Friday, April 5, 2019

गोपी और कृष्ण का रहस्य

गोपी और कृष्ण का रहस्य
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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इस भौतिक जगत में हो या आध्यात्मिक जगत में, माधुर्य शब्द के सुनने मात्र से ही कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं की अनुभूति मन को आनन्दित कर देती है और उम्र की सीमाओं से परे हम अपने जीवन के सबसे मनोहर संवेदनषील पलों में खो से जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इस भौतिक जगत में आते ही प्रेम की ऐसी वर्षा की कि जिससे उद्भूत प्रेम के विभिन्न रसों की अनुभूति से ये धरा सिंचित हो गयी चाहे वो कृष्ण-यषोदा का वात्सल्य हो अथवा गोपों का साख्य, उद्धव जी का दास्य हो या गोपियों का प्रेम-माधुर्य। सम्पूर्ण जगत में श्रीकृष्ण का प्रेम-माधुर्य अतुलनीय कहलाया।

प्रेम-माधुर्य की लीला का वर्णन यहाँ उद्धत किया जा रहा है जो कृष्ण-प्रेम की पराकष्ठा को दर्षाता है जिसे स्वयं कृष्ण भी सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं। ये बात उस समय की है जब कृष्ण द्वारिका प्रस्थान कर गये और रुक्मिणी रानियों तथा द्वारिकावासियों की सेवा में रत हो गये। एक दिन रानियों के बीच वार्तालाप होने लगा। किसी रानी ने कहा ‘‘हम कितनी भाग्यषालिनी हैं कि हमारे स्वामी कृष्ण का सर्वाधिक अधिकार हमें प्राप्त है। हमारी इस योग्यता के कारण हमें कृष्ण की पत्नी रूप अधिकार प्राप्त हुआ है।’’ तुरन्त दूसरी रानी इतराकर कहती है ‘‘हमारा पूर्ण समर्पण ही इस कृष्णरूपी वरदान का कारण है इसीलिए तो कृष्ण केवल हमारे हैं।’’ वहीं उपस्थित महारानी रुक्मिणी स्वयं भी गौरवमयी मुस्कान के साथ स्वयं को देखने लगीं।

श्रीकृष्ण ने इन रानियों के हृदय के उद्गारों को जानकर इन रानियों की परीक्षा लेने की योजना बनायी। भगवान श्रीकृष्ण का इस परीक्षा का प्रयोजन मात्र इतना था कि लीलाधर किसी भी आवरण आलिंगन से आसक्त नहीं हैं, उनके लिए प्रत्येक जीव एक-समान है। इन रानियों का ये सौभाग्य था कि उन्होंने जो तप पूर्व जन्म में किए थे तथा भगवान को पति रूप में पाने की कामना की थी वो इस जन्म में श्रीकृष्ण द्वारा स्वीकृत हो गयी थी जिसके कारण इन्हें श्रीकृष्ण की अर्धांगिनी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। साथ ही भगवान का ऐष्वर्यभोग भी प्राप्त हुआ परन्तु ऐष्वर्य की अधिकता अहंकार का मार्ग भी प्रषस्त कर देती है।


श्रीभगवान ने उनको इसी अहंकार से मुक्त करने हेतु स्वयं के अस्वस्थ होने की लीला का सृजन किया। स्थिति कुछ ऐसी हुई कि श्रीकृष्ण के सिर में असाध्य पीड़ा होने लगी जिसके निवारण हेतु द्वारिका के राज्य वैद्य बुलाये गये परन्तु पीड़ा का कारण जानने में असमर्थ रहे। तत्पष्चात अनेक ऋषियों देष-देषान्तर के अनेक वैद्यों को बुलाया गया तथा अनेक उपचार अनुष्ठान किए गये परन्तु समस्त प्रयास निष्फल गये। अन्ततोगत्वा एक सिद्ध वैद्य ने आकर परीक्षण के पष्चात एक विचित्र चिकित्सा बताई। उसने कहा कि यदि कोई स्त्री अपने चरणों की रज प्रभु के माथे पर लगा दे तो वह क्षण-मात्र में स्वस्थ हो जायेंगे। इस विचित्र चिकित्सा की सूचना समस्त द्वारिका में फैल गयी। सभी आष्चर्यचकित थे। परन्तु कोई भी स्त्री ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी। समस्त रानियाँ विचलित हो उठीं कि यह कैसे सम्भव है। रानियों ने दासियों से कहा परन्तु कोई दासी ऐसा पाप कृत्य करने को तैयार हुयी।



