Thursday, July 5, 2018

भाग – 5 धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 5 
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”



विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
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आपने भाग 1 से 4 में अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की।। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम धर्म के प्रचार प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया। लगभग सभी उपनिषद विभिन्न ऋषियों द्वारा अपने अनुभव के आधार पर ईश की परम सत्ता की व्याख्या करते हैं।  

अब आगे ....................................... 
6) प्रश्नोपनिषद
अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा के ब्राह्मण भाग से सम्बन्धित इस उपनिषद में जिज्ञासुओं द्वारा महर्षि पिप्पलाद से छह प्रश्न पूछे गये हैं।

पहला प्रश्न
कात्यायन कबन्धी-‘भगवन! यह प्रजा किससे उत्पन्न होती है?’
महर्षि पिप्पलाद-‘प्रजा-वृद्धि की इच्छा करने वाले प्रजापति ब्रह्मा ने ‘रयि’ और ‘प्राण’ नामक एक युगल से प्रजा की उत्पन्न कराई।’
वस्तुत: प्राण गति प्रदान करने वाला चेतन तत्त्व है। रयि उसे धारण करके विविध रूप देने में समर्थ प्रकृति है। इस प्रकार ब्रह्मा मिथुन-कर्म द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करता है।

दूसरा प्रश्न
ऋषि भार्गव-‘हे भगवन! प्रजा धारण करने वाले देवताओं की संख्या कितनी है और उनमें वरिष्ठ कौन है?’  
महर्षि पिप्पलाद-‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, प्राण, वाणी, नेत्र और श्रोत्र आदि सभी देव हैं। ये जीव के आश्रयदाता है। सभी देवताओं में प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है। सभी इन्द्रियां प्राण के आश्रय में ही रहती हैं।’

तीसरा प्रश्न
कौसल्य आश्वलायन—’हे महर्षि! इस ‘प्राण’ की उत्पत्ति कहां से होती है, यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है और कैसे बाहर निकल जाता है तथा कैसे दोनों के मध्य रहता है?
महर्षि पिप्पलाद—’ इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है। जैसे शरीर की छाया शरीर से उत्पन्न होती है और उसी में समा जाती है, उसी प्रकार प्राण आत्मा से प्रकट होता है और उसी में समा जाता है। वह प्राण मन के संकल्प से शरीर में प्रवेश करता है। मरणकाल में यह आत्मा के साथ ही बाहर निकलकर दूसरी योनियों में चला जाता है।’

चौथा प्रश्न
गार्ग्य ऋषि-‘ हे भगवन! इस पुरुष देह में कौन-सी इन्द्री शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्री स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब किसमें स्थित है?’  
महर्षि पिप्पलाद—’हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियां सूर्य के अस्त होते ही सूर्य में सिमट जाती हैं और उसके उदित होते ही पुन: बिखर जाती हैं उसी प्रकार समस्त इन्द्रियां परमदेव मन में एकत्र हो जाती हैं। तब इस पुरुष का बोलना-चालना, देखना-सुनना, स्वाद-अस्वाद, सूंघना-स्पर्श करना आदि सभी कुछ रूक जाता है। उसकी स्थिति सोये हुए व्यक्ति-जैसी हो जाती है।’ ‘सोते समय प्राण-रूप अग्नि ही जाग्रत रहती है। उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इन्द्रियां केवल अनुभव मात्र करती हैं, जबकि वे सोई हुई होती हैं।

पांचवां प्रश्न
सत्यकाम—’हे भगवन! जो मनुष्य जीवन भर ‘ॐ’ का ध्यान करता है, वह किस लोक को प्राप्त करता है?’ 
महर्षि पिप्पलाद—’हे सत्यकाम! यह ‘ॐकार’ ही वास्तव में ‘परब्रह्म’ है। ‘ॐ’ का स्मरण करने वाला ब्रह्मलोक को ही प्राप्त करता है। यह तेजोमय सूर्यलोक ही ब्रह्मलोक है।’

छठा प्रश्न
सुकेशा भारद्वाज :-हे भगवन! कौसल देश के राजपुरुष हिरण्यनाभ ने सोलह कलाओं से युक्त पुरुष के बारे में मुझसे प्रश्न किया था, परन्तु मैं उसे नहीं बता सका। क्या आप किसी ऐसे पुरुष के विषय में जानकारी रखते हैं?’
 महर्षि पिप्पलाद—’हे सौम्य! जिस पुरुष में सोलह कलाएं उत्पन्न होती हैं, वह इस शरीर में ही विराजमान है। उस पुरुष ने सर्वप्रथम ‘प्राण’ का सृजन किया। तदुपरान्त प्राण सेश्रद्धा’, ‘आकाश’, ‘वायु’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’, ‘इन्द्रियां’, ‘मन’ औरअन्न’ का सृजन किया। अन्न से ‘वीर्य’ , ‘तप’, ‘मन्त्र’, ‘कर्म’, ‘लोक’ एवंनाम’ आदि सोलह कलाओं का सृजन किया।’


