Tuesday, March 27, 2018

अंतर्मुखी बनाम योग



अंतर्मुखी बनाम योग

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
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जैसा कि हम जानते हैं कि योग यानी जुडना। किससे जुडना। वेदांत महावाक्य प्राथमिक द्वैत के अनुसार अवस्था बतलाता है “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है”। जो भक्ति मार्ग से सहजता से प्राप्त होता है। मैं योग को परिभाषित करता हूं “जब हम द्वैत से अद्वैत का अनुभव करने लगे तब समझो योग हुआ है” पातंजली समझाते है जो काफी आगे की बात “चित्त में वृति का निरोध” यानी कार्य में आसक्ति के बिना कार्य” जिससे हमारे चित्त में कोई तरंग न पैदा हो हलचल न हो जो चित्त में संस्कार संचित कर दे। यानी कर्म योग। यह तब होता है जब हम कर्म करते समय भी योग में र्हे। भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भग्वद्गीता में कहते है। जिसका अर्थ समझा जा सकता है कि पहले मिला भक्ति योग जब यह परिपक्व हुआ तो आया कर्म योग और जब यह भी परिपक्व हुआ तो आया ज्ञान योग। 

वास्तव में सारे योग के अर्थ एक साथ ही घटित होते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार जिसमें समत्व की भावना समबुद्दी यानी स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्दी है वह योगी है। यह सब बहुत आगे की योग परिपक्वता के साथ ही होता है। जब कृष्ण का निराकार रुप समझ में आने लगता है। शिव शक्ति भी कृष्णमय होने का अनुभव होता है तब आता है ज्ञान योग। इनको जानने हेतु सत्युग में हजारो साल का तप द्वापर में कुछ सैकडो त्रेता में कुछ महीने और कलियुग में कुछ घंटों में जाना जा सकता है। एक जीवनकाल पर्याप्त है कलियुग में। यही कलियुग की महानता है। क्योंकि कम्प्टीशन है ही नहीं। जहां सत्युग में प्रत्येक मानव ज्ञान प्राप्त करना चाहता था वहीं कलियुग में नाम जपनेवाला भी ज्ञान मांगनेवाला भी करोडो में एक।

लेकिन आज के समय में योग की ऐसी की तैसी हो गई है। जरा सा पालथी मार कर बैठे पेट पिचकाया हो गये महायोगी। या जरा सी अनुभुति जैसे रोंगटे खडे हो गये, शरीर जरा सा प्रसन्नचित्त हुआ, हल्का हुआ, प्रकाश दिखा हो गये योगी। और उससे बडी मजे कि बात यदि रटकर शलोक बोलकर कहीं प्रवचक या राम कृष्ण कथाकार हो गये तो तो बोलो ही महायोगी के आगे। दुखद तो यह है वेद और भगवदगीता की तो रेड मार दी है। यहां तक अंतरमुखी होने की पद्द्तियां भी योग हो गई है। क्या कहूं ऐसे महाज्ञानियों को और जगतगुरुओं को। मैं सोंचता हूं प्रभु इनको कौन सी गति देगा वो ही जाने पर ढंग की मानव योनि तो बिल्कुल न मिलेगी। 

चलिये कुछ चर्चा अंतर्मुखी यानी अपने अंदर जाने की जिसे कहें तो अंदर की बात पर करते हैं। 

     इस जगत में हम जो करते हैं वाहिक करते हैं यानी अपनी उर्जा निरंतर बाह्र दुनिया में निकालते रहते हैं। जिनमें इंद्रियो का योगदान होता है। जैसे देखना, सुनना, बोलना, सूंघना इत्यादि। इन कार्यो में हमारी उर्जा का निरंतर क्षय होता रहता हैं। हमको यही उर्जा जो बाहर खर्च हो हैं उसको अंदर की ओर प्रवाहित करना है। वह कैसे करें। इसका सबसे आसान तरीका है जिस मार्ग से उर्जा निकल रही है उसी मार्ग से उसको अंदर की ओर मोड कर हम भी अंदर घुस जायें। पर कैसे उस पर बात करता हूं।

