Wednesday, March 27, 2019

पाप पुण्य और चाय पर चर्चा



पाप पुण्य और चाय पर चर्चा

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
मो.  09969680093
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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न पुण्य तारक है, न पाप मारक है, केवल भाव ही तारक है । – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, पुणे, महाराष्ट्र, भारत.

दैनिक जीवन में कर्म करते समय, हम उन कर्मों का फल पुण्य एवं पाप के रूप में भोगते हैं । पुण्य एवं पाप हमें अनुभव होनेवाले सुख और दुख की मात्रा निर्धारित करते हैं । अतएव यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि पापकर्म से कैसे बचें । वैसे तो अधिकांश लोग सुखी जीवन की आकांक्षा रखते हैं; परन्तु जिन लोगों को आध्यात्मिक प्रगति की इच्छा है, वे यह जानने की जिज्ञासा रखते हैं कि क्यों मोक्षप्राप्ति के आध्यात्मिक पथ में पुण्य भी अनावश्यक हैं ।
पुण्य अच्छे कर्मों का फल है, जिनके कारण हम सुख अनुभव करते हैं । पुण्य वह विशेष ऊर्जा अथवा विकसित क्षमता है, जो भक्तिभाव से धार्मिक जीवनशैली का अनुसरण करने से प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ मित्रों की आर्थिक सहायता करना अथवा परामर्श देना पुण्य को आमन्त्रित करना है । धार्मिकता तथा धर्माचरण की विवेचना अनेक धर्मग्रंथों में विस्तृतरूप से की गई है । पुण्य के माध्यम से हम दूसरों का कल्याण करते हैं । उदाहरण के लिए कैन्सर पीडितों की सहायता के लिए दान करने से कैन्सर से जूझ रहे अनेक रोगियों को लाभ होगा, जिससे हमें पुण्य मिलेगा ।
पाप क्या हैपाप बुरे कर्म का फल है, जिससे हमें दुख मिलता है । किसी और का बुरा चाहने की इच्छा से कर्म करने पर पाप उत्पन्न होता है । यह उन कर्मों से उत्पन्न होता है जो प्रकृति अथवा ईश्वर के नियमों के विपरीत अथवा उसके विरुद्ध हों । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यापारी अपने ग्राहकों को ठगता है, तो उसे पाप लगता है । कर्त्तव्य-पूर्ति नहीं करने पर भी पाप उत्पन्न होता है, उदा. जब कोई पिता अपने बच्चों की आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं देता अथवा जब वैद्य अपने रोगियों का ध्यान नहीं रखता ।
पुण्य और पाप इसी जन्म में, मृत्यु के उपरांत अथवा आगामी जन्मों में भोगने पडते हैं ।
पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्य और पाप लेन-देन के हिसाब से सूक्ष्म होते हैं; क्योंकि लेन-देन का हिसाब समझना तुलनात्मक रूप से सरल है उदा. परिवार के स्तर पर, परन्तु यह समझना बहुत कठिन है कि क्यों किसीने एक अपरिचित का अनादर किया ।
पुण्यसंचय के अनेक कारण हो सकते हैं । प्रमुख कारण हैं :
  • परोपकार
  • धर्मग्रंथों में बताए अनुसार धर्माचरण
  • दूसरे की साधना के लिए त्याग करना । उदाहरण के लिए यदि कोई बहू अपने कार्य से छुट्टी लेकर घर संभालती है, जिससे उसकी सास तीर्थयात्रा पर जा सके, तो बहू को सासद्वारा अर्जित तीर्थयात्रा के फल का आधा भाग मिलेगा । तथापि जहांतक संभव हो, दूसरों पर निर्भर होकर साधना न करें
पाप संचय के कुछ कारण हैं :
  • क्रोधलालच एवं ईर्ष्या के रूप में स्वार्थ एवं वासना व्यक्ति को पाप के लिए उद्युक्त करते हैं ।
  • सिद्धांतहीन अथवा क्रूर होना
  • किसी भिखारी से अपमानजनक बात करना
  • मांस एवं मदिरा का सेवन करना
  • प्रतिबन्धित वस्तुएं बेचना, ऋण न चुकाना, काले धनका व्यवहार, जुआ
  • झूठी गवाही देना, झूठे आरोप लगाना
  • चोरी करना
  • दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार इत्यादि
  • हिंसा
  • पशुहत्या
  • आत्महत्या
  • ईश्वर, मंदिर, आध्यात्मिक संस्था इत्यादि की संपत्तिका अनावश्यक व्यय एवं दुरुपयोग इत्यादि
  • अधिवक्ताओं को पाप लगता है, क्योंकि वे सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य बनाते हैं ।
  • पति को पत्नी के पापकर्म का आधा फल भोगना पडता है; क्योंकि उसने अपनी पत्नी को पापकर्म करने से न रोकने के कारण वह पाप का भागीदार बनता है ।
  • पतिद्वारा अधर्म से अर्जित संपत्ति व्यय करनेवाली तथा ज्ञात होने पर भी उसे न रोकनेवाली पत्नी को पाप लगता है ।
  • पापी के साथ एक वर्ष रहनेवाला भी उसके पाप का भागी हो जाता है ।
  •  
पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्य की मात्रा के अनुपात में व्यक्ति को पृथ्वी पर उतना सुख मिलता है और अंत में पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में अपेक्षासहित कर्म से अर्जित पुण्य से वे स्वर्ग में सुख पाते हैं :
  • सुसंस्कृत एवं धनाढ्य परिवार में जन्म
  • बढती आय
  • सांसारिक सुख
  • इच्छापूर्ति
  • स्वस्थ जीवन
  • समाज, संस्था एवं शासनद्वारा प्रशंसा एवं सम्मान
  • आध्यात्मिक प्रगति
  • मृत्यु के उपरांत स्वर्ग सुख
मनुष्य जन्म, अच्छे कुल-परिवार में जन्म, धन, दीर्घायु, स्वस्थ शरीर, अच्छे मित्र, अच्छा पुत्र, प्रेम करनेवाला जीवनसाथी, भगवद्-भक्ति, बुद्धिमत्ता, नम्रता, इच्छाओं पर नियंत्रण एवं पात्र व्यक्ति को दान देने की ओर झुकाव, ऐसे पहलू हैं, जो पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के बिना असंभव है । जब यह सब हो, तो जो पुण्यात्मा इसका लाभ उठाता है और साधना करता है, उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है ।

