Tuesday, August 13, 2019

रथ हांकते कृष्ण का अर्थ और भेद


 रथ हांकते कृष्ण का अर्थ और भेद

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) पूर्व परमाणु वैज्ञानिक, भारत सरकार, लेखक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info
 
आपने अक्सर घरों में कार्यालयों में भगवान श्री कृष्ण की अर्जुन के रथ को हांकते हुये तस्वीर देखी होगी। क्या आपने सोंचा कि यही तस्वीर आपके प्रश्न का सटीक उत्तर देती है। जी, इस तस्वीर के कई अर्थ हो सकते हैं पर जो जीवन से सम्बंधित हैं। पहला कि इस जगत में सारा कार्य प्रभु कर रहा है तुम बस अर्जुन की भांति जीवन की संग्राम भूमि में चलते जा रहे हो युद्ध करते जा रहे हो। संकटों में ईश ही सहायक है। दूसरा ईश के वचनों का मार्ग का पालन करो तो तुम युद्ध जीत लोगे। तीसरा जीवन की रण भूमि में सिर्फ ईश ही खेवन हार। चौथा ईश की ही शक्ति से तुम जगत व्यवहार कर सकते हो।


पर इसके दार्शनिक अर्थ हैं। कि अपनी दस इंद्रियों को मन रूपी लगाम से नियंत्रित कर बुद्धि की चाबुक से अधीन रख और उसको आत्म रूपी ईश के आधीन कर चलने दे। अर्जुन बन कर अपने लक्ष्य पर संधान कर और प्रहार करते हुये जीवन की रण भूमि आगे बढता जा।

अब आप कुछ समझ चुके होंगे कि मन क्या है। यह जो मन है हमारी इन्द्रियों को आपने अधीन बना कर रखता है। जिन इन्द्रियों से हम कार्य करते है,  वह हमारे कर्म बन जाते है,  वो इन्द्रिया हमारी कौन सी है। दशरथ जो भगवान् श्रीराम के पिता थे। रामचरितमानस ग्रन्थ के अनुसार कहा जाता है उन्होंने श्रीराम जो उनके पुत्र थे के वियोग में प्राण दे दिए थे किन्तु प्रश्न यह उठता है की प्राचीन काल में यथा गुण तथा नाम रखे जाने का प्रचलन था दशरथ का तात्पर्य यह होता है की दस रथो पर एक साथ नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति दस रथ कौनसे ? इसका आशय यह है की मानव शरीर में दस इन्द्रिया होती है। जिनमे पांच ज्ञान इन्द्रिया पांच कर्म इन्द्रिया। दो आंखे, दो हाथ, दो पैर, एक नासिका,  मुँह, ये हैं कर्मेंद्रियां।  इसके द्वारा हम जो भी कार्य करते है, । इन इंद्रियों द्वारा जो ज्ञान मिलता है वह ज्ञानेंद्रियां।

हमारी इन्द्रिया सारे के सारे काम मन की आज्ञा अनुसार ही करती हैं। मन यानी इंद्र। क्यों कि मन बाहर की दुनिया में लगाकर रखता है। जैसे कि आँखों से हम संसार के अच्छे या बुरे दृष्य देखते हैं, कानों से हम अच्छी बुरी बातें सुनते हैं। और मुँह से हम सात्विक या तामसिक भोजन खाते है,  हाथो से बुरे कार्य करते है, इत्यादि। मन को गलत काम तो ज्यादा अच्छे लगेंगे वह ज्यादा करेगा। अच्छे काम में इसका दिल नहीं लगता जैसे कहीं पर पार्टी हो वहा तो वो आदमी भाग कर जायेगा वहा चाहे सारी रात लग जाए वहा पर बहुत खुश होगा और कही सत्संग होगा चाहे दो घंटे का हो वहा जाना पसंद नहीं करेगा।

आप कोई भी कर्म जो असमाजिक हो करते है तो अंदर से कोई आपको न करने की सलाह देता है। यह बुद्धि है जो विवेकशील होती है। आत्मा के निकट। पर मन नहीं सुनता इंद्रियों को आदेश देकर वह कार्य कर बैठता है।


श्रीभगवानुवाच (श्रीमद भग्वदगीता अध्याय 6 श्लोक 35} 

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥


श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा;  असंशयम् – निस्सन्देह;महाबाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; मनः – मन को; दुर्निग्रहम् – दमन करना कठिन है; चलम् – चलायमान, चंचल;अभ्यासेन – अभ्यास द्वारा; तु – लेकिन; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; वैराग्येण – वैराग्य द्वारा; च – भी; गृह्यते – इस तरह वश में किया जा सकता है |


हे महाबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है;  परंतु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ।।

