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Wednesday, August 14, 2019

प्रश्नों के उत्तर

 प्रश्नों के उत्तर

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

जी करे। ब्लाग के लेख पढ़ लो। अधिकतर समाधान मिल जायेंगे।

इंद्रियों के बन्द होने का अर्थ है। मन से अलग होना। यानि सिर्फ कार्य करना। उसको बुद्धि में मन मे संचित न होने देना।

जैसे किसी ने बातचीत में कुछ किस्सा बोला। यदि वह मुझसे सम्बंधित नही तो उस चितन क्यो करे।

यह कान से सुना। दिमाग मे नही गया।

किसी की सहायता को कर देना स्वतः। मन मे कुछ सोंच न आने देना।

मतलब इंद्रियों अनावश्यक सम्बन्ध मन से बन्द हो जाना।

जैसे भोजन मिला। जो मिला खाया। यह क्या सोंचे अच्छा बुरा।

भाई गणित है। जब दिमाग खाली ही नही रहेगा तो विचार कैसे आ पायेगे।

मन्त्र जप विचारों को आने रोक देता है।

बैंक बैलेंस की तरह शक्ति को संचित करता जाता है।

आवश्यकता पड़ने पर सहायक हो जाता है। हमें मालूम भी नही पड़ता।

अंत मे स्वतः विलीन होकर ध्यान में सहायक हो जाता है।

कारण यह है समय के साथ सारे मन्त्र नाम जप सब अनेको बार सिद्ध हो चुके है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post.html

शक्तिपात दीक्षा के बाद यह अस्त्र अपना जौहर  दिखा कर धीरे धीरे नष्ट हो जायेगे। बस इतना ध्यान रखो कि साधन की क्रिया में कर्म कर लो यदि आवेग हो उसको रोको मत। फिर पुनः साधन करो।

कोई भी संस्कार जिस भाव के कारण पैदा होता है। वह उसी भाव की क्रिया कर के ही बाहर निकलता है।

दीक्षा के बाद इनमे तेजी आ जाती है क्योकि एक तो जगत के क्रम और दूसरे क्रिया के संस्काररुपी कर्म। दोनो एक साथ तो अधिक महसूस होते है।

प्रभु जी, किसी धर्म या सम्प्रदाय के संतों महापुरषो पर केवल उस सम्प्रदाय या धर्म का अधिकार होता है या समस्त मानव जाति का

समस्त मानव जाति का। अब सन्त नापने के स्केल तो है नही। अतः सन्तो की भी श्रेणी बनाई जा सकती।

किंतु यह केवल सनातन और भारतीय सन्त ही समझते है।

ईसाई या मुस्लिम चूंकि संकुचन का ही पालन करते है। अतः वह वास्तविक सन्त नही धर्म प्रचारक ही होते है।

यह धारणा के कारण ही होता है। निराकार को कुछ नही। पर साकार को देव। यह धारणा के कारण।

जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी तीन मूरत वैसी।।

सघन धारणा कहा है।

अब यह वह सन्त जाने। मैं क्या बताऊँ। अब बोलो कृष्ण ने पहले mmstm क्यो नही बनवाई।

अब अमर महर्षि सप्त ऋषियों के सम्पर्क में थे। क्यो थे मैं कैसे बता सकता हूँ।

ईश्वर अलग अलग कार्य हेतु अलग अलग पर विलग लोगो का चयन करता है। अब उसकी मर्जी। जो है तो है।

वे फोटो नही खिंचवाते थे। इक्का दुक्का उनके आश्रम में होंगी।

क्योकि वे आत्मज्ञानी थे। वे जानते थे ये रूप उनका नही ये तो मिथ्या आभास है। मुझे भी फोटो खिंचवाने में आनन्द नही आता। पर मित्रो की प्रसन्नता हेतु खिंचवा लेता हूँ।

वही कुछ लोग रोज फेस बुक पर नेट पर अलग अलग पोज में ज्ञान के उपदेश डालते है।

अब आप सोंचे वह किंतने बड़े ज्ञानी पर किताबी।

यदि हमारे अंदर अपने सम्मान के प्रचार की अपनी फोटो डालने की पृवृती है तो हम निवृत्त कैसे हो सकते है।

हमें सब व्यर्थ कर्मो से दूरी बनाने का प्रयास करना चाहिए।

महाराज जी कहते है। जो खुद बन्धन में बंधा हो वह तुमको कैसे मुक्त कर सकता है।

एक तो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हो। दूसरे आत्मश्लाघा में बंधे हो।

