Monday, September 14, 2020

आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 19 (योग और वेद महावाक्य)

 आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 19 (योग और वेद महावाक्य)

Bhakt Dr Arun Gupta Rohtak Fb: Om namah Baba ji

प्रभु जी मैं न सन्यासी हूं न मैं गुरु हूं न मैं कोई बाबा हूं मैं तो एक इंजीनियर हूं पेशे से जो प्रभु कृपा से गुरु कृपा से आप लोगों की कुछ सेवा कर पाता है।

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जो हमारे षट् दर्शन हैं उनमें से एक है योगशास्त्र जो पतंजलि महाराज ने लिखा है और उसमें उन्होंने योग का अनुभव कैसे करें उसके लिए 8 अंगों वाला योग बताया है। जिसे अष्टांग योग कहते हैं।

आप किसी भी मार्ग से चले जब आपको वेदांत महावाक्य का अनुभव होता है तब आपको योग घटित होता है।

पहला वेदांत महावाक्य है अहम् ब्रह्मास्मि।

जिसमें मनुष्य को साकार ब्रह्म का और निराकार ब्रह्म का अनुभव सा होता है की मैं ही इस सृष्टि का करता हूं। मैं ही सभी देव हूं सर्वव्यापी हूं इस तरह का विचार आता है। यह अनुभूति अब समय से लेकर लंबे समय तक रहती है।

दूसरा है अयम आत्मा ब्रह्म। जिसमें अनुभव होता है कि यह जो मेरी आत्मा है यानी जो जीवात्मा है यही परमात्मा है हमारी आत्मा उस ब्रह्म शक्ति से जुड़ी हुई है।

तीसरा है तत् त्वम् असि। हमको जो कुछ भी जगत में दिखता है वह तू ही है तू यानी ब्रह्म।

चौथा है प्रज्ञानं ब्रह्म। मेरी प्रज्ञा में ज्ञान में जो कुछ भी आता है मैं जो कुछ भी हूं वह ब्रह्म है।

पांचवा सारवाक्य कहलाता है।

सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है"

जिसको मैं कुछ संशोधन कर बोलता हूं सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्व ब्रह्म।

ऐसे कोई भी महावाक्य का अनुभूति हो वह हमें जगत का सृष्टि का अनेकों अनेक ज्ञान दे जाता है।

जो 24 घंटे इस अनुभूति में रहता है वह ब्रह्म स्वरूप कहलाता है।

और यही सॉन्ख्य योग है।

अब यदि यह अनुभूति हुई तो इसकी पहचान कैसे करें।

इसकी आंतरिक पहचान होती है जो भगवत गीता में बताई गई है।

सबसे पहले क्या आपके अंदर समत्व की भावना समानता की भावना आई है। क्या आप दिल से मानव जाति को एक मानते हैं ऊंच-नीच नहीं मानते हैं। ना कोई छोटा ना कोई बड़ा सब ईश्वर की संतान और आत्मा है।

दूसरा क्या आपकी बुद्धि स्थिर हो गई है यानी अपना दुख में दुखी होते हैं ना सुख में सुखी होते हैं ना सम्मान पाकर प्रसन्न होते हैं ना अपमान मिलकर दुखी होते। यानी आप स्थिर बुद्धि हो गए।

तीसरा क्या आप सदैव प्रभु चिंतन में रहते हैं 24 घंटे आपको उसका ध्यान रहता है आपकी बुद्धि सदैव उस ईश्वर में लिप्त रहती है यानी आप स्थितप्रज्ञ हो गए हैं।

और पतंजलि के दूसरे सूत्र के अनुसार क्या आपके अंदर आपके चित्त में कर्म करते समय कोई संस्कार तो पैदा नहीं होते कोई वृत्ति तो नहीं आती मतलब आप किसी भी कार्य को छोटा बड़ा नहीं समझते और भगवत गीता के अनुसार कर्मसु कौशलम् अपने काम को मन लगाकर कुशलता के साथ बिना फल की इच्छा से निष्काम कर्म करते हैं।

आपको किस वेद महावाक्य का अनुभव हुआ।

Bhakt Dr Arun Gupta Rohtak Fb: Koi nahi

Kosis Kar Raha hu

यह अनुभव कोशिश से नहीं होता है यह बिल्कुल हमारे हाथ में नहीं है प्रभु कृपा से अचानक होता है।

Bhakt Dr Arun Gupta Rohtak   Us rah pe chal rahe hain

Rah to patanjali ji Ka hai

Mai Apke margdarshan SE dhanay hua

Aur ji tor kosis karunga

Apna ashirwad banay

पतंजलि का मार्ग हठयोग का मार्ग एक लंबा रास्ता है और कठिन है सबसे आसान तरीका है कलयुग में मंत्र जप यानी भक्ति के द्वारा योग का अनुभव और भक्ति योग के द्वारा ज्ञान योग तक की यात्रा और कार्य में कर्युमग आ जाना।