बुद्धि जानती है। समझती है। मन का काम है मानना। पर साधारतय: हमारी बुद्धि मन के अधीन हो जाती है जो पतन का कारण बन जाती है। जबकि होना उलटा चाहिये। तब ही हम सही मार्ग पर चल सकेगें।


चलिये कुछ और समझने का प्रयास करते हैं।


योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।


ये पाँच कोश हैं -


1.  अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से निर्मित। शरीर और मस्तिष्क।

2.  प्राणमय कोश - प्राणों से बना।

3.  मनोमय कोश - मन से बना।

4.  विज्ञानमय कोश - अंतर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना।

5.  आनंदमय कोश - आनंदानुभूति से बना।


योग मान्यताओं के अनुसार चेतन और अवचेतन मान का संपर्क प्राणमय कोश के द्वारा होता है

पर मैं वैज्ञानिक स्तर पर कुछ और कोश की बात करना चाहता हूं।


1.   आपने भोजन किया। कहां गया पेट में तो यह स्थूल पेट। जिसे अन्नमय कोश कहें। यहां पाचन होकर रस बना।


2.   अब पाचन के बाद ऊर्जा मिली यानि अग्नि जो पैदा होती है कर्म करने के लिये। तो मैं कहूंगा अग्निमय कोश।


3.   अब अग्नि यानि ऊर्जा ने हमें जिंदा रखा। इस अग्नि ने हमारे प्राण की रक्षा की तो हुआ प्राणमय कोश।


4.   अब जब हम जिंदा है तो मन बोलता है ये करो वो करो। प्राण शक्ति मन को जीवित रखती है। बिना प्राण के मन सम्भव नहीं। अत: मनो मय कोश।


5.   अब मन को नियंत्रित होना चाहिये बुद्धि से। यानि बुद्धिमय कोश।


6.   अब बुद्धि हमेशा सही बात करती है। मन हमें भटकाता है। यानि बुद्धि नियंत्रित है आत्मा से जो कि ईश है। तो हुआ आत्ममय कोश।


7.   अब जब हम आत्ममय कोश तक पहुंचे तो मन से सुख दुख गायब हो गये और हम आनन्द में लीन हो गये। तो हुआ आनन्दमय कोश।

यहां पर अंतर है बुद्ध दर्शन में वो आनन्दमय कोश की जगह दु:खमय कोश मानते हैं। जो सही नहीं है। ईश को आनन्दकंद कहते हैं। यहां पर दृष्टिभेद इसी लिये आया क्योकिं बुद्ध अनीश्वरवादी निराकार मानते थे। आनन्द साकार की ही देन है। क्योकि ईश सर्वाकार है।

बच्चे के बुद्धि विकसित होती है। जगत को देखकर पर मन कुछ भी कराता है। पर कुछ बालक कुछ अलग बात करते हैं जो कारण होता है प्रज्ञा का। यानि प्राकृतिक ज्ञान। वह ज्ञान जो प्रारब्धवश लेकर पैदा हुआ। मतलब बुद्धि जगत से आई जगत में गई। प्रज्ञा अंदर से आई जगत में गई। यही कारण है कुंडलनी जागरण से प्रज्ञा भी विकसित होकर कुछ नया करवाती है। अहम ब्रह्मास्मि की अनुभुति के साथ प्रज्ञा खुलकर ज्ञानमय ग्रंथी खोलकर आत्म गुरू जागृत कर देती है।

बस इसके आगे आप ज्ञानी बतायें। मैंनें जो सोंचा लिख दिया। मीमांसा आपके हाथ।

मैंने एक लेख में इन्ही का जिक्र किया है। प्राण फंस गए। न अंदर न बाहर। यह नतीजा होता है बिन समर्थ गुरू साकार गुरू के समाधि का प्रयास करना। हालाँकि यह यदा कदा होता है पर यह आपके साथ नही हो सकता है क्या।

कारण इनके चेले इनको इसी अवस्था मे नहला धुला रहे है। पर यह न आंख खोल पाते है न कुछ खा पाते है। पर है जिंदा।

मैं गलत भी हो सकता हूँ। हो सकता है यह समाधि का कोई और तरीका हो। मात्र फोटो से सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है।

स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने भी ऐसे एक साधु का जिक्र किया था।


