Friday, August 9, 2019

भ्रम

 भ्रम

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि

भ्रम दो प्रकार के होते हैं – अनादिभ्रम तथा आदिभ्रम ।


१. अनादिभ्रम : ‘मैं ब्रम्ह से भिन्न हूं’ ऐसा लगना ।

२. आदिभ्रम : ‘यदि मैं ब्रम्ह से भिन्न नहीं, तो मुझे वैसी अनुभूति क्यों नहीं होती ?’

ये भ्रम कैसे नष्ट होते हैं ?


बुदि्ध द्वारा अनादिभ्रम नष्ट होता है ।

परंतु आदिभ्रम नष्ट होने के लिए गुरुकृपा होना ही आवश्यक है ।

संत प.पू. काणे महाराज जी के शब्दों में !


१. ‘बुध्दि द्वारा निर्गुण का ज्ञान होता है एवं प्रीति (निरपेक्ष प्रेम) द्वारा सगुण का । अर्थात यह बुध्दि शास्त्राभ्यास द्वारा प्राप्त हुई बुध्दिका सूक्ष्मत्व है । इस बुध्दिद्वारा अनादिभ्रम नष्ट होता है ।

२. प्रत्येक जीव को जीवदशाके आरंभ से ही ‘मैं ब्रम्ह से भिन्न हूं’ ऐसा भ्रम (विपरीत ज्ञान, गलत धारणा) होता है । इसे अनादिभ्रम की संज्ञा दी गई है ।

३. आगे शास्त्राभ्यास करने पर बुध्दिद्वारा समझ में आता है की ‘ मैं ब्रम्ह से भिन्न नहीं हूं’ परंतु फिर यह भ्रम उत्पन्न होता है कि ‘ यदि मैं ब्रम्ह से भिन्न नहीं, तो मुझे वैसी अनुभूति क्यों नहीं होती ?’ इस भ्रम का ‘उद्भव’ होने के कारण, इसे आदिभ्रम की संज्ञा दी है ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, महाराष्ट्र


आदिभ्रम श्री गुरुकृपा से ही नष्ट होना !


१. ‘आदिभ्रम श्री गुरुकृपा से ही नष्ट होता है ।


२. गुरु के प्रति प्रेम को सत्संग द्वारा निर्मित सगुण के प्रति प्रेम एवं सगुण के प्रति भक्ति का स्पर्श होने पर अर्थात श्री गुरुकृपा से, प्रेम का प्रीति में (निरपेक्ष प्रेम में) रूपांतर होने पर, सगुण का आकार ही नष्ट हो जाता है ।


३. अतएव सापेक्ष ज्ञान द्वारा उत्पन्न यह धारणा भी नष्ट हो जाती है कि सगुण अर्थात साकार एवं निर्गुण अर्थात निराकार । सापेक्ष ज्ञान की परिणति निरपेक्ष ज्ञान में हो जाने के कारण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, ये भेद नहीं रह जाते ।


४. यदि सापेक्ष ज्ञान खरा होता, तो उसका भान नष्ट होता ही नहीं । इस सापेक्ष ज्ञान का भान, अर्थात प्रत्यय ही आदिभ्रम है ।


५. सगुण भक्ति आरंभ होने पर, जब साक्षात सगुण साक्षात्कार होता है, उसी क्षण निर्गुण का (बुदि्धजन्य) ज्ञान नष्ट हो जाता है एवं ‘मैं ब्रह्म हूं’ की अनुभूति होती है ।


६. इसीलिए सर्व संतों ने निर्गुण को वाच्यांश एवं सगुण को लक्ष्यांश माना है ।


७. वाच्यांश अर्थात् वाचा से (वाणी से) बोला जानेवाला विषय, जबकि लक्ष्यांश यानी जिसकी प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना है, उस लक्ष्य का अर्थात ईश्वर का अंश ।


८. सत्संग प्राप्त न होने के कारण विद्वानों को इस बात का विश्वास नहीं होता ।


९. संत तुकाराम महाराज के अभंगों (संत तुकाराम महाराजजी द्वारा रचित भावपूर्ण भजन) की पोथियां डुबोनेवाला रामेश्वर भट्ट उन्हीं की कृपा से पूर्णत्व को प्राप्त हुआ

गुरुकृपा किस प्रकार कार्य करती है ?