जब समष्टि पुण्य बढता है, तो राष्ट्र सिद्धांत (दर्शन) और आचरण में सर्वश्रेष्ठ होता है तथा समृद्ध होता है ।
आध्यात्मिक प्रगतिके परिप्रेक्ष्य में, पुण्य की अपनी सीमा है ।
पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्यवान जीवन, मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति को स्वर्गलोक ले जाता है, परन्तु एकबार पुण्य समाप्त हो जाए, तो व्यक्ति को पृथ्वी पर पुनः अगला जन्म लेना पडता है । इस कारण पुण्य भी एक प्रकार का बन्धन है । केवल साधना ही हमें मोक्षतक ले जाती है ।

पुण्य एवं पाप क्या है, प्रत्येक क्षण सुख भोगने पर, हमारा पुण्य समाप्त हो जाता है, इसलिए व्यक्ति को पुण्य बढाने के लिए परिश्रम करना पडता है । इसके लिए पुण्यप्रद कर्म अथवा साधना करनी पडती है । अन्तर केवल इतना है कि पुण्यप्रद कर्मों से सुख मिलता है, जबकि साधना से आध्यात्मिक प्रगति होती है अर्थात इससे आनंद मिलता है, जो पुण्य-पाप तथा सुख-दुख से परे होता है, इसका उपफल सुख है

