Tuesday, September 11, 2018

ईश का अस्तित्व : साकार या निराकार



ईश का अस्तित्व : साकार या निराकार

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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कुछ लिखने से पहले ईमानदार नास्तिकों अनीश्वरवादी वैज्ञानिकों को अपने घर पर प्रयोग करने की चुनौती। लिंक पर दिया प्रयोग करो। तुमको अनुभव होगा ईश है है और है। यदि न हो तो मुझे जो दंड दोगे स्वीकार होगा। 

अक्सर देखने को मिलता है कि सोशल मीडिया पर कि ज्ञानी बुद्धिजन ईश के साकार निराकार द्वैत अद्वैत सगुण निर्गुण के रूप पर एक दूसरे को गलत सही बताने में लगे रहते हैं कि तू गलत मैं नहीं। यह तो कुछ इसी प्रकार हुआ कि एक गांव में सब अंधे रहते थे। उस गांव में एक बार एक आंखवाला एक हाथी लेकर आया। पूरे गांव में शोर मच गया कि हाथी आया हाथी आया। अब सब लोग अंधे तो हाथी देखें कैसे। तय हुआ छूकर देखा जाये। एक अंधा बढा उसने सूंड पकडी तो बोला हाथी तो मोटी रस्सी जो घूम भी जाती है। वैसा ही होता है। दूसरे की पकड मे कान आये तो बोला। गलत हाथी तो सूप जैसा होता हैं। तीसरे ने पैर को छूआ तो बोला गलत हाथी तो मोटे खम्भे जैसा होता है। चौथे ने पूंछ पकडी और बोला तुम सब बेवकूफ हाथी तो रस्से जैसा पतला होता है। पर जो महावत ऊपर आंखवाला बैठा था वह देखता हुआ बोला ठीक है अब तुम्हारे हाथ में जो हैं पकडकर ऊपर तो आओ। अंधे ऊपर चढे तो बोले अरे यह तो छत जैसा है। यहां पर चारो का मत एक हो गया। पर फिर लडने लगे कि मेरा वाला मार्ग सही था। पर आंखवाला महावत देख सकता था कि किसी भी तरफ से हाथी पर चढा जा सकता है।

बस कुछ ऐसे ही होते हैं ज्ञानी जो आम मानव से ऊपर,  पर होते हैं अपूर्ण ज्ञानी। सिर्फ जिसने ऊपर चढकर आंख खोली वह ही देख सकता है जान सकता है कि किधर से भी हाथी पर चढ सकते हैं। अब आप खुद देखें इस जगत में ज्ञानी बहुत हुये पर अपूर्ण और अंधे। उनमें पूर्णता में कमी रह गई इसी लिये अपनी गाकर चले गये और पीछे छोडकर अनुभवहीन या उन्ही के मार्ग से प्राप्त अनुभव वाले जो वो ही ढिढोरा पीटने में लगे हैं। समाज में इनकी संख्या अधिक है। पर महावत तो सिर्फ कुछ इक्का दुक्का और उनकी भी सुनें कौन। मित्रों इन महावतों की श्रेणी में आते हैं कुछ समर्थ शक्तिशाली कौल गुरू जो महावत की तरह किसी को भी किसी मार्ग से ऊपर खींच ले। पर इस प्रकार के सामर्थ्यवाले प्रचार प्रसार से दूर सिर्फ शिव के शक्ति के सहारे जगत में चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं।

आप देखें मैं नाम न लूंगा पर अलग दुकानें आश्रम जहां गुरू जी यही बहस करते हैं नहीं एक सत ॐकार बाकी सब बकवास गलत। सिर्फ ॐ का जाप करों। ईश्वर निराकार अद्वैत निर्गुण। तो दूसरा कहेगा नहीं सब गुरू का चक्कर छोडों राम कृष्ण ने नवार्ण मंत्र किया काली प्रकट हुई वो ही सही कोई और बोलेगा सिर्फ गायत्री की साधना करो। तो तीसरा नहीं राम राम बोलो। ईश्वर साकार है देखो मीरा सूर तुलसी तुकाराम ज्ञानेशवर तमाम लोग साकार की भक्ति कर तर गये। तो कहीं बोला जायेगा नही कोई कुण्डलनी नहीं सिर्फ ब्रह्मा बाबा सबका मालिक, पति पत्नी भाई बहन बन जाओ। लाल प्रकाश पर त्राटक करो। कहीं, सब बेकार एक मात्र रास्ता है योग अभ्यास खेचरी करो। प्राणायाम करो समाधि लगाओ। निराकार तक पहुंचों। तो कहीं यज्ञ करो। यज्ञ ही श्रेष्ठ है। स्वामी दयानंद सरस्वती साकार का खंडन करते थे। मूर्तिपूजा के विरोधी थे। तैलंग स्वामी ने उनको एक पत्र लिखा स्वामी दयानंद को साकार की भीषण अनुभुति हुई कि उसके बाद मूर्ति पूजा का विरोध बंद कर दिया। यहां पर जितने मुंह उतनी बातें कि एक आम हिंदू चकराकर गिर जाये और हाथ जोडकर बोलने लगे सब बकवास है। मानव सेवा करो वो ही सर्वश्रेष्ठ है।
चलिये कुछ चर्चा की जाये। 

श्रीमदभग्वद्गीता 


श्रीभगवानुवाच - बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥४-५॥
श्री भगवान बोले - हे परंतप अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं तुम उन सबको नहीं जानते, पर मैं जानता हूँ॥5
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥४-६॥
अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैंअपनी प्रकृति को अधीन करके  अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ॥6
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने (साकार) रूप को रचता हूँ॥7
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की यथार्थ स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥४-९॥
हे अर्जुन! जो मनुष्य मेरे जन्म और कर्म को तत्त्व से दिव्य जान लेता है, वह शरीर त्याग कर फिर जन्म नहीं लेता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥9

