धर्म ग्रंथ और
संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 3
संकलनकर्ता :
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:
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नोट: यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004
को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं
अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
आपने भाग 1 और 2 में अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों
अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों
की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी
सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया। स्वामी
दयानंद सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की।
अब आगे
.......................................
मुख्य उपनिषद् 11 माने
जाते हैं,जिनके नाम इस प्रकार
हैंः-- 1. ईशावास्योपनिषद्, 2.
केनोपनिषद् 3. कठोपनिषद् 4. प्रश्नोपनिषद्, 5. मुण्डकोपनिषद्,
6. माण्डूक्योपनिषद्, 7. ऐतरेयोपनिषद्,
8. तैत्तरीयोपनिषद्, 9. श्वेताश्वतरोपनिषद्,
10. बृहदारण्यकोपनिषद्, और--11. छान्दोग्योपनिषद्। आदि शंकराचार्य ने इनमें से १० उपनिषदों पर टीका लिखी थी। इनमें
मांडूक्योपनिषद सबसे छोटा है (१२ श्लोक) औऱ छांदोग्य सबसे बड़ा। संभवतः इशावास्योपनिषद सबसे पुराना है
क्योंकि यह यजुर्वेद का ही
अंतिम अध्याय है।
इनको मुख्य मानने का
कारण इनको ऋषिकृत (यानि आर्ष) और प्राचीनतम मानना है।
बाद में कई उपनिषद
लिखे गए जो उतने मान्य नहीं हैं। यहाँ तक कि सोलहवीं सदी में अल्लोपनिषद भी लिखा गया - जिसमें अरबी के
शब्दों को संस्कृत में ढाला गया प्रतीत होता है।
उपनिषद् हिन्दू धर्म
के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है।
उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान
को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है। ब्रह्म,
जीव और जगत् का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं।
उपनिषद ही समस्त
भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म। उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक
उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य
धरोहर है। मुख्य उपनिषद 12 या 13
हैं। हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। १७वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और
माननीय हैं।
उपनिषद शब्द का अर्थ
उपनिषद् शब्द का
साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास
बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना;
गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य
के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।
आध्यात्मिक चिंतन की
अमूल्य निधि
उपनिषद भारतीय
आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के
ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार
हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात
की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में
बाँधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित
करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
उपनिषदकाल के पहले : वैदिक युग
वैदिक युग सांसारिक
आनंद एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस
काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर
उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप
में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों,
दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक
ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर
हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण
आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही
नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख
व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न
अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी
माँगे गए। जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन
विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि,
रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे
प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की
रक्षा करें। कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी
और जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के
विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई
थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति
तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा
कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से
कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना
ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्गम कहाँ है,
हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै:
ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु
मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।
उपनिषदकालीन विचारों
का उदय
ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी
सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था।
ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र
मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय
नहीं। आत्मा शरीर से भिन्न तत्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती
है इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का
आवागमन क्यों होता है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं
हुए। अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को
छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब
मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय
उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी हुआ कि वैदिक
ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने
बनाई है?' और 'कौन देवता है जिसकी हम
उपासना करें'? वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले
के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत'
का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकार है। वैदिक धर्म
का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।'वेदों में
यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि इस जीवन में सुखी,
संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के लिए आवश्यक है कि देवताओं
की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की
उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ है। यज्ञ के कर्मफल
से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही सूत्र चारों ओर
गुँजित थे। दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने यज्ञ को बहुत अधिक
महत्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक बढ़ गई तब इस
व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात हुआ। लोग
सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?' 'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस रूप के
प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा
देंगे?' इस प्रकार, कर्मकाण्ड पर बहुत
अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में प्रतिपादित
किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार करने को
प्रेरित किया। प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते
वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत,
पूषन, मित्र, पितर,
यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के
दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता
और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग
प्रशस्त किया।
उपनिषदों का स्वरूप
उपनिषद चिंतनशील एवं
कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं। जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी
पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी
दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की
हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया
जाता है। उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके
लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग-अनुसंधान सुविधाएँ संभव
है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार
पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है। उपनिषद
अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए
हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान,
विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति
आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है। सृष्टि के उद्गम
एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को
विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत
में कहा यह गया कि हमारी श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं जानता हो।'
संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों
के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न
देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने
तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक
अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था। उपनिषदों में उन अनेक
प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की
सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना,
चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक
उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं
उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।
विषय-वस्तु
उपनिषद् में वास्तविक
वैदिक दर्शन का सार है।
उपनिषद् में आत्म और
अनात्म तत्त्वों का निरूपण किया गया है जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता
है। प्राय: उपनिषद् वेद के अन्त में ही आते हैं। इसलिए ये वेदान्त के नाम से भी प्रख्यात हैं। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को तीन
प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणित करते हैं जो प्रस्थानत्रयी के नाम से विख्यात हैं, ये हैं - उपनिषद्,
ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता।
उपनिषद् ब्रह्म विद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन
की अविद्या नष्ट हो जाती है (विवरण); वह ब्रह्म की प्राप्ति करा
देती है (गति); जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दु:ख
सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। फलत: उपनिषद् वे
‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रंथ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा
परमात्मा का साक्षात्कार होता है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य
तथ्यों को आधार माना गया है—पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां, पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम, सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी
राजाओं के समयकाल
उपनिषदों का महत्व :
उपनिषदों में ॠषियों ने अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निचोड़ डाला है। इसी
कारण विश्व साहित्य में उपनिषदों का महत्व सर्वोपरि स्वीकार किया गया है।जीवन के
सभी विचार और चिन्तन बेमानी सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु
जीव और परमात्मा के मिलन के लिए किया गया अध्यात्मिक चिब्तब कभी बेमानी नहीं हो
सकता। वह शाश्वत है, सनातन है और जीवन के महानतम लक्ष्य पर
पहुंचाने वाला सारथि है। जिस प्रकार महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन के लिए सारथि का
कार्य सम्पन्न किया था, उसी प्रकार जन-जन के लिए उपनिषदों ने
यह महान का कार्य सम्पन्न किया है। वह आलोक है, जो समस्त मानवता
के अज्ञानपूर्ण अन्धकार को दूर करने के लिए ॠषियों द्वारा अवतरित कराया गया है।
इसीलिए उपनिषदों का महत्व, सर्व-कल्याण का श्रेष्ठतम प्रतीक है।
उपनिषद गूढ़ भाषा में है और इनको समझना कठिन है, क्योंकि
हमारा मस्तिष्क और मन बाह्या वस्तुओं को ही पहचान पाता है, संवेदन
अंगो के द्वरा ग्रहन किया जा सकने वाला अनुभव ही मस्तिस्क में दर्ज़ होता है और
वही हम समझ पाते है और इसी वजह से
उपनिषदों को समझना भी मुश्किल होता है क्योंकि उपनिषद ईश्वर के बारे में
कुछ नही कहते, ना ही शैतान के बारे में ना ही स्वर्ग, ना ही नरक के बारे में | उपनिषद बात करते है स्वयं
की चेतना के बारे में जिसे हम आत्मा भी कहते है जो की समझने में बेहद मुश्किल है,
इसलिये उपनिषदों को समझना भी मुश्किल लगता है |
1) ईशावास्योपनिषद
यह शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है, जिसे
‘ईशावास्योपनिषद’ कहा गया है। उपनिषद शृंखला में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। इस
उपनिषद में ईश्वर के गुणों का वर्णन है, अधर्म त्याग का उपदेश
है। सभी कालों में सत्कार्मों को करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। परमेश्वर के
अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में दिया गया है। सभी प्राणियों में ‘आत्मा’
को परमात्मा का अंश जानकर अंहिसा की शिक्षा दी गयी है। समाधि द्वारा परमेश्वर को
अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख किया गया है।
प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। ‘यह किसका
धन है?’ प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार
का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त
कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है। यहाँ
जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो
कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध:
कस्य स्विद्धनम॥1॥
यहाँ इस जगत में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म
लिप्यते नरे॥2॥
अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और
निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह
कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है।
परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित
और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको
विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है।
मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥15॥
इसका अर्थ यही है कि परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु
उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आंखें उसे नहीं देख पातीं। जो
परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं
ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। हे अग्ने! हे विश्व के अधिष्ठाता! आप
कर्म-मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। आप हमें पाप कर्मों से बचायें और हमें दिव्य
दृष्टि प्रदान करें। यही हम बार-बार नमन करते हैं।
.....................................
क्रमश: .........................................
(कथन और तथ्य गूगल से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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