यदि आप ईश प्राणीधान निभा लेते हैं तो आपको भक्ति का मार्ग बहुत ही सुलभ आनंददायक मिल जाता है और भक्ति योग होने की संभावना रहती है।

Bhakt Dr Arun Gupta Rohtak Fb: Yahi path pakara hai

 Jai gurudev ji

Ap mahan hai

Dhanay hua

नहीं सर यह वाक्य मेरे लिए उचित नहीं है। मैंने कोई महान कार्य नहीं किया है।

Bhakt Dr Arun Gupta Rohtak Fb: Isase Kam Nahi hain

सॉरी जिंदगी में मैंने कुछ नहीं किया सब प्रभु कृपा से प्राप्त हुआ है उसकी ही लीला है इसलिए वह ही महान है।

+1 (913) 302-8535: 16/05, 22:52. - 100% agree. However, this sudden moment comes with the blessings of a Guru.

Blessed are those who are  walking on spiritual journey in the guidance of a real spiritual Guru.

Satsang is good. However, satsang and self-experience are two different things.

I can not explain it because individuals differ in their self-experience.

May God Bless All.

But those who does not have सदगुरु??

Every thing is with blessing of God only।

Even finding of sadguru, only possible with the blessing of God।

Bhakt Dr Arun Gupta Rohtak Fb: But judgment is difficult

In this scenario

Have you got guru immediately after your birth

God is the only and lost guru of universe

Rest is our belief and faith

+1 (913) 302-8535: My mother was my first sadguru. I watched her. Whatever she was doing, I started doing. Someone has explained karma. My mother is in better place. However, just before she left us 11 years ago, I came in touch with a sadguru. Since then whatever my sadguru suggests me to do, I do. Blessings started coming from heaven. Life start turning in a positive way. This created more belief in sadguru. Sadguru always gives, never asks anything in return. I am blessed. Most likely it is my mother's blessings.

Again, both theory and practical are needed to pass the life exam. However, my sadguru emphasizes more on practical aspect. Simple things like I have donated 1 minute per hour to meditation as per my sadguru's instructions. Doing japa of guru mantra, lightening of ghee diya, meditating on God, living in present moment at the time of mediation are simple things to say but difficult to practice. Sadguru watches my progress and suggests me to next level of Sadhna when I meet him on Guru Purnima every year.

I can say from my own experience that both the satsang and doing Sadhna in the guidance of a sadguru are necessary. However, without blessings of a sadguru, how can one progress, I can not imagine. There are baby steps that sadguru suggests you to do. I empty out myself at the time of meditation. That is the time when I try to connect mentally with my sadguru first, and Goddess later.

+1 (913) 302-8535:

एक भी आँसू न कर बेकार

जाने कब समंदर माँगने आ जाए

पास प्यासे के कुँआ आता नहीं है

यह कहावत है अमरवाणी नहीं है

और जिसके पास देने को न कुछ भी

एक भी ऎसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रंगार

जाने देवता को कौन सा भा जाय

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण

किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं

आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ

पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार

जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की

काम अपने पाँव ही आते सफर में

वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा

जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नजर में


हर लहर का कर प्रणय स्वीकार

जाने कौन तट के पास पहुँच जाय

Bhakt Parv Mittal Hariyana: रे कान्हा, तेरी बांसुरी मै बन जाऊ।

रे मोहन, तेरे अधरो पर सज जाऊ।।

रे कान्हा..

होले होले छुना मुझको,

सांसो से अपनी जीवन देना,

श्यामल कर से, छिद्रों को भर दो,

मधुर तान को विवश कर दो,

रे सांवल तेरे कर्णो में बस जाऊ,

रे कान्हा ....

संग रहु प्यारे तेरे हरदम,

कभी कटि कभी सोहु अधरन,

बंधन ऐसा बंध जाऊ सांवल,

सोचु तुम बिन तो, हो जाऊ बावल,

रे प्यारे, बस तुझमे ही खो जाऊ

रे कान्हा...