इसी बीच देवर्षि नारद श्रीभगवान का मन्तव्य जानकर द्वारिका में पधारे। उन्होंने पटरानी रुक्मिणी से अनुरोध किया, ‘‘माता! आप प्रभु के स्वास्थ्य-लाभ हेतु अपनी चरण-रज प्रदान कर दें।’’ किन्तु रुक्मिणी ने कहा ‘‘ऐसा करना तो दूर मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती। मैं अपने स्वामी के लिए घोर तपस्या कर सकती हूँ, अपने प्राण भी दे सकती हूँ परन्तु मेरी चरण-रज! कदापि नहीं।’’ इसी प्रकार देवर्षि ने सभी रानियों से अनुग्रह किया परन्तु कोई भी रानी इस चिकित्सा के लिए तैयार नहीं हुई। नारद जी अत्यन्त निराष होकर व्याकुल अवस्था में बैठ गये तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा ‘‘आप व्याकुल हों देवर्षि! आप वृन्दावन जाइये वहाँ आपको निराषा नहीं मिलेगी।

श्रीभगवान के वचन सुनकर तथा उनकी बाल-लीलाओं को याद कर नारद जी ने वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया। वृन्दावन पहुँचकर नारद जी ने गोपियों को द्वारिका में कृष्ण की अस्वस्थता उस विषिष्ट चिकित्सा की सूचना दी। उसके प्रत्युत्तर में जो दृष्य शब्द नारद जी को देखने सुनने को मिले कि वे अपनी अश्रुधारा को रोक पाये क्योंकि वह कोई साधारण दृष्य नहीं था अपितु कृष्ण के प्रति गोपियों का अपार निःस्वार्थ प्रेम था। प्रत्येक गोपी जहाँ खड़ी थी जैसे बैठी थी उसी अवस्था में अपने चरणों की रज को पात्र में भरकर नारद जी को देने लगीं तथा स्वयं के साथ श्रीकृष्ण द्वारा घटित प्रेम-लीलाओं का रो-रो कर वर्णन करने लगीं। कुछ तो यहाँ तक कहा ‘‘चरण भी लेने हों तो लै लो! पर मोरे कान्हा को दर्द तुरत मिटनो चाहियो।’’

ऐसा मनोहर दृष्य देखकर देवर्षि भाव-विभोर हो गये और तुरन्त ही द्वारिका को प्रस्थान कर गये। जैसे ही नारद जी का द्वारिका आगमन हुआ और वैद्य जी ने गोपी चरण रज श्रीकृष्ण के मस्तक पर लगाई, श्रीभगवान तुरन्त ही स्वस्थ हो गये। देवर्षि नारद ने वहाँ वृन्दावन का समस्त वृत्तान्त सुनाया। वहाँ उपस्थित श्रीकृष्ण की रानियों को, गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-माधुर्य का बोध हुआ और स्वयं के मिथ्या अभिमान पर लज्जित भी हुयीं। प्रेम की वास्तविक परिभाषा श्रीकृष्ण-गोपी प्रेम से ही प्रकट होती है जहाँ निःस्वार्थता की पराकष्ठा तथा प्रियतम को आनन्द सुख प्रदान करने की भावना प्रधान होती है चाहे उसके लिए कितने ही कष्टों दुःखों का वरण करना पड़े, सभी स्वीकार्य होता है। वास्तव में यह प्रेम में तपस्या का स्वरूप ले लेती है।

भगवान कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन महान् कार्यों और घटनाओं से भरा रहा था। उन्होंने अपने बचपन के केवल 16 वर्ष ब्रज में बिताये थे और उसके बाद ब्रज को हमेशा के लिए छोड़ दिया था। इन 16 वर्षों में उन्होंने कुछ राक्षसों को मारने के अलावा कोई बड़ा कार्य नहीं किया था, लेकिन अपने सहज स्नेह से सभी ब्रजवासियों का हृदय इस प्रकार जीत लिया था कि आज भी ब्रजवासी उनको याद करते हैं। 

बहुत से लोग कृष्ण पर गोपियों के साथ छेड़छाड़ करने और अन्य अनुचित आरोप लगाते हैं। ये आरोप पूरी तरह असत्य हैं। कोई चोर, लम्पट या लड़कियों को छेड़ने वाला व्यक्ति उनका प्रेम नहीं जीत सकता। गोपियाँ उनकी बाल-सुलभ क्रीड़ाओं और वंशी बजाने के कारण उनसे प्रेम करती थीं। वे सभी विवाहित महिलाएँ थीं और उनका प्रेम निश्छल था। वैसा ही कृष्ण का भी था। द्वारिका जाने के बाद जब उद्धव जी कृष्ण का संदेश लेकर गोपियों के पास पहुँचे, तो उनके प्रेम को देखकर दंग रह गये। गोपियों ने उनसे कहा- उद्धव जी महाराज, आप अपना ज्ञान अपने पास रखिये। हमें नहीं चाहिए आपका ज्ञानी, ध्यानी, पराक्रमी कृष्ण। हमें तो अपना वही नटखट, गाय चराने वाला, माखन चुराने वाला, वंशी बजाने वाला, मन मोहने वाला कृष्ण चाहिए। प्रेम की यह पराकाष्ठा देखकर उद्धव जी अपना सारा ज्ञान भूल गये।

