Wednesday, November 14, 2018

सत्य की विवेचना



सत्य की विवेचना
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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सत्य क्या है इस पर जबसे मनुष्य ने सोंचना सीखा तबसे विचार करना आरम्भ कर दिया। सत्य के ऊपर इतना अधिक विचार किया गया और सोंचा गया कि एक साधारण मानव भ्रमित होकर न सोंचने में ही भलाई समझता है।

सनातन के कुछ विद्वानों ने लिखा है। जो हम बचपन से पढते आ रहें है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्। प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातन:॥ अर्थात सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये। प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है ॥

एक कसाई गाय को ले जा रहा है। गाय दौड़ गई और एक ब्राह्मण ने देख लिया। अब गाय की जान बचानी है, तो साधक सच बोले या झूठ बोले? यह कथा भी आपने सुनी होगी।  

इस स्थिति में साधक को क्या करना चाहिए, इसके तीन-चार उत्तर हैं। पहला उत्तर यह है, कि मौन रहेगा, तो भी कसाई गाय को नहीं छोड़ेगा। चौराहे पर जो ब्राह्मण बैठा है और उसने देख लिया है कि- गाय इस तरफ गई है, और उसके पीछे कसाई आ रहा है। अब वह आने वाले कसाई को उपदेश दे। उसको यह समझाए, कि गाय को मत मारो, गाय को मारना अच्छा नहीं है। गाय जिएगी, तो तुम भी जिओगे। कसाई से वह पूछे, कि- तुम्हें दूध, घी, मक्खन, मलाई, पनीर, बर्फी, खोवा खाने को चाहिए, कि नहीं चाहिए? कसाई कहेगा- चाहिए। अरे भाई! तुमको ये सब चाहिए। और अगर गाय मर जाएगी, तो तुमको ये सब कहाँ से मिलेंगे?  इसलिये गाय को मत मारो। यह किसका उत्तर है? एक मुनि का। दूसरा उत्तर- मान लीजिए, चौराहे पर बैठा हुआ व्यक्ति क्षत्रिय है। कसाई ने पूछा- बोलो गाय कहाँ गई? तो क्षत्रिय कहेगा- आओ सामने अखाड़े में, तुम गाय को मारोगे? पहले हमसे दो-दो हाथ करो। मेरे होते हुए तुम गाय को हाथ लगाओगे! जहाँ से आए हो, वहीं चले जाओ, नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। क्षत्रिय है,  तो ऐसा बोलना चाहिए। झूठ क्यों बोलेगा?  तीसरा उत्तर- मान लीजिए वैश्य है, लड़ भी नहीं सकता, इतनी बुद्धि भी नहीं है, समझा भी नहीं सकता। तो वो कहेगा- देखो भाई तुम गाय को मारते हो, गाय को मारने से तुमको क्या मिलेगा? कसाई कहेगा- हजार रुपया मिलेगा। वैश्य कहेगा- ये हजार रुपये ले लो, गाय हमारी हो गई। गाय हमने खरीद ली,  तुमको हजार रुपये मिल गए। अब गाय को मत मारो, जाओ। अगर गाय की रक्षा करनी हो,  तो थोड़ी सी ताकत लगानी पड़ेगी। झूठ नहीं बोलना है। चौथा उत्तर- मान लीजिए, चौराहे पर बैठा हुआ व्यक्ति शूद्र है। न तो वो ब्राह्मण है, न वो क्षत्रिय है, न वैश्य है। न वो उपदेश दे सकता है, न लड़ सकता है, न पैसा दे सकता है। यदि कसाई आता है, तो वह वहाँ से उठकर भाग जाये। क्षत्रियों के मोहल्ले में जाकर सूचना दे, कि- देखो-देखो कसाई आ रहा है, गाय को मार डालेगा, उसकी रक्षा करो। क्या शूद्र इतना भी नहीं कर सकता?