कैसे छोड़ोगे प्रभु जी हमको,

जब सौंप दिया हो जीवन तुमको,

शांति चित्त को तुमसे मिलेगी,

प्रेम मधुरिमा जब बरसेगी,

रे मोहन, तेरी राहों में बिछ जाऊ,

रे कान्हा, तेरी बांसुरी मै बन जाऊ

Bhakt Lokeshanand Swami: आज अयोध्या में बहुत दिनों बाद दरबार लगा है। राजसिंहासन सूना पड़ा है, वशिष्ठजी सभाध्यक्ष हैं।

भरतजी और राममाता ने दरबार में प्रवेश किया। विचित्र दृश्य है, होना तो यह चाहिए था कि भरतजी माँ को सहारा देते, यहाँ माँ ही भरतजी को सहारा देकर ला रहीं हैं। उनका अपने से खड़े रह पाना ही कठिन हो रहा है, चलना तो दूर की बात है।

कौशल्याजी बाँई ओर के सिंहासन पर बैठ गईं, भरतजी ने कातर दृष्टि से पहले शत्रुघ्नजी की ओर देखा, फिर भूमि पर दृष्टि टिका ली। शत्रुघ्नजी ने तुरंत नीचे भूमि पर उतरीय बिछा दिया, भरतजी बैठ गए।

गुरुजी धीर गंभीर वाणी से बोले, भरत! चक्रवर्ती महाराज ने श्रीराम को वनवास और तुम्हें यह राजपद दिया है, जैसे रामजी ने पिताजी की आज्ञा मानी, तुम भी मानो। कम से कम, जब तक रामजी लौटकर अयोध्या वापिस नहीं आ जाते, तब तक तो बैठो।

अधिकार समझकर नहीं, तो जिम्मेदारी समझकर, कर्तव्य समझकर ही बैठो, पर बैठो। रामजी के आ जाने पर, जो उचित समझो करना, पर अभी तो पद संभालना ही योग्य है।

भरत! यह अयोध्या रूपी पौधा कितने कितने महापुरुषों के जीवन से सींचा गया है, क्या यह यूँही सूख जाएगा?

राममाता का भी यही मत है, वे भी समझाती हैं।

सभी मंत्री भी यही समझा रहे हैं।

पर भरतजी का मत है कि पहले मैं भगवान का दर्शन करूंगा, राज्य संचालन बाद में देखा जाएगा।

देखें, धर्म दो प्रकार का माना गया है, देह धर्म और आत्म धर्म। जहाँ देह धर्म, आत्म धर्म में रुकावट बन जाता है, वहाँ महापुरुष देह धर्म छोड़ देते हैं। भरतजी भी देह धर्म छोड़ रहे हैं। भरतजी कहते हैं, मेरा जन्म रामजी की सेवा के लिए हुआ है, भोग भोगने के लिए नहीं हुआ।

लोकेशानन्द का आग्रह है कि अब आप पाठकजन विचार करें, आपका जन्म किसलिए हुआ है?

Bhakt Lokeshanand Swami: वह कहानी तो आपने सुनी ही होगी जिससे बाप अपने बच्चों को एकजुट रहने के लाभ सिखाता है, जिसमें अकेली लकड़ी टूट जाती है, पर लकड़ियों का गट्ठर नहीं टूटता।

एक तीन बच्चों के बाप को भी मरते हुए वह कहानी याद आ गई। उसने सोचा की मैं भी अपने बच्चों को वह शिक्षा दूंगा। उसने अपने बच्चों से कहा कि तीन लकड़ियाँ ले आएँ।

बड़ा बेटा बोला- क्या करोगे लकड़ी का?

मंझला बोला- आग जलाना चाहता होगा।

छोटा बोला- कोयले सुलगा दूं?

बाप- मूर्खों! लकड़ियाँ लाओ, तीन लकड़ियाँ।

बड़ा- छोटे! जा ले आ। यह बुड्ढा मानेगा नहीं।

छोटा भुनभुनाता हुआ लकड़ी की टाल से तीन लकड़ियाँ ले आया। उन्हें देखकर बाप की साँस सूख गई। छोटा तीन मोटी मोटी लकड़ियाँ ले आया था। वह तो एक ही टूटनी मुश्किल थी। पर उसे कहानी तो पूरी करनी ही थी। बोला- अब एक रस्सी लाओ।

छोटा- अब रस्सी माँग रहा है, पहले ही कहता तो साथ ही ले आता। मैं तो अब जाने से रहा।

