आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 33 (प्रभु सदा भला करता है)
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 33 (प्रभु सदा भला करता है)
Printer Raman Mishra: श्रीस्वामीजी महाराज की पुस्तक
"एक संत की वसीयत" (प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर) के पृष्ठ संख्या १२ पर स्वयं श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि......
३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदि से व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतु से सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदा के लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्ति का नहीं
४. मेरा सदा से यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्ति विशेष में न लगकर भगवान में ही लगें । व्यक्तिपूजा का मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।
५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसी को अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है ।
#धर्म#अध्यात्म
पढ़ना न जानने वाला ‘अनपढ़’। चार कौशल हैं- सुनना, बोलना, लिखना और पढ़ना। भाषा के लिखित पक्ष से लिखना और पढ़ना संबंधित है। अनेक भाषाएं आज भी लिपिबद्ध नहीं हैं। यूं भी अनेक भाषाओं को लिपिबद्ध करने का मुख्य कारण ईसाइयों द्वारा बाइबल का प्रचार था।
संस्कृत में ‘विद्’ का अर्थ है- जानना, समझना, सीखना, मालूम करना, निश्चय करना, खोजना। महसूस करना और अनुभव करना भी इसका अर्थ है। ‘विद्या’ का अर्थ है- ज्ञान, अवगम, शिक्षा, विज्ञान। ‘सा विद्या या विमुक्त्तये।’
‘विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन गुप्तं धनम्।’ कुछ विद्वानों के अनुसार विद्या चार हैं- ‘आन्वीसिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती।’ पांचवी विद्या आत्मविद्या को शास्त्रकारों ने और जोड़ा है। परंतु साधारणतः 14 विद्याओं का उल्लेख है- चार वेद, छह वेदांत, धर्म, मीमांसा, तर्क (न्याय) और पुराण। विद्या का एक अर्थ ‘यथार्थ ज्ञान’ भी होता है यानि ‘अविद्या’ के विपरीत। शिक्षा का अर्थ है- अधिगम, अध्ययन, सानाभिग्रहण। किसी कार्य को करने की योग्यता हासिल करने की इच्छा भी शिक्षा कहलाती है। ‘विनय’ और ‘विनम्रता’ भी संस्कृत में विद्या का अर्थ है। तो ‘शिक्षित’ का अर्थ है- अनुशासित, सधाया हुआ, विनीत, कुशल, चतुर।
भाषा का मुख्य पक्ष मौखिक है। जो भाषा को पढ़ना-लिखना नहीं जानते, वे भी भाषा का कुशलतापूर्वक प्रयोग करते हैं। हमारे यहां प्राचीन काल में शिक्षा वाचिक (oral) ही थी।
अब पढ़ाई-लिखाई (भाषा के लिखित पक्ष) का स्कूल सर्टिफिकेट से कोई लेना-देना नहीं है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि बच्चों के पास जिस कक्षा को उत्तीर्ण करने का सर्टिफिकेट होता है, उनकी क्षमता उस योग्य नहीं होती। और मनोविज्ञान का नियम है कि किसी की क्षमता के अनुसार ही उसकी योग्यता होती है। एनसीआईआरटी ने जो न्यूनतम योग्यता का दर्जा तय किया है, देश के अधिसंख्य बच्चे उस स्तर की योग्यता नहीं रखते।
मानव मस्तिष्क में याद के दो खंड हैं- कुछ याद ज्यादा समय तक रहती है, इसे long term memory कहते हैं। कुछ याद जल्दी मिट जाती हैं, इसे short term memory कहते हैं। हमारे शास्त्र कहते हैं कि अप्रिय बातों को भूलना ही जीवन में शांति और सहजता लाता है। सामाजिक सरोकारों से वास्ता रखने वालों को प्रायः ही अप्रिय घटना/बातों का सामना करना पड़ता है। इसे नजरअंदाज करना भी एक साधन हो सकता है। आम आदमी का जीवन तो यूं भी इस देश में परेशानियों से भरा है। कभी बिजली, कभी पानी, कभी राशन, कभी बेकारी, कभी