Monday, January 7, 2019

क्या सूर्पनखा की नाक हमारी नाक है??



क्या सूर्पनखा की नाक हमारी नाक है??

 

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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राम के चरित में वाम पंथियो और सनातन के दुश्मनों ने तीन बातें उठाई है पहली तुलसीदास पर ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी। दूसरी बात राम ने सीता को क्यों त्यागा और तीसरी बात लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक क्यों काटी। इन दोनों पर मैंने ब्लाग पर पहले ही लेख लिख दिया है।

 

लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक ही क्यों काटी कोई और अंग क्यों न काटा। यह बात लोग गूढ अर्थों में न समझ कर  एक अनावश्यक बात बना दी है, जिसका प्रसार किया जा रहा है। हर व्यक्ति की एक सोंच होती है। चीजों को समझने का। मानस  में धर्म से ज्यादा समाज पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। यह महसूस किया जा सकता है कि रामायण एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति नैतिक हो। नैतिकता का पाठ पढ़ाती है,रामायण। सूर्य और चंद्र पर धब्बे मिल जायेगें पर राम के पूरे जीवन और चरित्र में एक भी दाग नहीं मिल सकता है। अज्ञानवश अपनी छुद्र बुद्धि के कारण कोई मूर्खतावश धब्बा देखता है तो यह उसका नेत्र दोष है राम के चरित्र का नहीं। यह बात मैं सिद्ध करूंगा कुछ पौराणिक बातें करते हुये।  


रामायण के मुताबिक रावण की बहन शूर्पणखा भी रावण का विनाश चाहती थी। दरअसल इसका कारण था शूर्पणखा का पति, जिसका वध रावण ने किया था। शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्व विजय पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान उसका सामना शूर्पणखा के पति से भी हुआ था। युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का भी वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।

एक बार राम और सीता कुटिया में बैठे थे। अचानक शूर्पणखा ने वहां प्रवेश किया। वह राम को देखकर मुग्ध हो गयी तथा उनका परिचय जानकर उसने अपने विषय में इस प्रकार बतलाया- "मैं इस प्रदेश में स्वेच्छाचारिणी राक्षसी हूं। मुझसे सब भयभीत रहते हैं। विश्रवा का पुत्र बलवान रावण मेरा भाई है। मैं तुमसे विवाह करना चाहती हूं।" राम ने उसे बतलाया कि- "उनका विवाह हो चुका है तथा उनका छोटा भाई लक्ष्मण अविवाहित है, अत: वह उसके पास जाय।"

लक्ष्मण ने शूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर उसे फिर राम के पास भेजा। शूर्पणखा ने राम से पुन: विवाह का प्रस्ताव रखते हुए कहा- "मैं सीता को अभी खाये लेती हूं, तब सौत न रहेगी और हम विवाह कर लेंगे।" जब वह सीता की ओर झपटी तो राम के आदेशानुसार लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट दिए। वह क्रुद्ध होकर अपने भाई खर के पास गयी। खर ने चौदह राक्षसों को राम-हनन के निमित्त भेजा, क्योंकि शूर्पणखा राम, लक्ष्मण और सीता का लहू पीना चाहती थी। राम ने उन चौदहों को मार डाला तो शूर्पणखा पुन: रोती हुई अपने भाई खर के पास गयी।
अब देखें:
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुंब आदि की ओर से भली-भाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है।
चौदह वर्ष की उम्र तक बालक के जन्म. संस्कार गिने जाते हैं। चौदह वर्ष के पश्चात् बालक किशोरावस्था में प्रवेश करता है। चौदह दोष हमारी बाधा हैं। 5 कर्मेंद्री 5 ज्ञानेंद्री और काम, क्रोध लोभ-मोह और अहंकार। कुल चौदह।

खर ने क्रुद्ध होकर अपने सेनापति भाई दूषण को चौदह हज़ार सैनिकों को तैयार करने का आदेश दिया। सेना तैयार होने पर खर तथा दूषण ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया। जब सेना राम के आश्रम में पहुंची तो राम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि वह सीता को लेकर किसी दुर्गम पर्वत कंदरा में चला जाय तथा स्वयं युद्ध के लिए तैयार हो गये। मुनि और गंधर्व भी यह युद्ध देखते गये। राम ने अकेले होने पर भी शत्रुदल के शस्त्रों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया। अनेकों राक्षस प्रभावशाली बाणों से मारे गये, शेष डर कर भाग गये। दूषण, त्रिशिरा तथा अनेक राक्षसों के मारे जाने पर खर स्वयं राम से युद्ध करने गया।