मेरा जो अनुभव है और मानना है कि ईश का यहां तक अपना भी अंतिम रूप निराकार है। सिर्फ सुप्त उर्जा जिसे निराकार कृष्ण या गाड या अल्ल्ह कहते है। जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। पर मानव की शक्तियां असीमित अत: ईश को मंत्रों और साधनाओं में साकार रूप में आना ही पडता है। प्रारम्भ मंदिर और मूर्ति पूजा से होता है फिर मंत्र जप फिर परिपक्व होने पर भक्ति उत्पन्न होती है। जिसके साथ द्वैत भावना और समर्पण फिर प्रकट होती है परम प्रेमा भक्ति। जो आनंददायक प्रेमाश्रु देती है जिसका आनन्द असीम। जो अनुभुति देता है प्रेम की विरह की। यहां तक उद्धव को गोपियों ने उल्टे पांव लौटा दिया था और उद्धव अपनी ज्ञान की पोटली छोडकर उलटे पांव लौट गये थे। यहां तक कुंती ने कृष्ण से वर मांगा कि तुम मुझे अपनी साकार भक्ति का ही आशीष दो। मुझे मोक्ष से क्या लेना देना। 

यही प्रेमा भक्ति उस शक्ति को मजबूर करती है कि वह साकार रूप में साक्षात प्रकट हो जाती है। तब प्राप्त होता है भक्तियोग। कभी कभी राम रस का भी स्त्राव सहस्त्रसार से होता है जो हमेशा नशा देता रहता है। 

यहां तक द्वैत भाव रहता है साकार सगुण ही रहता है। फिर अचानक आपका ईष्ट आपको बैठे बैठे अहम ब्र्ह्मास्मि। शिवोहम्। एकोअहम द्वितीयोनास्ति । जैसी अनुभुतियां कराता है। तब प्रकट होता है ज्ञान योग। अद्वैत का भाव। इसके भी आगे अचानक इस अनूभूति के  साथ निराकार की अनुभुति और कभी देव आह्वाहन में अंदर से आवाज अरे मैं तेरी आत्मा में ही विराजित हूं। तू मुझसे अलग नहीं। तू आत्म भज मेरे निराकार रूप को आत्मा में देख। तब वास्तविक अद्वैत घटित होता है। कुल मिलाकर यह तीन अनुभव ज्ञान योग दे जाते हैं। 

अत: पूर्ण वह जो साकार से निराकार. द्वैत से अद्वैत, सगुण से निर्गुण की यात्रा करे। अनुभव अनूभूतियां ले। पर होता क्या है। पहले ही अनुभव के साथ मानव का आत्म गुरू जागृत हो जाता है। ज्ञान की कुछ ग्रंथियां खुल जाती है। जिससे आदमी बलबला जाता है। गुरू बनने की तीव्र इच्छा, प्रवचन देने की प्रबल भावना, अपने को श्रेष्ठ समझना जैसी भावनायें आदमी को बहा ले जाती हैं। यह ईश की गुरू की कृपा होती है कि कुछ लोग इसमें नहीं बहते हैं पर अधिकतर बह जाते हैं। वास्तव में यह परीक्षा होती है पर अधिकतर  अनुतीर्ण ही होकर बिना गुरू आदेश परम्परा के गुरू बन जाते हैं। फिर शुरू होती है चेले और अश्रमों की संख्या गिनती। जिसमें फंसकर साधक का पतन ही होता है क्योकिं खुद की पूंजी चेलों पर लुटाई और साधना का समय नहीं। इसी के साथ मन भी जागृत होकर उल्टा समझाने लगता है जो गलत काम भी करवा देता है। कोई भगवान या महायोगी बन जाता है और दुकान खोल लेता है।

मेरे अनुसार कृष्ण पूर्ण योगी क्योकि उन्होने कहा सभी मार्ग ईश तक जाते हैं।
बुद्ध अपूर्ण ज्ञानी या योगी क्योकि सिर्फ निराकार और अनीश्वरवाद। हलांकि इनके पहले गुरू आलारकलाम और दूसरे शिवरामदत्त्पुत्त सनातनी ही थे। 
महावीर गुरू शिष्य परम्परा के सनातन वाहक पर देव पूजा की जगह 24 तीर्थयंकर की पूजा शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, कबीर, तुलसी, गुरू नानक देव, श्री राम शर्मा आचार्य इत्यादि पूर्ण ज्ञानी। साकार से निराकार
जीसस अपूर्ण ज्ञानी क्योकि सिर्फ मुझे ही मान
मोहम्मद अपूर्ण ज्ञानी क्योकि जो मुझे न माने उसे सजा दो। सिर्फ निराकार
ओशो अपूर्ण अज्ञानी और पापी ज्ञानी सिर्फ निराकार

सारांश यह है कि जो ईष्ट अच्छा लगे प्रिय लगे उसको सतत याद करो। मंत्र जप नाम जप चरित्र स्मरण के द्वारा। ये ही नाम तुमको तार देगा। सारे ज्ञान अनुभव दे देगा। करा देगा साकार से निराकार। सगुण से निर्गुण। द्वैत से अद्वैत की यात्रा। बस बढे चलो बढे चलो साधना के पथ पर। बिना सोंचे बिना कुछ समझे। अपने ईष्ट को समर्पित होकर। सब ईश एक हैं सिर्फ नाम अलग है। कोई भी सिरा पकडो पर कस कर पकडो।



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