अक्सर देखने को मिलता है कि सोशल मीडिया पर कि ज्ञानी बुद्धिजन ईश के साकार निराकार द्वैत अद्वैत सगुण निर्गुण के रूप पर एक दूसरे को गलत सही बताने में लगे रहते हैं कि तू गलत मैं नहीं। यह तो कुछ इसी प्रकार हुआ कि एक गांव में सब अंधे रहते थे। उस गांव में एक बार एक आंखवाला एक हाथी लेकर आया। पूरे गांव में शोर मच गया कि हाथी आया हाथी आया। अब सब लोग अंधे तो हाथी देखें कैसे। तय हुआ छूकर देखा जाये। एक अंधा बढा उसने सूंड पकडी तो बोला हाथी तो मोटी रस्सी जो घूम भी जाती है। वैसा ही होता है। दूसरे की पकड मे कान आये तो बोला। गलत हाथी तो सूप जैसा होता हैं। तीसरे ने पैर को छूआ तो बोला गलत हाथी तो मोटे खम्भे जैसा होता है। चौथे ने पूंछ पकडी और बोला तुम सब बेवकूफ हाथी तो रस्से जैसा पतला होता है। पर जो महावत ऊपर आंखवाला बैठा था वह देखता हुआ बोला ठीक है अब तुम्हारे हाथ में जो हैं पकडकर ऊपर तो आओ। अंधे ऊपर चढे तो बोले अरे यह तो छत जैसा है। यहां पर चारो का मत एक हो गया। पर फिर लडने लगे कि मेरा वाला मार्ग सही था। पर आंखवाला महावत देख सकता था कि किसी भी तरफ से हाथी पर चढा जा सकता है।


बस कुछ ऐसे ही होते हैं ज्ञानी जो आम मानव से ऊपर,  पर होते हैं अपूर्ण ज्ञानी। सिर्फ जिसने ऊपर चढकर आंख खोली वह ही देख सकता है जान सकता है कि किधर से भी हाथी पर चढ सकते हैं। अब आप खुद देखें इस जगत में ज्ञानी बहुत हुये पर अपूर्ण और अंधे। उनमें पूर्णता में कमी रह गई इसी लिये अपनी गाकर चले गये और पीछे छोडकर अनुभवहीन या उन्ही के मार्ग से प्राप्त अनुभव वाले जो वो ही ढिढोरा पीटने में लगे हैं। समाज में इनकी संख्या अधिक है। पर महावत तो सिर्फ कुछ इक्का दुक्का और उनकी भी सुनें कौन। मित्रों इन महावतों की श्रेणी में आते हैं कुछ समर्थ शक्तिशाली कौल गुरू जो महावत की तरह किसी को भी किसी मार्ग से ऊपर खींच ले। पर इस प्रकार के सामर्थ्यवाले प्रचार प्रसार से दूर सिर्फ शिव के शक्ति के सहारे जगत में चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं।


आप देखें मैं नाम न लूंगा पर अलग दुकानें आश्रम जहां गुरू जी यही बहस करते हैं नहीं एक सत ॐकार बाकी सब बकवास गलत। सिर्फ ॐ का जाप करों। ईश्वर निराकार अद्वैत निर्गुण। तो दूसरा कहेगा नहीं सब गुरू का चक्कर छोडों राम कृष्ण ने नवार्ण मंत्र किया काली प्रकट हुई वो ही सही कोई और बोलेगा सिर्फ गायत्री की साधना करो। तो तीसरा नहीं राम राम बोलो। ईश्वर साकार है देखो मीरा सूर तुलसी तुकाराम ज्ञानेशवर तमाम लोग साकार की भक्ति कर तर गये। तो कहीं बोला जायेगा नही कोई कुण्डलनी नहीं सिर्फ ब्रह्मा बाबा सबका मालिक, पति पत्नी भाई बहन बन जाओ। लाल प्रकाश पर त्राटक करो। कहीं, सब बेकार एक मात्र रास्ता है योग अभ्यास खेचरी करो। प्राणायाम करो समाधि लगाओ। निराकार तक पहुंचों। तो कहीं यज्ञ करो। यज्ञ ही श्रेष्ठ है। स्वामी दयानंद सरस्वती साकार का खंडन करते थे। मूर्तिपूजा के विरोधी थे। तैलंग स्वामी ने उनको एक पत्र लिखा स्वामी दयानंद को साकार की भीषण अनुभुति हुई कि उसके बाद मूर्ति पूजा का विरोध बंद कर दिया। यहां पर जितने मुंह उतनी बातें कि एक आम हिंदू चकराकर गिर जाये और हाथ जोडकर बोलने लगे सब बकवास है। मानव सेवा करो वो ही सर्वश्रेष्ठ है।


मेरा जो अनुभव है और मानना है कि ईश का यहां तक अपना भी अंतिम रूप निराकार है। सिर्फ सुप्त उर्जा जिसे निराकार कृष्ण या गाड या अल्ल्ह कहते है। जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। पर मानव की शक्तियां असीमित अत: ईश को मंत्रों और साधनाओं में साकार रूप में आना ही पडता है। प्रारम्भ मंदिर और मूर्ति पूजा से होता है फिर मंत्र जप फिर परिपक्व होने पर भक्ति उत्पन्न होती है। जिसके साथ द्वैत भावना और समर्पण फिर प्रकट होती है परम प्रेमा भक्ति। जो आनंददायक प्रेमाश्रु देती है जिसका आनन्द असीम। जो अनुभुति देता है प्रेम की विरह की। यहां तक उद्धव को गोपियों ने उल्टे पांव लौटा दिया था और उद्धव अपनी ज्ञान की पोटली छोडकर उलटे पांव लौट गये थे। यहां तक कुंती ने कृष्ण से वर मांगा कि तुम मुझे अपनी साकार भक्ति का ही आशीष दो। मुझे मोक्ष से क्या लेना देना।