बड़ा- रस्सी नहीं है घर में।

बाप- रस्सी लाओ।

मंझला- छोटे! ले मैं अपने पायजामे का नाड़ा दे रहा हूँ।

मंझले ने नाड़ा निकाला, और पायजामा हाथ से पकड़कर खड़ा रहा।

बाप- इन लकड़ियों को बाँधो।

छोटे ने बाँध दी।

बाप- अब इन्हें तोड़ो।

बड़ा- बुड्ढा पागल हो गया लगता है। जा छोटे कुल्हाड़ी ले आ।

बाप- कुल्हाड़ी से नहीं, हाथों से तोड़ो।

छोटा- ये टूटने वाली लगती हैं? सवाल ही पैदा नहीं होता।

बाप खुश हुआ कि कहानी आगे बढ़ रही है। बोला- अब इन्हें खोल दो।

मंझला- ला भाई मेरा नाड़ा दे।

बाप- अब इस एक को तोड़ो।

बड़ा- ला मैं देखता हूँ।

उसने अपना घुटना लकड़ी पर टिकाया और पूरा जोर लगा दिया।

तड़क की आवाज हुई। बाप ने देखा कि लकड़ी वैसी की वैसी है, बड़ा जमीन पर पड़ा है, उसका घुटना टूट गया है।

बड़ा- हाय मैं मर गया।

मंझला- बुड्ढा खूसट, सनकी, उजड्ड।

छोटा- चैन से मरता भी नहीं।

बूढ़े बाप ने आँखें बंद की, लंबी साँस ली और मर गया।

लोकेशानन्द कहता है कि समय बदल गया, लोग बदल गए, कितनी ही पुरानी आजमाई हुई कहानी हो, सुनने वाले बात का बतंगड़ बना कर, उन कहानियों का बेड़ागर्क कर ही देते हैं।

Swami Toofangiri Bhairav Akhada: <Media omitted>

Swami Toofangiri Bhairav Akhada: <Media omitted>

स्वामी वितरागी जी महाराज आपका इस ग्रुप में स्वागत है। आपसे अनुरोध है आप प्रतिदिन कुछ ना कुछ संदेश हम लोगों को अवश्य दें।

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क्या किसी ने इस बात पर ध्यान दिया है कि पिछले 10 15 दिन से हमारे संत प्रवचक और महिला प्रवचक पर नए-नए तरीके से आरोप लगाए जा रहे हैं उनमें गलतियां निकाली जा रही है।

यह काम 1 अज्ञानी नकली अहंकारी सप्त ऋषि बापू कर रहा है जो कि अपने आपको ब्राह्मण कहता है और अहंकार से भरा हुआ है।

अपनी दुकान चलाने के लिए वह दूसरों की निंदा करता है लेकिन मुझे लगता है वह विरोधियों से मिला है।

इसी प्रकार और भी ग्रुप है जैसे भारत मिसर इत्यादि जो संतों की गलतियां निकाल कर उन पर उल्टे सीधे आरोप लगा रहे हैं।

यह किसी बड़ी साजिश का हिस्सा है।

आप सभी इसका विरोध उसी की वॉल पर करें।

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Mrs Sadhna H Mishra: परम पूज्य स्वामी जी के द्वारा प्रेषित 🙏🏽🙏🏽🙏🏽🌻🌻🌻

Swami Veetragi R Sadhna Mishra: धन्यबाद

यह ब्रह्म सूत्र हैं। जिनको षड्दर्शन में स्थान प्राप्त है। आप अवश्य सुनें।

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यह ऋषि बदरायण द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र कहलाते हैं जिनको की उत्तर मीमांसा भी कहते हैं।

मीमांसा यह षड्दर्शन में से एक है।

इस श्लोक में पुरुषार्थ की बात की गई है। वास्तव में पुरुषार्थ कुछ होता ही नहीं है एक ही अर्थ होता है ईश्वर की प्राप्ति इसी को कुछ भी कह लो और यह भी केवल प्रभु कृपा से ही होता है जब तक में उसकी कृपा नहीं होती है तब तक में हम आध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर भी नहीं हो पाते हैं।

मैंने भी बद्रायण के कुछ सूत्रों को व्याख्या करने का प्रयास किया था लेकिन बाद में दुर्घटना होने के कारण मैं लाचार हो गया।

मेरी भी इच्छा थी कि मुझे काश संस्कृत ढंग से आती तो मैं भी कुछ लिखने का प्रयास करता।

जय गुरुदेव जय महाकाली।

जगतगुरु की पदवी प्राप्त करने हेतु एक अनिवार्यता यह भी होती है कि आप ब्रह्म सूत्र की व्याख्या करेंगे।

जो स्वामी रामभद्राचार्य भली-भांति की।

आदि गुरु शंकराचार्य ने भी की।

कारण यह होता है कि ब्रह्म सूत्र की व्याख्या वही कर सकता है जिसको कि योग का अनुभव हो चुका होता है मात्र इसके अर्थ पढ़कर व्याख्या करना असंभव कार्य है।

इसका पहला सूत्र है अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।

यानी अब यहां पर ब्रह्म की जिज्ञासा उत्पन्न हुई।

यानि यह उनके लिए सहायक होंगे जिनको ब्रह्म को जानने की ललक है।

आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 20

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