Tuesday, March 19, 2019

भारत के प्रमुख धर्म


भारत के प्रमुख धर्म

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
मो.  09969680093
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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इतिहास के अनुसार आज से तीन हजार वर्ष पहले तक कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अफगानिस्तान की हिन्दू कुश पर्वतमाला से लेकर बांग्लादेश की खाड़ी और बर्मा तक भारत में सिर्फ हिन्दू धर्म था, जिसे वैदिक धर्म या आर्यो का धर्म माना जाता था। इस धर्म को 3000 हजार ईसा पूर्व सर्वप्रथम संगठित रूप दिया भगवान कृष्ण ने, लेकिन कालक्रम में यह पुन: बिखर कर भिन्न-भिन्न जातियों में बदल कर असं‍गठित हो गया।

इस असंगिठित हिन्दू धर्म के साथ ही जैन धर्म की एक परंपरा शुरुआत से ही जुड़ी हुई चली आ रही थी जिसे सबसे पहले एक सुगठित सामाजिक रूप मिला पार्श्वनाथ के काल में। इससे पूर्व इस परंपरा को विदेहियों की परंपरा कहा जाता था। राजा जनक उसी परंपरा से थे।


जैन
ईसा पूर्व छठी शताब्‍दी में महावीर ने जैन धर्म का प्रचार किया जिसके कारण बहुत से क्षत्रिय और ब्राह्मण जैन होते गए। चाणक्य का नाम कौन नहीं जानता। वे खुद जैन धर्म से प्रभावित होकर जैन हो गए थे। महावीर ने तप, संयम और अहिंसा का संदेश दिया।
महावीर स्वामी के पूर्व 23 जैन तीर्थकर हो चुके थे।
महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार किया। 

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है।
इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का प्रवर्तन किया।
वेदों को न मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को "नास्तिक दर्शन" भी कहते हैं। 

इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के उपदेशों के रूप में है जो क्रमश: प्राकृत और पालि की लोकभाषाओं में मिलता है तथा जिसका संग्रह इन महापुरुषों के निर्वाण के बाद कई संगीतियों में उनके अनुयायियों के परामर्श के द्वारा हुआ। 

बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे। युवावय में ही सन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मो का उपदेश और प्रचार किया।
उनका यह सन्यास उपनिषदों की परंपरा से प्रेरित है।
जैन और बौद्ध धर्मों में तप और त्याग की महिमा भी उपनिषदों के दशर्न के अनुकूल है। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जातिभेद का खंडन इन धर्मों की विशेषता है।
अहिंसा के बीज भी उपनिषदों में विद्यमान हैं।
फिर भी अहिंसा की ध्वजा को धर्म के आकाश में फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।

महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है।
महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का "तत्वार्थाधिगम सूत्र" (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। 

सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दसरी ओर भौतिकवादी है।
वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है।
जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है।
पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है।
स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है।
वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है। इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान।
पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान है। यही ज्ञान "प्रमाण" है।
किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान "नय" कहलाता है। "नय" कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दर्शन का सिद्धांत है।
यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता को संभव बनाती है।
सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते हैं।
पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है।
वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण अत्मा का कैवल्य है।
कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को आच्छादित करती है।
यह "आस्रव" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन है।
तप, त्याग और सदाचार से इस गति का अवरोध "संवर" तथा संचित कर्मपुद्गल का क्षय "निर्जरा" कहलाता है।
इसका अंत "निर्वाण" में होता है।
निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाशित होता है।

बौद्ध काल और गुप्त काल को भारत का स्वर्ण काल माना जाता है। उसी दौर में ईसा से 3000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए यहूदी धर्म का एक ‍कबीला कश्मीर में आकर रहने लगा और धीरे-धीरे वह हिन्दू तथा बौद्ध संस्कृति में घुलमिल गया।


