Sunday, July 7, 2019

क्या अंतर है ज्ञान और बुद्धि में

   क्या अंतर है ज्ञान और बुद्धि में 

 


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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एक मिलता जुलता स्थूल संदर्भ टमाटर का ले सकते हैं।

ज्ञान के अनुसार टमाटर एक फल है क्योंकि उसमें बीज होता है

बुद्धि टमाटर का प्रयोग सब्जी के रूप में करना जानती है।

ज्ञान अनुभव भी हो सकता है किंतु बुद्धि उस ज्ञान को तौलने का काम करती है। जैसे योग। यह एक अनुभुति हैं। जब हम वेद महावाक्य का अनुभव कर लेते हैं। तब हमको द्वैत और अद्वैत स्वत: समझ में आ जाता है किंतु हम उसे सीमित ही व्यक्त कर सकते हैं। वेदांत के अनुसार “ आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है”। वेद महावाक्यों का अनुभव ही ब्रह्म ज्ञान है।

किंतु यह आवश्यक नहीं कि हम ज्ञान को इंद्रियों के माध्यम से पूर्णतया: व्यक्त भी कर सकें।  अतः अगर यह कहा जाए की ज्ञान और बुद्धि के बीच प्रयोग का अंतर होता है तो गलत न होगा; ज्ञान को शिक्षा का अनुभव का परिणाम कह सकते है।  इसलिए, ज्ञान का दान तो संभव है पर बुद्धि का दान संभव नहीं;  ज्ञान तो हमारे पास हमेशा से ही प्रचुर रहा है, आज समस्या का कारण हमारी बुद्धि है !"

बुद्धि एक ऐसा महत्वपूर्ण तत्व है, जिसके द्वारा मनुष्य का जीवन प्रकाशित होता है, प्रेरित होता है। यदि अन्य प्राणियों से मनुष्य में कोई विशेषता है, तो वह है-बुद्धि। जहाँ बुद्धि नहीं, वहाँ मनुष्य, मनुष्य नहीं, वह बिना सींग-पूँछ का एक तुच्छ प्राणी मात्र रह जाता है। बुद्धि के द्वारा ही जीवन में गलत- सही, उत्कृष्ट-निकृष्ट, धर्म-अधर्म,कार्य-अकार्य की ठीक-ठीक निर्णय होता है। जिस तरह किसी यान में लगा हुआ प्रकाश यन्त्र चालक को सही मार्ग का दर्शन कराता है, उसी तरह मानव शरीर में बुद्धि का स्थान है। बुद्धि ही ऐसी कसौटी है, जिस पर मनुष्य जीवन को, जगत को परख कर ठीक-ठीक निर्णय पर पहुँच सकता है। जिस तरह नेत्रहीन के लिए मनोरम दृश्य व्यर्थ है उसी तरह बुद्धि-हीन के लिए जीवन और जगत के मधुर रहस्य, शास्त्र-वार्ता, ज्ञान-विज्ञान व्यर्थ है और उनके बिना जीवन जड़ है, पशु तुल्य है। इसीलिए हमारे यहाँ बुद्धि को शुद्ध-निर्मल बनाने के लिए बहुत जोर दिया गया है। संसार में जो भी गति, उन्नति-प्रगति, विकास, खोज, अन्वेषण हो रहे हैं, यह सब बुद्धि की ही देन हैं।

        “बुद्धेर्बुद्धिमताँ लोके नास्त्यगम्यं हि किंचन।  बुद्धथा यतो हता नन्दाश्चाणक्ये नासिपाणयः॥”

    “बुद्धिमानों की बुद्धि के समक्ष संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है। बुद्धि से ही शस्त्र-हीन चाणक्य ने सशस्त्र नन्दवंश का नाश कर डाला।”

    मनुष्य के हाथ पैरों की, शरीर की स्थूल शक्ति सीमित है। यह प्रत्यक्ष में अपनी सीमा तक ही कारगर सिद्ध होती है, लेकिन बुद्धि की शक्ति बहुत अधिक व्यापक है। यह दूर, आते दूर तक भी प्रभाव डाल सकती है।

“दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याम्याँ दूरे हिनस्ति सः।” बुद्धिमान की भुजायें बड़ी लम्बी होती हैं, जिनसे वह दूर तक वार कर सकता है। महर्षि व्यास के अनुसार “बुद्धि श्रेष्ठानि कर्माणि” बुद्धि से विचारपूर्वक किए गये कार्य ही श्रेष्ठ होते हैं।