जैसे सबसे ऊपर है आंखे। तो त्राटक विधि यानी लगातार घूरना। इस विधि को ही राजयोग बोल कर योग की धज्जियां उडा दी। जैसे मुम्बई से ट्रेन में बैठे कि बोलने  लगे हमारा गंतव्य दिल्ली आ गया। वही बात योग का कहीं नामो निशान नहीं पर हो गये राजयोगी। इसकी कम से कम छह विधि मैं बतलाऊंगा पर अलग लेख में।  यही कलियुग है। फिर कान से कर्ण सिद्दी जिसे भी शब्द योग का नाम देकर दुकानें चल रहीं है। इसकी भी आधा दर्जन विधियां है। फिर नासिका जिससे सासों के द्वारा विपश्यना, प्रेक्षा ध्यान, सुगंध, शीतो ऊष्ण विधि, कम से कम अपने हाथ की उंगलियों की गिनती के बराबर तो विधियां हैं ही। फिर मुख जिसमें सबसे सस्ता सुंदर टिकाऊ और सहज मार्ग है मंत्र जप। जिसे मंत्र योग, जप योग का नाम दिया है। साथ ही ह्ठ योग जैसे खेचरी इत्यादि और कहो तो मैं एक तरीका और बताऊं जिसे मैं बोलूं स्वाद योग।

यह सारी विधियां अलग अलग लेखों में बताता रहूंगा। फिलहाल इन इंद्रियों द्वारा अंदर गये। तो हमारी मन बुद्दी, चेतन सब धीरे धीरे अंदर हुये। अब फिर क्या। आगे विभिन्न अनुभूतियों के साथ आप शरीर की नाडियों में भी चले गये। पर फिर क्या। तो बाबा कुछ कुछ साधकों की कुंडलनी जाने अंजाने में खुली। खुल तो गई फिर क्या। फिर दिव्य अनुभव। पर फिर क्या। फिर यदि आप साकार मार्गी हैं तो देव दर्शन। बाप रे वह कैसे। देखो इब अंतर्मुखी पद्दतियों में जाने अंजाने तुम अपनी ध्यान शक्ति को बढा रहे हो। यानी तुम्हारी मस्तिष्क की उर्जा और शक्ति बढती जाती है पर तुमको पता नहीं। वह इतनी बढ जाती है कि तुम्हारी साकार की धारणा निराकार ब्रम्ह को रुप बनाने हेतु मजबूर कर देती है। यही तंत्र विधि में कुछ विशेष ध्वनि तरंगे जो संस्कृत के शब्दों में अपने शरीर के विभिन्न चक्रों को आंदोलित कर हमारी ध्यान शक्ति को और मजबूत कर उस निराकार को साकार बना कर अपने मन के मुताबिक काम भी करवा लेते हैं। जिससे तांत्रिक पैदा हैं यानी तंत्र भी। 

खैर, जब हमको दर्शनाभूति होती है तो उसके पहले हम अपना देहाभान खो बैठते हैं। आंखें बंद पर नींद नहीं। कुछ पता नहीं कि अचानक दिव्य भगवा पीला अग्निवर्ण का तीव्र प्रकाश और फिर आपके मंत्र के अनुसार देव दर्शन। वहीं निराकार को सफेद प्रकाश के बाद काला धुंधला प्रकाश या आगे पीछे। देहाभान नहीं। सृष्टि का कोई सुंदर चित्र या घटती हुई कोई घटना। इसमें कई ध्वनियां, वार्तायें, आत्म गुरु का जागरण जिसे अल्ल्ह की बोली, आकाशिय बोली जो भी कहो। 