”हन्ति रक्षो हन्ति असद् वदन्तम्।” ये अथर्ववेद का मन्त्र है। ‘हन्ति असद् वदन्तम्’ जो झूठ बोलता है, भगवान उसको दण्ड देता है। ”सत्यम वक्ष्यामि नानृतम्” यह भी अथर्ववेद का मंत्र है। इस मंत्र का अर्थ है कि ‘सच बोलूँगा, झूठ नहीं बोलूँगा।’ झूठ बोलने का विधान कहीं नहीं है।

अब आप सोंचे कि वह मुनि ही है। उसके पास कुछ नहीं वो यदि बोले गाय इधर गई तो गाय मर सकती है। वह बोले उधर गई तो असत्य होगा। यदि मौन रहे तो कसाई उसको मार देगा। अत: मुनि ने आंख बंद कर समाधि ले ली। गुरू गोरखनाथ के साथ इस किस्से को जोडकर बोलते हैं कि उन्होने चिर समाधि ले ली थी।

अब आप कितने भ्रमित हुये यह आप जान सकते हैं। अत: सत्य पर कुछ अपने अनुभव के साथ गुरूदेव  महाकाली को स्मरण कर चर्चा करता हूं। पहले आप सत्य के शाब्दिक अर्थ देखे। जो आक्सफोर्ड की भाषा शब्दावली के अनुसार है।

यह विशेषण है जिसके अर्थ हैं। 1 सच, यथार्थ (जैसे—सत्य बोलना, सत्य वाणी), 2 यथातथ्य 3 विश्वस्त (जैसे—सत्य विचार) 4 वास्तविक, असल (जैसे—घटनाओं का सत्य निरूपण)।

अब आप देखें इसके अर्थ और व्याख्या परिस्थिति के साथ बदल गई। तो इसको मात्र दो शब्द में कैसे समझा सकते हैं। मेरे विचार से सत्य इतना ही व्यापक है जितना वायु। जहां मानव है, सोंच है वहां सत्य है। एक उदाहरण लें। आप फलाने के पुत्र हैं। अब मां ने बताया यह तुम्हारे पिता है। बस तुमने मान लिया। क्योकि तुमने मां की वाणी पर विश्वास किया। अब सोंचों, जो अक्सर विदेश में होता हैतुम्हारी मां ने झूठ बोला। अब यह वाक्या तुम्हारे लिये सत्य था किंतु यह था असत्य। अब इसको क्या कहोगे। तुम्हारे लिये फलाने तुम्हारा पिता है यह आज तक सत्य था पर जैसे ही मालूम पडा मां ने झूठ बोला यह तुम्हारे लिये असत्य हो गया। अब देखो यह असत्य ही सत्य था किंतु तुम इस असत्य को किसी की वाणी के आधार पर सत्य मानते रहे। आखिर यह कौन सा सत्य था। यह मात्र विश्वास था।

मेरे अपने विचार रखने के पूर्व आप यह देखें।
वेदव्यास के अनुसार: परत्र स्ववोध संक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न वंचिता भ्रान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति। एषा सर्वभूतोपकारार्थ प्रवृत्ता, न भूतोपघाताय। यदि चैवमप्यभिघीयमाना भूतोपघात परैव स्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत्। योग भाष्य 2/30
सत्य’ वह है, (चाहे वह वंचिता, भ्रान्ता और प्रति पत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित) जो प्राणी मात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए। यदि सत्यता पूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है - तो वह “सत्य” नहीं। प्रत्युत सत्या मास ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है। जैसे किसी गौ के अमुक मार्ग से जाने विषयक -गौ- घातक के पूछे जाने पर सत्य भाषी के यह कहने पर कि हाँ, गाय अभी अभी इस मार्ग से उधर को गई है। यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है। अतः आत्म रक्षार्थ एवं पर परित्राणार्थ अन्य उपायों के असंभव हो जाने पर असत्य भाषण करना भी सत्य ही है। अब आप यहां गाय की जगह बकरी या घोडा रख दें। तब क्या उसको मरवा देना ही सत्य होगा।

सत्य बोलना अच्छी बात है यह एक साधारण ज्ञान है । परन्तु सत्य क्या है?  सत्य एक भाव है जो निश्छलता, पवित्रता और अहिंसा का प्रतीक है। जैन धर्म में सत्य की परिभाषा है निरवद्य प्रवृत्ति । निरवद्य अर्थात पवित्र भाव, सावद्य अर्थात अपवित्र भाव।
हिंसा, कपट, चोरी, अप्रामाणिकता, परिग्रह, काम वासना, क्रोध, अहंकार, हीनभावना, भय, घृणा, लोभ, मिथ्या धारणा, निन्दा करना, चुगली करना, राग-द्वेष, कलह आदि अपवित्र भाव हैं। इनमें प्रवृत्ति करना असत्य आचरण है । 