बेगारी से जूझना पड़ता है। अतः वह तो दूसरों की कही बातों को दिल से लगाने की सोच भी नहीं सकता। अच्छा हो हमारे संभ्रांत, सुसंस्कारित व्यक्ति भी दूसरे की कही बातों को दिल से न लगाये तो एक स्वच्छ समाज का निर्माण हो सकता है। यूं किसी हद तक हम सभी यूरेटिक (मनो-विक्षिप्त) हैं, परंतु जब यह साइकोटिक (पागलपन) होने लगता है तो ज्यादा परेशानी होती है। हमारे शास्त्रकारों ने वाचाडम्बर से बचने को कहा है। झगड़ा- उत्पाद को ‘वाचकलहः’ कहा गया है। यूं वाच से ही ‘वागीश्वर’ बना है और ‘वाचशा’ भी जिसका अर्थ है- सरस्वती। इसी से ‘वांग्डम्बर’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है- ‘निस्सार उक्ति’। ‘वाग्दण्ड’ का अर्थ है- भत्र्सना वचन, झिड़की।
हम सभी ‘वाक्संगम’ से विहीन हैं। इसी से भाषण या बोलने पर नियंत्रण नहीं है। बोलना भी एक कला है। राजनीति में यूं भी प्रांजल या ललित भाषा का प्रयोग नहीं होता है। और भारतीय राजनीति में तो बिना प्रतीक्षा किये कठोर से कठोर वचनों में प्रतिपक्ष को किसी वक्तव्य का उत्तर दिया जाता है। यह सब अपने ‘आका’ का ध्यानाकर्षण करने के लिए होता है। यदि ‘आका’ व्यक्ति-पूजा को बंद कर दें तो भी राजनीति में वाक्-युद्ध में कुछ कमी आयेगी और शालीनता भी। कुल बात जीवन शैली की है। हमने पाश्चात्य आधुनिक राजनैतिक ढांचा तो अपना लिया है, उसकी रीति-नीति नहीं। यही विडम्बना है।
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*अनपढ़ का अर्थ / डा. लक्ष्मी नारायण*
#धर्म#अध्यात्म
भाषा और बोली में फर्क होता है भाषा को होती है जिसकी व्याकरण होती है बोली वह होती है जिसकी व्याकरण नहीं होती इसलिए बोली का लुप्त होना आसान होता है। भारत में ऐसी जनजाति है जिसकी बोली को केवल 5 लोग ही बोल पाते हैं वह लुप्त प्राय होने वाली है
K Vedvrat Bajpai: https://youtu.be/jwi0eRYq8x8
शिक्षक देश के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
ऐसे शिक्षकों को मेरा नमन।
शिक्षकों को समर्पित इतना भावपूर्ण वीडियो मैंने आज तक नही देखा आप भी देखिए और कमेंट में अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराए।
*A tribute to our teachers.*
Bhakt Lokeshanand Swami: कथा का अर्थ न जाननेवाला ही भगवान पर आरोप लगाने का अनर्थ करता है। आज सीताजी पर तीन बातें-
1- सूर्पनखा प्रसंग के बाद रामजी ने सीताजी को अग्नि में रख कर माया सीता, छाया सीता, नकली भक्ति को उनके स्थान पर बैठा दिया।
"तुम पावक महुँ करहु निवासा।
जब लगि करऊँ निसाचर नासा॥"
अब असली भक्ति हो तो भगवान को ही दृष्टि में रखे, पर जब भक्ति नकली हो तो मारीच यानि संसार पर पड़ती ही है। (मरीचिका शब्द मारीच से ही बना है, माने भ्रम)
यही इस लीला का आशय है। यहीं से उनकी दुख की यात्रा का प्रारंभ है। माने दृष्टि भगवान से हटी, संसार पर पड़ी, कि दुख आया।
2- रावण नकली सीता को उठा ले गया। रामजी ने रावण को मारकर, उन्हीं नकली सीता को लंका से बरामद किया।
अब पुनः नकली सीता को अग्नि में प्रवेश करा के, असली सीताजी को अग्नि से निकाला जा रहा है, और दुनियावाले समझ रहे हैं कि सीताजी की अग्नि परीक्षा हो रही है।
3- जैसे सीढ़ी से छत पर जाने वाला, छत पाकर सीढ़ी का त्याग करता ही है। नाव से किनारे पर पहुँच कर, नाव छोड़नी पड़ती ही है। ऐसे ही अंतःकरण रूपी अयोध्या के राजसिंहासन पर, परमात्मा राम का राज्याभिषेक कराने के लिए, भक्ति रूपी सीता की आवश्यकता होती है।
जब तक जीव अलग था, भगवान अलग मालूम पड़ते थे, तब तक भक्ति के संबंध की आवश्यकता थी। जब वह भगवान से एक ही हो गया, दो रहे ही नहीं, तब कौन सा संबंध, कैसा संबंध? मंजिल मिल गई, अब रास्ते से क्या प्रयोजन?