युद्ध में राम का धनुष खंडित हो गया, कवच कटकर नीचे गिर गया। तदनंतर राम ने महर्षि अगस्त्य का दिया हुआ शत्रुनाशक धनुष धारण किया। इन्द्र के दिये अमोघ बाण से राम ने खर को जलाकर नष्ट कर दिया। इस प्रकार केवल तीन मुहूर्त में राम ने खर, दूषण, त्रिशिरा तथा चौदह हज़ार राक्षसों को मार डाला।

वास्तव में दंडकारण्य की स्वामिनी शूर्पणखा ने भगवान श्रीराम के महत्वपूर्ण कार्य 'निशिचर हीन करहुं महि भुज उठाय प्रण कीन्ह, विनाशाय च दुष्कृतं' आदि में बहुत सहायता की है। 


जनमानस में शूर्पणखा की छवि राक्षसी होने, कामी होने, निर्ममता से नरसंहार करने की होने से वह घृणा की दृष्टि से देखी जाती है। करोड़ों जन्मों तक तपस्या करने के बाद भी ऋषि-मुनियों को भगवद् दर्शन लाभ नहीं हो पाते, परंतु इसने उनके दर्शन के साथ-साथ बातें भी कीं तथा श्रीराम ने उसकी लक्ष्मणजी से भी बात करवाकर भक्तिस्वरूपा आद्या शक्ति जगत जननी सीता माता के दर्शन भी करवा दिए। एक जिज्ञासा बनी रहती है कि आखिर शूर्पणखा ने ऐसा कौन सा पुण्य किया होगा जिससे उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। मनीषी व ज्ञानीजन हमेशा इसका चिंतन किया करते हैं।

पूर्व जन्म में शूर्पणखा इन्द्रलोक की 'नयनतारा' नामक अप्सरा थी। उर्वशी, रम्भा, मेनका, पूंजिकस्थला आदि प्रमुख अप्सराओं में इसकी गिनती थी। एक बार इन्द्र के दरबार में अप्सराओं का नृत्य चल रहा था। उस समय यह नयनतारा नृत्य करते समय भ्रूसंचालन अर्थात आंखों से इशारा भी कर रही थी। इसे देख इन्द्र विचलित हो गए और उसके ऊपर प्रसन्न हो गए। 

तब से नयनतारा इन्द्र की प्रेयसी बन गई। तत्कालीन समय में पृथ्वी पर एक 'वज्रा' नामक एक ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे, तब नयनतारा पर प्रसन्न होने के कारण ऋषि की तपस्या भंग करने हेतु इन्द्र ने इसे ही पृथ्वी पर भेजा, परंतु वज्रा ऋषि की तपस्या भंग होने पर उन्होंने इसे राक्षसी होने का श्राप दे दिया। ऋषि से क्षमा-याचना करने पर वज्रा ऋषि ने उससे कहा कि राक्षस जन्म में ही तुझे प्रभु के दर्शन होंगे। तब वही अप्सरा देह त्याग के बाद शूर्पणखा राक्षसी बनी। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि प्रभु के दर्शन होने पर वह उन्हें प्राप्त कर लेगी।

वही नयनतारा वाला मोहक रूप बनाकर ही शूर्पणखा श्रीराम प्रभु के पास गई, परंतु एक गलती कर बैठी। वह यह कि परब्रह्म प्रभु परमात्मा परात्पर परब्रह्म को पति रूप में पाने की इच्छा प्रकट कर दी- 

'तुम सम पुरुष न मो सम नारी। यह संजोग विधि रचा विचारी।।
मम अनुरूप पुरुष जग माही। देखेऊं खोजि लोक तिहुं नाहीं।
ताते अब लगि रहिऊं कुंवारी। मनु माना कप्पु तुम्हहि निहारी।।