अहिंसा, मैत्री, प्रामाणिकता, निःस्पृहता, अनासक्ति, संतोष, शान्ति, अभय, करूणा, वीतरागता, प्रेम, संयम, अनुशासन आदि पवित्र भाव हैं। इनमें प्रवृत्ति करना सत्य आचरण है। किसी की गुप्त बात को प्रकाशित कर उसे अपमानित कर देना सत्य आचरण नही है। किसी में सुधार की भावना से बिना उसे अपमानित किए उसकी गल्ती की ओर इंगित करना सत्य आचरण है। सत्य भाषण का अर्थ है - वाणी का संयम, भाषा का विवेक। आज बहुत से कलह भाषा विवेक के अभाव में होते हैं।

जो लोग इस धारणा को मानते हैं कि केवल विज्ञान ही सत्य का दावा कर सकता है, इस बात को पहचानने में असफल हो जाते हैं कि सत्य के कई क्षेत्र होते हैं, जहाँ पर विज्ञान शक्तिहीन होता है। उदाहरण के लिए:

विज्ञान गणित और तर्क के विषयों को प्रमाणित नहीं कर सकता है क्योंकि यह उन्हें पूर्व-कल्पित करता है।
विज्ञान तत्वमीमांसिक सत्यों को प्रमाणित नहीं कर सकता, जैसे कि मेरे अस्तित्व के अतिरिक्त मन का अस्तित्व नहीं हो सकता है।
विज्ञान नैतिकता और सदाचार के क्षेत्र में सत्य को प्रदान करने में असमर्थ है। उदाहरण के लिए, आप विज्ञान का प्रयोग यह प्रमाणित करने के लिए नहीं कर सकते हैं कि नाजी बुरे थे।
सूर्योदय की सुन्दरता जैसे सौन्दर्यवादी दृष्टिकोणों के बारे में सत्यों को बताने में विज्ञान असमर्थ है।
अन्त में, जब कोई भी इस कथन को देता है कि "विज्ञान ही केवल वस्तुनिष्ठक सत्य का एकमात्र स्रोत है," उन्होंने एक दार्शनिक दावे को निर्मित किया है — जिसे विज्ञान के द्वारा जाँचा नहीं जा सकता है।

न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः (जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है।

न्याय दर्शन में सत्य के विषय में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।

सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है। सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है? हमारे ज्ञान के विषयों में प्रमुख ये हैं - हमारी अपनी चेतना अवस्थाएँ, प्राकृतिक पदार्थ, तथा चेतना के अन्य केंद्र, या दूसरों के मन।

 
मैं कहता हूँ कि मुझे दांत में दर्द हो रहा है। इसका अर्थ क्या है? मेरा अनुभव एक धारा है जिसमें निरंतर गति होती रहती है। मैं कहता हूँ कि धारा का जो भाग वर्तमान में ज्ञात है, दु:ख की अनुभूति उसमें प्रमुख पक्ष है। मेरे लिए यह स्पष्ट अनुभव है और मैं इसमें संदेह कर ही नहीं सकता। मेरे लिए इसे जाँचने को दूसरा मापक न है,  न हो सकता है। स्पष्ट बोध से अधिक अधिकार किसी अन्य अनुभव का नहीं।

अन्य चेतनों का हमें स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि अनुरूपता के आधार पर हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं। निर्णायों के सत्य असत्य का प्रश्न प्राय: प्राकृतिक तथ्यों के संबंध में उठता है। मैं कहता हूँ "मेज पर पुस्तक पड़ी है" इस वाक्य के यथार्थ होने का अर्थ क्या है?

मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं और उनमें एक विशेष संबंध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की हालत में असत्य है। यह "सत्य का अनुरूपता सिद्धांत" है।

अनुरूपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में प्रत्यक्ष को प्रथम प्रमाण का पद दिया गया है। प्रत्यक्ष "इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है"। यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है : या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आए, या मन इंद्रिय द्वार से गुजरकर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रूप ग्रहण करता है। यह अनुरूपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।

अनुरूपता सिद्धांत के अनुसार हम अपने विचार और बाह्य स्थिति में समानता देखते हैं। अपने विचारों का तो हमें स्पष्ट बोध होता है, पर बाहर की स्थिति को हम कैसे जानते हैं? हम दो विचारों को साथ रखकर उनकी समानता असमानता की बाबत कह सकते हैं, परंतु बाह्य पदार्थ तो हमारी चेतना में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। उसकी तुलना किसी विचार से कैसे करेंगे? अनुरूपतावाद में यह मान लिया जाता है कि बाह्य स्थिति का ज्ञान हमें पहले से ही है। यदि पहले ही ऐसा ज्ञान हो तो निर्णय के सत्य असत्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारी स्थिति ऐसे मनुष्य की स्थिति है जिसने ताजमहल के चित्र देखे हैं, परंतु ताजमहल को नहीं देखा और जानना चाहता है कि वे चित्र परंतु ताजमहल को नहीं देखा और जानना चाहता है कि वे चित्र ताजमहल को वास्तविक रूप में दिखाते हैं या नहीं।

अध्यात्मवाद कहता है कि वस्तुवाद के पास इस आपत्ति से बचने का कोई साधन नहीं। सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अविरोध" सत्य की कसौटी है। अपने पिछले दृष्टांत को फिर लें। "पुस्तक मेज पर पड़ी है", मैं यह कैसे जानता हूँ? आंख ऐसा बताती है। यह एक अनुभव है। परंतु आँख कभी कभी धोखा भी दे देती है। मैं हाथ से पुस्तक और मेज को छूता हूँ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटकाता हूँ तो जो शब्द सुनाई देता है, वह पुस्तक और मेज से निकला प्रतीत होता है। तीसरा अनुभव पहले दोनों अनुभवों की पुष्टि करता है दूसरे भी पुस्तक को मेज पर पड़ा देखते हैं। अनुरूपता सत्य का चिह्न है, परंतु यह अनुरूपता विचार और बाह्य पदार्थ के दरमियान नहीं, अनुभव के विविध भागों के दरमियान होती है। आकर्षणनियम के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है और उन्हें खींचता भी है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह सत्य है; जिसमें यह योग्यता नहीं वह असत्य है।

इस विवरण से ऐसा लगता है कि सत्य अनेक सत्य वाक्यों का समुदाय है और इस समुदाय में प्रत्येक सत्य की अपनी स्वतंत्र स्थिति है। अविरोधवाद इस विचार को स्वीकार नहीं करता। सत्य समुदाय नहीं अपितु समग्र है जिसका तत्व आंशिक सत्यों के रूप को निश्चित करता है। वास्तव में सत्य एक ही है, बहुवचन में सत्यों का वर्णन करना अनुचित है। समूह में कुछ एकांग अलग हो जाए तो दूसरों की स्थिति में भेद नहीं पड़ता। ईंटों के ढेर में से कोई चार ईंटें उठा ले जाए, तो बाकी ईंटों को इसमें आपत्ति नहीं होती। शरीर के एक अंग पर चोट लगे, तो सारा शरीर दुखी होता है। आंशिक सत्यों में हर एक अंश समग्र को किसी पक्ष में दरसाता है और इस विषय में सभी अंशों का मूल्य एक नहीं होता। अविरोधवाद के अनुसार सत्यों में परिमाण का भेद होता है।

जिन वाक्यों को हम सत्य कहते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं- वैज्ञानिक नियम संबंधी और तथ्य संबंधी। "दो और दो चार होते हैं," यदि किसी त्रिकोण के भुज बराबर हों, तो उसके कोण भी बराबर होंगे। - यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश और काल का भेद उनके सत्य होने से असंगत है। "भारत 1947 ई. में स्वाधीन हुआ।" 1947 ई. से पहले यह वाक्य कहा ही नहीं जा सकता था, परंतु अब यह भी सदा के लिए सत्य है।

सत्य का तीसरा सिद्धांत "व्यवहारवाद" या "प्रैग्मेटिज्म" के नाम से प्रसिद्ध है। अपने आधुनिक रूप में यह अमरीका की देन है। वास्तव में व्यवहारवाद कोई सिद्धांत नहीं, एक मनोवृत्ति है जो सामान्य से विशेष को, स्थिरता से परिवर्तन को, चिंतन से क्रिया को अधिक महत्व देती है। इस विचार के प्रसार में चाल्र्स पीअर्स, विलियम जेम्स और जान डियूई का विशेष भाग है। पीअर्स नैयामिक था, जेम्स मनोवैज्ञानिक था, डियूई की अभिरुचि नीति और राजनीति में थी। पीअर्स ने प्रत्ययों के "अर्थ" को स्पष्ट करने में व्यवहारवाद की विधि का प्रयोग किया, जेम्स ने "सत्य का स्वरूप निर्णीत करने में इसे बर्ता, डियूई ने "भद्र" पर इसे लागू किया। इस तरह वे न्याय, सौंदर्यशास्त्र और नीति को अनुभववाद के निकट ले आए।

