पारसी धर्म की दुर्दशा : क्या हिंदू जागेगा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "अन्वेषक"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) सेवानिवृत्त वैज्ञानिक, लेखक एवं कवि
पूर्व प्रधान सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
पारसी धर्म या 'ज़रथुष्ट्र (ज़रथुष्त्र)
धर्म' विश्व का अत्यंत
प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक संत ज़रथुष्ट्र ने की थी। इस्लाम के आविर्भाव के पूर्व
प्राचीन ईरान में ज़रथुष्ट्र धर्म
का ही प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में अरबों ने ईरान को पराजित कर वहाँ के
ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों को जबरन इस्लाम में दीक्षित कर लिया
था। ऐसी मान्यता है कि कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और
वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आये और यहाँ गुजरात तट पर नवसारी में आकर
बस गये। वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या
लगभग एक लाख है, जिसका 70% बम्बई में रहते हैं।
ज़रथुस्त्र की मृत्यु के बाद (551
ई. पू.) उनकी शिक्षाएं धीरे-धीरे
बैक्ट्रिया और फ़ारस में फैलीं। तीसरी सदी में फ़ारस में सासेनियाई राजवंश
के उदय के साथ पारसी धर्म को मान्यता मिलने लगी और इसे देश का आधिकारिक
धर्म बना दिया गया। इसके पुरोहितों के पास काफ़ी अधिकार आ गए; अवेस्ता का संकलन और अनुवाद स्थानीय भाषा पहलवी में किया गया।
633 ई. में जब अरब मुसलमानों का आक्रमण शुरू होने पर इराक़ को और फिर 651
ई. में
ईरान को जीत लिया गया। अग्नि मंदिर नष्ट किए गए,
धार्मिक ग्रंथ जलाए गए और लोगों को
बलपूर्वक धर्मांतरित किया गया। कई लोग भागकर
रेगिस्तान या पहाड़ों में छिप गए। अन्य दक्षिण ईरान के प्राचीन
राज्य पर्सिस चले गए और वहां उन्होंने स्वयं को सुरक्षित कर लिया।
कुछ अन्य हॉरमुज़ खाड़ी पर स्थित हॉरमुज़ तक पहुंच गए। वहां वे 100
साल रहे और गुप्त रूप से
पालदार जहाज़ बनाते रहे। अंतत: वे
जहाज़ से भारत रवाना हुए और
गुजरात में काठियावाड़ के सिरे पर मछुआरों के दिऊ गांव पहुंचे। भारतीय पारसी
इन्हीं प्रारंभिक बसने वालों के वंशज हैं।
'पारसी' शब्द का अर्थ 'पर्सिस से आया व्यक्ति है'। 'पारसीपन' या 'पारसीवाद' का ज़िक्र धर्म के लिए नहीं,
बल्कि विशिष्ट पारसी लोकोक्तियों,
व्यवहार-वैचित्र्य,
प्रहसन और हास्य के लिए होता है। भारत
में पारसियों का एक छोटा समुदाय है,
उनकी संख्या घट रही है। वे मुख्य रूप
से पश्चिमी तट, कोलकाता (भूतपूर्व कलकत्ता),
चेन्नई (भूतपूर्व मद्रास) और
दिल्ली में रहते हैं। इसके विपरीत 19वीं सदी के मध्य में
ईरान से भारत आए ज़रथुस्त्री (पारसी) एक बढ़ता हुआ समुदाय
है। दोनों समूह पारसी अग्नि मंदिरों में
पूजा करते हैं और पारसी धर्म के रीति-रिवाजों का पालन करते
हैं।
हालांकि
भारत और ईरान के बीच व्यापार संबंध और राजनैतिक संपर्क आरंभिक काल
से रहे हैं, भारत में
पारसी आठवीं से दसवीं सदी के दौरान आकर
बसे, जबकि ईरानी लगभग 19वीं सदी के
मध्य में यहाँ पहुंचे। ईरानियों ने
चाय की छोटी दुकानें खोलकर मामूली शुरुआत की। इसके बाद
कृषि व औषधि क्षेत्र में प्रवेश किया और आज यह एक
फलता-फूलता समुदाय है। पारसियों ने नारियल और ताड़ के पेड़ उगाने वाले
फल उत्पादक और कृषकों के रूप में शुरुआत की और फिर बड़े
व्यवसायों में आ गए। सूरत के 'वाडिया परिवार' ने जहाज़-निर्माण के रूप में नाम कमाया और शाही
नौसैना को युद्ध पोतों की आपूर्ति की। इस
परिवार के एक सदस्य अर्देशिर कर्सेतजी वाडिया (1808-77)
ने युद्ध पोतों में भाप के इंजन का
पहली बार इस्तेमाल किया और बंबई (वर्तमान
मुंबई) में गैस से रोशनी की भी शुरुआत की। वह 'रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन'