    बुद्धि मनुष्य के लिए दैवी विभूतियों में उच्च कोटि का वरदान है। इसके सहारे मनुष्य अपने जीवन को अधिक उन्नत, प्रभावशाली बना सकता है। संसार में जो कुछ मनुष्य कृत उपलब्ध है, वह बुद्धि की ही देन है। कहावत है-बुद्धिमान का एक दिन मूर्ख के जीवन भर के बराबर होता है।

    बुद्धि का विकास करना जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। बुद्धि को विकसित, संस्कारित और समर्थ बनाने की प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यकता है। इसलिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट जीवन बिता सके, मानवीय गरिमा को आत्मसात् कर सके। बुद्धि को अधिकाधिक प्रौढ़, व्यापक बनाने के लिए ज्ञान की साधना, विचारों की अर्चना करना आवश्यक है। ज्ञान, विचार-साधना के क्षेत्र में हम जितने अधिक प्रयत्न करेंगे, उतना ही हमारी बुद्धि का विकास होगा।

    बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए सर्वोपरि आवश्यकता है ‘सीखने और सिखाने की तीव्र लगन की।’ सीखने के लिए मानव जाति का संचित अब तक का ज्ञान कुछ कम नहीं है। नाना क्षेत्रों में ज्ञान का अथाह भण्डार भरा पड़ा है। इसके अतिरिक्त संसार की खुली पुस्तक से हर समय कुछ न कुछ सीखने को मिलता ही रहता है। दूसरी बात है, सीखे हुए को सिखाने की। दूसरों को सिखाने से भी बुद्धि का विकास होता है। वस्तुतः दूसरों के माध्यम से ही जो कुछ सीखा हुआ है, वह परिष्कृत होता है।

    सीखने के क्षेत्र में दूसरों के विचारों से परहेज नहीं करना चाहिए। खासकर हमारे यहाँ की यह विशेषता है और हमारी परम्परा ही कुछ ऐसी रही है, जिसके अनुसार हमने किसी के भी विचार से परहेज नहीं किया। संसार भर के विचारों का हमने प्रयोग किया और जो उपयुक्त लगा उसे स्वीकार करने में आना-कानी नहीं की। बुद्धि की साधना करने वाले के लिए अपनी ग्रहण शक्ति को एकाँगी नहीं बनाना चाहिए। अपने आपको किसी एक ही विचारधारा में कैद नहीं कर लेना चाहिए। जो ऐसी भूल कर बैठते हैं, उनकी बुद्धि भी एकाँगी बन जाती है। वह नाना दिशाओं में विकसित नहीं हो पाती।

    बुद्धि के साधक लिए-ज्ञान की उपासना करने वाले को किसी भी स्थिति में पहुँचकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि बस, अब इतिश्री हो चुकी। स्मरण रखिये, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह नित नूतन विकास क्रम की गोद में पलता है, इसीलिए बुद्धि की भी कोई सीमा नहीं हो सकती। उसके लिए भी विकसित होने के नित नये अध्याय खुलते रहते हैं। प्रसिद्ध विचारक बेकन ने कहा है “ईश्वर ने बुद्धि की कोई सीमा निश्चित नहीं की है।”

    ज्ञानार्जन के लिए अपने बुद्धि के यन्त्र को सब क्षेत्रों में, सब संस्थाओं में, सब प्रणालियों में घुसकर सीखने दें। किसी एक-संस्था, विचार-प्रणाली, नियम में आबद्ध न करें। जहाँ-जहाँ भी ज्ञान के नये स्रोत प्रकाश में आवें, वहाँ-वहाँ ही आप प्रवेश कीजिए-सीखिए। अध्यात्म, समाजशास्त्र, परिवार, अर्थ विज्ञान, नीति, सदाचार, राजनीति, विज्ञान, जन-सेवा, मानस-शास्त्र, धर्म-संस्कृति सभी विषयों, सभी क्षेत्रों में अपनी गति रखें। आपके ज्ञानार्जन का क्षेत्र जितना व्यापक होगा, उतनी ही आपकी बुद्धि भी विशाल-व्यापक बनेगी।

    नीतिकार ने कहा है- “दृष्टि पूर्तन्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलं।” देखकर कदम रखिये, छानकर पानी पीजिये। सब ओर से जानकारी किया हुआ खरा उतरे, उसे व्यवहार में लाइये। किसी भी बात को इसलिए मत मान लें कि किसी व्यक्ति विशेष ने कहा है या वह किसी ग्रन्थ में लिखी है अथवा एक बहुत बड़ा मानव समुदाय उसके अनुसार चलता है। प्रत्येक बात, विचार, परम्परा को मौलिक चिन्तन की कसौटी पर ही सही-सही परखे बिना व्यवहार में नहीं लाना चाहिए।