पुण्य एवं पाप में अन्तर के साथ ही उनकी गहराई और उनके प्रभाव की महत्ता समझने से हम अपने आचरण और कर्मों को नियन्त्रित कर सकते हैं । तथापि दोनों से मुक्त होने हेतु नियमित साधना करना आवश्यक है ।
हिंदू धर्मग्रंथ वेदों का संक्षिप्त है उपनिषद और उपनिषद का संक्षिप्त है गीता। स्मृतियां उक्त तीनों की व्यवस्था और ज्ञान संबंधी बातों को क्रमश: और स्पष्ट तौर से समझाती है। पुराण, रामायण और महाभारत हिंदुओं का प्रचीन इतिहास है धर्मग्रंथ नहीं।


विद्वान कहते हैं कि जीवन को ढालना चाहिए धर्मग्रंथ अनुसार। यहां प्रस्तुत है धर्म अनुसार प्रमुख दस पुण्य और दस पाप। इन्हें जानकर और इन पर अमल करके कोई भी व्यक्त अपने जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है।

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥-मनु स्मृति 6/92


दस पुण्य कर्म-
1.धृति- हर परिस्थिति में धैर्य बनाए रखना।
2.क्षमा- बदला न लेना, क्रोध का कारण होने पर भी क्रोध न करना।
3.दम- उदंड न होना।
4.अस्तेय- दूसरे की वस्तु हथियाने का विचार न करना।
5.शौच- आहार की शुद्धता। शरीर की शुद्धता।
6.इंद्रियनिग्रह- इंद्रियों को विषयों (कामनाओं) में लिप्त न होने देना।
7.धी- किसी बात को भलीभांति समझना।
8.विद्या- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान।
9.सत्य- झूठ और अहितकारी वचन न बोलना।
10.अक्रोध- क्षमा के बाद भी कोई अपमान करें तो भी क्रोध न करना।


दस पाप कर्म-
1.दूसरों का धन हड़पने की इच्छा।
2.निषिद्ध कर्म (मन जिन्हें करने से मना करें) करने का प्रयास।
3.देह को ही सब कुछ मानना।
4.कठोर वचन बोलना।
5.झूठ बोलना।
6.निंदा करना।
7.बकवास (बिना कारण बोलते रहना)।
8.चोरी करना।
9.तन, मन, कर्म से किसी को दु:ख देना।
10.पर-स्त्री या पुरुष से संबंध बनाना।-


यह कर्मफल का खेल चालू हुआ। दूसरे तुम्हारी गुरू है अतः तुम्हारे प्रारब्ध भी जा सकते है।
यह कर्मफल ही है। किसी दर्द वाले का दर्द ठीक किया होगा कभी।
भाई इनकी मॉ को देवी सायुज्य प्राप्त है। वे अपने संकल्प प्रार्थना से लोगो को ठीक करती थी।
जाने अनजाने उनके प्रारब्ध इनको आ गए जो पीड़ा दे रहे है।
यह किसी गुरू के पास जा नही सकते थे तो इनको इनकी मा की शरण मे भेज कर कुछ समय हेतु दीक्षा दिलवा दी थी।