7) तैत्तिरीय उपनिषद
तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में से एक है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है। शिक्षा वल्ली में १२ अनुवाक और २५ मंत्र, ब्रह्मानंदवल्ली में ९ अनुवाक और १३ मंत्र तथा भृगुवल्ली में १९ अनुवाक और १५ मंत्र हैं। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का ७, , ९वाँ प्रपाठक है। इस उपनिषद् के बहुत से भाष्यों, टीकाओं और वृत्तियों में शांकरभाष्य प्रधान है जिसपर आनंद तीर्थ और रंगरामानुज की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं एवं सायणाचार्य और आनंदतीर्थ के पृथक्‌ भाष्य भी सुंदर हैं।

परिचय
तैत्तरीय उपनिषद् अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में सप्तम तैत्तरीयोपनिषद् है जो कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का 7, 8, 9वाँ प्रपाठक है और शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तन खंडों में विभक्त है। शिक्षा वल्ली में 12 अनुवाक और 25 मंत्र, ब्रह्मानंदवल्ली में 9 अनुवाक और 13 मंत्र तथा भृगुवल्ली में 19 अनुवाक और 15 मंत्र हैं। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं।

वारुणी उपनिषद् में विशुद्ध ब्रह्मज्ञान का निरूपण है जिसकी उपलब्धि के लिये प्रथम शिक्षावल्ली में साधनरूप में ऋत और सत्य, स्वाध्याय और प्रवचन, शम और दम, अग्निहोत्र, अतिथिसेवा श्रद्धामय दान, मातापिता और गुरुजन सेवा और प्रजोत्पादन इत्यादि कर्मानुष्ठान की शिक्षा प्रधानतया दी गई है। इस में त्रिशंकु ऋषि के इस मत का समावेश है कि संसाररूपी वृक्ष का प्रेरक ब्रह्म है तथा रथीतर के पुत्र सत्यवचा के सत्यप्रधान, पौरुशिष्ट के तप:प्रधान एवं मुद्गलपुत्र नाक के स्वाध्याय प्रवचनात्मक तप विषयक मतों का समर्थन हुआ है। 11वें अनुवाक मे समावर्तन संस्कार के अवसर पर सत्य भाषण, गुरुजनों के सत्याचरण के अनुकरण और असदाचरण के परित्याग इत्यादि नैतिक धर्मों की शिष्य को आचार्य द्वारा दी गई शिक्षाएँ शाश्वत मूल्य रखती हैं।

ब्रह्मानंद और भृगुवल्लियों का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌’ मंत्र से होता है। ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है। इस निर्गुण ब्रह्म का बोध उसके अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद इत्यादि सगुण प्रतीकों के क्रमश: चिंतन द्वारा वरुण ने भृगु को करा दिया है। इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है। प्रजोत्पत्ति द्वारा बहुत होने की अपनी ईश्वरींय इच्छा से सृष्टि की रचना कर ब्रह्म उसमें जीवरूप से अनुप्रविष्ट होता है। ब्रह्मानंदवल्ली के सप्तम अनुवाक में जगत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से बतलाई गई है, किंतु ‘असत्‌’ इस उपनिषद् का पारिभाषिक शब्द है जो अभावसूचक न होकर अव्याकृत ब्रह्म का बोधक है, एवं जगत्‌ को सत्‌ नाम देकर उसे ब्रह्म का व्याकृत रूप बतलाया है। ब्रह्म रस अथवा आनंद स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर समस्त सृष्टि पर्यंत जितना आनंद है उससे निरतिशय आनंद को वह श्रोत्रिय प्राप्त कर लेता है जिसकी समस्त कामनाएँ उपहत हो गई हैं और वह अभय हो जाता है।

8) बृहदारण्यकोपनिषद
बृहदारण्यक उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है । यह अति प्राचीन है और इसमें जीव, ब्रह्मांड और ब्राह्मण (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है । दार्शनिक रूप से महत्वपूर्ण इस उपनिषद पर आदि शंकराचार्य ने भी टीका लिखी थी । यह शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ का एक खंड है और इसको शतपथ ब्राह्मण के पाठ में सम्मिलित किया जाता है । यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सदगमय, नेति नेति जैसे विषय हैं । इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है।