जेम्स ने अमूर्त सत्य को नहीं, अपितु विशेष विश्वासों के सत्य को अपने विवेचन का विषय बनाया। उसके विचारानुसार सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं जिसे देखना ही हमारा काम है, यह तो क्रिया में बनता है। अपनी पुस्तक "व्यवहारवाद" में वह कहता है- "व्यवहारवाद, मूल रूप में, उन दार्शनिक विवादों को मिटाने का नियम है जो इसके बिना अंतरहित होते। जगत् एक है या अनेक? स्वाधीन है या पराधीन? प्राकृतिक है या आध्यात्मिक? ये विचार ऐसे हैं जिनमें एक या दूसरा सत्य या असत्य हो सकता है और ऐसे विचारों पर विवादों का कोई अंत नहीं। व्यवहारवाद की विधि इन विषयों के संबंध में यह है कि हम प्रत्येक प्रत्यय का समाधान इसके व्यावहारिक परिणामों के परीक्षण से करें। यदि कोई प्रत्यय दूसरे प्रत्यय के स्थान में सत्य होता, तो इससे किसी मनुष्य के लिए व्यावहारिक भेद क्या पड़ता? यदि कोई व्यावहारिक भेद दिखाई न दे तो व्यवहार में दोनों पक्षांतर एक ही हैं और सारा विवाद व्यर्थ है। जब कोई विवाद गंभीर हो तो हमें यह दिखाई के योग्य होना चाहिए कि दोनों पक्षों में एक या दूसरे के सत्य होने पर कोई व्यावहारिक भेद होता है"।

जेम्स से बहुत पहले इसी भाव को प्रकट करते हुए रामानुज ने कहा था- "व्यवहार योग्यता सत्यम्"।

व्यवहारवाद ज्ञानमीमांसा में उपयोगितावाद है: "जो कुछ विश्वास के संबंध में अपने आपको मूल्यवान् सिद्ध करता है, वह सत्य है। व्यवहारवाद बिना झिझक के यह मान लेता है कि जो विश्वास एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।

वास्तव में अनुरूपतावाद, अविरोधवाद और व्यवहारवाद एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं। दो प्रश्न उत्तर की माँग करते हैं - सत्य से क्या अभिप्रेत है?  सत्य और असत्य में भेद करने की कसौटी क्या है?  अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है;  अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं। जेम्स ने कहा है कि व्यवहार की दृष्टि में जब कोई विश्वास सत्य सिद्ध होता है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह उसी प्रकार के सत्यों से युक्त हो सके। यह धारणा व्यवहार को अविरोधवाद के निकट ले आती है। तीनों विचार एक दूसरे के विरुद्ध नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं।

बाईबिल के अनुसार पीलातुस ने उस से कहा, 'तो क्या तू राजा है?' यीशु ने उत्तर दिया, 'तू कहता है कि मैं राजा हूँ; मैं ने इसलिये जन्म लिया और इसलिये जगत में आया हूँ कि सत्य पर गवाही दूँ। जो कोई सत्य का है, वह मेरा शब्द सुनता है।' पीलातुस ने उस से कहा, 'सत्य क्या है?'" (यूहन्ना 18:33–38)

सत्य की एक प्रस्तावित परिभाषा  सत्य की परिभाषा करते हुए, इस बात पर ध्यान देना सहायतापूर्ण होगा कि सत्य क्या नहीं है:

जो भी बात कार्य करती है, वही सरल शब्दों में सत्य नहीं है। यह व्यावहारिकतावाद का दर्शन है — अर्थात् यह अन्तिम परिणाम — बनाम — तरीके का दृष्टिकोण है। वास्तव में, झूठ "कार्य" करता हुआ प्रकट हो सकते हैं, परन्तु वह तो अब भी झूठ ही हैं और उसमें सत्य नहीं हैं।
जो भी बात सुसंगत या समझ में आता है, वही सरल शब्दों में सत्य नहीं है। लोगों का समूह एक साथ मिलकर एक झूठ के आधार पर षड्यन्त्र रच सकता है, जिसमें वे सभी एक ही झूठी कहानी बताने के लिए सहमत हो जाएँ, परन्तु उनकी प्रस्तुति इसे सत्य नहीं बना देती है।
जो बात लोगों को अच्छी महसूस होती है, वह सत्य नहीं है। दुर्भाग्य से, बुरा समाचार भी सत्य हो सकता है।
जिस बात को बहुमत बोल रहा है, वह सत्य नहीं है। एक समूह के इक्याँनवे प्रतिशत लोग गलत निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं।
जो बात विस्तृत होती है, वह सत्य नहीं है। एक लम्बा, विस्तृत प्रस्तुतिकरण का भी परिणाम एक गलत निष्कर्ष में हो सकते हैं।
सत्य आशय की गई बात से परिभाषित नहीं किया जाता है। अच्छे प्रयोजन फिर भी गलत हो सकते हैं।
सत्य यह नहीं कि हम कैसे जानते हैं; सत्य वह है जो हम क्या जानते हैं।
सत्य वह बात नहीं है, जिसे सरल शब्दों में हम विश्‍वास करते हैं। एक झूठ तो फिर भी झूठ ही रहता है।
सत्य वह बात नहीं है, जिसे सार्वजनिक रूप से प्रमाणित किया गया है। एक सत्य को व्यक्तिगत् रूप से भी जाना जा सकता है (उदाहरण के लिए, जैसे एक गड़े हुए खजाने का स्थान)।

"सत्य" के लिए यूनानी शब्द अलैथीया है, जिसका शाब्दिक अर्थ "गुप्त-को खोल देना" या "कुछ भी छिपा हुआ नहीं" है। यह इस विचार को प्रकट करता है कि सत्य सदैव बना रहता है, सदैव खुला हुआ और सभों को देखने के लिए बिना किसी गुप्त या अस्पष्ट बात के सदैव उपलब्ध रहता है। "सत्य" के लिए इब्रानी शब्द इमेथ है, जिसका अर्थ है "दृढ़ता," "स्थिरता" और "अवधि" से है। इस तरह की परिभाषा का अर्थ एक अनन्तकालीन तत्व और कुछ ऐसी वस्तु से है, जिसके ऊपर भरोसा किया जा सकता है।

एक दार्शनिक दृष्टिकोण से, सत्य को परिभाषित करने के लिए तीन तरीके हैं:
1. सत्य वह है, जो वास्तविकता के अनुरूप है
2. सत्य वह है, जो अपने उद्देश्य के अनुरूप होता है
3. सत्य वह है, जो यह मात्र यह बताना है कि कोई वस्तु उसी के जैसी है।

सापेक्षवाद का दर्शन कहता है कि सभी सत्य आपस में सम्बन्धित हैं और पूर्ण सत्य जैसी कोई बात नहीं है।

जो लोग सन्देहवादी दर्शन का पालन करते हैं, वे सभी तरह के सत्य पर सन्देह व्यक्त करते हैं। सन्देहवाद, अपनी विडम्बना में ही इस विषय में पूर्ण सत्य बन जाता है। एक अज्ञेयवादी यह कहता है कि आप सत्य को नहीं जान सकते हैं। तथापि, यह एक मानसिकता की आत्म-पराजय है, क्योंकि यह कम से कम किसी एक सत्य को जानने का दावा तो करती है: कि आप सत्य को नहीं जान सकते हैं।

आधुनिकतावाद के शिष्य किसी एक विशेष सत्य के होने की पुष्टि नहीं करते हैं। उत्तरआधुनिकतावाद के संरक्षक सन्त फ्रेडरिक नीत्शे ने सत्य का विवरण कुछ इस तरह से दिया है : "तब सत्य क्या है? रूपकों, उपनामों, और मानवशास्त्रों की एक चलित सेना के कारण... सत्य भ्रम है... यह ऐसे सिक्के जो अपने चित्र को ही खो चुके हैं और अब केवल धातु का ही रूप बचा है, अब यह सिक्कों के रूप में नहीं हैं।"

एक प्रचलित वैश्विक दृष्टिकोण बहुलवाद है, जो यह कहता है कि सत्य के सभी दावे समान रूप से मान्य हैं। बिना किसी सन्देह के यह असम्भव है। क्या दो प्रकार के दावे हो सकते हैं — एक कहता है कि एक औरत अभी गर्भवती है और दूसरा कहता है कि वह अभी गर्भवती नहीं है — क्या दोनों एक ही समय में सत्य हैं? मोर्टिमर एडलर कहते हैं: "बहुलवाद केवल उन क्षेत्रों में इच्छित और सहनीय है, जो सत्य के विषय की अपेक्षा स्वाद के विषय हैं।"