जब वे मन में बैठ ही गए, तब मन नामक कपड़े को धोनेवाले, सद्गुरू धोबी, भक्ति छुड़वा ही दिया करते हैं।
इसमें हैरानी परेशानी क्या है?
अब विडियो देखें- सीताजी का वनवास
https://youtu.be/GtFhkgANL_M
और, अग्नि परीक्षा
https://youtu.be/Qy8-9_spWjw
Jb Rajeev Sharma: Very beautifully narrated !!
+91 96374 62211: 👉 _अवश्य देखें !_
*हिन्दू धर्म की महानता समझानेवाले और भक्तिभाव बढानेवाले ऑनलाइन सत्संग*
▫️ Youtube.com/HinduJagruti
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*श्रद्धाभक्तिसमायुक्ता नान्यकार्येषु लालसा:।*
*वाग्यता: शुचयश्चैव श्रोतार: पुण्यशालिन:॥*
श्रद्धा और भक्ति से समान रूप से युक्त, अन्य कार्यों की इच्छा न रखने वाले, कम और सुन्दर बोलने वाले, श्रोता ही पुण्यवान हैं।
Those who possess reverence and devotion equally, have no desire for other things, speak less and pure are virtuous listeners.
*शुभोदयम् ! लोकेश कुमार वर्मा (L K Verma)*
Jb Ashutosh C: 'I have learned to give not because I have too much,but because I know the feeling of not having.......'
Swami Toofangiri Bhairav Akhada: *एक व्यक्ति का दिन बहुत खराब गया उसने रात को ईश्वर से फ़रियाद की.*
*व्यक्ति ने कहा,*
' *भगवान, ग़ुस्से न हों तो एक प्रश्न पूछूँ ?*
भगवान ने कहा,
'पूछ, जो पूछना हो पूछ;....?
*व्यक्ति ने कहा,*
' *भगवान, आपने आज मेरा पूरा दिन एकदम खराब क्यों किया ?*
भगवान हँसे ......
पूछा, पर हुआ क्या ?
*व्यक्ति ने कहा,*
' *सुबह अलार्म नहीं बजा, मुझे उठने में देरी हो गई......'*
भगवान ने कहा, अच्छा फिर.....'
*व्यक्ति ने कहा,*
*देर हो रही थी,उस पर स्कूटर बिगड़ गया. मुश्किल से रिक्शा मीली .'*
भगवान ने कहा, अच्छा फिर......!'
*व्यक्ति ने कहा,*
*टिफ़िन ले नहीं गया था, वहां केन्टीन बंद थी....एक वडा पाव खाकर दिन निकाला,*
भगवान केवल हँसे.......
*व्यक्ति ने फ़रियाद आगे चलाई , 'मुझे बहुत ही काम का एक का फ़ोन आने वाला था और फ़ोन ही हैंग होकर बंद हो गया ;*
भगवान ने पूछा.....' अच्छा फिर....'
*व्यक्ति ने कहा,*
*विचार किया कि जल्दी घर जाकर AC चलाकर सो जाऊं , पर घर पहुँचा तो लाईट गई थी .*
भगवान.... सब तकलीफें मुझे ही. ऐसा क्यों किया मेरे साथ ?
*भगवान ने कहा,*
' देख , मेरी बात ध्यान से सुन .
आज तुझपर कोई आफ़त थी.
मेरे देवदूत को भेजकर मैंने रुकवाई . अलार्म बजे ही नहीं ऐसा किया .
स्कूटर से एक्सीडेंट होने का डर था इसलिए स्कूटर बिगाड़ दिया . केन्टीन में खाने से फ़ूड पोइजन हो जाता .
फ़ोन पर बड़ी काम की बात करने वाला आदमी तुझे बड़े घोटाले में फँसा देता . इसलिए फ़ोन बंद कर दिया .
तेरे घर में आज शार्ट सर्किट से आग लगती, तू सोया रहता और तुझे ख़बर ही नहीं पड़ती . इसलिए लाईट बंद कर दी !
*मैं हूं न .....,!*
मैंने यह सब तुझे बचाने के लिए किया;
*व्यक्ति ने कहा,*
*भगवान मुझसे भूल हो गई . मुझे माफ किजीए . आज के बाद फ़रियाद नहीं करूँगा ;*
भगवान ने कहा,
माफी माँगने की ज़रूरत नहीं , परंतु विश्वास रखना कि *मैं हूं न....,*
मैं जो करूँगा , जो योजना बनाऊँगा वो तेरे अच्छे के लिए ही ।
जीवन में जो कुछ अच्छा - खराब होता है ; उसकी सही असर लम्बे वक़्त के बाद समझ में आती है.