मेरे हिसाब से इसके बाद यात्रा आरम्भ होती है वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा या योग की यात्रा। इसी के साथ कुछ आगे पीछे मानव को अहम ब्र्म्हास्मि, एकोअहम दितियोनास्ति, सोअहम, शिवोहम, कृष्णोअहम इत्यादि अनुभुतियां हो सकती हैं। इन अनुभूतियों में मानव का दिल दिमाग सोंच मन बुद्दी अहंकार पूरा का पूरा आकाश तत्व अपने को ब्रह्म समझने लगता है। शरीर के विशालकाय होने का अनुभव होता है। एक अलग तरीके की अनुभूती होती है। पर यह कुछ समय से लम्बे समय तक हो सकती हैं। यह होता है वास्तविक योग। वेदांत वाक्य घट गया क्योकि “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो गया। द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो गया।  पर यह चला गया। पर योग की अनुभुतियां दे गया। पर अभी महायोगी नहीं हुये। क्यों ऐसा क्यों। क्योकिं पातंजलि महाराज के अनुसार “चित्त में वृत्ति का निरोध नहीं हुआ” बल्कि तुम्हारी वृत्ति भले ही सात्विक हो पर बढ गई। क्यों। क्योकि तुम गुरु बनने की सोंचने लगे। प्रवचक बन कर अपनी शोहरत धन इज्ज्त को खोजने लगे। जो अधिकतर लोग करते हैं। बिना परम्परा के गुरु बन बैठे। दुकान का निरमाण करने में जुट गये। तुम धर्म के व्यापारी हो गये। कुछ तो जो महामूर्ख पापी ज्ञानी होते हैं वह तो भगवान ही बन बैठते हैं जापानी भाषा में ओशो बन बैठते हैं। अपने मन की वाणी को अपनी आत्म गुरु की वाणी समझकर नये नये सिद्दात यहां तक परम्परायें और धर्म तक बना बैठते हैं जो भगवध गीता बन जाता है भग्वदगीता नहीं। भग्वद्गीता के विपरीत बोलता है। वेद वाणी को गलत बोलकर शक्तिहीन भोले भाले मानव को बहकाने का पाप करता है। मजे की बात है वह इसी धरा के कानून के अंतर्गत बेमौत जैसे जेल में सडकर, सूली पर चढकर या भुखा प्यासा किसी गुफा में छिपकर तडपकर मरता है। पर उसके अनुयायी इसको नहीं समझ पाते। कारण ईश वह जिसके अधीन माया। मानव वह जो माया के अधीन। यह तो अनुभव हुआ पर माया हमारे अधीन तो न हुई। पर यह मूर्ख भूल जाते हैं अभी यात्रा शुरु हुई है। खत्म नहीं। 

     पर प्राय: जो साकारवाले इसको प्रभु का खेल समझकर इन अनुभुतियों में न उलझकर आगे चलते रहते हैं तो उनको निराकार की अनुभुति स्वयं शिव कृष्ण या निराकार दुर्गा शक्ति स्वयं करा देती है। फिर उस मानव को किसी पद चाहे वह गुरु का हो या सन्यासी का हो या कोई जगत का पद, उसका लालच नहीं रहता। इअस तरह के मानव को रमता राम या आत्माराम ही कहते हैं।
                                               ॐ हरि ॐ 


"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल  

6 comments:

  1. जी धन्यवाद्। और भी लेख देखें।

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  2. I Truely endorse your views in above blog which is written totally on your own experience and knowledge bestowed upon you by Divine Mother.I too follow a simple and sahaj bhakti of divine mother and have experinced the same feelings as narrated above.It clearly shows the grace of divine cosmic energy on you.Shall be reading your other blogs gradually and comment.These writings are source of inspiration for seekers of Paramtatva.Om Hari..

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  3. Thanks sir,
    Please read other articles and write comments, suggestions and more information.
    regards

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  4. Prabhu bheetar utarna to apne rest dev ke kreepa se ho jaata hai parantu apne sareer ke raksha kaise ke jaaye. Raksha kavach par bhe koi leekh dee..
    🙏🙇‍♀🙇‍♀🙇‍♀🙇‍♀🙏🙏🙏

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