जब सत्य की अवधारणा आक्रामक हो जाती है, तो यह सामान्य रूप से निम्नलिखित एक या अधिक कारणों के लिए होती है: विश्‍वास और धर्म के विषयों में पूर्ण सत्य होने का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध एक सामान्य शिकायत यह होती है कि ऐसा दृष्टिकोण "संकीर्ण-मन" वाला होता है। यद्यपि, आलोचक यह समझने में विफल रहता है कि अपने स्वभाव से ही सत्य संकीर्ण है।

क्या एक गणित शिक्षक 2 + 2 केवल 4 ही होते हैं, के दृष्टिकोण में विश्‍वास करने के कारण संकीर्ण है? सत्य के प्रति एक और आपत्ति यह है कि ऐसा दावा करना घमण्ड से भरा हुआ है कि एक व्यक्ति सही है और दूसरा व्यक्ति गलत है। क्या यह एक ताला बनानेवाला के लिए घमण्ड की बात है कि वह यही कहता रहे कि केवल एक ही कुँजी एक दरवाजे के ताले को खोल सकती है?

विश्‍वास और धर्म के विषय में पूर्ण सत्य धारण करने वालों के विरूद्ध तीसरा आरोप यह है कि ऐसा दृष्टिकोण लोगों को अपने में सम्मिलित करने की अपेक्षा लोगों को बाहर कर देता है। परन्तु इस तरह की शिकायत यह समझने में असफल हो जाती है कि सत्य, अपने स्वभाव के कारण ही, अपने विरूद्ध आने वाले विरोध को बाहर कर देता है।

तथापि, सत्य के विरूद्ध एक और विरोध यह है कि यह आक्रामक है और इस दावे में निर्णायक है कि एक व्यक्ति के पास सत्य है। इसकी अपेक्षा, आलोचकों के तर्क ये हैं, सत्यता में ही सभी तरह का अर्थ पाया जाता है।

कुछ लोग स्वीकार करेंगे कि पूर्ण सत्य का अस्तित्व है, परन्तु इस तरह का दावा केवल विज्ञान के क्षेत्र में ही वैध है और विश्‍वास और धर्म के विषय में नहीं आता है। इस दर्शन को तार्किक सकारात्मकवाद कहा जाता है। तार्किक सकारात्मकवादी के लिए, परमेश्‍वर के बारे में सब बात अर्थहीन हैं।

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र (विश्‍वास और धर्म को सम्मिलित करते हुए) में सत्य की अवधारणा को अपनाना और समझना क्यों इतना अधिक महत्वपूर्ण है। सरल शब्दों में कहना क्योंकि जीवन में गलत हो जाने के परिणाम निकलते है। यह देखते हुए कि एक व्यक्ति को गलत दवा दे दिए जाने से उसकी मृत्यु हो सकती है; एक निवेश प्रबन्धक के रूप में धन-सम्बन्धी गलत निर्णय ले लेना एक परिवार को कमजोर कर सकता है; गलत हवाई जहाज़ पर बैठना आपको वहाँ ले जाएगा जहाँ आप जाना ही नहीं चाहते हैं; और एक विवाह में अविश्‍वासी वैवाहिक जीवन साथियों के साथ कार्य करने का परिणाम एक परिवार के विनाश का कारण हो सकता है और सम्भवतः इससे बीमारी भी हो सकती है।

जैसा कि मसीही धर्ममण्डक रवि जकर्याह लिखते हैं, "तथ्य यह है कि सत्य अर्थ रखता है — विशेष रूप से तब जीव आप झूठ के परिणामों को प्राप्त कर रहे होते हैं।" और यह विश्‍वास और धर्म के क्षेत्र की तुलना से किसी अन्त क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। शाश्‍वतकाल अत्यधिक लम्बे समय तक चलने वाला एक गलत नहीं हो सकता है।

इतना सब देखने के बाद मैं सत्य को सर्व व्यापी मानते हुये निम्नलिखित वर्गीकरण करना चाहूंगा। सत्य यानि स: + तथ्य। वो जो तथ्य है। तथ्य समय के साथ बदल भी सकते हैं। अत: सत्य को वर्गीकृत किया जा सकता है।

