Monday, September 2, 2019

क्यों होता है पुनर्जन्म

क्यों होता है पुनर्जन्म

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,



हिन्दु धर्म में पुनर्जन्म को सत्य माना गया है। हिन्दु धर्म के अनुसार आत्मा कैसे जन्म लेती है इसके बारे में भी स्पष्ट तरीके से बताया गया है। हिन्दु धर्म में कौन-सी आत्मा भटकती है और फिर कब जन्म लेती है इसके बारे में भी विस्तार से बताया गया है। यह भी कि कौन-सी आत्मा कुछ काल तक पितृलोक, स्वर्गलोक, नरक लोग आदि लोकों में रहकर पुन:कब धरती पर लौटेगी। शास्त्रों के अनुसार आत्मा तब पुनर्जन्म लेती है।

-जब कभी-भी किसी की धोके से मृत्यु की जाती है या दुश्मनी के लिए किसी मारा जाता है तो आत्मा बदला लेने के लिए पुनर्जन्म लेती है।

- कभी-कभी किसी व्यक्ति द्वारा अत्यधिक पुण्य कर्म किए जाते हैं और उसकी मृत्यु हो जाती है, तब उन पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा पुन: जन्म लेती है।

- अपूर्ण साधना को पूर्ण करने के लिए।

-जब किसी की अकाल मृत्यु हो जाती है तो आत्मा पुनर्जन्म लेती है।

- भगवान किसी विशेष कार्य के लिए महात्माओं और दिव्य पुरुषों की आत्माओं को पुन: जन्म लेने की आज्ञा देते हैं।

- बदला चुकाने के लिए।

- संसार में किए गए पुण्य कर्म के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा स्वर्ग में सुख भोगती है और जब तक पुण्य कर्मों का प्रभाव रहता है, वह आत्मा दैवीय सुख प्राप्त करती है। जब पुण्य कर्मों का प्रभाव खत्म हो जाता है।


मृत्यु के बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। वैसे इस विषय में कुछ महापुरूषों को सीद्ध होकर स्थूल शरीर त्याग कर सूक्ष्म या कारन शरीर में रहते है जैसे स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज, महाअवतार बाबा, लाहिडी महाशय या महऋषि अमर जैसे बिरले जो ईश से सायुज्यता ही प्राप्त कर लेतए हैं। किंतु वे बोल्ते नहीं सब ईश को समर्पित कर देते हैं।

वैसे कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-


तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम् उपसँहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य्  आत्मानमुपसंहरति।। – बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है।


यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।


आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है।
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। – बृ. उ.४.४.१


अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।



एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।। – बृ.उ. ४.४.२



अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि।


इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है।


इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इस प्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।



इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।


इसका उत्तर है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है- असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।। – यजु. ४०.३



इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं।



एक और पहलू यह है कि यदि मृत्यु के समय आपके दिमाग में कोई विचार है तो वह आपके अगले जन्म की प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हमें किसी की मृत्यु की प्रक्रिया के समय शांति और खुशहाली का माहौल बनाना चाहिए क्योंकि मरने वाले के दिमाग और भावनाओं में जो भी चीज प्रधान होती है, वह उनके भावी जन्मों की विशेषता बन जाती है।


इसी वजह से इस संस्कृति में हमेशा से यह कहा गया है कि आपको अपने परिवार के बीच नहीं मरना चाहिए। लोग अपनी मृत्यु के समय वन चले जाते थे, जिसे वानप्रस्थ कहा गया है। राजा धृतराष्ट्र, उनकी रानी गांधारी और कुंती भी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वन चले गए थे। उनके साथ सहायक के रूप में सिर्फ संजय थे। वे सब बूढ़े हो चुके थे इसलिए वे महल में रहने की बजाय मरने के लिए वन चले गए। हालांकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन और कई रूपों में मूर्ख थे, मगर फिर भी उनमें इतनी जागरूकता थी, जो आजकल दुनिया में देखने को नहीं मिलती। कुंती ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलें झेली थीं। अब उसके बच्चे राजा बन चुके थे, तो वह अब महलों में आनंद से रह सकती थी, मगर उसने भी वन में जाकर शरीर छोडऩे का फैसला किया।

वे वन में चले गए और वहां एक दुर्गम पहाड़ी के ऊपर चढऩे लगे। एक जगह जंगल में आग लगी हुई थी। वे लोग बूढ़े थे, इसलिए न तो भाग सकते थे, न ही जंगल की आग से बच सकते थे, तो उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित करने का फैसला किया। धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, 'तुमने अब तक मेरी बहुत सेवा की, मगर तुम्हारी आयु अभी कम है, तुम वापस लौट जाओ। हम तीनों खुद को अग्नि को समर्पित कर देंगे।’ संजय ने उन्हें छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और चारो जंगल की आग में जल गए।


जब आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप जुड़ाव की भावना को मन में लेकर मरेंगे जो भविष्य में आपके लिए खुशहाली नहीं लाएगी। आपको पता ही होगा कि हमारे देश में आज भी लोग मरने के लिए काशी जाते हैं, क्योंकि वह एक पवित्र जगह है। वे शिव की कृपा की छाया में मरना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी मृत्यु के समय उनका परिवार अपनी भावनाएं उनके सामने प्रदर्शित करे।

मृत्यु एकमात्र ऐसी चीज है, जो जीवन में निश्चित है। अगर आपने अपना जीवन अच्छी तरह जिया है, तो मृत्यु कोई बुरी चीज नहीं है। यदि आपने हर पल हिचक, भय, नफरत, और गुस्से के बीच जीवन बिताया है, तो इसका मतलब है कि आपने कभी जीवन नहीं जिया। मृत्यु के समय, अगर आप जीना चाहते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर, मृत्यु है क्या? आप शरीर को छोड़ रहे हैं। यह शरीर एक ऋण है जो आपने धरती मां से लिया है।