जहाँ तक कृष्ण और राधा के प्रेम की बात है, पूरे महाभारत में एक बार भी राधा का नाम नहीं आया है, हालांकि उसमें किसी अन्य गोपी का नाम भी नहीं है। राधा भी उन्हीं गोपियों में से एक रही होगी। वैसे उसे रिश्ते में कृष्ण की मामी बताया जाता है। यह सम्भव है कि उसका प्रेम कृष्ण के प्रति कुछ अधिक रहा हो। ब्रज को छोड़ते समय कृष्ण अपनी प्रिय वंशी राधा को ही अपनी निशानी के रूप में दे गये थे। उसके बाद उन्होंने जीवनभर कभी वंशी नहीं बजायी। यह त्याग और निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है? ऐसे पवित्र सम्बंध को कलंकित करना अनुचित ही नहीं घोर पातक है।



ब्रज छोड़ने के बाद जीवनभर कृष्ण एक बार भी ब्रज में नहीं गये। कभी नन्द बाबा से मिले, यशोदा मैया से। गोप बालकों से मिले, गोपियों से। लेकिन एक क्षण को भी वे ब्रज को भूल नहीं पाये। मैं स्वयं ब्रजवासी होने के कारण जानता हूँ कि ब्रजवासी कृष्ण के प्रति कैसी भावना रखते हैं। कभी वापस ब्रज लौटने का उलाहना वे कृष्ण को आज भी देते हैं। उन्होंने कृष्ण को छलिया, ठग, नटवर, निर्मोही, घमंडी जैसे कई नाम दिये, लेकिन उनको प्रेम करना बन्द नहीं किया। कृष्ण और राधा के बहाने उन्होंने अपनी प्रेम भावनायें व्यक्त की हैं। तू जा रे मोहन प्यारे, तुझे राधा बुलाती है।



प्रेम की भावनायें मनुष्य में स्वाभाविक हैं। अन्य समाजों में इनको व्यक्त करने के अन्य तरीके हैं। रोमियो-जूलियट, लैला-मँजनू, शीरीं-फ़रहाद, हीर-राँझा जैसी अनेक प्रेम कहानियाँ संसार में प्रचलित हैं। लेकिन भारत में राधा और कृष्ण के माध्यम से प्रेम की भावनायें प्रकट की जाती हैं। इसमें धर्म और अध्यात्म का भी अंश होने के कारण लौकिक प्रेम सीमा के भीतर ही रहता है और विकृत रूप लेने से बच जाता है।



भगवान कृष्ण का चरित्र कितना महान् था, इसका एक प्रमाण महाभारत में मिलता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अग्र पूजा के समय कृष्ण के सगे फुफेरे भाई शिशुपाल ने कृष्ण की निन्दा में तमाम तरह की बातें कहीं, लेकिन लम्पटता का आरोप तो उसने भी नहीं लगाया। इसके विपरीत उसने कृष्ण कोनपुंसक कहा। इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण वास्तव में चरित्रवान् और जितेन्द्रिय थे, क्योंकि प्रायः ऐसे लोगों को ही नपुंसक कहकर गाली दी जाती है।



कृष्ण ने केवल एक विवाह किया था रुकमिणी के साथ। उनकी सहमति से कृष्ण ने उनका हरण किया और फिर विधिवत् विवाह किया था। बहुत बाद में उनको सामाजिक दबाब से बाध्य होकर सत्राजित् की पुत्री सत्यभामा के साथ विवाह करना पड़ा था।

 


गोपी शब्द का प्रयोग प्राचीन साहित्य में पशुपालक जाति की स्त्री के अर्थ में हुआ है। इस जाति के कुलदेवता 'गोपाल कृष्ण' थे। भागवत की प्रेरणा लेकर पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को आध्यात्मिक रूप दिया गया है। इससे पहले महाभारत में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता। इसके बाद की रचनाओं- हरिवंशपुराण तथा अन्य पुराणों में गोप-गोपियों को देवता बताया गया है, जो भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज में जन्म लेने पर पृथ्वी पर अवतरित हुए थे।