अपने चित्र व्यर्थ डालना आत्मश्लाघा का अज्ञानता का ही द्योतक है।


मिच्छामि दुक्कड़म।

जो मेरे पास आकर बोले मुझे ईश्वर को जानना है उसके रहस्यों को जानना है जो चिंतित हो इसके लिए ढूंढने पर भी कोई नहीं मिल रहा

सर आपके द्वारा भेजी गयीं mmstm छोटी पुस्तक का सदुपयोग में कैसे करूं।  

किसको दूं कहां ढूंढूं।

https://freedhyan.blogspot.com

https://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.html?m=0

इस लिंक में जो विधि साधना की विपुल सर ने दी है वो ही पुस्तक में है समान है दोंनों

कोई अंतर नहीं

श्री कृष्ण भगवान  का प्रसाद है ये विधि जो कोई भी करेगा

उसे राह मिलेगी

उसे ईश प्राप्त होंगे

धन्यवाद

चलिए। बधाई हो। आपकी फोटो पर काम हो गया।

देखिये। आपको जो बोला है वह भी करती रहे। रोज रोज आपकी फोटो काम नही करेगी।


http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_34.html

जैसा सर्व विदित है कि बगलामुखी साधना दस महा विधायों में से एक है ।अतः उचित होगा कि उक्त साधना किसी समर्थ गुरू की रेख देख में वैदिक विधि के अन्तरगत् ही शुरू करें। दूसरा उक्त साधना का मुख्य उदेशय अपने में बसे शत्रुओ यानी काम क्रोध मद लोभ मत्सर के शीघ्र शमन हेतु करे ताकि ईश प्राप्ति की ओर मार्ग प्रष्स्त हो ,नाकि बाहरी शत्रुओं हेतु। यह अलग बात  कि उक्त साधना करने वाले के स्वयं ओर उनसे रक्षित लोगो के शत्रु भी माँ की कृपा से स्तम्भित हो जाते हैं। हाँ साधक का ध्येय सदैव जन कल्याण राष्ट कल्याण ही होना चाहिये। जैसा राष्ट गुरू, स्वामी  महाराज जी दतिया ने सन् 1962 में चीन को स्तम्भित करने हेतु किया था जिस से चीन कुछ भूभाग हठपने के बाद आज तक एक ईंच भूमि नही हथिया पाया है।यह महा षुरूषो के संकल्प से ही सम्भव है।

इस हेतु उचित होगा कि साधक दतिया मध्य प्रदेश झाँसी के पास  माता पीताम्बरा पीठ से इस साधना हेतु उचित मार्ग दर्शन प्रात कर लें।इसके अतिरिक्त् कांगडा या हरिद्वार  में बगुलामुखी पीठ या अन्य समर्थ गुरूओ से साधना के मर्म जान कर ही साधना शुरू करे।

एक ओर स्थान फैजाबाद से 22कि मी पहले मुबाकरगंज में अनादी आस्था पीठ भी है जहाँ से मार्ग दर्शन प्रात किया जा सकता है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_13.html

आदमी कैसे देखता है आंख से। मतलब क्या आंख देखती है। ठीक है।

एक व्यक्ति जिसे मृत्य बोला जाता है उसके आंख तो होती है तो वह क्यो नही देखता??

तो प्रश्न है कि कौन देखता है।

आंख के माध्यम से कौन देखता है।

मतलब देखने का कर्म कौन रहा है। आंख पर कौन देख रहा है?? आत्मा।

जब वह निकल गई शरीर एक लकड़ी का टुकड़ा। जो धू धू कर जल उठता है।

मतलब साफ कार्य करने के पीछे किसका सहयोग। आत्मा का। यह साकार शरीर उस निराकार आत्मा के सहयोग से कुछ कर पाता है। तो कारक कौन।

कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।

जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है। ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही मिलती। मोक्ष नही मिलता।

नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना और अनुभव करना ज्ञान है।

शरीर सिर्फ माध्यम है।

आत्मा तो शुध्द चैतन्य ही होती है

उसके ऊपर लेयर के रूप में चित्त की तरंगें होती हैं

तब ही  तो परमात्मा को कर्ता कहते है।

सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।

कर्ता

भर्ता

हर्ता

सब परमात्मा ही।

क्यो

क्योकि यह शरीर पदार्थ है  और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।

जब सब अंत ऊर्जा। तो हम तुम कहाँ।

सत्य है। लोगो को समझाने के लिए कर्ता लिखना पड़ता है।

मतलब एक बार ईश की ऊर्जा की आवृत्ति तक छू कर भी आ गए। तो सब स्पष्ट हो जाता है।

यह उच्चतम अवस्था है। बंदा बैरागी और तमाम सिख गुरुओ के साथ औरंगजेब ने क्या नही किया। पर उन्होंने अपना धर्म नही बदला।