    बुद्धि को किसी भी तरह आग्रह प्रधान, मोहासक्त एकांगी नहीं रखना चाहिए। पुरातन का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए तो वर्तमान का भी। लेकिन ग्रहण वही करना चाहिए जो अपने स्वतन्त्र विचार की कसौटी पर, अपने तथा समाज के लिए हितकर सिद्ध हो। हममें से बहुत कम लोग ही इस तरह बुद्धि को स्वतन्त्र रख पाते हैं। हममें से अधिकाँश तो किन्हीं संस्थाओं, विचार प्रणालियों, चली आ रही मान्यताओं अथवा नये विचारों को आँख मूँद कर बुद्धि पर पर्दा डालकर मान लेने के अभ्यासी हैं। हमारे जो विश्वास बन गये हैं जो मान्यतायें हमारी हैं, उनसे हम इस तरह चिपक जाते हैं कि उनसे परे-कुछ सोचने, समझने, मानने की गुंजाइश ही नहीं रहने देते। लेकिन इस तरह को प्रवृत्ति बुद्धि की विकसित न कर उसे कुण्ठित करना ही है। इसलिए सब पढ़ लिख कर, देखकर सुनकर भी बुद्धि को स्वतन्त्र रखना, उसमें मौलिकता का जीवन डालना आवश्यक है।

    स्वतन्त्र बुद्धि की कसौटी पर जो सत्य लगे उसे अपने तक ही सीमित न रखकर, उसे स्वतन्त्रता पूर्वक व्यक्त करने, दूसरों को सिखाने की क्षमता और साहस का होना भी आवश्यक है। बहुत से लोग बड़े बुद्धिमान होते हैं, निर्णय पर भी पहुँच जाते हैं लेकिन वे साहस के साथ अपने अनुभव को प्रकट नहीं करते। उक्त प्रकार से बुद्धि को दबाने पर वह कुण्ठित हो जाती है, उसकी क्षमता नष्ट हो जाती है।

    आप जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, उसे साहस के साथ प्रकट कीजिए, दूसरों को सिखाइये। चाहे आपको कितने ही विरोध-अवरोधों का सामना करना पड़े, आपकी बुद्धि जो निर्णय देती है, उसका गला न घोटें। आप देखेंगे कि इससे और आपकी बुद्धि अधिक कार्य कुशल समर्थ बनेगी।

    एक किस्सा सुनें।

सभी कैंडिडेट के इंटरव्यू हो चुके थे। बुद्धि शर्मा और ज्ञान प्रकाश आहूजा ये दो कैंडिडेट थे जो डिग्री और नॉलेज सहित हर लिहाज से बिल्कुल बराबर थे, लेकिन मैनेजर तो किसी एक को ही बना सकते थे। पूरा इंटरव्यू पैनल तय नहीं कर पा रहा था किसे मैनेजर बनाएं और किसे "बैटर लक नेक्स्ट टाइम" कहें?

    कंपनी के सीईओ कबीर मेहता तक ये बात पहुँची कि पैनल मैनेजर के लिए एक नाम नहीं तय कर पा रहा है। उन्होंने दो कागज के टुकड़े लिए और उनपर 5-5 सवाल लिखे। एक कागज उन्होंने बुद्धि शर्मा और एक कागज ज्ञान प्रकाश आहूजा को दिया।

    सीईओ ने बोलना शुरू किया "आप दोनों को इन पांच सवालों के जवाब लिखकर मुझे ये कागज वापस देना है। जिसने भी ये कागज कम समय में लौटा दिया, वहीं इस कंपनी का मैनेजर होगा। हर सही जवाब के लिए आपके टाइम में से एक सैकंड कम हो जाएगा और हर गलत जवाब के लिए दो सैकंड आपके टाइम में जुड़ जाएंगे।" "औऱ हां, आप चाहें तो जवाब गूगल पर भी ढूंढ़ सकते हैं"

    ज्ञान का जनरल नॉलेज बहुत अच्छा था। इसके लिए वो कई प्राइज भी जीत चुका था। वो बहुत खुश था। मन ही मन सोच रहा था "इस टेस्ट में तो मैं ही अव्वल आऊंगा"

    ...लेकिन जैसे ही उसने सवाल पढ़े उसका सारा कॉन्फिडेंस काफूर हो गया।

    सवाल ये थे...