जब कोई कार्य हो रहा हो, तब उसे कितनी सफलता मिलेगी, यह उसमें कार्यरत विविध घटकों पर निर्भर होता है । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक सामर्थ्यवान होता है, जैसे अणुबम से अधिक प्रभावशाली परमाणुबम होता है । इस सिद्धांत का यहां पर उपयोग किया गया है । यह मुद्दा शत्रु के नाश के उदाहरण से स्पष्ट होगा । आगे दिए विविध प्रकारों से शत्रु का नाश किया जा सकता है । ये चरण वर्धमान (असेंडिंग आर्डर) महत्त्वानुसार क्रमबद्ध किए गए हैं ।


१. पंचभौतिक (स्थूल)


        शत्रु कहां है, यह पंचज्ञानेंद्रियों द्वारा ज्ञात होने पर, उदा. उसके दिखाई देने पर अथवा उसकी गतिविधि की जानकारी होने पर उसे बंदूक की गोली द्वारा मारा जा सकता है । यदि वह थोडी-सी भी हलचल न कर किसी आवरण के पीछे छुप जाए और दिखाई न दे, तब ऐसी सि्थति में बंदूकधारी उसे नहीं मार पाएगा । यहां पर मारने के लिए केवल स्थूल शस्त्र का प्रयोग किया गया है । विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न स्थूल वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, उदा. रोग के कीटाणुओं को मारने हेतु औषधि इत्यादि । केवल स्थूल द्वारा काम न बने, तब अगले चरण में बताई गई सूक्ष्म की जोड अत्यंत आवश्यक है ।


२. पंचभौतिक (स्थूल) व मंत्र (सूक्ष्म) एक साथ


        पूर्वकाल में मंत्रोच्चारण करते हुए धनुष से बाण छोडते थे । मंत्र द्वारा बाण पर शत्रु का नाम अंकित हो जाता था एवं वह किसी भी आवरण के पीछे क्यों न हो अथवा त्रिलोक में कहीं भी छुपा हुआ हो, तब भी बाण उसका वध करने में सक्षम होता था । यहां स्थूल अस्त्र को (बाण को) सूक्ष्म की (मंत्र की) जोड दी गई है । आयुर्वेद में मंत्र का उच्चारण करते हुए औषधि बनाने का यही उद्देश्य है । उसी प्रकार भूत उतारने में मंत्र के साथ काली उड़द, बिब्बा, लाल मिर्च, नींबू, सुई इत्यादि वस्तुओं का प्रयोग करते हैं । कभी-कभी स्थूल एवं सूक्ष्म के एकत्र होने पर भी कार्य संपन्न नहीं होता; ऐसे में अगले चरणानुसार सूक्ष्मतर, यानी अधिक शक्तिशाली मंत्र का प्रयोग करना पडता है ।


३. मंत्र (सूक्ष्मतर)


        अगले चरण में बंदूक, धनुष-बाण इत्यादि स्थूल अस्त्र बिना ही, केवल विशिष्ट मंत्रद्वारा शत्रु का नाश किया जा सकता है । विभिन्न कार्यों को साध्य करने हेतु, उदा. विवाह, धनप्राप्ती इत्यादि हेतु विभिन्न मंत्र हैं । कभी-कभी मंत्र द्वारा भी कार्य नहीं होता है । ऐसे समय अगले चरण का प्रयोग करना पड़ता है ।


४. संकल्प (सूक्ष्मतम)


        ‘अमुक कार्य संपन्न हो’ केवल यह विचार किसी (आध्यात्मिक दृष्टि से) उन्नत पुरुष के मन में आते ही, वह कार्य संपन्न हो जाता है । इसके अलावा उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती । ८०% से अधिक स्तर के उन्नत पुरुष द्वारा ही यह संभव है । ‘शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हो’, ऐसा संकल्प गुरु के मन में आने पर ही शिष्य की खरी प्रगति होती है । इसी को गुरुकृपा कहते हैं । अन्यथा शिष्य की उन्नति नहीं होती । उसका आदिभ्रम नष्ट नहीं होता ।