इसी तरह बौद्ध काल में ही शक, हूण, कुषाण, पारथीयन, ग्रीक और मंगोल आक्रमणकारी आए और उनके कुछ समूह यहां की संस्कृति और धर्म में मिलकर खो गए और ज्यादातर अपने देश लौट गए।
भारत में कुछ समूह व्यापारी बनकर आया और बाद में सत्ताधारी बन गया। कुछ समूह लुटने आया और लुटकर चला गया और कुछ ने आक्रमण कर यहां के भू-भाग पर कब्जा कर लिया।


यहूदी धर्म :  आज से 2985 वर्ष पूर्व अर्थात 973 ईसा पूर्व में यहूदियों ने केरल के मालाबार तट पर प्रवेश किया। यहूदियों के पैगंबर थे मूसा, लेकिन उस दौर में उनका प्रमुख राजा था सोलोमन, जिसे सुलेमान भी कहते हैं।
नरेश सोलोमन का व्‍यापारी बेड़ा, मसालों और प्रसिद्ध खजाने के लिए आया। आतिथ्य प्रिय हिंदू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्‍बन को उपाधि और जागीर प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार, 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के तत्‍काल पश्‍चात कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे।


बौद्ध धर्म : लगभग इसी दौर में बौद्ध धर्म की स्थापना हुई। गौतम बुद्ध एक क्षत्रिय राजकुमार थे। बुद्ध से प्रभावित होकर दलितों और ब्राह्मणों में भिक्षु होने की होड़ लग गई थी। बुद्ध के उपदेशों का चीन और कुछ अन्‍य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भी प्रचार हुआ। बुद्ध पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म को एक व्यवस्था थी और ज्ञान को श्रे‍णीबद्ध किया। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर ही बाद के ईसाई धर्म में बहुत-सी बातें शामिल की गई।

बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं।
ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं।
क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है।
उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है।
बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है।
पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है।
बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है।
बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं।
आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है।
इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है।
फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं।
आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं।
दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा।
अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ।
इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा।
किन्तु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ।
बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। 

सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं।
इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है।
योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ।
इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ।
इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है।
पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।
वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे।
वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है।
अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं।
सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है।
अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं।
योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है।
योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है।
माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है।
सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है।
शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।

ईसाई धर्म :  व्यापक रूप से हुए एक शोध अनुसार ईसा मसीह ने कश्मीर में एक बौद्ध मठ में शिक्षा और दीक्षा ग्रहण की। ईसा मसीह के 12 शिष्यों में से एक शिष्य थे जिनका नाम था सेंट थॉमस। थॉमस ने ही सर्वप्रथम केरल के एक स्थान से ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू किया।


दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च, सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देती है। इसके बाद सन 1542 में सेंट फ्रेंसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन कैथोलिक धर्म की स्‍थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिंदू और आदिवासी इलाकों में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर सेवा के नाम पर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया। इसके बाद भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान इस कार्य को और गति मिली। फिर भारत की आजादी के बाद 'मदर टेरेसा' ने व्यापक रूप से लोगों को ईसाई बनाया।


इस्‍लाम : सर्वप्रथम अरब व्‍यापारियों के माध्‍यम से इस्‍लाम धर्म 7वीं शताब्‍दी में दक्षिण भारत में आया। केरल और बंगाल दो उनके प्रमुख केंद्र थे, जबकि पश्चिम भारत में अफगानिस्तान। इसके बाद 7वीं में ही मोहम्मद बिन कासिम ने बड़े पैमाने पर कत्लेमाम कर भारत के बहुत बढ़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया जहां से हिन्दू जनता को पलायन करना पड़ा। जो हिन्दू पलायन नहीं कर सके वह मुसलमान बन गए या मारे गए। जिस भू भाग पर कब्जा किया था वह आज का आधा पाकिस्तान है, जो पहले मगध था।
इनके पश्‍चात् अफगानी, ईरानी और मुगल साम्राज्य के दौर में भारत में इस्‍लाम धर्म दो तरीके से फला और फैला पहला सुफी संतों के प्रचार-प्रसार से तथा दूसरा मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए दमन चक्र से। जो अफगा‍नी, ईरानी, मुगल थे उनकी नस्ल का कहीं अता-पता नहीं चलता और कुछ गुलाम वंश के शासक भी अंग्रेजों के काल में अपने-अपने देश लौट गए रह गए तो वह भारतीय हिन्दू जो अब मुसलमान हो चुके थे।