इनके साथ बहुत कुछ वो होता था जो आज का विज्ञान न मान सकता न जान सकता न पहिचान सकता था।
इनकी बात सत्य है निर्भर यह करता है कि कौन बड़ा कौन छोटा।
जैसा मेरे साथ घटित हुआ था। शक्ति के आवेग को हमारे गुरु महाराज स्वामी नित्यबोधनन्द तीर्थ जी महाराज, जिनके एक वर्णन में उन्होंने 105 साल के तपस्वी को जिस शक्ति की दीक्षा दी थी और पुरा आश्रम खाली करवा दिया। पूछने पर ज्ञात हुआ था यदि यह शक्ति किसी सामान्य को लगी तो मृत्यु तक हो सकती है।
उन गुरूदेव के द्वारा मेरा आवेग पूर्ण रूपेण नही नियंत्रित हो पाया था। किंतु जब बड़े महाराज यानि परमगुरु स्वामी शिवओम तीर्थ जी महाराज ने पूरा कमरा खाली करवा कर मेरे तालू पर तीन हाथ मारे थे। तो मुझे तुंरन्त हॉइ फीवर आया और मेरी सारी आवेग और क्रिया यू समझो बन्द हो गई।
यह वर्णन आप लोगो के लिए मेरी आत्म कथा मेरे ब्लॉग पर भाग 1 में दी है।
यह होता है जैसे मेरा जब तांत्रिक से युद्ध हुआ तांत्रिक बुरी तरफ परास्त होकर वाशी से भाग गया था।
शक्ति का खेल निराला होता है।
अधिक शक्ति छोटी शक्ति को दबाती है।
शक्ति के आवेग में किये गए कार्य मे कोई कर्मफल नही होता है। किंतु कानून में यह कर्म दण्ड का पात्र भी बन जाता है। क्योकि कानून शक्ति से अनभिज्ञ होता है।
कभी कभी शक्ति मनुष्य को दण्ड देने हेतु उससे आवेग में गलत कानून विरोधी कार्य करवा देती है जिससे कानून सक्रिय हो जाता है। यह शक्ति का शैतानी रूप कह सकते हो।
एक बात याद रखो तांत्रिक शक्ति को अपने अधीन करता है। अतः शक्ति तांत्रिक से हमेशा कुपित रहती है।
वही भक्त खुद शक्ति की अदीनता मॉनकर दास बन जाता है। अतः यही सही है समर्पण।
तुम्हारी दीक्षा किसी शक्तिशाकी गुरू से आवश्यक है। कोशिश करो।
यह हो सकता है जब साधक रक्षित नही होता। गुरू शक्ति एक आवरण बन कर रक्षा करती है।
सर यह सब अवस्थाएं है जो बुद्धि से परे है। लोगो की मृत्यु तक हो जाती है।
माता जी मुझे इस तरह के साक्षात अनुभवों से परिचित कराया है।
इष्ट परिवार से नही पुर्व जन्मों की साधना से होता है। आप निश्चिन्त होकर शिव का जाप हर समय हर स्थान पर करते रहे।
जहां आपको लगे असुद्ध स्थान है वहाँ मॉनसिक जाप करे।
जय महादेव



फल का अर्थ इस विधि में अनुभूति हो जाती है जिससे श्रद्धा बढ़ जाती है।
जाप नेगेटिव विचारों को दूर करने के अतिरिक्त बहुत कुछ है।
इंसान भी कितना अनोखा जीव है 
पहले भिखारी बनकर भगवान से हाथ जोड़ कर मांगता है फिर गर्व से उसी भगवान को दान देकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है
ज्ञानियों तीनो योग भक्ति योग ज्ञान योग कर्म योग सब एक साथ ही स्पष्ट होते है।
सबसे सहज भक्ति योग। कुछ न करो बस अपने इष्ट को समर्पित हो जाओ। मन्त्र जप करते करते रहो करते हो। खो जाओ उसी में। एक दिन देखोगे तुम्हारा इष्ट तुम्हारे सामने और जो आगे पीछे सब अनुभव करवा देगा। वेद महावाक्यों का अनुभव ज्ञान योग अद्वैत को स्वतः समझा देगा।
फिर जो कर्म करोगे धीरे धीरे लिप्तता कम होती जाएगी। तुम्हारे कर्म योग बन जायेंगे।
भक्ति रस की पहिचान तो प्रेमाश्रु और राम रस से होती ही है। यह सब साक्षात्कार होने के बाद स्वतः होता जाएगा।
अतः सब झंझट सवाल प्रश्न छोड़कर ईश प्राणीधान में स्थित हो जाओ।
जिसको सुबह गीता के श्लोक में समझाया गया है।
मतलब साकार सगुण द्वैत यात्रा शुरू की मन्त्र जप से। जो स्वतः निराकार निर्गुण और अद्वैत का अनुभव कराएगी।
अब तुम्हारी मर्जी ज्ञान योग में स्थिर होकर अहंकारी होना चाहते हो या भक्तियोग में रस पीकर जीवन का आनन्द लेना चाहते हो।