रमन महृषि का ऑपरेशन बिना एनस्थीसिया के हुआ था।

वास्तव में जो वहाँ स्तिथ हो जाते है वे ही इस अवस्था मे पहुचते है।

आम आत्मज्ञानी। वहाँ गए कुछ पल। फिर वापिस। यही आना जाना लगा रहता है।

कलियुग में सेवा ही सबसे बड़ा कर्म माना जाता है।

प्रायः बड़े बड़े गुरुओ के ऑपरेशन एनस्थीसिया देकर ही होते थे है और रहेगे।

इस समय मातृ शक्ति की आराधना पूरे विश्व मे होती है। अतः संकल्पों के कारण इस रूप में ईश शक्ति जागृत होती है। अतः ईश की माँ के रूप में पूजा करनी चाहिए। देवी की आराधना मन्त्र नाम जप कैसे भी करना बेहतर होगा।

इस जन्म में भी मनुष्य किसी न किसी बहाने अपने पूर्व साथियों से मिल जाता है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/1.html

प्रभु के मार्ग में बनिया बुद्धि नहीं चलती। लाभ हानि नही देखते।दोनों का महत्व है।

साधना एकान्तता का परिचायक है। अंदर की ओर ले जाती है।

सत्संग वाहीक वातावरण से होनेवाले दुष्प्रभावों से दूर रखता है।

अतः दोनो आवश्यक है।

क्योकि संगति ही  सत्मार्ग या कुमार्ग पर ले जाती है। हमे दिखाती है।

साधना मार्ग पर बढ़ने का इंजन है। और सत्संग मार्ग।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_17.html

नवरात्रि आ रही है। शक्ति आराधना हेतु इन मन्त्रो को किया जा सकता है।

उठकर जप पर बैठ जाया करो।

मित्रो यदि नींद नही आती है  तो समय का सदुपयोग करे। हाथ पैर धोकर अपने बिस्तर पर ही आसन लगाकर मन्त्र जप साधन साधना जो भी मन करे। आरम्भ कर दे। कुछ समय बाद स्वतः नीद आ जायेगी।

पर याद रहे मोबाइल न देखे। यह नींद को ध्यान को बहुत भटकाती है।

यार अपना तो कोई समय ही नही। जब मूड बना तो समय बना।

देखो रात्रि भोजन 7.30 तक खा लो। 9 बजे सोने के पहले ध्यान में बैठ जाओ। जब नींद आ जाये। ध्यान करते करते ही सो जाओ। रात को यदि नींद खुल जाए तो फिर बैठ जाओ।

कोई बात नही जब भी सोओ।

ये ही बात मैं समझाने का प्रयास करता हूँ। निराकार ही वास्तविक रूप। इसका अनुभव होने के बाद साकार निराकार का भेद स्पष्ट होता है।

सारे जीव सब कुछ मात्र क्षणिक ही प्रतीत होते है। वास्तव में यह ही ब्रह्म ज्ञान का अंतिम ज्ञान है। जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य।

परन्तु इस स्थिति के लोग किंतने। लगभग शून्य।

बीच की स्थिति के कुछ अधिक तो वे निराकार का ढोल पीटते है।

दूसरो सुख से सुख नही मिलता उसी बात दूसरो के ज्ञान से तुमको मुक्ति कैसे मिलेगी।

नही दुनिया मे किंतने लोग बिना अनुभव के निराकार चिल्लाते है चूंकि कही पढा गुरु जी ने बोला। अब पूछो तो गुरु जी को उनके गुरु ने बोला। यही साकार का।

अब देखो अनीश्वरवादी निराकार उपासक बुध्द ने चूंकि ईश्वर नही यह माना और उस अवस्था मे अपनी प्रारंभिक शिक्षा यानि दुःख को याद किया। उनको दुःख का एहसास हुआ। तो लिखा दुःख है। और उनकी शिक्षा का आरम्भ जीवन दुःखों से भरा है। इससे कैसे निजासत पाए। यहाँ से आरम्भ हुई।

अब उनके चेले भी यही माला जपते है।

परन्तु सनातन साकार से यहाँ पहुंचनेवाले आनन्दमय हो जाते है सुख दुख से ऊपर आनन्दमय कोष की बात करते है।

