Thursday, September 10, 2020

आत्म अवलोकन और योग की ज्ञान चर्चा

आत्म अवलोकन और योग की ज्ञान चर्चा

 सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”

 

तत्व व्याख्या

मन यह हमारे आकाश तत्व में स्थित भावों का भौतिक रूप से एक राजा है वास्तव में यह इंद्र है क्योंकि सभी इंद्रियां इसके अधीन होती है। आप यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो आप देखेंगे जब आप भोजन करते हैं तो वह कहां जाता है आपके पेट में जाता है यानी वह भोजन का तल है या कोष है जो भौतिक है और आपको दिखता है।

फिर वह भोजन अग्नि तत्व के द्वारा जो आपको नहीं दिखता है आपको ऊर्जा देता है यानी ऊर्जा का तल या कोष।

इस ऊर्जा से हम जीवित रह पाते हैं यानी प्राण हमारे प्राण इसी से बचे रहते हैं तो हम कहां पर आए प्राण के तल पर या कोष पर।

फिर जब जीवित बचे तब हम अन्य विषयों में जब हमारा पेट भरा हुआ तब चिंतन करना आरंभ हुआ हम क्या करें क्या न करें यानी हमारा मन जो कहेगा हम करेंगे तो यह हो गया मनोमय तल यह हमारे मन का कोष।

लेकिन मन कोई कार्य करता है और उसका आदेश देता है तो हमारे अंदर से हमारी बुद्धि हमको एक आवाज देती है कि यह गलत है न करो।

यानी यह हुआ हमारा बुद्धि तल या बुधमय  कोष।

लेकिन यह सारे तल तभी है जब हम जीवित हैं या इन सभी तलों में कोई विशिष्ट शक्ति कार्यरत है।

यानी तब आया आत्ममय कोश या तल।

फिर इसके बाद आता है आनंदमय कोश या तल।

जब हमारी बुद्धि हमारे मन के अधीन हो जाती है और मन बुद्धि के ऊपर चला जाता है तब हम प्रतीत होने लगते हैं और हम भ्रष्ट होने लगते हैं।

प्रयास किया जाए कि हमारी बुद्धि हमारे मन के ऊपर रहे इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने बताया है निरंतर अभ्यास और प्रभु चिंतन ही एकमात्र मार्ग है।

यदि गुरु कृपा मिल जाए या प्रभु अनुग्रह कर दे तो यह तुरंत हो जाता है।

प्रभु श्यामाचरण लहरी महाराज उनको भी जब महावतार बाबाजी ने एक तेल पिलाया तब लहरी महाराज के मन से जगत की वासनाएं शांत हुई और उनकी बुद्धि मन के ऊपर चली गई।

अब आप पूछे जो पूर्व जन्म के संत थे महाअवतार बाबा की मंडली के सदस्य थे उनका यह हाल था तो हम लोग तो बहुत छोटे लोग हैं।

Arya Samaj Vijaypal Shastri: परमपिता परमात्मा सर्वत्र व्याप्त होने के बाद भी हमें सहज प्राप्त क्यों नहीं है?

दूरियां 3 तरह की होती है एक देश गत दूरी अर्थात एक वस्तु पूर्व में तो है पर पश्चिम में नहीं है यह देश गत दूरी है लेकिन ईश्वर सर्वत्र हमारे अंदर और बाहर भी व्याप्त

 है इसलिए ईश्वर और आत्मा के बीच देश गत दूरी नहीं है अर्थात स्थान की दूरी नहीं है।

दूसरी दूरी है कालगत अर्थात कोई वस्तु आज है पर वही कल ना हो लेकिन परमपिता परमात्मा हर समय मौजूद रहता है उसमें काल गत दूरी भी नहीं है। अर्थात् ईश्वर और आत्मा में समय की भी दूरी नहीं है।

तीसरी दूरी है ज्ञान गत। कोई वस्तु    पास में हो और हम उसे जानते न हो तो वह हमसे दूर होती है पर जब हम जान जाते हैं तो वह वस्तु हमारे पास होती है।इसी तरह जब हम ईश्वर को जान लेते हैं तो वह हमारे पास है जब तक हम उसे नहीं जानते तब तक ही वह हमसे दूर है। इससे पता चलता है कि ईश्वर और हमारे बीच न तो देश गत दूरी है न ही काल गत दूरी है केवल ज्ञान गत दूरी है। अतः ईश्वर को जान कर सारी दूरी मिटा कर आनन्द प्राप्त करें।

विजयपाल शास्त्री

प्रभु जी क्या हम कर्मगत दूरी भी कह सकते हैं।

क्योंकि हमारे दुष्कर्म हमें उससे दूर कर देते हैं और सत्कर्म हमें उसके पास जाने की प्रेरणा को प्यास को और बढ़ा देते हैं।