जो जैसा पूछता है बताने का प्रयास अपने अनुभव से करता हूँ।
कोई मेरे बारे में क्या कहे क्या सोंके प्रवाह नही। मैं अपनी गाड़ी सही चला रहा हूँ। न ही मैंने ज्ञान का ठेका लिया है और न ही ठेला जो औरो को आंकता फिरू।

जब यह ज्ञान हो जाता है। वेद महावाक्यों के अनुभव के बाद कि मैं ही ब्रह्म हूँ। तो मनुष्य स्वयं ब्रह्म होने के भरम में आ जाता है। बस यहीं से अहंकार प्रवेश कर जाता है।
क्योकि मैं वो माया के अधीन । ब्रह्म वो जिसके  अधीन माया।
मैं वेद महावाक्यों को भी एक अंतिम अवस्था की क्रिया मानता हूँ। 
महामाया की एक चाल समझता हूँ जो हमको गिराने के लिए ये अनुभव देती है।
मेरा मानना है अपना दासत्व भाव कभी मत छोड़ो चाहे कुछ हो जाये।
इसी में भलाई रहती है।
सबसे पहले सुबह उठकर अपनी आत्मा को श्रेष्ठ विचारो का नाश्ता कराना चाहिये,दोपहर मे परमार्थ का भोजन और रात्रि मे थोडा सा चिंतन तब सुख चैन की नींद ही आयेगी, धीरे धीरे विचार और आप स्वस्थ व शक्तिशाली होते जायेगे। कुछ लोग सुबह से किसी किसी की निन्दा मे सलंग्न होते जाते है किसी को सुनते है किसी को सुनाते है तो अपनी व सामने वाले को शक्तिहीन करते है।कर भला तो हो भला, सुबह प्रभू स्मरण ही श्रेयस्कर है। जय बाबा महाकाल जय बाबा चतुर्भुज जय हिन्द जय माँ नर्मदे जय मध्यप्रदेश जय भोपाल।
वे महामूर्ख और अज्ञानी ही है जो मात्र साकार या निराकार समझते है।
वह ब्रह्म हर दृश्य अदृश्य जगत में व्याप्त है कि उसके बिना रहना असम्भव।
हे अर्जुन जो मुझे जिस रूप में भजता है मैं उसे उसी रूप में प्राप्त होता है।
वह साकार भी है निराकार भी।
और मैं चुनौती देते हुए यह प्रमाणित करता हूँ। कि मुझे ईश कृपा से दोनो का अनुभव अनुभूति है।