मान लीजिए, आपने बैंक से एक करोड़ रुपये का ऋण लिया और अगले पचास सालों में आपने इस एक करोड़ को दस अरब बना लिया, तब यदि आपका बैंकर ऋण वापस मांगेगा तो आप खुशी-खुशी ब्याज सहित उसका ऋण चुका देंगे। उसे दावत और उपहार देंगे। मगर मान लीजिए आपने वे एक करोड़ रुपये उड़ा दिए और सब कुछ गंवा दिया तो बैंकर के आने पर आप आतंकित हो जाएंगे। आप छिपने की कोशिश करेंगे। बहुत सी चालें चलने की कोशिश करेंगे। इसी तरह धरती मां ने आपको यह ऋण दिया। यदि आपने इसे एक आनंदमय जीवन में बदल दिया, अगर आपने वाकई उसका पूरा इस्तेमाल किया और अपने अंदर पूरे मिठास के साथ जीवन जिया, तो जब धरती मां कहती है कि ऋण चुकाने का समय हो गया तो आप खुशी-खुशी उसे चुका देंगे। और उसका कोई ब्याज नहीं होता। जो खुशी-खुशी ऋण चुकाता है, उसके लिए जीवन समाप्त हो जाता है क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो आपके अंदर कुदरती तौर पर जागरूकता आती है। जब आप जागरूक होते हैं, तो आप मुक्ति के रास्ते पर होते हैं।



अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा। लोग कहते हैं, 'नकारात्मक शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए, इससे हमें डर लगता है। क्या हम विलीन होकर शून्य हो जाएंगे?’ तो हम यह कह सकते हैं, 'जब आप मुक्ति पा लेते हैं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं, हर चीज में शामिल हो जाते हैं।’ जब शिव की बात आती है, तो हम शून्यता की बात करते हैं। लेकिन चूंकि लीला का संबंध कृष्ण से है, तो हम आपके साथ खुशनुमा बातें करना चाहते हैं। आप सब कुछ बन जाएंगे। आप ईश्वर बन जाएंगे। क्या यह सुनने में बेहतर लगता है?



यदि आप यह महसूस करते हो कि मेरा अस्तित्व है तो खुद से कभी यह सवाल भी पूछा होगा कि मरने के बाद व्यक्ति या आत्मा को कब मिलता है दूसरा जन्म या दूसरा शरीर? वेद और पुराणों में इस संबंध में भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलता है। वेदों के तत्वज्ञान को उपनिषद या वेदांत कहते हैं और गीता उपनिषदों का सारतत्व है।


उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर मौकों पर तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में।


यदि वह प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।

पंचकोष, तीन प्रमुख शरीर और चेतना के चार स्तर :

पहले खुद की स्थिति को समझेंगे तो स्वत: ही खुद की स्‍थिति का ज्ञान होने लगेगा। यह आत्मा पंचकोष में रहती है और 4 तरह के स्तरों या प्रभावों में जीती है।

पंचकोष : 1. जड़, 2. प्राण, 3. मन, 4. बुद्धि और 5. आनंद।


आपको अपने शरीर की स्थिति का ज्ञान है? इसे जड़ जगत का हिस्सा माना जाता है अर्थात जो दिखाई दे रहा है, ठोस है। ...आपके भीतर जो श्वास और प्रश्वास प्रवाहित हो रही है इसे रोक देने से यह शरीर नहीं चल सकता। इसे ही प्राण कहते हैं। शरीर और प्राण के ऊपर मन है। पांचों इन्द्रियों से आपको जो दिखाई, सुनाई दे रहा या महसूस हो रहा है उसका प्रभाव मन पर पड़ता है और मन से आप सुखी या दुखी होते हैं। मन से आप सोचते हैं और समझते हैं। मन है ऐसा आप महसूस कर सकते हैं, लेकिन बुद्धि है ऐसा बहुत कम ही लोग महसूस करते हैं और जब व्यक्ति की चेतना इन सभी से ऊपर उठ जाती है तो वह आनंदमय कोष में स्थित हो जाती है।

चेतना के 4 स्तर : 1. जाग्रत, 2. स्वप्न, 3. सुषुप्ति और 4. तुरीय।

छांदोग्य उपनिषद के अनुसार व्यक्ति के होश के 4 स्तर हैं। पहले 3 प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। चौथा स्तर प्रयासों से प्राप्त होता है जिसे तुरीय अवस्था कहते हैं। आप इन 3 के अलावा किसी अन्य तरह के अनुभव को नहीं जानते। इसी में जीते और मरते हैं। इन स्तरों की स्थिति से आपकी गति तय होती है।

 


सिद्ध संत कहते हैं कि मरने के उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है।
उनका  मानना है कि मरणोपरांत की थकान दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं।


पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावत: सेवा व सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपनों-परायों को यथासंभव सहायता पहुंचाती रहती है, इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमंदों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएं ऐसी सामने आती रहती हैं जिनमें दैवी शक्ति ने कठिन समय में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।
 
बृहदारण्यक उपनिषद में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद कहते हैं कि कभी-कभी तो बहुत ही कम समय लगता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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4 comments:

  1. Bahut achha post hai . Santo ke sang se gyaan melta hai. Yeh suna thaa ab yakeen ho gayaa hai. Krepa banaye rakhna prabhu

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  2. Bahut achha post hai. Santo ke sang se gyaan melta hai suna tha ab vishwas ho gaya hai. Aise krepaa banayee rakhna prabhu.

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  3. तथ्यात्मक विवेचन

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