पारसी धर्म : पारसी धर्म ईरान का प्राचीन धर्म है। ईरान के बाहर मिथरेज्‍म के रूप में रोमन साम्राज्‍य और ब्रिटेन के विशाल क्षेत्रों में इसका प्रचार-प्रसार हुआ। इसे आर्यों की एक शाखा माना जाता है।

ईरान पर इस्‍लामी विजय के पश्‍चात पारसियों को इस्लाम कबूल करना पड़ा तो कुछ पारसी धर्म के लोगों ने अपना गृहदेश छोड़कर भारत में शरण ली। कहा जाता है कि इस्लामिक अत्याचार से तस्त्र होकर पारसियों का पहला समूह लगभग 766 ईसा पूर्व दीव (दमण और दीव) पहुंचा। दीव से वे गुजरात में बस गए।
अब पूरी दुनिया में पारसियों की कुल आबादी संभवत: 100000 से अधिक नहीं है। ईरान में कुछ हजार पारसियों को छोड़कर लगभग सभी पारसी अब भारत में ही रहते हैं और उनमें से भी अधिकांश अब मुंबई में हैं।

सिख धर्म : 15वीं शताब्‍दी में सिख धर्म के संस्‍थापक गुरुनानक ने एकेश्‍वर और भाईचारे पर बल दिया। भारत के पंजाब में इस धर्म की उत्पत्ति हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ रहे वैमनस्य के चलते हुई। बाद में इस्लामिक अत्याचार से कश्मीरी पंडितों और देश के अन्य भागों से भाग रहे हिन्दुओं को बचाने के लिए 'खालसा पंथ' की स्थापना हुई। गुरु गोविंद सिंह और महाराजा रणजीत सिंह के काल में लोगों ने स्वयं को सुरक्षित महसूस किया।
इसके अलावा भारत में ऐसे बहुत से संत हुए हैं जिन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया और अपने तरीके से एक नए धर्म को गढ़ने का प्रयास किया, लेकिन वह महज एक संप्रदाय में ही सिमटकर रह गए। ऐसे सैकड़ों संप्रदाय है जिनके कारण हिन्दू आपस में बंटा हुआ है।


अंतत: भारत एक ऐसा विशाल देश है जहां सर्वाधिक विविधता का मिश्रण है। इसके बावजूद सभी भारतीय है, क्योंकि सभी के पूर्वज आर्य या द्रविड़ थे और आज के शब्द में कहें तो हिन्दू ही थे। हम सभी ऋषि, मुनि, मनु और कष्यप ऋषि की संतानें हैं।

भारत में लगभग 15 प्रमुख भाषाएं हैं और 844 बोलियां हैं। आर्यों की संस्‍कृत भाषा के पूर्व द्रविड़ भाषा में विलय से भारत में कई नई भाषाओं की उत्‍पत्‍ति हुई। हिंदी, भारत की राष्‍ट्रीय भाषा है और हम सब भारतीय हैं। तीन से पांच हजार वर्ष पहले, गुजराती, मराठी, पंजाबी, तमिल या बंगाली भाषा नहीं थी। सभी जगह स्थानीय बोलियां थी और सभी संस्कृत के माध्यम से संपर्क में रहते थे।


कुल मिलाकर आप देखेगें कि भारत की महान भूमि को सम्पूर्ण जीवन रहस्य की धरोहर दी है। अत: जो इसको समझ पाता है वह दीवाना हो जाता है। शायद यही कारण रहा है कि भारत विश्व का धर्म गुरू रहा। बीच में अनूकूल वातावरण न होने के बावजूद भी यह पनपता रहा\ आगे अनूकूल वातावरण मिलने के कारण यह पुन: विश्व का धर्म गुरू बनकर विश्व शांति का मार्ग दिखायेगा।

जय गुरूदेव महाकाली।  




(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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