिंदू, तर्कवेत्ता और कवि के अलावा विरोधाभासी विचारों में तालमेल बिठाने वाले के तौर पर भी उन्हें देखा-समझा-स्वीकार किया जा सकता है. 

शंकराचार्य को समझने के मामले में यही गडबड़ी हो रही है कि उनके कम-बौद्धिक और महत्वाकांक्षी समर्थकों ने उनकी शिक्षाओं का, दर्शन का स्वरूप बिगाड़ दिया है

दिलचस्प बात है कि उनका अतिशयोक्तिपूर्ण जीवन चरित उनके जन्म के कई साल बाद लिखा गया. इसमें उनके योगदान कोदिग्विजय’ की तरह पेश किया गया है. यहां तक कि इसमें मंडन मिश्र जैसे दार्शनिकों के साथ उनके शास्त्रार्थ को भी संघर्ष की तरह पेश किया गया है, जिसमें शंकराचार्य को विजेता बताया गया है. लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है कि किसी इतने बड़े वैदिक दार्शनिक ने ऐसा किया होगा. क्योंकि वेदों मेंअहं’ को ऐसा ग्रहण बताया गया है, जो ब्रह्म से साक्षात्कार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. ऐसे में सोचने वाली बात है कि जो विद्वान देश भर में वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए निकला हो, वह क्या ऐसे किसी अहं का शिकार हो सकता है? अहं तो व्यक्ति को हिंसा-प्रतिहिंसा की तरफ ले जाता है. और उसके बाद व्यक्ति संवाद के बजाय विवाद का रास्ता चुनता है. जिसमें किसी की बात सुनी या समझी नहीं जाती, बस काटी जाती है. 

संभवत: शंकराचार्य को समझने के मामले में यही गडबड़ी हो रही है. उनके कम-बौद्धिक और महत्वाकांक्षी समर्थकों ने उनकी शिक्षाओं का, दर्शन का स्वरूप बिगाड़ दिया है. क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ प्रभुत्व स्थापित करने के विचार का ही समर्थन करते हैं. आज ऐसे विचारों और विचारकों को अनसुना-अनदेखा करने की जरूरत है.

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