    1. चांद पर कदम रखने वाले 18वे इंसान का नाम क्या था?

    2. क्रिकेट इतिहास का 1335वां रन किस खिलाड़ी ने बनाया था?

    3. भारत में सबसे पहले चाय किस महिला/पुरुष ने बनाई थी?

    4. महात्मा गांधी की हाइट कितनी थी?

    5.दुनिया की सबसे पहली कविता किस महिला/पुरुष ने लिखी थी?

    ज्ञान ने मोबाइल निकालकर गूगल ओपन किया। वो पहले सवाल का जवाब सर्च कर ही रहा था तब तक बुद्धि अपना कागज जवाब लिखकर सीईओ को वापस दे चुकी थी।

    ज्ञान की दुविधा बढ़ गई। एक तरफ उसे गूगल पर भी सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे और दूसरी तरफ वो ये समझ नहीं पा रहा था कि बुद्धि ने सवाल इतनी जल्दी कैसे सॉल्व कर दिए।

    30 मिनट बाद भी जब एक भी सवाल का जवाब नहीं मिला तो ज्ञान ने अपने कागज वापिस दे दिया।

    सीईओ ने बुद्धि शर्मा को नया मैनेजर घोषित कर दिया।

    ज्ञान ने हिचकते हुए सीईओ से पूछा "सर, क्या मैं जान सकता हूं कि इन सवालों के जवाब क्या है"?

    "क्यों नही" ये कहते हुए सीईओ ने बुद्धि का जवाब लिखा हुआ कागज ज्ञान को दे दिया।

    बुद्धि के जवाब पढ़ते ही ज्ञान का पारा चढ़ गया। "अगर इस लड़की को ही जॉब देनी थी तो इंटरव्यू का दिखावा क्यों किया। इसने हर सवाल के जवाब में लिखा है-आई गोट इट।"

    सीईओ मुस्कुराए और कहा "तुमने शुरुआत में मेरे इंस्ट्रक्शन ध्यान से नहीं सुने। मैंने कहा था जो ये कागज कम समय में लौटाएगा वो इस कंपनी का मैनेजर होगा। बुद्धि ने 15 सैकंड में मुझे ये कागज लौटा दिया। उसके पांचों जवाब गलत थे इसलिए 10 सैकंड की पेनल्टी के बाद भी उसका टाइम 25 सैकंड ही था। जबकि तुम्हारा टाइम पेनल्टी जोड़कर 30 मिनट 10 सैकंड था। अब तुम बताओ मैनेजर की पोस्ट के लिए सही कैंडिडेट कौन है-तुम या बुद्धि।"

    ज्ञान निशब्द था।

    हर आदमी विद्या बुद्धि की शक्ति से सम्पन्न नहीं होता। किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान सम्पदा मिलती है। सृष्टि में चौरासी लाख प्रकार के जीव जन्तु, कीट-पतंग, पशु-पक्षी बताये जाते हैं, इनमें नाममात्र की बुद्धि होती है, उसके सहारे वे बेचारे मुश्किल से अपनी जीवन यात्रा पुरी कर पाते हैं। उनका बुद्धिबल इतना कम होता है कि कई बार तो उन बेचारों को छोटी-2 अड़चनों के कारण अपने प्राण तक गंवाने पड़ते और आये दिन तरह-तरह के दुख भोगने पड़ते हैं। यदि उनकी बुद्धि थोड़ी अधिक विकसित रही होती तो वे भी मनुष्य की भाँति सुखी और समृद्ध रहे होते। परन्तु कर्म की गहन गति के कारण उन्हें वह साधन प्राप्त नहीं है, फलस्वरूप मनुष्य की अपेक्षा कई दृष्टियों से अधिक सक्षम होते हुए भी जैसे तैसे जीवन का भार ढो रहे हैं।