यही प्रेमा भक्ति उस शक्ति को मजबूर करती है कि वह साकार रूप में साक्षात प्रकट हो जाती है। तब प्राप्त होता है भक्तियोग। कभी कभी राम रस का भी स्त्राव सहस्त्रसार से होता है जो हमेशा नशा देता रहता है।


यहां तक द्वैत भाव रहता है साकार सगुण ही रहता है। फिर अचानक आपका ईष्ट आपको बैठे बैठे अहम ब्र्ह्मास्मि। शिवोहम्। एकोअहम द्वितीयोनास्ति । जैसी अनुभुतियां कराता है। तब प्रकट होता है ज्ञान योग। अद्वैत का भाव। इसके भी आगे अचानक इस अनूभूति के  साथ निराकार की अनुभुति और कभी देव आह्वाहन में अंदर से आवाज अरे मैं तेरी आत्मा में ही विराजित हूं। तू मुझसे अलग नहीं। तू आत्म भज मेरे निराकार रूप को आत्मा में देख। तब वास्तविक अद्वैत घटित होता है। कुल मिलाकर यह तीन अनुभव ज्ञान योग दे जाते हैं।


अत: पूर्ण वह जो साकार से निराकार. द्वैत से अद्वैत, सगुण से निर्गुण की यात्रा करे। अनुभव अनूभूतियां ले। पर होता क्या है। पहले ही अनुभव के साथ मानव का आत्म गुरू जागृत हो जाता है। ज्ञान की कुछ ग्रंथियां खुल जाती है। जिससे आदमी बलबला जाता है। गुरू बनने की तीव्र इच्छा,
भावना, अपने को श्रेष्ठ समझना जैसी भावनायें आदमी को बहा ले जाती हैं। यह ईश की गुरू की कृपा होती है कि कुछ लोग इसमें नहीं बहते हैं पर अधिकतर बह जाते हैं। वास्तव में यह परीक्षा होती है पर अधिकतर अनुतीर्ण ही होकर बिना गुरू आदेश परम्परा के गुरू बन जाते हैं। फिर शुरू होती है चेले और अश्रमों की संख्या गिनती। जिसमें फंसकर साधक का पतन ही होता है क्योकिं खुद की पूंजी चेलों पर लुटाई और साधना का समय नहीं। इसी के साथ मन भी जागृत होकर उल्टा समझाने लगता है जो गलत काम भी करवा देता है। कोई भगवान या महायोगी बन जाता है और दुकान खोल लेता है।


मेरे कृष्ण पूर्ण योगी क्योकि उन्होने कहा सभी मार्ग ईश तक जाते हैं।


बुद्ध अपूर्ण ज्ञानी या योगी क्योकि सिर्फ निराकार और अनीश्वरवाद। हलांकि इनके पहले गुरू आलारकलाम और दूसरे शिवरामदत्त्पुत्त सनातनी ही थे।


महावीर गुरू शिष्य परम्परा के सनातन वाहक पर देव पूजा की जगह 24 तीर्थयंकर की पूजा


शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, कबीर, तुलसी, गुरू नानक देव, श्री राम शर्मा आचार्य इत्यादि पूर्ण ज्ञानी। साकार से निराकार


जीसस अपूर्ण ज्ञानी क्योकि सिर्फ मुझे ही मान


मोहम्मद अपूर्ण ज्ञानी क्योकि जो मुझे न माने उसे सजा दो। सिर्फ निराकार


ओशो अपूर्ण अज्ञानी और पापी ज्ञानी सिर्फ निराकार


सारांश यह है कि जो ईष्ट अच्छा लगे प्रिय लगे उसको सतत याद करो। मंत्र जप नाम जप चरित्र स्मरण के द्वारा। ये ही नाम तुमको तार देगा। सारे ज्ञान अनुभव दे देगा। करा देगा साकार से निराकार। सगुण से निर्गुण। द्वैत से अद्वैत की यात्रा। बस बढे चलो बढे चलो साधना के पथ पर। बिना सोंचे बिना कुछ समझे। अपने ईष्ट को समर्पित होकर। सब ईश एक हैं सिर्फ नाम अलग है। कोई भी सिरा पकडो पर कस कर पकडो।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

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