तो वे समझाते है यहाँ तक कैसे पहुँचो।

तो कुछ यह माला जपते है।

लक्ष्य एक पर धारणाएं अलग एक दाएं हाथ चलो । दूसरा बाएं हाथ चलो।

पर अंत एक।

यही फर्क हो जाता है। ज्ञानियों के व्याख्यानों में।

वसिष्ठ के उपदेश की बात एक है। पर हर बुद्धि वाला उसको अपने तरीके बताएगा और समझेगा।

और यदि रामपाल होगा तो अंत मे कबीर डाल कर व्याख्या कर देगा।

ओशो उस आनन्द को सेक्स से जोड़ देगा।

पर बोलना इस लिए आवश्यक हो गया। क्योकि सदस्य अपनी अपनी सोंच को लेकर लिखना चालू करेगे। तो व्यर्थ का विवाद खड़ा हो सकता है।

अतः भाई सब सही। क्योकि सबका स्तर और सोंच अलग अलग।

यह पोस्ट उस समय की लगती है जब शक्तिपात के बाद राम जी ध्यान समाधि में ब्रह्मांड की उतपति देखी तो वसिष्ठ से प्रश किये। तब वसिष्ठ ने उत्तर दिए।

यह मैं समझता हूँ। बाकी मैंने पढ़ी नही है।

पर प्रश्न से मुझे प्रसन्नता हुई कि यही प्रश्न है जो मैने अनुभव कर ब्रह्मांड उत्तपत्ति में लिखा। तो फिर क्या मेरा अनुभव सही था। क्योकि राम जी भी यही जिज्ञासा कर रहे है।

जय श्री राम।

भूताकाश यह दृश्य जगत।

चिदाकाश जहाँ हमारी आत्मा मन बुद्धि अहंकार सोंच इत्यादि की दुनिया है। यह सब ऊर्जा के ही विभिन्न आयाम और रूप है।

मित्र गुरु है कहाँ अधिकतर दुकानदार। बिना परम्परा के गुरु। बाकी अधकचरे।

सृष्टि उत्तपत्ति के बाद जब मानव की उत्तपत्ति हुई तब मानव ज्ञान हेतु रुद्र ने ही निराकार दुर्गा की इच्छा से शिव का रूप लिया और स्वयं पहली शिष्या के रूप में पार्वती का रूप धारण किया यह सब साकार ही थे।

फिर शिव ने अन्य ऋषियों को ज्ञान देकर गुरु नियुक्त किया।

कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।

जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है। ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही मिलती। मोक्ष नही मिलता।

नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना और अनुभव करना ज्ञान है।

तब ही ही तो परमात्मा को कर्ता कहते है।

सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।

कर्ता

भर्ता

हर्ता

सब परमात्मा ही।

क्यो

क्योकि यह शरीर पदार्थ है  और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।

सर मैं आपको गलत नही कह रहा हूँ। बस अपना अनुभव लिखा। पढा बहुत कम।

मतलब

निराकार कृष्ण सुप्त ऊर्जा

महामाया का पर्दा

इसका कम्पन

जागृत ऊर्जा बनी निराकार दुर्गा

ब्रह्म बने

रुद्र बने

विष्णु बने

शिव बने

गायत्री निर्माण

वेद ज्ञान

मन्त्र बने आराधना बनी

विभिन शक्तियां अलग अलग दिखी

देव बने

साकार हुए ये सब

मानव की कहानी आरम्भ।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_21.html

मेरे पास कुछ ऐसे लोग व्हाट्सएप ग्रुप और व्यक्तिगत भी आते है जो यू ट्यूब को देखकर चक्र साधना, कुण्डलनी जागरण, या क्रिया योग या अन्य कुछ आरंभ करते है। कुछ दिनों बाद अधिकतर लोग आज्ञा चक्र या कनपटी पर तीव्र दर्द, कमर में दर्द, अत्याधिक पसीना, खुजली, दाने इत्यादि की शिकायत करते है। कोई कोई तो अनुभव से भयभीत होकर सलाह मागने लगता है।


परमपिता परमेश्वर की कृपा से इस संसार में हर जीव की उत्पत्ति बीज के द्वारा ही होती है चाहे वह पेड़-पौधे हो, कीडे – मकोडे, जानवर या फिर मनुष्य योनी। चित्त में भी कर्मफल बीज के रूप संचित होते हैं। यानी बीज को जीवन की उत्पत्ति का कारक माना गया है।बीज मंत्र भी कुछ इस तरह ही कार्य करते है। हिन्दू धरम में सभी देवी-देवताओं के सम्पूर्ण मन्त्रों के प्रतिनिधित्व करने वाले शब्द को बीज मंत्र कहा गया है।