    मनुष्य अनेकों अन्य जीव जन्तुओं की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। पक्षियों की तरह वह आकाश में नहीं उड़ सकता, कच्छ-मच्छ की तरह जल में किलोल नहीं कर सकता, हिरन और घोड़े की बराबर दौड़ नहीं सकता, हाथी की बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह-व्याघ्र जैसा बलवान नहीं, भेड़-बकरी की तरह घासपात खाकर गुजारा नहीं कर सकता, उल्लू और चमगादड़ की तरह रात्रि में भली प्रकार देख नहीं सकता, ऊंट की तरह कई दिन बिना खाये नहीं गुजार सकता, सर्प की तरह सैकड़ों वर्ष नहीं जी सकता, जुगनू की तरह चमक नहीं सकता, मोर सा सुन्दर नहीं, बन्दर सी छलाँग नहीं मार सकता, सर्दी-गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर सकता, इतना निर्बल, पिछड़ा हुआ होते हुए भी अन्य समस्त जीव जन्तुओं से वह आगे बढ़ा हुआ है, सृष्टि का मुकुटमणि है, सबका नेता तथा स्वामी है, इतनी बड़ी सफलता का कारण है उसका बुद्धि बल। इस बुद्धि बल ने ही उसे एक साधारण प्राणी से महान मानव बना दिया है।

    नीति का वचन है कि “बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धिस्य कुतोबलम्” जिसमें बुद्धि है उसमें बल है, निर्बुद्धि में बल कहाँ से आया? जो जितना ही बुद्धिमान है वह उतना ही बलवान है। बुद्धिहीन का सारा बल निष्फल हो जाता है। मनुष्य ने इस बुद्धि बल के द्वारा ही इतना प्रभुत्व प्राप्त किया है। इसी की न्यूनाधिकता के कारण मनुष्य-2 के बीच में अन्तर दिखाई देता है। साधारणतः मानव प्राणियों के शरीर और आकृति में कोई भारी अन्तर नहीं होता, फिर भी राजा-रंक, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख, सत्तारूढ़-पराश्रित, शोषक-शोषित, पुण्यात्मा-पापी, महापुरुष-दीनहीन, चतुर-भोंदू के बीच जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है। एक पालकी में बैठकर चलता है एक पालकी को उठाता है। एक की उंगलियों के इशारे पर लाखों करोड़ों प्राणियों की गतिविधि होती है, एक दूसरों द्वारा कठपुतली की तरह नचाया जाता है। एक का सर्वत्र जयघोष होता है और उसके चरणों पर सर्वस्व अर्पित किया जाता है। दूसरी ओर एक ऐसा व्यक्ति है जिसे कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता। इतना भारी अन्तर शरीरों के कारण नहीं, बुद्धिबल के कारण है, जिसमें जितना बुद्धि तत्व अधिक है वह उतना ही बड़ा आदमी बन जाता है।

    बुद्धि की महत्ता सर्वोपरि है। यह मनुष्य के लिए एक ईश्वरीय वरदान है। सृष्टि के सब जीवों को यह बुद्धिबल प्राप्त नहीं है, यहाँ तक कि सब मनुष्यों को भी वह पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं है। असंख्य मनुष्य ऐसे है जिनके पास नाम मात्र का बुद्धि तत्व है। उसकी मात्रा इतनी न्यून है कि जीवन यापन का कार्य चलाने के अतिरिक्त उसके द्वारा और कोई बड़ा काम नहीं कर सकते, उस थोड़ी सी बुद्धि से जब वे अपना उदर पोषण ही मुश्किल से कर पाते हैं तो उसके द्वारा कोई महान कार्य करना, यश प्राप्त करना या दूसरों का उपकार करना किस प्रकार संभव है? बहुत थोड़े मनुष्य इस संसार में ऐसे हैं जिनको विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, जो दूर की सोच सकते हैं, जिनको बारीक बातें सोचने की क्षमता है, जिनका विवेक परिमार्जित है, जो बहुश्रुत हैं, जिन्होंने विशाल अध्ययन किया है एवं जो अपने बुद्धिबल से असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं।

    यह बुद्धिबल परमात्मा ने जिन विशिष्ट व्यक्तियों को दिया है वह एक विशेष उद्देश्य से दिया है। ज्ञान परमात्मा की अमानत है, धरोहर है, वह इसलिए दी गई है कि इस अमानत को वह परमात्मा की इच्छानुसार उसके बताये हुए प्रयोजनों के लिए खर्च करे। जिस किसी को भी परमात्मा असाधारण विशेषताएं देता है, इसी उद्देश्य से देता है कि वह उनके द्वारा सृष्टि के अन्य प्राणियों को लाभ पहुँचावे। जिन मनुष्यों को असाधारण बुद्धिबल दिया गया है उनके लिए परमात्मा ने यह कर्त्तव्य नियत कर दिया है कि वे उस शक्ति को अपने से कमजोरों के लिए, कम बुद्धि वालों के लिए निरन्तर वितरण करते रहें।