प्रथम अध्याय
इसमें छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में, सृष्टि-रूप यज्ञ’ को अश्वमेध यज्ञ के विराट अश्व के समान प्रस्तुत किया गया है। यह अत्यन्त प्रतीकात्मक और रहस्यात्मक है। इसमें प्रमुख रूप से विराट प्रकृति की उपासना द्वारा ‘ब्रह्म’ की उपासना की गयी है। दूसरे ब्राह्मण में, प्रलय के बाद ‘सृष्टि की उत्पत्ति’ का वर्णन है। तीसरे ब्राह्मण में, देवताओं और असुरों के ‘प्राण की महिमा’ और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं। चौथे ब्राह्मण में, ‘ब्रह्म को सर्वरूप’ स्वीकार किया गया है और चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के विकास क्रम को प्रस्तुत किया गया है। पांचवें ब्राह्मण में, सात प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति का उल्लेख है और सम्पूर्ण सृष्टि को ‘मन, वाणी और प्राण’ के रूप में विभाजित किया गया है। छठे ब्राह्मण में, ‘नाम, रूप और कर्म’ की चर्चा की गयी है।

दूसरा अध्याय
दूसरे अध्याय में भी छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में डींग हांकने वाले, अर्थात बहुत बढ़-चढ़कर बोलने वाले गार्ग्य बालाकि ऋषि एवं विद्वान राजा अजातशत्रु के संवादों द्वारा ‘ब्रह्म’ व ‘आत्मतत्त्व’ को स्पष्ट किया गया है। दूसरे और तीसरे ब्राह्मण मेंप्राणोपासना’ तथा ब्रह्म के दो मूर्त्त-अमूर्त्त रूपों का वर्णन किया गया है। इन्हें ‘साकार’ और ‘निराकार’ ब्रह्म भी कहा गया है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद हैं। पांचवें और छठे ब्राह्मण में ‘मधुविद्या’ औ उसकी परम्परा का वर्णन है।

तीसरा अध्याय
तीसरे अध्याय में नौ ब्राह्मण हैं। इनके अन्तर्गत राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ऋषि से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं द्वारा प्रश्न पूछे गये हैं और उनके उत्तर प्राप्त किये गये हैं। गार्गी द्वारा बार-बार प्रश्न पूछ जाने पर याज्ञवल्क्य उसे अपमानित करके रोक देते हैं। पुन: सभा की अनुमति से उसके द्वारा प्रश्न पूछे जाते हैं। वह उनसे अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है। इसी प्रकार शाकल्य ऋषि अतिप्रश्न करने के कारण अपमानित होते हैं। इसी का उल्लेख प्रश्नोत्तर रूप में यहाँ किया गया है। इनमें भारतीय ‘तत्त्व-दर्शन’ का निचोड़ प्राप्त होता है।

चौथा अध्याय
इस अध्याय में महर्षि याज्ञवल्क्य और राजा जनक के मध्य हुए संवादों का उल्लेख किया गया है। साथ ही याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद भी इसमें हैं। अन्त में इस काण्ड की परम्परा को दोहराया गया है। इस अध्याय में छह ब्राह्मण हैं।

पांचवां अध्याय
इस अध्याय में ‘ब्रह्म’ की विविध रूपों में उपासना की गयी है। साथ ही मनोमय ‘पुरुष’ और ‘वाणी’ की उपासना भी की गयी है। मृत्यु के उपरान्त ऊर्ध्वगति तथा ‘अन्न’ और ‘प्राण’ के विविध रूपों की उपासना-विधि समझाई गयी है। इसके अतिरिक्त ‘गायत्री उपासना’ में जप करने योग्य तीन चरणों के साथ चौथे ‘दर्शन’ पद का भी उल्लेख किया गया है। इसमें पन्द्रह ब्राह्मणों की चर्चा है।

छठा अध्याय
इस अध्याय में ‘प्राण’ की श्रेष्ठता, ‘पंचाग्नि विद्या’ का विवरण, ‘मन्थ-विद्या’ का उपदेश तथासन्तानोत्पत्ति-विज्ञान’ का सुन्दर वर्णन किया गया है। सबसे अन्त में समस्त प्रकरण की आचार्य-परम्परा का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय मंज पांच ब्राह्मण हैं।

9) माण्डूक्योपनिषद
अथर्ववेद से सम्बन्धित इस उपनिषद मेंॐकार’ को ‘अक्षरब्रह्म’ परमात्मा स्वीकार किया गया है। ओंकार के विविध चरणों और मात्राओं का विवेचन करते हुए अव्यक्त परमात्मा के व्यक्त विराट जगत का उल्लेख किया गया है। परमात्मा के ‘निराकार’ और ‘साकार’ दोनों स्वरूपों की उपासना पर बल दिया गया है। इसमें बारह मन्त्र हैं।