मेरे कोई भी कार्य पर शंका न कर , श्रदा रख .
जीवन का भार अपने ऊपर लेकर घूमने के बदले मेरे कंधों पर रख दे .
*चिंता मत कर, चितंन कर*
*मैं हूं ना.....!*
*ओम नमो नारायण जी*
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🌸 नामजप सत्संग : *श्राद्ध के प्रकार (भाग 3)*
🔸श्राद्ध के बारे में अन्य विशेष जानकरी
🔸संत एकनाथ महाराज ने किया श्राद्ध
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एक ग्रुप में चर्चा। पूछने वाले का और अपना नाम डिलीट कर दिया है ताकि आप अन्य ग्रुप में भी लोगों को समझा सके।
Mera man yahan Nahin lag raha
Bahut saare Karan Hain..
मैं समझ सकता हूं।
Swami Vishnu tirth hi Maharaj me do baatein kahin thi, an arth samajh Aaya hai
क्या कहा था
1.kuch Karne se adhik kathin ,Kuch Nahin Karna hai..
2.sewa Karne se adhik kathin sewa Lena hai..
Arth samajhne ki jigyaasa thi...point 1...pehle hi ho gaya tha..point 2...ab ho gaya
बिल्कुल सही बात है क्योंकि यह मन की चालबाजी यही है जो हमें घूमाती रहती है इसीलिए भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में स्थितप्रज्ञ होने को अंतिम अवस्था बताआ है।
सेवा लेने में दूसरे की प्रक्रिया दूसरे का समर्पण और दूसरे के कार्य करने की प्रणाली यह बहुत कुछ कह जाती है।
वहां पर हमें स्थिर बुद्धि होना चाहिए मतलब उसको ध्यान ही नहीं देने का प्रयास करना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है।
Kab tak?
Main koi Sant to Nahin...aur naahi Shri krishn Hun..
जब तक हमारी प्रारब्ध नहीं कट जाते वास्तव में हमारे प्रारब्ध हमारी परीक्षा लेते हैं लेकिन हम दे नहीं पाते हैं क्योंकि प्रारब्ध को भोंगते समय यदि हम उन में लिप्त हो गए तो वह पुनः संस्कार बनाकर कर्म फल प्रदान कर देते हैं।
Hmm
संत होना भी कोई महानता नहीं है। स्वामी शिवओम तीर्थ जी महाराज भी पत्नी के जाने के बाद अध्यात्म में प्रविष्ट हुए थे
जब तक संसार में हो संसारी व्यवहार करना ही चाहिए एक बार के लिए उसमें मन से लिप्त न हो लेकिन उसको दिखाना आवश्यक होता है। क्योंकि यह जगत संसार की बात ही समझ पाता है और कुछ नहीं।
सबसे अच्छा होता है भड़ास निकालो और भूल जाओ नहीं तो किसी ने कुछ किया है तो उसको भी भूल जाओ।
भूलने की आदत डालना यह आध्यात्म में बहुत सहायक होता है।
Haan...
यदि तुमने मन से भोजन त्याग दिया तो अच्छी बात है लेकिन शरीर के लिए और इस जगत के लिए अपने मातृत्व के कर्तव्य के लिए भोजन करना आवश्यक है।
आपने जो भी कहा कुछ नया नहीं।
मुझे पता है लेकिन समझाने के लिए कुछ तो बोलना पड़ेगा हालांकि मैं खुद फेल हो जाता हूं लेकिन यह है भड़ास निकाल कर भूल जाता हूं।
मुझे बड़ा आश्चर्य होता है जब लोग क्रोधित नहीं होकर संयम बनाए रखते हैं।
यह भी एक कला है जीवन में जीने की क्योंकि क्रोध करने पर हम अपने शरीर को ही नष्ट करते हैं अपनी शक्ति को ही गिराते हैं और क्षण भर के लिए हम अपने स्वरूप से अलग हो जाते हैं।
साथ ही हम हिंसक हो जाते हैं क्योंकि शब्दों से भी हिंसा होती है।
हम सनातन का पहला सिद्धांत अहिंसा परमो धर्मा यह बिल्कुल भूल जाते हैं।
लेकिन क्रोध न करके अपने मन में भाव रख लेना यह भी हानिकारक हो सकता है। भूल गए तो ठीक है अच्छी बात है लेकिन यदि हम उसका बदला लेने के लिए उस में घूमते रहे तो यह हमारा पतन नहीं करता रहेगा।
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