वस्तुतः बीजमंत्रों के अक्षर उनकी गूढ़ शक्तियों के संकेत होते हैं। इनमें से प्रत्येक की स्वतंत्र एवं दिव्य शक्ति होती है। और यह समग्र शक्ति मिलकर समवेत रूप में किसी एक देवता के स्वरूप का संकेत देती है। जैसे बरगद के बीज को बोने और सींचने के बाद वह वट वृक्ष के रूप में प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार बीजमंत्र भी जप एवं अनुष्ठान के बाद अपने देवता का साक्षात्कार करा देता है।


अब आप कुछ समझे होंगे। वास्तव में ध्यान चाहे वह कोई भी विधि हो। त्राटक, विपश्यना, शब्द, नाद, स्पर्श योग या मन्त्र जप या और कुछ। इनके द्वारा हमारी ऊर्जा बढ़ती है। आप जानते है शक्ति मतलब ऊर्जा। अब होता यह है  यदि हमारे शरीर को इस प्रकार की ऊर्जा सहने की आदत नही होती तो हमको रोग या शारीरिक कष्ट हो सकते है।


आप जानते है ऊर्जा मतलब hn h is plank constant n is frequency. इस कारण विभिन्न विधियों और मन्त्रो के अलग अलग ऊर्जा के आयाम अलग आवृत्तियों के कारण हो जाते है।

उदाहरण आपने किसी विशेष चक्र पर उसके बीज मंत्र से ध्यान किया। उस ऊर्जायित आयाम के कारण चक्र के बीज मंत्र उद्देलित हो गए। अब चक्र की एक विशिष्ट ऊर्जा निकली। उस चक्र के ऊपर नीचे का चक्र तो जागृत नही तो यह ऊर्जा कहा से निकलेगी। रास्ता न मिलने पर यह रोग पैदा कर सकता है जो असाध्य भी हो सकता है।


यदि आपके चक्र कुण्डलनी जागरण के पश्चात मूलाधार को भेदकर धीरे धीरे ऊपर के चक्रो में आते है तो यह ऊर्जा नीचे के चक्रो से निकल जाती है और शरीर मे रोग नही होता।

अब यदि बिना कुण्डलनी जगे चक्रो के बीज मंत्र उर्जित हो गए तो भगवान मालिक।


वही समर्थ गुरु अपनी ऊर्जा से शिष्य की अधिक ऊर्जा को नियंत्रित कर सकता है।

अब मान लीजिए आपने त्राटक किया वह भी बिंदु या रंग और जो निराकार है। तो आपके आज्ञा चक्र की ऊर्जा बढ़ी। यदि वह बाहर नही निकल पाई तो वह आपके मस्तिष्क के न्यूरॉन्स को प्रभावित कर सकती है। ये न्यूरॉन्स बहुत कोमल और याददाश्त को गुत्थियों में संग्रहित करते है। इस कारण आपका मस्तिष्क संतुलन बिगड़ सकता है। आप जिद्दी या कुछ हद तक पागल भी हो सकते है।

इस सबका एक ही उपचार है कि प्रणायाम के द्वारा अपनी अतिरिक्त ऊर्जा को श्वास से बाहर निकाले और आसनों द्वारा शरीर मजबूत करे।

यदि यह नही कर सकते हो किसी साकार मन्त्र का जप करे। यह जाप सुनार के हथौड़े की चोट कर आपके शरीर और चक्रो को कम्पन देकर उन्हें ऊर्जा सहने लायक बनाता है।


समस्या वहाँ अधिक आती है जो निराकार विधियों से ध्यान करता है। क्योंकि निराकार आकार रहित होता है तो आपकी ऊर्जा जो ब्रह्म शक्ति का रुप है वह आपको किस रूप में किस प्रकार सहायता करेगी।


वही साकार मन्त्र जप और विधियाँ उस ब्रह्म शक्ति को उस मन्त्र के सगुण रूप में आने को विवश हो जाती है। सहायता करने के अतिरिक्त वह उस साकार और मन्त्र संकल्पना का रूप धारण कर दर्शन देकर अतिरिक्त ऊर्जा को शारीरिक ऊर्जा में समाहित कर देती है।

आप देखे माउंट आबू में मस्तिष्क रोगी अधिकतर पाए है। जो नही वह किसी हद तक झक्की हो जाते है। कारण वहाँ जो है वह कुण्डलनी शक्ति मानते नहीं। गुरु मानते नही। लाल प्रकाश जो मूलाधार का रंग है उस प्रकाश पर निराकार त्राटक करवाते है। पति पत्नी के बीच सम्बन्ध से जो ऊर्जा निकलती है उसे रोककर दोनो को भाई बहन बना देते है। तो ऊर्जा किधर जाए।


लिखने को हर विधि पर हैं पर संक्षेप में आप कोई भी विधि यदि साकार सगुण करते है तो खतरा कम। दूसरे सबसे सरल सहज आसान है मन्त्र जप। नाम जप। आपको जो इष्ट अच्छा लगे उसका मन्त्र जप करे। सघन सतत निरन्तर। यह साकार मन्त्र आपको आपके गुरू से लेकर निराकार तक की यात्राओं के अतिरिक्त ब्रह्म ज्ञान भी दे जाएगा। बस अपने इष्ट को समर्पित होने का प्रयास करो।

जय महाकाली। जय गुरुदेव।


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

साधक का भोजन और भोग

 साधक का भोजन और भोग 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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इसके आगे मैं यह जोडना चाहता हूं। सँस्कृत के विद्वान बताये। क्या शंकराचार्य के आत्म षट्कम में यह जोड़ा जा सकता है।

न यञो न अग्निर्न काष्ठ समिधा,

नच सूर्य तेजो ना दीप्त न देवा।

नच क्षुधा ना जलं पिपाषा

चिदानन्द रूप: शिवोहं शिवोहम।

*1. सुबह उठ कर कैसा पानी पीना चाहिए*?


    उत्तर -     हल्का गर्म


*2.  पानी पीने का क्या तरीका होता है*?


    उत्तर -    सिप सिप करके व नीचे बैठ कर


*3. खाना कितनी बार चबाना चाहिए*?


     उत्तर. -    32 बार


*4.  पेट भर कर खाना कब खाना चाहिए*?


     उत्तर. -     सुबह


*5.  सुबह का नाश्ता कब तक खा लेना चाहिए*?


     उत्तर. -    सूरज निकलने के ढाई घण्टे तक


*6.  सुबह खाने के साथ क्या पीना चाहिए*?

    

     उत्तर. -     जूस


*7.  दोपहर को खाने के साथ क्या पीना चाहिए*?


    उत्तर. -     लस्सी / छाछ


*8.  रात को खाने के साथ क्या पीना चाहिए*?


    उत्तर. -     दूध


*9.  खट्टे फल किस समय नही खाने चाहिए*?


    उत्तर. -     रात को


*10. आईसक्रीम कब खानी चाहिए*?


       उत्तर. -      कभी नही


*11. फ्रिज़ से निकाली हुई चीज कितनी देर बाद*

      *खानी चाहिए*?


      उत्तर. -    1 घण्टे बाद


*12. क्या कोल्ड ड्रिंक पीना चाहिए*?


       उत्तर. -      नहीं


*13.  बना हुआ खाना कितनी देर बाद तक खा*

      *लेना चाहिए*?


      उत्तर. -     40 मिनट


*14.  रात को कितना खाना खाना चाहिए*?


       उत्तर. -    न के बराबर


*15.  रात का खाना किस समय कर लेना चाहिए*?


      उत्तर. -     सूरज छिपने से पहले


*16. पानी खाना खाने से कितने समय पहले*

     *पी सकते हैं*?


      उत्तर. -     48 मिनट


*17.  क्या रात को लस्सी पी सकते हैं*?


     उत्तर. -     नहीं 


*18.  सुबह नाश्ते के बाद क्या करना चाहिए*?


       उत्तर. -     काम


*19. दोपहर को खाना खाने के बाद क्या करना*

       *चाहिए*?


       उत्तर. -     आराम


*20. रात को खाना खाने के बाद क्या करना*

     *चाहिए*?


      उत्तर. -    500 कदम चलना चाहिए


*21. खाना खाने के बाद हमेशा क्या करना चाहिए*?


      उत्तर. -     वज्रासन


*22. खाना खाने के बाद वज्रासन कितनी देर*

      *करना चाहिए.*?

    

      उत्तर. -     5 -10 मिनट


*23.  सुबह उठ कर आखों मे क्या डालना चाहिए*?


      उत्तर. -    ठंडा पानी।


*24.  रात को किस समय तक सो जाना चाहिए*?


      उत्तर. -     9 - 10 बजे तक


*25. तीन जहर के नाम बताओ*?


      उत्तर.-    चीनी , मैदा , सफेद नमक


*26. दोपहर को सब्जी मे क्या डाल कर खाना*

      *चाहिए*?


      उत्तर. -     अजवायन


*27.  क्या रात को सलाद खानी चाहिए*?


      उत्तर. -     नहीं


*28. खाना हमेशा कैसे खाना चाहिए*?


      उत्तर. -     नीचे बैठकर व खूब चबाकर


*29. चाय कब पीनी चाहिए*?


      उत्तर. -     कभी नहीं


*30. दूध मे क्या डाल कर पीना चाहिए*?


      उत्तर. -    हल्दी


*31.  दूध में हल्दी डालकर क्यों पीनी चाहिए*?


      उत्तर. -    कैंसर ना हो इसलिए


*32. कौन सी चिकित्सा पद्धति ठीक है*?


      उत्तर. -   आयुर्वेद


*33. सोने के बर्तन का पानी कब पीना चाहिए*?


      उत्तर. -   अक्टूबर से मार्च (सर्दियों में)


*34. ताम्बे के बर्तन का पानी कब पीना चाहिए*?


      उत्तर. -    जून से सितम्बर(वर्षा ऋतु)


*35. मिट्टी के घड़े का पानी कब पीना चाहिए*?


      उत्तर. -  मार्च से जून (गर्मियों में)


*36. सुबह का पानी कितना पीना चाहिए*?


      उत्तर. -  कम से कम 2 - 3 गिलास।


*37. सुबह कब उठना चाहिए*?


       उत्तर. -  सूरज निकलने से डेढ़ घण्टा पहले।


*38.इस मैसेज को कितने ग्रुप में भेजना चाहिए ।*

        उत्तर . सभी ग्रुपो में!

*39.क्या पुण्य के कार्य में देर* *करनी चाहिए।*

उत्तर. नहीं।

यदि आप किसी तालाब के किनारे बैठे हों । वहीँ आसपास कोई बगुला मछलियों को पकड़ कर खा रहा हो ।

अगर भूखे बगुले को उड़ाया तो पाप लगेगा उससे उसका भोजन छिनने का ।

यदि उसे भोजन करने दिया तो आपकी आँखों के सामने किसी की जान जा रही है और आप देख रहे हैं ये पाप लगेगा ।

अगर आप वहाँ से पलायन किये तो भी कर्तव्य विमुख होने का पाप लगेगा ।


ऐसी परिस्तिथि में आपका क्या कर्तव्य बनेगा ?


स्वम् की सूझ बूझ से ज्ञानीजन उत्तर देवें ।

मेरा उत्तर

देखो बगुला घास तो खाता नही। यदि वह श्रम कर अपना भोजन खा रहा है तो प्रकृति का विधान है। आपको कोई हक नही मछली को बचाकर बगुले को भूखा रखे। यह कर्म वह नियमानुसार कर रहा है।

जहाँ पर अपने मूल स्वभाव को बदल कर हिंसा हो वह पाप है। जैसे

मनुष्य के पंजे नाखून मांसभक्षी नही। अतः मांस भक्षण पाप है  परंतु सिंह को प्रकृति ने दूसरे को मार  कर ही खाने का आदेश दिया है तो सिंह हिंसा नही अपना कर्म कर रहा है।

स्वभाविक नही प्रकृतिक स्वभाविक

अपने आंखों के सामने हो रही मछलियों की रक्षा करनी चाहिए

पर पृकृति के विपरीत जाकर क्या हम बगुले को भूखा तो नही मार देंगे।

किसी का भोजन छीनना क्या उचित है।

चलो एक विषय मिला हिंसा अहिंसा और रक्षा। अब इस पर लेख लिखा जाएगा।

नही हमे हिंसा समझनी होगी।

प्रतीक्षा करो लेख की। अब और लोग। सूक्ष्म रूप में अनाज भी जीव है  तो क्या हम भूखे रहे।

जैसे बचपन में मुझे काली चींटी अच्छी लगती थी क्योकि वह काटती नही थी। लाल चींटी बहुत जोर से काटती थी। अतः मक्खी को मारकर काली चींटी के बिलों में सींक से घुसेड़ा करता था। मतलब चींटी को भी आलसी बनाता था।

याद आता है झींगुर भी मारता था। उनकी लंबी मूछ पकड़कर खेला करता था।

बचपन मे अनजाने में बहुत हत्याएं की। कॉकरोच को भी चप्पल से मारने का फैशन था।

है प्रभु। यह शैतान टिल्लू। अब इतना बड़ा हो गया।

अंतिम प्रभु मिलन यणि मोक्ष हेतु सत्व गुण भी सबसे बड़ी रुकावट है। पर इसमें यह अच्छाई है कि यह समय आने पर स्वयम विलीन हो जाता है।