ॐ’ अक्षर अविनाशी ‘ब्रह्म’ का प्रतीक है। उसकी महिमा प्रकट ब्रह्माण्ड से होती है। भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों कालों वाला यह संसार ‘ॐकार’ ही है।यह सम्पूर्ण जगत ‘ब्रह्म-रूप’ है।’आत्मा’ भी ब्रह्मा का ही स्वरूप है। 

‘ब्रह्म’ और ‘आत्मा’ चार चरण वाला स्थूल या प्रत्यक्ष, सूक्ष्म, कारण तथा अव्यक्त रूपों में प्रभाव डालने वाला है।

प्रथम चरण स्थूल वैश्वानर (अग्नि), जाग्रत अवस्था में रहने वाला, बाह्य रूप से बोध कराने वाला, सात अंगों, अर्थात सप्त लोकों या सप्त किरणों से द्युतिमान, उन्नीस मुखों- दस इन्द्रियों, पांच प्राण तथा चार अन्त-करण-वाला है। 

द्वितीय चरण ज्योतिर्मय आत्मा अथवा अव्यक्त ब्रह्म है। तृतीय चरणप्राज्ञ’ ही ब्रह्म का चरण है, जिसके द्वारा वह एकमात्र आनन्द का बोध कराता है। वह ब्रह्म ही जगत का कारणभूत है, सबका ईश्वर है, सर्वज्ञ है, अन्तर्यामी है, किन्तु जो एक मात्र अनुभवगम्य है, शान्त-रूप है, कल्याणकारी अद्वैत-रूप है, वह उसका चतुर्थ चरण है।

इस प्रकार ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ अक्षरब्रह्म’ ‘ॐकार’ रूप में ही सामने रहता है। इसकी मात्राएं ही इसके चरण हैं और चरण ही मात्राएं हैं। ये मात्राएं ‘अकार,’ ‘उकार’ और ‘मकार’ हैं।ॐ की तीन मात्राएं- अ, , म् हैं। यह विश्व त्रियामी है। भूत, भविष्य और वर्तमान काल भी इसकी तीन मात्राएं हैं। ये सत्, रज और तम की प्रतीक हैं। 
ज्ञान द्वारा ही परमात्मा के इस चेतन-अचेतन स्वरूप को जाना जा सकता है। उसे वाणी से प्रकट करना अत्यन्त कठिन है। उसे अनुभव किया जा सकता है।
एक आत्मज्ञानी साधक अपने आत्मज्ञान के द्वारा ही आत्मा को परब्रह्म में प्रविष्ट कराता है और उससे अद्वैत सम्बन्ध स्थापित करता है।

10 ) मुण्डकोपनिषद

मुण्डकोपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।
इसमें अक्षर-ब्रह्म ‘ॐ: का विशद विवेचन किया गया है। इसे ‘मन्त्रोपनिषद’ नाम से भी पुकारा जाता है। इसमें तीन मुण्डक हैं और प्रत्येक मुण्डक के दो-दो खण्ड हैं तथा कुल चौंसठ मन्त्र हैं। ‘मुण्डक’ का अर्थ है- मस्तिष्क को अत्यधिक शक्ति प्रदान करने वाला और उसे अविद्या-रूपी अन्धकार से मुक्त करने वाला। इस उपनिषद में महर्षि अंगिरा ने शौनक को ‘परा-अपरा’ विद्या का ज्ञान कराया है। भारत के राष्ट्रीय चिह्न में अंकित शब्द ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद से ही लिये गए हैं।

प्रथम मुण्डक
इस मुण्डक में ‘ब्रह्मविद्या’, ‘परा-अपरा विद्या’ तथा ‘ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति’, ‘यज्ञ और उसके फल’, ‘भोगों से विरक्ति’ तथा ‘ब्रह्मबोध’ के लिए ब्रह्मनिष्ठ गुरु और अधिकारी शिष्य का उल्लेख किया गया है।

द्वितीय मुण्डक
इस मुण्डक में ‘अक्षरब्रह्म’ की सर्वव्यापकता और उसका समस्त ब्रह्माण्ड के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है।

तृतीय मुण्डक
इस मुण्डक में ‘जीवात्मा’ और ‘परमात्मा’ के सम्बन्धों की व्यापक चर्चा की गयी है। उनकी उपमा एक ही वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षियों से की गयी है। यह वृक्ष की शरीर है, जिसमें आत्मा और परमात्मा दोनों निवास करते हैं। एक अपने कर्मों का फल खाता है और दूसरा उसे देखता रहता है।

..................................... क्रमश: .........................................
(कथन और तथ्य गूगल से साभार) 

भाग 6 का लिंक:

https://freedhyan.blogspot.com/2018/06/6.html

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

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