क्या आदमी की मृत्यु होने के तुरंत बाद आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है?
क्या आदमी की मृत्यु होने के तुरंत बाद आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है?
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
गीता कहती हैं कि आत्मा को कोई भी नहीं मार सकता है। जिस तरह हमारा शरीर एक वस्त्र उतार कर दूसरे वस्त्र धारण कर लेता है उसी तरह आत्मा भी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है।
एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने का अर्थ शरीर से नहीं बल्कि हमारे कर्मों पर निर्भर करता है। जैसे हमारे कर्म होंगें हमे अगले जन्म में वैसा ही शरीर और जीवन मिलेगा। इसके अलावा प्रकृति भी ये निर्णय करती है कि मृत्यु के बाद हमारी आत्मा को कैसा शरीर मिलेगा।
मृत्यु के बाद कोई भी आत्मा किसी भी शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। इसका निर्णय उसकी नीयति लेती है और उसी के अनुसार उसे अगले जन्म में कोई शरीर मिलता है।
कई बार हमारे में ये विचार आता है कि मृत्यु के बाद कितने समय तक आत्मा कितने दिनों तक भटकती रहती है। कितने दिनों बाद आत्मा को शरीर मिलता है - हिंदू धर्म के वेद पुराणों में उल्लेख मिलता है।
वेद-पुराणों के अनुसार एक शरीर को छोड़ने के बाद आत्मा को नियमित रूप से किसी भी शरीर को धारण करने की अनुमति नहीं होती है।
उसे दूसरा शरीर धारण करने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और बहुत भटकना पड़ता है लेकिन किसी-किसी आत्मा को शरीर 3 दिन के भीतर ही मिल जाता है तो कुछ आत्माएं ऐसी भी होती हैं आत्मा को शरीर मिलने में 10 या 13 दिन का समय लग जाता है। इसी वजह से हिंदू धर्म में 10वीं और 13वीं मनाई जाती है।
कुछ आत्माएं ऐसी भी होती हैं जो समय से पूर्व की शिक्षाओं के पूर्ण होने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं। इस वजह से वह दूसरे शरीर में प्रवेश नाकरने का हठ करने लगती हैं। इस कारण ऐसी आत्माओं को दूसरा शरीर धारण करने में 37 या 40 दिन का समय लग जाता है।
हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत बरसी की जाती है। इसका अर्थ होता है कि अगर उनकी आत्मा को किसी कारण से भी प्रेतयोनि प्राप्त हुई है या उन्होंने दूसरा शरीर प्राप्त नहीं किया है तो वह उस समय दूसरे शरीर को धारण कर लें।
अगर कोई आत्मा प्रेतयोनि में चली जाती है जो इसका मतलब है कि उनका मन अशांत है। ऐसी आत्माएं दूसरों को परेशान करती हैं। अकसर जिन लोगों की अकाल मृत्यु या किसी दुर्घटना या हत्या की जाती है उन लोगों की आत्मा प्रेत योनि में जाती है। वो आत्माएं असमय हुई अपनी मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पाती हैं और इस वजह से हठी हो जाती हैं।
यदि वह प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।
पंचकोष, तीन प्रमुख शरीर और चेतना के चार स्तर :
पहले खुद की स्थिति को समझेंगे तो स्वत: ही खुद की स्थिति का ज्ञान होने लगेगा। यह आत्मा पंचकोष में रहती है और 4 तरह के स्तरों या प्रभावों में जीती है।
आपको अपने शरीर की स्थिति का ज्ञान है? इसे जड़ जगत का हिस्सा माना जाता है अर्थात जो दिखाई दे रहा है, ठोस है।
वह अन्नमय हो गया और जिसके पाचन से ऊर्जा अग्निमय कोश में उत्पन्न हुई।
आपके भीतर जो श्वास और प्रश्वास प्रवाहित हो रही है इसे रोक देने से यह शरीर नहीं चल सकता। इसे ही प्राण कहते हैं।
यानि प्राणमय कोश।
शरीर और प्राण के ऊपर मन है। क्योकि यदि प्राण हैं तो हम क्या करें इस जड़ जगत के शरीर का यह मन बताता है अत: मनोमय कोश। पांचों इन्द्रियों से आपको जो दिखाई, सुनाई दे रहा या महसूस हो रहा है उसका प्रभाव मन पर पड़ता है और मन से आप सुखी या दुखी होते हैं। मन से आप सोचते हैं और समझते हैं। मन है ऐसा आप महसूस कर सकते हैं,
लेकिन बुद्धि हमें सही गलत समझाती है। यह तब होगा जब मन के ऊपर चले जायें। यानि बुद्धिमय कोश।
ऐसा बहुत कम ही लोग महसूस करते हैं और जब व्यक्ति की चेतना इन सभी से ऊपर उठ जाती है तो वह आत्मा का अनुभव करने लगता है। जैसे के शक्तिपात में क्रिया को देख कर समझ कर मनुष्य आत्मिक शक्ति को जानने का प्रयास कर सफल भी हो सकता है। यानि आत्ममय कोश।
जब आत्ममय कोश की परिपक्ववता आती है तो मनुष्य आनंदमय कोष में स्थित हो जाता है।
हलांकि मनुष्य इन कोषों में प्रारम्भ में आता जाता रहता है अत: वह विभिन्न व्यवहार करता है। भगवान कृष्ण ने युद्ध समाप्ति पर युधिष्टिर ने पूछा कि आप गीता का युद्ध भूमि वाला ज्ञान पुन: दें। तब भ्गवान बोले हे युधिष्ठिर मैं अभी उस भाव में नहीं हूं मतलब योगी मनुष्य समय के अनुसार भाव को निष्काम रूप में धारण कर सकता है।
चेतना के 4 स्तर : 1. जाग्रत, 2. स्वप्न, 3. सुषुप्ति और 4. तुरीय।
छांदोग्य उपनिषद के अनुसार व्यक्ति के होश के 4 स्तर हैं। पहले 3 प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। चौथा स्तर प्रयासों से प्राप्त होता है जिसे तुरीय अवस्था कहते हैं। आप इन 3 के अलावा किसी अन्य तरह के अनुभव को नहीं जानते। इसी में जीते और मरते हैं। इन स्तरों की स्थिति से आपकी गति तय होती है।