बस एक अंतर है हम भी साकार रूप में सीमित रहते है। निराकार में असीमित।
इसीलिये
सीमित से असीमित की यात्रा सब ज्ञान देती है।
असीमित होने के लिए साकार को निराकर ही होना पड़ेगा।
सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्य ब्रह्म।
हम नेत्र मूंदकर अपने आत्म स्वरूप की तरफ चलते है। एक अवस्था के बाद जब हम यात्म स्वरूप में स्थित हो जाते है। तो वेद महावाक्य अयम आत्मा ब्रह्म। और ब्रह्म सर्वत्र। उसी सर्व व्यापी के  कारण हमारी आत्मा का विस्तार हमे अनन्त का भृमण करा सकता है।
अब भी ऐसा होता है पर हम तक पहुचता नही। गर पहुँचे तो मानते नही।
क्योकि अर्जुन भक्त होते हुए भी क्लीनता को प्राप्त हो रहा था।
सत्य है सृष्टि के आरम्भ में सुप्त ऊर्जा से किंतु एक योनी होने के बाद साकार से ही साकार।
इतनी लंबी कहानी पढ़ने समझने में कष्ट होता है।
सौ की सीधी बात
ईश प्राणिधान। सब तालो की एक चाबी।
मैं सहमत नही।
मनुष्य इस सृष्टि का सबसे शक्तिशाली जीव है।
ठीक है बचपन से एक छवि बनाई।
किंतु अपने मस्तिष्क की शुद्धता चिंतन और तप से मानव उस निराकार शक्ति अपनी छवि के अनुसार रूप धरने को मजबूर कर देता है। फिर वह छवि सिद्ध हो जाती क्योकि लोग उस रूप में पूजने लगते है।
किंतु प्रश्न यह मुझे महामाया का वह रूप जो कही पढा नही देखा नही सुना नही सबके साथ क्यो दिखाई दिया।
कारण था वह रूप उसी छवि में पहले से सिद्ध होगा जो प्रकट हो गया।
तुम भृमित हो क्योकि तुमको भक्ति का अनुभव नही दूसरे तुम साकार से गुजरे नही। रामकृष्ण परमहंस के द्वार से तोतापुरी भी उनको नमन कर साकार की शिक्षा लेकर वापिस गए थे।
जब रामकृष्ण ने साकार रूप प्रकट कर निराकार की शक्ति को चुनौती दी बात ही बात में तो तोतापुरी कुछ न कर पाए।
क्योकि कार्य करने हेतु साकार रूप ही चाहिए। निराकार एक अवस्था है जो अंतिम है पर साकार एक क्षमता है।
जितना सत्य निराकार है उतना ही साकार। अपने को देखो। क्या तुम साकार नही।
छोड़ो न तुम समझोगे न मैं मानूंगा। क्योकि मुझे प्रभु ने दोनो के अनुभव और अनुभूति दी है। अतः मैं दोनो को औरो से बेहतर समझ सकता हूँ।
यह अनुभव मनुष्य भृमित कर पतन की ओर भी ले जा सकता है। 
क्योकि ब्रह्म वो जिसके अधीन माया।
मानव वो जो माया के अधीन।
किंतने भी वेद महावाक्य के अनुभव करे पर हम रहते माया के अधीन है। मैं इसे उच्चतम क्रिया ही समझूंगा। अनुभव के बाद इस विचार में जाना खतरनाक है।

नही सन्तो ने कई चमत्कार दिखाए क्योकि माया उनके अधीन हो गई थी।
क्या तुम कुछ कर सकते हो।

मेरे सामने गर्म चाय ही भेज कर दिखाओ।
ऋत वैदिक धर्म में सही सनातन प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन के सिद्धांत को कहते हैं, यानि वह तत्व जो पूरे संसार और ब्रह्माण्ड को धार्मिक स्थिति में रखे या लाए। वैदिक संस्कृतमें इसका अर्थ 'ठीक से जुड़ा हुआ, सत्य, सही या सुव्यवस्थित' होता है। यह हिन्दू धर्म का एक मूल-सिद्धांत है। कहा गया है की 'ऋत ऋग्वेद के सबसे अहम धार्मिक सिद्धांतों में से एक है' और 'हिन्दू धर्म की शुरुआत इसी सिद्धांत की शुरुआत के साथ जुड़ी हुई है'। इसका ज़िक्र आधुनिक हिन्दू समाज में पहले की तुलना में कम होता है लेकिन इसका धर्म और कर्म के सिद्धांतों से गहरा सम्बन्ध है।
यार तुम सन्तो को भी पढो। तुम पढ़ने की आदत डालो।
जब ब्रह्म जगत का संचालन करता है तो वह कुछ भी कर सकता है।
यदि तुम ब्रह्म हो तो कुछ करके दिखाओ।
मैं तो अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव करके भी दासत्व भाव मे रहकर इसे क्रिया ही मॉनकर इस विचार में लिप्त नही होऊंगा।
नही कुछ बनना नही मिटना है।
बस यह भाव दृढ़ है कि मैं कुछ करता नही। करने वाला कोई और।
यह भावना पक्की है।
अतः जो कर रहा है उसी को समर्पण और अर्पण।
जो उसकी मर्जी करे।
मुझे उसकी गद्दी सत्ता नही चाहिए। बस मैं उंसक दास।
कोई कितना महान है यह आप पढ़कर अपनी बुद्धि से तौलकर बोलते है।
मेरा अनुभव कुछ अल्पज्ञ ज्ञानी तो कुछ मूरख भी थे।