1. शाश्वत सत्य। 2. परम सत्य या अंतिम सत्य। 3. व्यवहार सत्य। 4. वाणी सत्य। 5. नेत्र सत्य। 6. विचार सत्य। 7. स्थाई सत्य। 8. अस्थाई या कालिक सत्य। 9. कर्म सत्य। 10. आस्था या बुद्धि सत्य।

1. शाश्वत सत्य: जो आदिकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा। जैसे जिसका निर्माण हुआ है उसका विनाश अवश्य होगा। ऊर्जा सर्व व्यापी है। प्रत्येक वस्तु ऊर्जा का ही रूपान्तरण है। जीव होगा तो भोजन करेगा। चाहे कितना छोटा क्यों न हो।
अब आस्तिक हेतु ईश सर्व व्यापी है। यह उनके लिये शाश्वत सत्य किंतु नास्तिक हेतु कुछ नहीं तो यह होगा आस्था या बुद्धि सत्य।

2. परम सत्य या अंतिम सत्य। जो पैदा हुआ है वो मरेगा। ईश को परम सत्य कहा है। आत्मा को कहा गया है। परम सत्य की परिभाषा यो दे सकते हैं कि जो परिवर्तंशील है वह असत्य। परम सत्य अपरिवर्तनिय रहता है। अत: कहते हैं राम नाम सत्य है। ईश का नाम सत्य है। राम तो मर गये थे तो सत्य क्यों क्योकि वह आत्मा ही थे।

3. व्यवहार सत्य: यह वह जो जगत के प्रति निभाते हैं। हम जो व्यवहार करें उसमें समाज का कल्याण छिपा हो। परहित छिपा हो। “परहित सरस धर्म नहीं भाई”। 

4. वाणी सत्य: जिसमें दादा भगवान और वेद व्यास ने बोला ” इसलिए सत्य कैसा होना चाहिए? प्रिय लगे ऐसा होना चाहिए। सिर्फ प्रिय लगे वैसा हो तो भी नहीं चलेगा। वह हितकर होना चाहिए, उतने से ही नहीं चलेगा। मैं सत्य, प्रिय और हितकारी ही बोलता हूँ, तो भी मैं अधिक बोलता रहूँ न, तो आप कहो कि, 'अब चाचा बंद हो जाओ न। अब मुझे भोजन के लिए उठने दो न।' इसलिए वह मित चाहिए, सही मात्रा में चाहिए। यह कोई रेडियो नहीं है कि बोलते रहे, क्या? मतलब सत्य-प्रिय-हितकर और मित, चार गुणाकार हो तो ही सत्य कहलाता है। नहीं तो सिर्फ नग्न सत्य बोलें, तो वह असत्य कहलाता है।

5. नेत्र सत्य:  हमारे नेत्र सम्यक रहें और मन के अंदर गलत दृश्य न प्रवेश करें।

6. विचार सत्य: वास्तव में श्रीमद्भगवद गीता हर चिंतन को समझाती है। “हे अर्जुन जो कार्य समाज के प्रतिकूल हो वह तेरे अनूकूल कैसे हो सकता है”। य्ह वाक्य अनेकों व्याख्यायें समेटे हुये पाप पुण्य अच्छे बुरे मन बुद्धि सब इंद्रियो की वासना को परिभाषित करता है। विचारों सत्यता का अर्थ जो सोंचे उसमें उत्थान और कल्याण को किसी का। अहित न हो।

7. स्थाई सत्य: जैसे सूरज पूरब में निकलता है पश्चिम में डूबता है। हर दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है। यह सत्य तुम हो न हो। होता रहेगा।

8. अस्थाई या कालिक सत्य: जैसे वह औरत अभी गर्भवती है। कल नहीं रहेगी। मैं अभी ट्रेन में यात्रा कर रहा हूं।

9. कर्म सत्य: वह कर्म जिसमें परहित हो। किसी को पीडा न हो।

10. आस्था या बुद्धि सत्य: राम भगवान थे या नहीं। कृष्ण क्या थे। यह सब आपकी आस्था पर निर्भर करता है। 


जय महाकाली गुरूदेव। अयम आत्मा ब्रह्म। 

(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

4 comments:

  1. 🙏🙏🙏🙏🙏🌷🌷🌷🌷🌷 bahut sunder vyakhaan hai

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  2. दिव्य और अद्वितीय ज्ञान। अतुलनीय वंदन।

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