Arya Samaj Vijaypal Shastri: आप महान चिंतक हैं भगवन् लखनवी जी। अवश्य कर्म की दूरी है👏👏👏

प्रभु जी आप सभी का आशीर्वाद है। आप ही के मंदिर के प्रांगण से वक्तव्य देना आरंभ किया था।

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

इसलिए मां गायत्री का आशीर्वाद तो अवश्य है।

Arya Samaj Vijaypal Shastri: धन्य हो भगवन👏👏👏

Hb 96 A A Dwivedi: जगत बडि माया ।

खा जाये पुरी काया फिर भी तु पगले समझ नहीं पाया

जय हो प्रभु जय हो।

उठ गया है लाल अब कुछ कर दिखाएगा।

🙏🏻🙏🏻😀😀

गुरु जी हमारे अन्दर स्वय  जब भगवान है तो  हम बाहर किसकी पूजा करते है़ं

Swami Somendratirthji: जब तक हम स्वयं के अंदर स्वयं परमात्मा को जान नहीं लेते तब तक बाहर हम अनेक प्रकार के भगवान की पूजा करते हैं किंतु अंदर के परमात्मा को जानने के लिए बाहर के भगवान की पूजा भी जरूरी है वर्णमाला सीखे बिना आप जैसे पढ़ नहीं सकते इस प्रकार बहिरंग पूजा द्वारा ही अंतरंग में प्रवेश संभव है

केवल दो ही वर्ग हैं एक वह जो ज्ञानी कहलाते हैं वह वर्ग है जो यह जानता है कि अयम आत्मा ब्रह्म। वेद महावाक्य का अनुभव कर अनुभूति कर यह जान लेता है कि ईश्वर उसके अंदर है।

दूसरा वह जिसने केवल सुना रख है लेकिन वह जानता नहीं है ईश्वर अंदर है यानी अयम आत्मा ब्रह्म।

प्रश्न यह है कि हम कैसे जाने।

ज्ञानियों ने कहा है कि जब हम अंतर्मुखी हो जाएंगे यानी हमारी जो ऊर्जा बाहर की ओर निकल रही है वह अंदर की ओर प्रवाहित हो जाएगी तब हम शायद वेद महावाक्य का अनुभव कर इसकी अनुभूति कर सकें।

अब प्रश्न यह है कि हम अंतर्मुखी कैसे हो।

हमारे जिस इंद्री से जो ऊर्जा निकल रही है हम उसी ऊर्जा के सहारे अंतर्मुखी हो सकते हैं।

सबसे ऊपर है नेत्र। नेत्रों से त्राटक फिर आते हैं कान। कांन के द्वारा कर्ण सिद्धि नाद योग ध्वनि योग इत्यादि के द्वारा।

फिर आते हैं नाक। नाक के द्वारा हम प्राणवायु लेते हैं जब उस पर ध्यान करते हैं तो बन जाता है विपश्यना और जब हम नाक के द्वारा प्राणायाम करते हुए अपना मंत्र जप करते रहते हैं और एक विभिन्न तरीके से करते हैं तब बन जाता है क्रियायोग। और जब नाक की वायु पर ध्यान करते हुए हम बीच-बीच में परायम का सहारा लेते हैं और अपने ध्यान को विशेष जगह पर केंद्रित करते हैं तब बन जाता है प्रेक्षा ध्यान।

इसी के द्वारा सुगंध सिद्धि।

फिर आता है मुख। मुख से सबसे आसान है मंत्र जप। जबकि भी तीन अवस्थाएं होती है वैखरी मध्यमा पश्यन्ति।

बैखरी में मुख से आवाज निकलती रहती है यह आरंभिक अवस्था होती है लेकिन अनुष्ठान हेतु वैखरी ही सहायक होती है क्योंकि सारे अनुष्ठान को बैखरी में ही करना पड़ता है।

मध्यमा में होठ हिलते हैं आवाज नहीं निकलती यह अवस्था बैखरी के परिपक्व होने के बाद आती है।

फिर होता है पश्यन्ती। यानी हम सोचने लगते हैं और मंत्र जप आरंभ हो जाता है।

यह काफी मंत्र जप करने के बाद आती है।

फिर आता है परा पश्यन्ति। जिसमें हम शरीर के किसी भी अंग से मंत्र जप कर सकते हैं अनुभव कर सकते हैं।

यह परा पश्यन्ती एक प्रकार से टच थेरेपी को जन्म देती है। यदि हम अपनी हथेली के कंपन रोगी के कंपन के साथ मिलाकर संकल्प करें तो रोगी का रोग ठीक हो सकता है लेकिन यदि आप में सामर्थ नहीं तो आपके ऊपर आ सकता है।

इसी द्वारा आप अपनी ऊर्जा उसमें प्रवाहित कर सकते हैं।

जो अंतर्मुखी हो जाते हैं तो मंत्र जबकि एक अवस्था के बाद। यह उनके लिए जिनके गुरु नहीं है।

शक्तिपात साधकों में तो शिष्य आलसी बन जाता है। केवल आसन पर बैठना है फिर भी नहीं बैठता है क्योंकि कुछ करने की आदत है बिना करें चैन मिलता ही नहीं।

मंत्र जप के बाद हो सकता है अनायास आपका साकार मंत्र आपका इष्ट मंत्र आपके इष्ट को प्रसन्न कर इष्ठ मंत्र के देव को प्रकट ही कर दे। आपको सघन दर्शनाभूति हो जाए। और फिर उस देव की कृपा से हो सकता है आपको द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो जाए और आपको अहम् ब्रह्मास्मि का भी अनुभव हो जाए। धीरे-धीरे अन्य वेद महावाक्यों के अनुभव भी आ सकते हैं।

इसीलिए मेरा यह मानना है जिनके गुरु नहीं है। वह गुरु के लिए बिल्कुल परेशान न हो अपने इष्ट का सतत निरंतर निर्बाध मंत्र करते रहे यह मंत्र जप में इतनी शक्ति है कि वह गुरु से लेकर निवार्ण तक और सिद्धियों से लेकर किसी भी लोक तक ले जा सकता है।

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यक्ष बात

विपुल लखनवी

कहां क्या कहे हम अक्सर भूल जाते हैं।

किस दिशा में बहें हम अक्सर भूल जाते हैं।।

आवेग में हम क्या करें हम अक्सर भूल जाते हैं।

अत्याचारों को कब तक सहें हम अक्सर भूल जाते हैं।

किस अस्त्र से होंगे हम विजयी यह चुनना भूल जाते हैं।

हर मानव की सोच है अलग हम अक्सर भूल जाते हैं।।

कर बैठते हैं कुछ गलत बाद में हम अक्सर पछताते हैं।।

सद्गुरु कौन हो उसके क्या लक्षण है। इस विषय पर परम् पूज्य गुरुमहाराज विष्णुतीर्थ जी ने जो वक्तव्य दिया, जिनका उल्लेख उन्होंने अन्तर्विथी पुस्तक में किया है।

Swami Triambak giri Fb: परमात्मा है यह बात मानते हैं परमात्मा अंग संग है यह बात जानते हैं, इसका बोध हो चुका हैं अब और कौन सा ज्ञान चाहिए अब अंग संग परमात्मा है तो इसकी प्रार्थना कीजिए और उसकी प्रार्थना करते हुए अपने सच्चाई और ईमानदारी से कर्म कीजिए और अगर इससे भी आगे बढ़ना है तो परमात्मा से परमात्मा की पहचान पूछिए और भी इससे आगे बढ़ना है तो द्रष्टा भाव में आ जाइए जो भी कुछ हो रहा है होने दीजिए उसको देखते रहिए अपने आप हो रहा है होता रहेगा होगा करवाने वाला करवा रहा है कर्म फल से अब ऊपर उठ जाएंगे मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाएंगे अब इसमें और किसी चीज की कहां जरूरत है कौन से ज्ञान की जरूरत है किस गुरु की जरूरत है क्यों जरूरत है गुरु की  |

परमात्मा को ही गुरु बना लीजिए परमात्मा को ही अपना सतगुरु बना लीजिए |

परमात्मा आपके अंदर की आवाज को अंदर ही सुनता है आपको विचार भी प्रदान करता है जो विचार आपने दुनिया में कहीं नहीं सुने कहीं नहीं पढ़े कहीं जिन का अवलोकन भी नहीं किया तो परमात्मा आपके अंदर ही है आप परमात्मा से परमात्मा की पहचान पूछ |

परमात्मा की पहचान होने के बाद हर पल परमात्मा में ध्यान रहे शरीर को सुलाकर भी परमात्मा में विचरण हो तो ही मोक्ष मुक्ति संभव |

Swami Triambak giri Fb:

एष उक्तः सूक्तेऽपि पौरुषे।

धात्रादिस्तम्बपर्यन्तानेतस्यावयवान् विदुः।।

विश्वरूपाध्याय के पुरुषसूक्त में जो वर्णन है वह इसी 'विराट्' का है। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त जगत् को इसी विराट् का अवयव बताया जाता है।   

ईशसूत्रविराड्वेधोविष्णुरुद्रेन्द्रवन्हयः।

विघ्नभैरवमैरालमरिकायक्षराक्षसाः।।

विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा गवाश्वमृगपक्षिणः।

अश्वत्थवटचूताद्या यवव्रीहितृणादयः।।

जलपाषाणमृत्काष्ठवास्यकुद्दालकादयः।

ईश्वराः सर्व एवैते पूजिताः फलदायिनः।।

ईश (अन्तर्यामी) हिरण्यगर्भ, विराट्, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, अग्नि, गणेश, मैराल, मरिका, यक्ष, राक्षस, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गौ, घोड़ा, मृग, पक्षी, पीपल, बढ़, आम आदि वृक्ष जौ, धान, तिनके आदि औषधियां, जल, पाषाण, मिट्टी, काठ, यहां तक कि बिसोला और कुदाल तक ये सभी ईश्वर हैं। जब कोई इनकी पूजा करता है तब ये अपनी अपनी शक्ति के अनुसार उसको फल दे देते हैं |

 इस ईश्वर की जैसे जैसे उपासना करते हैं, वैसे वैसे ही फल मिल जाते हैं  क्योंकि उपासना भी एक कर्म है। जब कि ये सभी ईश्वर हैं तब समान ही फल मिलना चाहिये था। परन्तु फल की जो न्यूनाधिकता होती है वह तो पूज्यों और पूजाओं के अनुसार हो जाती है घट बढ़ जाती है। पूज्यों और पूजाओं के सात्विक राजस आदि होने से भिन्न भिन्न फल मिल जाते हैं।

सांसारिक फलों की प्राप्ति इन छोटे मोटे ईश्वरों से हो जाए , परन्तु मुक्ति तो अद्वितीय परम्ब्रह्मतत्व के ज्ञान से ही होती है। इस के अतिरिक्त मुक्ति का कोई भी अन्य मार्ग नहीं है। देखते नहीं हो कि - अपने जागे बिना अपनी निद्रा में जिस स्वप्न को बना रखा है उस अपने सुपने का भंग नहीं होता है। इस दृष्टान्त से यह बात समझ लेनी चाहिये कि आत्मतत्व को जाने बिना, (आत्मतत्व को न जानने से ही बना हुआ,) यह अपना संसार रूपी सुपना कदापि निवृत नहीं हो सकता | इस #आत्मतत्व को जानने के लिए परमब्रह्मतत्व को पहचानना बहुत जरुरी है |

ईश्वर और जीव आदि के रूप से वर्तमान जो यह जडात्मक और चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् है यह सब इस अद्वितीय परमब्रह्मतत्व में एक बड़ा सुपना है क्योंकि यह सब अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को ही तो अन्यथा समझ लिया गया है।

सुपना 'सुपना' है, यथार्थ ज्ञान नहीं है यह बात जागने से पहले मालूम नहीं पड़ सकती, जागने पर ही यह मालूम पड़ा करता है। इसी प्रकार 'यह जगत् एक सुपना है' ऐसा ज्ञान ब्रह्मविद्या नाम के जागरण के हो जाने पर ही हो सकता है, पहले नहीं।

आनन्दमय और विज्ञानमय जिनको ईश्वर और जीव भी कहते हैं, दोनों ही माया के कल्पित किये हुए हैं। इस कारण ये ईश्वर तथा जीव यद्यपि परमब्रह्म से अभिन्न हैं तो भी ये जगत् के अन्दर की ही वस्तुएँ हैं, ये जगत् के बाहर की वस्तुएँ नहीं हैं। इन ईश्वर और जीव दोनों ने मिलकर पीछे से यह सब कल्पित कर डाला है।

 विज्ञान के बाद आनन्द आता है। विज्ञान भिन्न भिन्न होते हैं। आनन्द सब को एक जैसा ही आता है। शूकर को शूकरी से जितना आनन्द आता है, राजा को रानी से भी उतना ही - उस जैसा ही आनन्द आता है। यों आनन्द नाम का जो ईश्वर तत्व है वह एक जैसा है - एक है। परन्तु आनन्द को प्रकट करनेवाले - उसका दर्शन करने वाले, जो विज्ञानमय कोश ये शरीर हैं, वे भिन्न भिन्न हैं। यही तो ईश्वर और जीव का वेदान्तसम्मत भेद है। ये दोनों ही माया के कल्पित हैं।

 ईश्वर से लेकर कि उसने बहुभाव का ईक्षण किया किंवा संकल्प किया] प्रवेश तक [कि इस जीव रूप से इसी सृष्टि में प्रवेश कर जाऊँ] कि सब सृष्टि तो ईश्वर की बनायी हुई है। जाग्रत् से लेकर मोक्षपर्यन्त सब संसार जीव का बनाया हुआ है। क्योंकि वही अपने आप को जागता हुआ या मुक्त होता हुआ माना करता है। वह इसमें अभिमान रखता है। यदि यह जीव साधना करके इन सब अवस्थाओं में से अपना अभिमान हटा ले तो जाग्रदादि संसार का एकपदे विध्वंस हो जाय। जाग्रदादि संसार का वर्णन तो यों है कि - यह प्राणी माया से मोहित होकर इस मांस के झोंपड़े में अहंभाव से निवास कर लेता है तो फिर भले बुरे सभी काम करने लगता है। यह जाग्रत् काल में अन्न पान आदि नाना भोगों से अपने शरीर की तृप्ति करना मानता है। स्वप्न में यह इश्वर अपनी माया से ही सम्पूर्ण लोक को बनाता है और अपने बनाये हुए इसी से सुख दुःख भोगा करता है। सुषुप्तिकाल में जब सब कुछ विलीन हो जाता है, जब अज्ञान से अभिभूत हो जाता है, तब सुखरूप हुआ रहता है। यह तो एक शरीर की जाग्रत् आदि अवस्थायें हुईं। जब एक शरीर में निवास के कर्म समाप्त हो जाते हैं और जन्मान्तर देनेवाले कर्मों की बारी आ जाती है तब वही जीव फिर जन्म लेता है और फिर यों ही जागता है, सुपने देखता है और सोया करता है। यों यह जीव इन जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं और स्थूल, सूक्ष्म आदि तीनों शरीरों में खेल से करता फिरा करता है। इसी जीव के कर्मों के प्रताप से यह सब विचित्र जगत् उत्पन्न हो गया है। जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति आदि के इस प्रपंच को जो परमब्रह्यम्तत्व प्रकाशित कर रहा है, इसी परमब्रह्म रुप के तत्व का अंश मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा यदि किसी को मालूम हो जाय, तो उसका बन्धनों से छुटकारा हो जाय, उसका कल्पित संसार विलीन हो जाय।

इस संसार में जो एक अद्वितीय तथा असंग परम्ब्रह्मतत्व है इसको तो आप पहचानते ही नहीं हैं और फिर वृथा ही मायाकल्पित जीव तथा मायाकल्पित ईश्वर के विषय में परस्पर लड़े मरे जाते हैं। आप किसी को भी श्रुतिसिद्ध परमार्थ तत्व का परिज्ञान नहीं हैं।

विद्वान ज्ञानी नीतिनिपुण पुरुष इसी ईश्वर के कहने से प्रशंसनीय व्यवहार करता है। इसका ईश्वर इससे अच्छा व्यवहार कराता है। दूसरे प्रकार के पुरुष दूसरी तरह का वर्ताव करते हैं।इनका ईश्वर इनसे बुरा व्यवहार कराता है। यों ईश्वरतत्व प्राणियों का भागी बन कर रहता है। यह इनसे भिन्न कोई तटस्थ शासक कदापि नहीं है। जबकि यह ईश्वर को अपने ऊपर शासक नियंत्रक मानकर चल रहे हैं |


 इस अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को जब से हम पहचान गये हैं, तभी से तत्वनिष्ठ होकर हम तो बड़े ही प्रसन्न रहने लगे हैं। जिन मन्द भागियों को इस तत्व का ज्ञान नहीं हुआ है उन पर तो हमें केवल थोड़ा सा शोक ही होता है। भ्रान्ति में फँसकर हम उनके साथ विवाद करना पसन्द नहीं करते हैं।पर  आप लोगों तक हमारी बात को पहुंचाने के लिए थोड़ा सा वाद विवाद आप लोगों से करना पड़ता है क्योंकि आप लोग लालच में इतने अंधे हो चुके हो कि आपको सत्य और असत्य का भान कभी हो ही नहीं रहा है |

तृणपूजकों से लेकर योग पर्यन्त वादियों को 'ईश्वरतत्व' के विषय में भ्रान्ति हो रही है। लोकायत से लेकर सांख्य पर्यन्त वादियों को 'जीव' के विषय में बड़ा भ्रम हो रहा है।

अद्वितीय परमब्रह्मतत्वं न जानन्ति यदा तदा।

भ्रान्ता एवाखिलास्तेषां क्व मुक्तिः क्वेह वा सुखम्।।

अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को नहीं जानते हैं वे तो सभी भ्रान्त हैं। उनको मर जाने पर न तो विदेहमुक्ति ही मिलती है और न इस लोक में ही वे सुख पा सकते हैं।

 परमब्रह्म का तत्वज्ञान न होने से आपलोगो को मुक्ति नहीं मिलेगी तथा वैराग्यसम्पन्न न होने के कारण इस लोक के सुखों से भी आप लोग स्वयं ही परहेज़ कर बैठेंगे। यों आप दोनों सुखों से वंचित हो जायेंगे।

ब्रह्मविद्या के अतिरिक्त और विद्याओं के कारण यदि आपमें ऊँच नीच भाव होता हो तो हुआ करो। ऐसे उत्तमाधम भाव से मुमुक्षु लोगों को लाभ ही क्या? देखते नहीं हो कि सुपने में राज्य करने से और सुपने में भीख माँगने से, जागे हुए आदमी का कुछ भी घटता बढ़ता नहीं है।इस कारण हमारा तो यही कहना है कि - जो लोग मुक्ति चाहते हों, वे 'जीववाद' और 'ईश्वरवाद' के झगड़े में कभी भी न पड़ें। उन्हें तो चाहिये कि वे सदा परम्ब्रह्मतत्व का ही विचार करें और विचार कर इस परमब्रह्मतत्व को पहचान जाँय।

परम प्रभु की जय

Swami Toofangiri Bhairav Akhada: *राजयोग, लययोग,स्तंभन की प्रतिमूर्ति, समस्त दुःखों एवं पापों का शमन करने वाली देवी माँ बगलामुखी के प्राकट्य उत्सव की आप सभी को ढेरों बधाई सहित कोटिशः मंगल शुभकामनाएं।माँ का आशीर्वाद ऐसे ही चराचर जगत को प्राप्त होता रहे और देश निरन्तर नवीन कीर्तिमान स्थापित करे। आज के दिन इस मंत्र का उच्चारण करें वैशाख शुक्ल अष्टमी को देवी बगलामुखी का अवतरण दिवस कहा जाता है  इसे मां बगलामुखी जयंती के रूप में मनाया जाता है.

मां बगलामुखी जयंती 1 मई 2020 को है। इस दिन को मां पीतांबरा जयंती के नाम से भी जाना जाता है

ये स्तम्भन की देवी भी हैं। सारे ब्रह्मांड की शक्ति मिलकर भी इनका मुकाबला नहीं कर सकती। शत्रु नाश, वाक सिद्धि, वाद-विवाद में विजय के लिए देवी बगलामुखी की उपासना की जाती है।

 मां बगलामुखी मंत्र :-

 'ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा।'

*आपके चरणों का दास-* स्वामी तूफान गिरी जी महाराज मां बगलामुखी उपासक श्री पंच दशनाम भैरव जूना अखाड़ा {राष्ट्रीय प्रवक्ता व प्रचारक श्री हिंदू तख्त एवं राष्ट्रीय महामंत्री अखिल भारतीय हिंदू सुरक्षा समिति}

Bhakt Lokeshanand Swami: इधर, भगवान प्रतीक्षा में खड़े हैं, कि ये आया, लगा चरण धोने और धो धोकर पीने। रामजी ने एक चरण तो धुलवा लिया, पर दुसरा तो कठोते में तब रखें, जब पहला कहीं टिकाएँ। जैसे ही चरण रखने लगे, केवट कहता है- खबरदार! फिर से धूल न लगा लेना।

-तो इसे कहाँ रखूँ?

-हवा में ही रखें रहें।

तो रामजी एक पैर पर ही खड़े रहे। पर कितनी देर खड़े रहते? थक गए, तब केवट बोला, आप थक गए हों तो मेरे सिर का सहारा ले लें।

लक्षमणजी कहते हैं कि सारी दुनिया भगवान से कहती है कि भगवान! मेरे सिर पर हाथ रख दो, हमें सहारा हो जाएगा। ये कहता है मेरे सिर पर हाथ रख लो, आपको सहारा हो जाएगा?

भगवान कहते हैं- लक्षमण! मैं जो सारी दुनिया को सहारा देता हूँ, वह इन केवट जैसे संतों के सहारे ही तो देता हूँ।

"मोते अधिक संत करि लेखा।"

दोनों चरण धुल चुके, तो केवट ने भगवान को गोद में उठा लिया। रामजी केवट की छाती से चिपक गए। सबको नाव में चढ़ाकर केवट नाव चलाने लगा।

आज भगवान के पार जाने का तो बहाना है, केवट के जीवन की नैय्या पार हो रही है।

दूसरा किनारा आया, रामजी उतरकर खड़े हुए, केवट ने दण्डवत् कर चरण पकड़ लिए।

लक्षमणजी ने पूछा कि उधर तो अकड़ रहा था, इधर पकड़ रहा है?

केवट रोने लगा, बोला- छोटे सरकार! अकड़ के या पकड़ के, कैसे भी, मुझे तो भगवान को रोकने का बहाना चाहिए। और लक्षमण भैया! मुझे आपका भी तो भय है, आप शुरु से ही, मेरी ओर ही घूर रहे हैं, और मैं यह रहस्य जानता हूँ कि जो मनुष्य इन चरणों में दण्डवत् करता है, उसे दण्ड नहीं मिलता।

लोकेशानन्द केवट की बुद्धिमता पर मुस्कुराने लगा।

जय मां जगदंबे हे मां।

सभी तेरे रूप हर रूप में तू है मां।

एक राजा शिकार करने जंगल में गया था। शिकार के पीछे दौड़ते हुए, वह बहुत दूर निकल गया, सैनिक तो पीछे छूट ही गए, अंधेरा भी हो गया।

'अब इस जंगल में यह रात कैसे बीतेगी?' यह विचार उसे मारे दे रहा था। कि तभी उसे दूर एक रोशनी दिखाई दी। रोशनी है, तो जरूर कोई मनुष्य वहाँ होगा ही। तो वह रोशनी की ओर बढ़ चला।

वहाँ एक टूटी फूटी झोपड़ी नें एक गरीब फटेहाल आदमी मिला। मजबूरी थी, दूसरा कोई चारा न था, राजा वहीं रुक गया।

बातचीत हुई, मालूम पड़ा कि वह एक लकड़हारा है, जंगल से लकड़ी काट कर, उसका कोयला बनाकर बेचता है।

भूख और थकान से बेहाल राजा, भूमि पर ही सो गया। सुबह सैनिक आए, और राजा को लिवा ले गए।

दरबार में पहुँचते ही राजा ने उस लकड़हारे को बुलवा कर, अपनी जान बचने की खुशी में, एक सौ एकड़ का चंदन का बाग उसे ईनाम में दे दिया।

इस घटना के कईं वर्षों बाद, राजा को उस लकड़हारे की याद आई। मंत्रियों से कहा कि उसे ढूंढो, पता करो कि वो कहाँ है और क्या मौज ले रहा है?

मंत्रियों ने उसे बहुत जगह खोजा। और उनकी हैरानी की कोई सीमा न रही जब उन्होंने उस लकड़हारे को उसी जंगल की, उसी टूटी फूटी झोपड़ी में, उसी हाल में पाया।

उसे राजा के सामने दरबार में पेश किया गया। राजा ने उसकी अवस्था देखकर, बड़ी हैरानी से, उससे पूछा- भले आदमी! तुझे सौ एकड़ का चंदन का बाग दिया गया था। चंदन की तो एक ही लकड़ी की कीमत भी हजारों रुपए होती है। तब भी तूं वैसे के वैसा ही रहा? आखिर तूंने उस बाग का किया क्या?

लकड़हारा बोला- महाराज! मैंने उसकी लकड़ी का भी कोयला बना बनाकर बेच दिया।

राजा ने अपना सिर पीट लिया और कहा- मूर्ख! चंदन की लकड़ी का भी कोई कोयला बनाता है?

लोकेशानन्द कहता है कि हम भी उस लकड़हारे जैसे ही मूर्ख हैं। हम वही वही करते हैं, जो हम अभी तक करते आए हैं।

संत लाख कृपा करते हैं, कीमती से कीमती ज्ञान की बात बताते हैं, पर हम उन बातों की वास्तविक कीमत न जानने के कारण, उनका लाभ नहीं उठा पाते। हम भी उनका कोयला ही बनाते हैं।

Bhakt Ashish Tyagi Delhi: क्रपया ज्ञानीजन मेरे एक मन मे आ रहे विचार को मुझे समझाय।

भगवान राम विष्णु जी के अवतार थे या महाविष्णु जी के।

ओर ऐसा क़ बोला जाता है कि जो काम भगवान राम भी नही कर सकते थे वो कम राम नाम जाप हो जाता है।

क्रपया उचित जवाब दे । ओर बहस के पात्र ना बने।

आपको मेरा ह्दय से प्रड़ाम 🙏🙏

क्या आप यह जानते हैं कि विष्णु या महाविष्णु में अंतर क्या है।

क्या महा लगा लेने से कोई वस्तु विशालकाय हो जाती है।

यही मिथक टीवी में दिखाया जाता है

यह सत्य है ब्रह्मा विष्णु महेश यह भी पद है।

इस तरह की तमाम गणनाएं नेट पर मौजूद है।

देखो मेरा यह मानना है इस महा लगा देने से उस शक्ति का अर्थ हो जाता है निराकार से।

क्योंकि ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप निराकार ही है और आवश्यकता पड़ने पर वह साकार रूप में भी है।