४ अ. संकल्प कैसे कार्य करता है ? : संकल्प द्वारा कार्य सिद्ध होने हेतु कम से कम ६०% आध्यात्मिक स्तर आवश्यक है । (सामान्य व्यक्ति का स्तर २०% एवं मोक्ष अर्थात १००%) संकल्प कैसे कार्य करता है, यह आगे दिए उदाहरण से स्पष्ट होगा ।


       मान लीजिए मन की शक्ति १०० इकाई (युनिट) है । प्रत्येक व्यक्ति के मन में दिनभर विचार आते हैं । कुछ कार्यालयसंबंधी, कुछ घरसंबंधी, कुछ संसार के इत्यादि । प्रत्येक विचार के कारण एवं विचार की पूर्ति के लिए (उदा. मुझे कार्यालय जाना है, अमुक काम करना है, अमुक को मिलना है ।) थोडी-बहुत शक्ति खर्च होती रहती है ।


        दिनभर में ऐसे १०० विचार आएं, तो उसकी उस दिन की अधिकांश शकि्त समाप्त हो जाएगी; परंतु उसके मन में यदि विचार आएं ही नहीं, मन निर्विचार रहे और ऐसे में उसके मन में एक ही विचार आए कि, ‘अमुक हो जाए’, तो उस विचार के पीछे पूरी १०० इकाई शक्ति होती है, इसलिए वह विचार (संकल्प) सिद्ध हो जाता है ।


        वह विचार सत् का हो, तो स्वयं की साधना उसमें खर्च नहीं होती । ईश्वर ही उस कार्य को पूर्ण करता है; क्योंकि वह सत् का अर्थात, ईश्वर का कार्य होता है । अर्थात यह साध्य होने के लिए नाम, सत्संग, सत्सेवा, सत् के लिए त्याग, इस मार्ग द्वारा साधना कर साधक को ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेनी चाहिए, जिसमें असत के विचार ही मन में न आएं ।

 ५. असि्तत्व (सूक्ष्मातिसूक्ष्म)


        इस अंतिम चरण में मन में संकल्प करना भी आवश्यक नहीं है । गुरु के केवल अस्तित्व से, सान्निध्य द्वारा या सत्संग द्वारा शिष्य की साधना व उन्नति अपने आप होती है । ९०% स्तर के गुरु का कार्य इस पद्धति का होता है ।


        यह मेरे कारण हुआ है; परंतु मैंने नहीं किया । इसका जिसे ज्ञान हो गया, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गया ।


– (अनुवाद – श्री भावार्थदीपिका (श्री ज्ञानेश्वरी) ४:८१)


भावार्थ : मेरे अस्तित्व से हुआ; इसमें ‘मैं’ पन परमेश्वर का है । ‘मैंने नहीं किया है’, का अर्थ है, मैं इसका कर्ता नहीं हूं ।

सूर्य इस बात का एक सुंदर उदाहरण है । सूर्य उगने पर सभी जाग जाते हैं, फूल खिलते हैं इत्यादि । यह केवल सूर्य के अस्तित्व से होता है । सूर्य न ही किसी को उठने के लिए कहता है और न ही फूलों से खिलने के लिए कहता है ।

श्री गुरु की अनुग्रह शक्ति को ही गुरुपद कहते हैं । वह उपेय है अर्थात उपायों के सहयोग से उसकी प्राप्ती होती है; परंतु श्री गुरु ही प्रत्यक्ष उपाय हैं !


        इस लेख से पाठकों को बोध हुआ होगा कि आध्याति्मक उन्नति के लिए साधक / भक्त / शिष्य कितना भी प्रयास करें, अंतत: उसकी उन्नति होने के लिए गुरुकृपा ही आवश्यक है । ‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’ इस संस्कृत श्लोक के अनुसार, गुरुकृपा होने से ही शिष्य का परममंगल होता है, अर्थात उसकी आध्यात्मिक उन्नति होने लगती है ।


संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ, ‘गुरुका महत्त्व,

प्रकार एवं गुरुमंत्र‘ एवं ‘शिष्य’

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

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