परब्रह्म को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया होती है। भक्ति या वैराग्य के सहारे ही परब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। शूर्पणखा भक्तिरूपा सीता माता और वैराग्यरूपी श्री लक्ष्मणजी के पास न जाकर सीधे ब्रह्म के पास चली गई। यह उसकी सबसे बड़ी गलती है। वह तो डायरेक्ट श्रीराम की पत्नी बनकर भक्ति को ही अलग कर देना चाहती थी। इसके अलावा वैराग्य का आश्रय लेती तो भी प्रभु को प्राप्त कर सकती थी, परंतु वैराग्य को भी नकारकर अर्थात वैराग्यरूपी श्री लक्ष्मणजी के पास भी न जाकर एवं अहंकार में आकर सीधे प्रभु के पास चली गई। उसमें अहंकार आ गया। वह कहती है- 'संपूर्ण संसार में मेरे समान कोई नारी नहीं'। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त संसार में आपकी पत्नी बनने लायक मेरे समान कोई नारी नहीं है।


वैरागी लक्ष्मण ने सोचा कि राक्षसी को वैराग्य तो आ नहीं सकता, अत: उसे पुन: प्रभु के पास भेज दिया। तब प्रभु ने कहा कि मैं तो भक्ति के वश में हूं, तब शूर्पणखा भक्तिरूपा सीता माता के पास गई, परंतु वहां भी एक भागवतापराध कर बैठी। सोचा, प्रभु इस भक्ति के वश में हैं, अत: मैं इस भक्ति को ही खा जाऊं। भक्ति को ही नष्ट कर दूं, ज‍बकि नियम यह है कि- 'श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ संतन की सेवा।

अत: लक्ष्मणजी ने क्रोध में आकर उसके नाक-कान काटकर अंग भंग कर दिया। तब शूर्पणखा के ज्ञान-चक्षु खुल गए और प्रभु के कार्य को पूरा कराने 'विनाशाय च दुष्कृतम्' के लिए उनकी सहायिका बनकर प्रभु के हाथ से खर व दूषण, रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि निशाचरों को मरवा दिया और प्रभु प्राप्ति की उचित प्रक्रिया अपनाने के लिए पुष्करजी में चली गई और जल में खड़ी होकर भगवान शिव का ध्यान करने लगी।

'ज्योतिमत्रिस्वरूपाय निर्मल ज्ञान चक्षुसे। 
ॐ रुद्रेश्वराय शान्ताय ब्रह्मणे लिंग मूर्तये।।'

दस हजार वर्ष बाद भगवान शिव ने शूर्पणखा को दर्शन दिए और वर प्रदान किया कि 28वें द्वापर युग में जब श्रीराम कृष्णावतार लेंगे, तब कुब्जा के रूप में तुम्हें कृष्ण से पति सुख की प्राप्ति होगी। तब श्रीकृष्ण तुम्हारी कूबड़ ठीक करके वही नयनतारा अप्सरा का मनमोहक रूप प्रदान करेंगे।


अब मैं आपसे प्रश्न करता हूं कि यदि कोई आपकी पत्नि पर हमला करे तो क्या आप चुपचाप खडे रहेगें। दूसरी बात लक्ष्मण ने वह अंग काटा जिसका अतिरिक्त मांस कटने से शरीर को कोई अपंगता नहीं आती है। यदि हाथ पैर काट दे या आंख फोड दें तो या फिर उंगली काट दें तो अपंगता आती है। पर नाक के ऊपर का मांस या का कान की लौ काटने से शरीर में कोई नुक्सान नहीं। यह तो हुई भौतिक व्याख्या।

सूक्ष्म व्याख्या देखें तो नाक कान लक्ष्यमन यानि लक्ष्य + मन ने काटे। मतलब यदि तुम ब्रह्म स्वरूप राम के पास जाना चाहते हो तो अपने मन में तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये कि ब्रह्म की प्राप्ति और इसके लिये अपने गर्व और अहंकार के प्रतीक यानि नाक को कटवाना होगा। वह भी अपने मन के लक्ष्य के हाथों। साथ ही अपने कानों से सुनी विपरीत बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। अर्थात अपनी नाक और कान को कटवा कर लक्ष्य के प्रति मन से समर्पित होकर कार्य करना होगा तब ही ब्रह्म की प्राप्ति होगी। 

(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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