प्राय: लोग यह प्रश्न करते हैं कि ज्ञान बडा या भक्ति। मेरा उत्तर होगा भक्ति। भक्ति प्रेम का शुद्दतम स्वरूप है। बोलते है परम प्रेमा भक्ति।
ज्ञान सिर्फ मन को बुद्धि को जिज्ञासा को शांत करता है, बिना आनंद दिये। पर भक्ति सम्पूर्ण इन्द्रियो को आनांदित करती है। जब प्रेमाश्रु निकलते हैं तो उसका आनंद प्रेम और विरह की अनुभुति कराता है और प्रेम का ज्ञान देता है। जो लेनेवाला वह नीचे हाथ करता है जो देता है उसका हाथ ऊपर रहता है यहां भक्ति ने प्रेम का अनुभव दिया उस अनुभव ने ज्ञान दिया। ज्ञान बिना अनुभव के मिलता नहीं।
ज्ञान भक्ति का अनुभव नहीं करा सकता पर भक्ति तो सारे अनुभव अनुभूति करा सकती है। यह तो समस्त ज्ञान की कुंजी है। यह प्रेम है जो जीवन का जगत का आधार है। सार है, अंतिम द्वार है। सच्चे प्रेमी को ज्ञान से क्या लेना देना उसको तो प्रीतम के दर्शन की एक झलक ही चाहिये। ज्ञान तो अपने आप आवश्कयता होने पर चला आता है। पर भक्ति तो सिर्फ प्रेम से समर्पण से स्मरण से ही आती है।
जहां एक ओर ज्ञान अहंकार को भी पैदा कर सकता है और निरंकुश बना सकता है वहीं भक्ति मन में दासत्व का भाव पैदा करती है जिसके कारण अहंकार पैदा होने का सवाल ही नहीं अत: पतन की सम्भावना कम रहती है।
यद्यपि ईश का अंतिम वास्तविक रूप निर्गुण निराकार और अद्वैत ही है। पर जो आनन्द भक्ति मार्ग और भक्तियोग में है वह कहीं नहीं।
ज्ञान योग हमें यह अनुभव कराता है कि हम ही ब्रह्म है। अद्वैत भाव पैदा कर ईश के निराकार भाव का ज्ञान करवाता है। जिसके कारण मनुष्य भ्रमित होकर पतन की ओर चल सकता है। स्वयं ईश होने का ओशो होने का भ्रम पाल सकता है। कुछ कारया सामाजिक दृष्टि से गलत कर सकता है और उस देश के कानून के अनुसार जेल तक जा सकता है।
पर द्वैत भाव और साकार सगुण उपासक सब अपने इष्ट की लीला जानकर और उत्साह से मनन स्मरण में जुट जाता है।
अत: मेरी निगाह में भक्ति श्रेष्ठ है और यही भक्ति सब कुछ प्रदान कर देती है। इस सन्दर्भ में कृष्ण उद्वव सम्वाद और गोपिका प्रेम की कथा विख्यात है और उत्कृष्ट उदाहरण भी।
एक बार की बात है भगवान कृष्ण के परम मित्र उद्धव जी को अपने ज्ञान पर अभिमान हो गया। वह सोंचने लगे भक्ति और प्रेम के गहरे प्रभाव को वह अपने ज्ञान रूपी योग से छिन्न भिन्न कर सकते हैं। श्री कृष्ण यह जान गये और उद्धव जी को वृज में प्रेम में पागल राधा को समझाने हेतु भेज दिया।
गर्व में चूर उद्धव जी ज्ञान की गठरी बांधे राधा एवम उनकी सहेलियाँ को समझाने हेतु वृज यानि गोकुल पहुँचते हैं तो वहां का वातावरण प्रकृति एवम् निवासिओं को देखकर दंग रह जाते हैं। श्री कृष्ण के वियोग में सभी पर सन्नाटे छाए हुए हैं। यहाँ तक कि वहां के निवासी या मात्र राधा ही नहीं उदास थे बल्कि प्रकृति को यानि पेड़, पौधे, गाय, यमुना तथा वातावरण सबके सब मुरझाये हुए थे।