लंबे लेख और बातो से कोई न ज्ञानी होता है और न महान।
न लेखन योग की कसौटी है।
जिसने वेद महावाक्य का छोटा सा भी अनुभव कर लिया तो सब गौण।
जिसने साकार का अनुभव कर किसी भी देव के दर्शन किये उसके लिए सब पूजा पाठ गौण।
अनुभव और अनुभूति से बड़ा कोई ज्ञान नही।
किताबे तो छपती है नष्ट होती है पर ज्ञान नही।
नदी के किनारे खड़े होकर तैराकी नही सीखी जा सकती।
*हम वो आखरी पीढ़ी  हैं*, जिन्होंने कई-कई बार मिटटी के घरों में बैठ कर परियों और राजाओं की कहानियां सुनीं, जमीन पर बैठ कर खाना खाया है, प्लेट में चाय पी है।

*हम वो आखरी लोग हैं*, जिन्होंने बचपन में मोहल्ले के मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे जैसे खेल खेले हैं।

*हम वो आखरी पीढ़ी के लोग हैं*, जिन्होंने कम या बल्ब की पीली रोशनी में होम वर्क किया है और नावेल पढ़े हैं।

*हम वही पीढ़ी के लोग हैं*, जिन्होंने अपनों के लिए अपने जज़्बात, खतों में आदान प्रदान किये हैं।

*हम वो आखरी पीढ़ी के लोग हैं*, जिन्होंने कूलर, एसी या हीटर के बिना ही  बचपन गुज़ारा है।

*हम वो आखरी लोग हैं*, जो अक्सर अपने छोटे बालों में, सरसों का ज्यादा तेल लगा कर, स्कूल और शादियों में जाया करते थे।

*हम वो आखरी पीढ़ी के लोग हैं*, जिन्होंने स्याही वाली दावात या पेन से कॉपीकिताबें, कपडे और हाथ काले, नीले किये है।

*हम वो आखरी लोग हैं*, जिन्होंने टीचर्स से मार खाई है।

*हम वो आखरी लोग हैं*, जो मोहल्ले के बुज़ुर्गों को दूर से देख कर, नुक्कड़ से भाग कर, घर आ जाया करते थे।

*हम वो आखरी लोग हैं*, जिन्होंने अपने स्कूल के सफ़ेद केनवास शूज़ पर, खड़िया का पेस्ट लगा कर चमकाया हैं।

*हम वो आखरी लोग हैं*, जिन्होंने गोदरेज सोप की गोल डिबिया से साबुन लगाकर शेव बनाई है। जिन्होंने गुड़  की चाय पी है। काफी समय तक सुबह काला या लाल दंत मंजन या सफेद टूथ पाउडर इस्तेमाल किया है। 

*हम निश्चित ही वो आखिर लोग हैं*, जिन्होंने चांदनी रातों में, रेडियो पर BBC की ख़बरें, विविध भारती, आल इंडिया रेडियो और बिनाका जैसे  प्रोग्राम सुने हैं।

*हम ही वो आखिर लोग हैं*, जब हम सब शाम होते ही छत पर पानी का छिड़काव किया करते थे। उसके बाद सफ़ेद चादरें बिछा कर सोते थे। एक स्टैंड वाला पंखा सब को हवा के लिए हुआ करता था। सुबह सूरज निकलने के बाद भी ढीठ बने सोते रहते थे। वो सब दौर बीत गया। चादरें अब नहीं बिछा करतीं। डब्बों जैसे कमरों में कूलर, एसी के सामने रात होती है, दिन गुज़रते हैं।