धीरे-धीरे कृष्ण भक्त संप्रदायों, विशेषत: गौड़ीय वैष्णव चैतन्य संप्रदाय में, गोपी का चित्रण कृष्ण की शक्ति तथा उनकी लीला में सहयोगी के रूप में होने लगा। काव्य में स्थान कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। सूरदास के राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के प्रतीक हैं और गोपियाँ राधा की अभिन्न सखियाँ हैं। राधा कृष्ण के सबसे निकट दर्शाई गई हैं, किंतु अन्य गोपियाँ उससे ईर्ष्या नहीं करतीं। वे स्वयं को कृष्ण से अभिन्न मानती हैं। ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा' शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं।



कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। इस आलंकारिक वर्णन में अनेक विद्वानों, यथा मेकडानेल, ब्लूमफील्ड ने विष्णु को सूर्य माना है, जो पूर्व दिशा से उठकर अन्तरिक्ष को नापते हुए तीसरे पाद-क्षेप में आकाश में फैल जाता है। यह सत्य ही है क्योकि 33 कोटि यानि प्र्कार के देवता में 12 आदित्य हैं जिंनका एक रूप विष्णु ही है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं। परन्तु गोपी शब्द की प्रतीकात्मक व्याख्या कुछ भी हुई हो, इसका साधारण अर्थ है, बल्कि अनेकानेक धार्मिक व्याख्याओं के बावजूद काव्य और साधारण व्यवहार दोनों में निरन्तर समझा जाता रहा है। पशुपालक आभीरों या अहीरों की जाति परम्परा से क्रीड़ा-विनोदप्रिय आनन्दी जाति रही है। इसी जाति के कुलदेव गोपाल कृष्ण थे, जो प्रेम के देवता थे, अत्यन्त सुन्दर, ललित, मधुर-गोपियों के प्रेमाराध्य। ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति में प्रचलित कृष्ण और गोपी सम्बन्धी कथाएँ और गीत छठी शताब्दी ईसवी तक सम्पूर्ण देश में प्रचलित होने लगे थे। धीरे-धीरे उन्हें पुराणों में सम्मिलित करके धार्मिक उद्देश्यपरक रूप दिया जाने लगा।






कथा साहित्य में वर्णन दक्षिण भागवत धर्म आल्वार भक्ति के गीतों में गोपी-कृष्ण-लीला के अनेक मनोहर वर्णन मिलते हैं। काव्य में सबसे पहले 'गाहा सत्तसई' में गोपी और उनमें विशिष्ट नामवाली राधा तथा कृष्ण के मिलन-विरह सम्बन्धी प्रेम-प्रसंग सर्वथा लौकिक सन्दर्भ वर्णित मिलते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि गोपी-कृष्ण की कथा के अनेकानेक प्रसंग लोक-कथाओं और लोक-गीतों के रूप में देश भर में प्रचलित रहे होंगे। इन कथाओं और गीतों के भाव तथा प्रसंग साहित्य में भी यदा-कदा अभिव्यक्ति पाते रहे होंगे, जिसके बहुत थोड़े से प्रमाण शेष रह गये हैं। कदाचित साहित्य के इस अंश को शिष्ट जनों में अपेक्षाकृत कम महत्त्व मिला और इसी उपेक्षा के कारण यह नष्टप्राय हो गया। जो भी हो, संस्कृत में 'गीत गोविन्द' (बारहवीं शती) में उसका वह रूप मिलता है, जो आगे चलकर भाषा-काव्य में विकसित हुआ। 'गीत गोविन्द' और विद्यापति की 'पदावली' से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि गोपी-कृष्ण और राधा-कृष्ण की कथा का लोक-साहित्य उस समय भी भाव-लालित्य की दृष्टि से कैसा सम्पन्न और मनोहर रहा होगा। 'जमुना'(गोपियों के साथ कृष्ण), द्वारा- राजा रवि वर्मा वेद-पुराण उल्लेख मध्ययुग में कृष्ण-भक्ति-सम्प्रदायों ने पुराणों, मुख्य रूप में 'श्रीमद्भागवत' का आधार लेकर गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को धार्मिक सन्दर्भ में आध्यात्मिक रूप दे दिया और गोपी, गोपी-भाव तथा राधा-भाव की अत्यन्त गम्भीर और रहस्यपूर्ण व्याख्याएँ होने लगीं। निश्चय ही इन व्याख्याओं के मूलाधार पुराण ही हैं, परन्तु उनके विवरण और विस्तार कहीं-कहीं स्वतन्त्र रूप में कल्पित किये गये जान पड़ते हैं। उनका प्रयोजन प्रतीकात्मक है। 



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