▼
विपुल के पापी दोहे
विपुल के पापी दोहे
मैं पापी कपटी जगत, पाप किए हैं अनेक।
चरण पखारू मात मैं, सुन लो विनती एक।।
साधन कुछ न कर सका, भकती कोसों दूर।
मृग समान जीवन भया, मद में चकनाचूर।।
पापनाशिनी मात है, देती कृपा अनेक।
उसमें भी न मिल सका, जनम लिए हैं अनेक।।
वृथा जीव यह खट रहा, नहीं समझ कुछ मोल।
आगे जीवन कौन सा, तोल सके तो तोल।।
हड्डी चूसता श्वान जो, रक्त स्वयं कर भोग।
यह जीवन यूं बीतता, कर्म अकर्म न योग।।
तुझे प्रभु न मिल सका, जान सका नहीं मर्म।
जगत प्रपंच करता रहा, मान इसी को धर्म।।
निंदा स्तुति सब ही भली, रहूं नहीं मैं लीन।
मैं मूरख कछु जाने न, चाकर प्रभु का हीन।।
दास विपुल है बावरा, रचे बावरी बात।
मूरख कुछ भी जाने न, जीवन की सौगात।।
No comments:
Post a Comment