जब उद्धव अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से राधा एवम् उनकी सहेली को समझाने बैठे तो वहां ज्ञान का प्रकाश लाख समझाने पर भी की कृष्ण कुछ नहीं है, वह मेरा मित्र एक साधारण व्यक्ति है। उसके पीछे तुम सब इतना पागल क्यों हो रहे हो। इस पर कृष्ण के वियोग में घुट घुट कर जीने वाली गोप और गोपिकायें बोली अरे उधो मन नहीं दस बीस मन यानि ह्रदय जो एक होता है, हम सब कृष्ण को समर्पित हो चुकी हैं। उनके बिना एक पल भी जीना हम सब के लिए मुमकिन नहीं हैं। हमें तो वृज के हर वस्तु उनकी अनुपस्तिथि में ऐसा लगता है की काट रहा है। हम सब का जीना दुर्लभ है। हमें यहाँ की कोई भी वस्तु यहाँ तक की प्रकृति यानि के फल, फूल, गाय, बैल, यमुना कुछ भी नहीं भाता है। हम सब तो उनके बिना पागल की भांति यमुना के किनारे भूखे प्यासे लोट पोट कर इतना दुखी हैं की आँका नहीं जा सकता। हम सब तो अपना सुध बुध खो चुकी हूँ की मैं कहाँ की हूँ क्या करती हूँ और क्या करना चाहिए। बस श्री कृष्ण का ही चेहरा और उसके साथ की मस्ती ही याद है। बाद में उद्धव जी को अपनी ज्ञान की गठरी समेटकर वापस आना पड़ा। उन गोपिकाओं पर उनके ज्ञान का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। लाख ज्ञान की बात समझाने पर भी उन गोपिकाओं के बहते हुए प्रेमाश्रु को नहीं रोक पाए।
अंत में जब उद्धव लौट रहे थे सभी के आँखों से आंसू के धरा बह रही थी। उद्धव जी के ज्ञान पर प्रेम का प्रकाश रूपी बदल छा गया। यानि ज्ञान पर प्रेम का आच्छादित होना संभव हो गया। ज्ञान का बस प्रेम के उपर नहीं चल पाया। ज्ञान नदी बन गयी तो प्रेम सागर बन गया। उद्धव का ज्ञान प्रेम के सामने छोटा पड गया।
जब उद्धव श्री कृष्ण के पास पहुचे तो वहां का दृश्य उनको समझाने में सक्षम नहीं हो पाए। उद्धव जी ने कहा की मैं उन सबके सामने हार कर वापस लौट आया।
इसीलिए मैं निवेदन करता हूं। प्रेमी बनो ज्ञानी नहीं। ज्ञान की चिंता मत करो। तुम्हारा प्रेम ज्ञान का सागर लाकर खडा कर सकता है। समर्पित हो जाओ अपने प्रेमी प्रभु को। आंचल को गीला होने दो। यह आन्नंद हर किसी को नसीब नहीं होता है। सिर्फ और सिर्फ सच्चे प्रेमी ही इसका पान कर सकते हैं। तुम भाग्यशाली हो जो इसका बिना आवाज आन्नद ले रहे हो।
भूल जाओ अपने आप को समर्पित कर दो अपने को देखो वो दौडा चला आयेगा। वो तो तुम्हारी तरफ सदा दया का भाव रखता है। क्योकि हम सब उसकी संतान हैं। वह तुम्हारे कष्ट नहीं सहन कर सकता। पर तुम तो सिर्फ स्वार्थ के लिए जगत को पाने के लिए उसको याद करते हो। तुम भूल चुके हो जब वह नारायण था तुम भी नर थे। उसी के समान पर तुम भूल गये भटकते गये जगत के सुख के लिये षड्यंत्र बुनते रहे जगत को पाने को। आज जब यह कृपा मिली तो लाभ उठाओ।
बस यही मैं कहता हूं। कलियुग में यदि तुम क्या हो यह न जान सकोगे तो फिर कभी जान सकोगे यह मुश्किल है। तुम क्या हो। तो कभी न जान सकोगे। ईश प्राणीधान एकमात्र सुगम मार्ग है। बस उस पर चल पडो।
अपने इष्ट का सघन सतत मंत्र जप करते रहो। यह मंत्र जप तुमको भक्ति से दर्शन तक, शक्ति तक। ज्ञान से वैराग्य तक और मोक्ष तक पहुंचाने का सामर्थ रखता है।
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