*हम वो आखरी पीढ़ी के लोग हैं*, जिन्होने वो खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग देखे हैं, जो लगातार कम होते चले गए। अब तो लोग जितना पढ़ लिख रहे हैं, उतना ही खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन, व निराशा में खोते जा रहे हैं। *हम ही वो खुशनसीब लोग हैं, जिन्होंने रिश्तों की मिठास महसूस की है...!!*

*हम एक मात्र वह पीढी है*  जिसने अपने माँ-बाप की बात भी मानी और बच्चों की भी मान रहे है.
ये पोस्ट जिंदगी का एक आदर्श स्मरणीय पलों को दर्शाती है अतः मुझे अच्छी लगी सो फारवर्ड की। इसे बार बार पढ़ें। पसन्द आए तो आगे फारवर्ड करें।

कृष्ण को केवल 5 या 7 लोग और पांडव पहिचानते थे।
मूरख हर युग मे रहे है।
जय हो राम जी की।

हर श्लोक में साकार निराकार की क्या आवश्यकता है। बाकी तो कई है।
यदा यदाहि धर्मस्य .........
तो सबको याद होगा।
आर्य समाज गुरू शिष्य को, कुण्डलनी को नही मानता।
कुल मिलकर भृमित लोग भृमित ज्ञान की दुकान।
भज-गोविन्दम् : भगवान् आदि शंकराचार्य --


        युवावस्था में जीव काम-विकार के वशीभूत होता है। परन्तु युवावस्था के बीत जाने पर काम-विकार कहाँ रह जाता है ? तब तो काम की पूर्ति हो भी नहीं सकती। जब तालाब का जल ही सूख जाये तो तालाब कहाँ रह जाता है
        जीव की शक्ति और सामर्थ्य तालाब के जल की तरह हैं। इसी सामर्थ्य के रहते ही परिवार-जन उससे बड़ा प्रेम जताते हैं। यदि वह धनहीन हो जाये तो फिर परिवार उसे कहाँ पूछता है ? जब संसार के द्वारा उसे ठुकरा दिया जाता है, तब वह तत्वप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है। तत्व की प्राप्ति हो जाने के बाद फिर संसार कहाँ रह जाता है ? मगर तत्व की प्राप्ति गोविंद की भक्ति के द्वारा ही सम्भव होती ह



महर्षि व्यास के अनुसार - इंद्रियाँ अपने विषय से असम्बद्ध हैं, जैसे मधुमक्खियाँ रानी मधुमक्खी का अनुकरण करती हैं। राजा मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की इस स्थिति को ही प्रत्याहार कहा जाता है। 

शारदातिलक के अनुसार - इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु निरगलम्। बलदाहरणं तेभ्य प्रत्याहारोSभिधीयते।। 25/23 अर्थात ये इन्द्रियाँ विषयों में बेरोक-टोक दौड़ते रहने से चंचल रहती हैं। अत: उन विषयों से इंद्रियों को निरूद्ध कर मन को स्थिर करने का नाम प्रत्याहार है। रूद्रयामल में भगवद्पाद में चित्त लगाने को प्रत्याहार कहा गया है। 

घेरण्ड संहिता के अनुसार - यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्यैव वशं नयेत्।। 4/2 अर्थात जहाँ-जहाँ यह चंचल मन विचरण करे इसे वहीं-वहीं से लौटाने का प्रयत्न करते हुए आत्मा के वश में करे (यही प्रत्याहार है)। 

विष्णु पुराण के अनुसार - शब्दादिष्वनुषक्तानि निगृह्याक्षणि योगवित्। कुर्याच्चित्तानुकारिणी प्रत्याहार परायणा:॥
अर्थात योगविदों को चाहिए कि वह शब्दादि विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और अपने-अपने विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और अपने-अपने विषयों से निरूद्ध इंद्रियों को चित्त का अनुसरण करने वाला बनावे। यही अभ्यास प्रत्याहार का रूप धारण कर लेता है। 


(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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