द्वारा
1941 में
सदस्य चुने जाने वाले पहले भारतीय थे।
तीन
पारसियों ने भारतीय राजनीति में विशेष रूप से ख्याति प्राप्त की।
दादाभाई नौरोजी
(1825-1917), फ़िरोजशाह मेहता
(1845-1915) और दिनशॉ वाचा। वाणिज्य और उद्योग के क्षेत्र में
जमशेदजी नौशेरवानजी टाटा
(1839-1904) का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने भारत के
लौह और इस्पात उद्योग
की आधारशिला रखी। लोनावला में पनबिजली
परियोजना स्थापित की और बंगलोर में 'भारतीय विज्ञान संस्थान'
की स्थापना के लिए वह उत्तरदायी थे,
हालांकि
यह उनकी मृत्यु के बाद स्थापित किया
गया था। 'टाटा परिवार' के वंशज
जहांगीर रतनजी दादाभाई
टाटा ने
1932 में
'टाटा एयरलाइंस' के साथ देश भर में नागरिक उड्डयन की शुरुआत की,
जो
बाद में विकसित होकर 'एंडियन एयरलाइंस'
और 'एयर एंडिया इंटरनेशनल'
में बदल
गया। दोनों का
1953 में
राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। कला के क्षेत्र में जुबिन मेहता अंतर्राष्ट्रीय
ख्यातिप्राप्त संगीत संचालक हैं। जहांगीर सबाला के चित्रों को व्यापक
मान्यता मिली है और पीनाज़ मसानी गज़ल गायन के लिए प्रसिद्ध हैं। अबन ई.
मिस्त्री प्रथम प्रसिद्ध पारसी
तबला वादक हैं।
एक अन्य पारसी होमी जहांगीर भाभा (1909-1966) अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त परमाणु वैज्ञानिक थे। 1941 में 31 वर्ष की उम्र में वह 'रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन' के फ़ेलो चुने गए थे। वह 'टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च' और 'भारतीय परमाणु आयोग' के संस्थापक थे। उनके समकालीन दाराशॉ वाडिया (1883-1969) भूगर्भशास्त्र के प्रवर्तक थे, जिन्होंने हिमालय की प्रमुख श्रेणियों का मानचित्रण किया। इस दौरान क़ीमती पत्थर 'लहसुनिया' (बेरिल) भी खोज निकाला। नानाभाई अर्देशर मूस (1859-1936) विद्युत चुंबकत्व के क्षेत्र में अग्रणी थे और उन्होंने भारत की दो प्रयोगशालाएं स्थापित कीं, जो अब 'भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान का हिस्सा हैं।
एक अन्य पारसी होमी जहांगीर भाभा (1909-1966) अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त परमाणु वैज्ञानिक थे। 1941 में 31 वर्ष की उम्र में वह 'रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन' के फ़ेलो चुने गए थे। वह 'टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च' और 'भारतीय परमाणु आयोग' के संस्थापक थे। उनके समकालीन दाराशॉ वाडिया (1883-1969) भूगर्भशास्त्र के प्रवर्तक थे, जिन्होंने हिमालय की प्रमुख श्रेणियों का मानचित्रण किया। इस दौरान क़ीमती पत्थर 'लहसुनिया' (बेरिल) भी खोज निकाला। नानाभाई अर्देशर मूस (1859-1936) विद्युत चुंबकत्व के क्षेत्र में अग्रणी थे और उन्होंने भारत की दो प्रयोगशालाएं स्थापित कीं, जो अब 'भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान का हिस्सा हैं।
औषधि के क्षेत्र में जाल कावशॉ पेमास्तर (1908-1980) ने कैंसर अनुसंधान में उत्कृष्ट कार्य किया। 1959 में 'भारत सरकार' ने उन्हें मुंह और ग्रसनी के कैंसर के रोग विज्ञान के क्षेत्र में अग्रगामी कार्य तथा उनके इलाज के लिए साधारण तकनीक विकसित करने के लिए 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। हृदय रोग विज्ञान में रुस्तम जाल वकील (1911-1974) का काम भी उल्लेखनीय है। नेत्ररोग विज्ञान में जमशेदजी नौसेरवानजी दुग्गन (1884-1958) अग्रणी थे, जिस तरह दिल्ली में 'श्रॉफ़ नेत्र अस्पताल' के संस्थापक सोराबजी पी. श्रॉफ़ (1878-1964) रहे। 1914 में स्थापित यह अस्पताल दक्षिण-पूर्व एशिया में कई वर्षों तक अपनी तरह का एक ही अस्पताल रहा।
(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment