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मैं की में में |बूझो तो जानूं। ज्ञानी मैं मानूं।
मैं की में में
सनापुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
मैं ने जब पाया मैं को भी। पर नहीं मिला मैं किधर गया।
मैं छुप बैठा मैं ही मैं में। में में करते मैं गुजर गया।।
मैं मैं में में दोनों ही मैं। समझा मैं में यह मैं ही हूं।
यह मेरा मैं मैं ही निकला। संग में मैं था मैं जिधर गया।।
दास विपुल बकरी की मैं मैं। में में मैं मैं बन जाती कब।
गले छुरी चलती ही रहती। पर मेरा मैं अब किधर गया॥
अजब तमाशा दुनिया का है। है दास विपुल कुछ न समझे।
मैं मैं रहे न बाकी जग में। समझा जब मैं मैं गुजर गया॥
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