    बुद्धिमानों का परम पवित्र उत्तर दायित्व यह है कि वे अपने बुद्धिबल को जन कल्याण के लिए लगावें। उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमने परिश्रमपूर्वक इतनी विद्या प्राप्त की है तो इससे हम भोग ऐश्वर्य उठाकर ऐश आराम क्यों न करें? मजे-मौज क्यों न उड़ावें? ठाठ-बाट जमाने और गुलछर्रे उड़ाने में इसका उपयोग क्यों न करें? ऐसा सोचना उचित नहीं। एक राजा अपने नौकरों को नियत मात्रा में वेतन देता है, जिससे वे अपना गुजारा कर सकें परन्तु किसी विशेष कर्मचारी को वह विश्वास पात्र समझ कर उसे खजांची नियुक्त करता है और उसके पास बड़ी-बड़ी रकमें जमा करता है। यह रकमें इसलिए खजांची को दी जाती है कि वह उन्हें सुरक्षित रखे और सिर्फ उन कामों में खर्च करे जिनके लिए राजा आज्ञा दे, राज का हित हो। यदि वह खजांची इस प्रकार सोचने लगे कि राजा मुझ पर प्रसन्न है, उसने मेरी योग्यता के अनुसार मेरे पास इतना धन रख दिया है तो मुझे यह अधिकार है कि मैं इसका मनमाना उपयोग क्यों न करूं? अपने मौज मजे के लिए यह धन क्यों न खर्च करूं? तो ऐसा सोचना उस खजांची के लिए अनुचित होगा। यदि खजांची को मौज मजा करने के लिए इतना धन राजा ने दे दिया है तो अन्य कर्मचारी, जो उसी प्रकार दिन भर परिश्रम करते हैं, उन्हें भी उतना-उतना ही धन उसी प्रकार खर्च करने के लिए क्यों नहीं दिया? यदि नहीं दिया तो राजा को पक्षपाती ठहराया जायगा। यही बात परमात्मा के बारे में कही जा सकती है।

    जो व्यक्ति इस विज्ञानरूपी ब्रह्म की उपासना करता है, यह वैज्ञानिक कहाता है, ( भागवत में श्री कृष्ण के अनुसार जो मेरे सगुण निराकार रूपों को जानता है। मेरी लीलाओ को वर्णन करता है वह विज्ञानी है। जो मेरे निर्गुण निराकार रूप को जानता है व्ह ज्ञानी है।)

वह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने में समर्थ हो इसीलिए विज्ञान को जानना चाहिए, विज्ञान की उपासना (अनुसंधान) करनी चाहिए, विज्ञान को सिद्ध करके ब्रह्मबोध का प्रयोग करके मोक्षकाम होना चाहिए। हमारे यहां शालिहोत्र संहिता का पशु विज्ञान, अगस्त्य संहिता का विद्युत विज्ञान, भारद्वाज संहिता का वैमानिक विज्ञान, चरक संहिता का चिकित्सा विज्ञान, भृगु संहिता का अन्तरिक्ष विज्ञान, वशिष्ठ संहिता का युद्ध विज्ञान आदि सबके सब विज्ञान से भरे हैं।

लेकिन ज्ञान को निरंन्तर ही प्राप्त करने की चेष्टा भी करनी चाहिये।

    भगवान भी गीता में कहते हैं :- ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्यामि, मैं तुम्हें विज्ञानसहित ज्ञान का उपदेश कर रहा हूँ। हमारे यहां विज्ञान और धर्म भिन्न हैं ही नहीं।

किन्तु यह ध्यान में रहे कि जो पाश्चात्य म्लेच्छ मंदबुद्धि कथित वैज्ञानिकों ये कहते रहते हैं, और जिनके खुद के सिद्धांत और खोज हर बीस तीस सालों में बदलते रहते हैं, उन गली के कुत्ते के समान लक्ष्यहीन केवल आधिभौतिक पटल पर विराजित अनुसंधानों को, जो कथित रूप से स्वयं को पूर्ण वैज्ञानिक मानते हैं, उनकी बातों की अपेक्षा सनातन के आधिभौतिक के साथ साथ आधिदैविक और आध्यात्मिक पटल पर विराजित कल्याणप्रद विज्ञान की ओर भी परम्परा के अनुसार, मर्यादा के अनुसार, अधिकृत रीति से तपोबल के माध्यम से अनुसंधान करें।

मन की सङ्कल्प विकल्प की अद्भुत शक्ति का प्रयोग करें। मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु सः। मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़े आत्मरूप आप चेतन ब्रह्म हैं।                  

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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