तुरीय (चतुर्थ) का शाब्दिक अर्थ है - चौथा। इसका पहला प्रयोग गौड़ापादाचार्य (७वीं सदी) ने किया था जो - माण्डूक्य कारिका में किया था। गीता, भागवत और शंकराचार्य द्वारा की गई व्याख्या, यानि भाष्यम् में भी इसका उल्लेख मिलता है।
तुरीय अनुभव की एक अवस्था है, जिसमें मन और मस्तिष्क में कुछ भी नहीं चलता है - यह भी नहीं कि कुछ नहीं है। यह ध्यान की चौथी (चतुरीय )अवस्था है, इससे पहले की तीन अवस्थाओं में इंद्रियों द्वारा महसूस की गई बात (कोई रूप, कोई गन्ध, कोई ख़याल), कल्पना की गई बात और शून्य महसूस किया जाता है। इसका सबसे पहला संदर्भ माण्डूक्योपनिषद में हुआ है - लेकिन इसी नाम से नहीं।
इसको इस संदर्भ में देखना चाहिये कि चेतना के तीन स्तर हैं -
जब हम जगते हैं तो जो दिखता है और जो कल्पना करते हैं वो हमारे मन में चलता है - कल्पना या विश्लेषण।
सपने (आधी नींद, ख़्वाब) में कल्पना, स्मृति जैसी चीज़ें हम नींद में देखते हैं।
तीसरी अवस्था में कुछ भी नहीं कल्पना करते - गाढ़ी नींद में ऐसा होता है।
इस चौथी अवस्था में ये भी नहीं पता चलता है कि हमें कुछ भी पता नहीं चलता। अद्वैत वादियों के लिए इसका अर्थ आपकी एकदम आत्मिक अनुभूति है जो एकदम शून्य है। इतना शून्य कि आप इसके अनुभूति भी नहीं कह सकते। इसमें यह भी अनुभूति नहीं होती कि आपको कोई अनुभूति नही होती। आपने देखा होगा कभी कभी हम ध्यान में ऐसे खो जाते हैं कि हमें कुछ भान नहीं रहता और क्या हुआ कुछ याद नहीं रहता यह तुरीय अवस्था है। जिसकी आगे की अवस्था समाधि कही जा सकती है। बस समाधि अवस्था में मनुष्य मृतप्राय: हो जाता है। नाडियां बहुत धीमी सी हो जाती हैं। मात्र मस्तिष्क में रक्त संचार रहता है।
प्रमुख 3 शरीर : 1. स्थूल, 2. सूक्ष्म और 3. कारण।
मुख्यत: 3 तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। ऐसा शरीर जो उसे दिखाई तो नहीं देता, लेकिन महसूस होता है। सूक्ष्म शरीर का क्षय हो सकता है, लेकिन आत्मा बीजरूपी कारण शरीर में विद्यमान रहती है। यह कारण शरीर लेकर ही आत्मा नया जन्म धारण करती है जिसमें अगले-पिछले सभी जन्म संरक्षित रहते हैं।
वास्तव में पांच भूत। पावक जल क्षिति गगन समीरा। यानि भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्व के मिश्रण का नाम स्थूल शरीर है जो स्थूल जगत का निवासी है।
जब मात्र वायु और आकाश, योगियों और सत्य आत्माओं हेतु, साथ में अग्नि प्राय: बदला लेने की भावनावाली अत्मायें या जिन्न भूत इत्यादि सूक्ष्म शरीर हैं।
मात्र आकाश तत्व से कारण या भाव शरीर बनता है। जहां आत्मा के साथ भाव होते हैं जो जन्म का कारण बन जाते हैं।
बृहदारण्यक उपनिषद में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद कहते हैं कि कभी-कभी तो बहुत ही कम समय लगता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
अर्थ : जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अंत पर पहुंचकर दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंककर अविद्या को दूर कर दूसरे शरीररूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेती है।
उपनिषद के अनुसार मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। हालांकि यह व्यक्ति के चित्त की दशा पर निर्भर करता है।
मृत्यु के विषय में उपनिषद ने कुछ विस्तार से बताया है-
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्रा: समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुष: पुरुष: पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। -बृ.उ. 4.41
अर्थात जब मनुष्य अंत समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुंचती है, जहां वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आंख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहां पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आंखें ज्योतिरहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।
एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च। -बृ.उ. 4.4.2
अर्थात जब वह चेतनामय शक्ति आंख, नाक, जिह्वा, वाणी, श्रोत, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूंघता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुंचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है।
हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस संबंध में कहते हैं कि वह आंख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों- कान, नाक और मुंह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियां भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इस प्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किए कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।
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