मानव इतना शक्तिशाली है कि वह अपनी आराधनाओं से प्रार्थना उसे उस निराकार ब्रह्म को रूप धारण करने को बाध्य कर देता है।

और यह भी सत्य है कि मोक्ष हेतु निर्वाण हेतु हमको निराकार के अनुभव और ज्ञान होना चाहिए।

जहां तक मुझे समझाया गया कृष्ण के द्वारा की महा लगाने से वस्तु असीमित हो जाती है उसकी कोई सीमा नहीं होती है इसलिए उसको महा कह देते हैं।

यदि हम मात्र गणेश कहैं। तो साकार प्रतिमूर्ति है और साकार की सीमाएं होती है लेकिन निराकार अनंत होता है।

यदि हम महागणेश के हैं तो उस साकार के निराकार के उनके अर्थ है इसलिए उसको कथानक में आकार में बड़ा कर देते हैं।

सर्वस्व ब्रह्म सर्वत्व ब्रह्मा।

सृष्टि का कोई भी कण बिना ब्रह्म के नहीं है जहां तक हम सोच सकते हैं उसके आगे और पीछे ब्रह्म ही है।

राम नाम इतना अधिक लिया गया है कि यह सिद्ध हो चुका है।

यह अंतर्मुखी होने के एक माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है।

राम के लोगों ने कई अर्थ बताएं हैं और यह वास्तव में हमारे शरीर के अग्नि तत्व को इंगित करता है। क्योंकि जो इसका बीज मंत्र है वह अग्नि तत्व का मंत्र है।

मेरा तो यह भी मानना है यदि आप अपने नाम का जाप करें किसी भी शब्द का जाप करें तो उसमें समय लग सकता है क्योंकि शायद वह सिद्ध ना हुआ हो किंतु आप उसके द्वारा भी अंतर्मुखी हो सकते हैं।

क्योंकि अक्षर ब्रह्म।

साथ ही जो वेद महावाक्य का सार वाक्य है सर्व खलु इदम् ब्रह्म।

वह भी हमें यही बताता है और समझाता है।

रामकथा का सुनना या कहना रामनाम का जाप करना एक ही चीज है क्योंकि दोनों में आप का भाव भक्ति का होता है।

नवधा भक्ति में भी यह चीज देखी जा सकती है।

देखो विष्णु हमारी पैदा होने से लेकर मृत्यु तक के मालिक हैं लक्ष्मी उनकी पत्नी है क्योंकि लक्ष्मी का जो आवश्यकता है वह जीवित शरीर को ही होती है।

अत: मनुष्य रूप में अवतार लेने का कार्य कृष्ण का ही है विष्णु का ही है।

आपने पढ़ा होगा नर के साथ नारायण लिखा है यानी विष्णु का रूप लिखा है नर के साथ ब्रह्मा या शिव नहीं लिखा है।

हर कार्य के लिए एक शक्ति का निर्माण हुआ है जिसको की उस महामाया ने निर्मित किया जिसको हम महाकाली के रूप से जानते हैं। जो निराकार है।

जब मां काली जो साकार है अपने सभी दसों विद्धाओं को रूपों को समेट लेती है तो वह महाकाली बन जाती हैं।

एक बात और जब तक हमारा द्वैत पक्का नहीं होगा वह सिद्ध नहीं होगा तब तक हम अद्वैत को नहीं समझ सकते।

सनातन में इन दो विचारधाराओं को लेकर परस्पर टकराव होते रहते हैं जोकि वास्तव में कुछ हद तक मूर्खता को प्रदर्शित करते हैं।

जब सर्वस्व ब्रह्म सर्वत्र ब्रह्म है तो उससे छूटा क्या है।

अब देखो भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य। उनके मानने वाली आंख बंद करके इस बात को बिना अनुभव किए बिना जाने चिल्लाते रहते हैं।‌

उन्होंने यह बात क्यों बोला इस पर कोई जानने की कोशिश नहीं करता।

वही माधवाचार्य रामानुजम ने बोला जगत भी सत्य ब्रह्म ही सत्य।

और माधवाचार्य तो सब कुछ कुछ बता कर वहीं पर समाप्त कर दिया।

इन दोनों के मानने वालों के बीच में परस्पर विवाद होते रहते हैं।

लेकिन मेरे विचार से दोनों ने एक ही बात कही है अब यह हमारी सोच पर हैं कि हम उसके क्या अर्थ निकाले।


"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
 

 जय गुरूदेव । जय महाकाली

 
 
 

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