पर फिर हिंसा शब्द क्यो बना। यह चिंतन का विषय है।

लगभग सभी इसी तल पर जीते है। अतः हिंसा अहिंसा का बहुत महत्व है।

कई विद्वानों और संतों का ऐसा मत है कि विष्णु के 24 अवतारों में मानव शरीर की रचना का रहस्य छुपा है। शास्त्रों ने मानव शरीर की रचना 24 तत्वों से जुड़ी बताई है। ये 24 तत्व ही 24 अवतारों के प्रतीक हैं।

क्या हैं ये 24 तत्व: माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां(आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां(गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) तीन अंहकार(सत, रज, तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध)पांच तत्व(धरती, आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल है इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।

आप ने मुझे मान सरोवर का पवित्र जल दिया। मैं उनका आभारी रहूंगा।

यह सब माँ काली की और गुरू महाराज की कृपा है कि कितनो की दया इस ग्रुप को मिल रही है।

माँ का आशीष रहेगा तो महावतार बाबा के भी दर्शन हो जायेगे।

मैं समझता हूँ कि इस जल को प्रतिदिन एक बूंद प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए। शिव के जल को शिव को क्या भेंट करना।

मैं तो प्रसाद रूप में स्वयम ही पीना पसन्द करूंगा।

जय शिव शंकर।

जय भोले नाथ।

सही बताऊं हवन की राख। कपूर का अवशेष ईश का चढ़ावा तो मैं स्वयम प्रसाद रूप में खा  लेता हूँ।

उसको क्या दूँ जो सबको देता है। जो दाता है वह ही देता है। मैं तो भिखारी।

अपने मन को इंद्रियों के माध्यम से व्यक्त करना है कर्म। इसमें हमारी बुद्धि भी सम्मिलित होती है।

अपने चित्त में संचित संस्कारो को क्रिया के माध्यम बिना बुद्धि का उपयोग किये स्वतः होने देना क्रिया।

कर्म हमारे चित्त में संस्कार संचित करता है।

क्रिया हमारे चित्त के संस्कार नष्ट करती है।

ध्यान देनेवाली बात है यदि क्रिया में बुद्धि या मन को लगाया तो यह कर्म बन जाती है।

अतः कर्म में लिपप्ता।

क्रिया में नही।

कर्म हमे गिरा सकते है।

क्रिया हमे उठाने का प्रयास करती है।

कर्म सुप्त मनुष्य का कार्य है।

क्रिया जागृत मनुष्य को ही होती है।

तुम महानात्मा दूसरो को भरम में डालोगे। खुद भरम ने नही आओगे।

एक बात समझो यदि क्रिया के प्रति झुकाव हुआ या मन मे यह भावना आई कि यह क्रिया हो तो वह कर्म बन जाती है। मतलब क्रिया द्वारा संस्कार नष्ट होने की जगह वह क्रिया का अकर्म फिर कर्म बन संस्कार संचित कर देता है।

मेरे एक मित्र है ग्रुप सदस्य है उनका आसान ऊपर उठ जाता था। वह डर कर मेरे पास आये अब ठीक है। उनकी शक्तिपात दीक्षा करवा दी अब मस्त है।

देख जाए तो यह एक सिद्धि है। अब मान लो यह साधन में हुई। पर तुमको अच्छा लगा तुमने फिर यह करने की इच्छा की तो फिर यह हो गया। अब होता क्या है इसी प्रकार अन्य सिद्धियां होती है जो संस्कार पैदा कर देती है और सिद्धिप्राप्त मनुष्य मुक्त नही हो पाता है क्योकि सिद्धि रूपी संस्कार गहरे रूप में संचित हो जाते है।

अतः मुक्ति हेतु उनको कोई योग्य शिष्य ढूढना पड़ता है जिसको सारी सिद्धि विद्या प्रदान के अपने संस्कार को नष्ट कर तब उनको मुक्ति मिले।

अतः मैं कहता हूँ मार्ग में सिद्धि इत्यादि स्वर्ण के टुकड़े है। अब बोझ तो बोझ चाहे पत्थर हो या हीरा। रास्ते मे चलने में रुकावट तो डालेगा ही।

अतः अपने संस्कारो को नष्ट होने दो स्वतः। उसमें दखल मत करो। स्वतः सिद्धियां आ सकती है आने दो कुछ अनुभव देकर चली जायेगी। जाने दो। उनके पीछे भागने से पतन होने की संभावना अधिक है उन्नति होने की कम।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

पहली बात जो आपसे बोला था। क्या आप कर रही है।

दूसरे अपने गुरूमंत्र को जाप कर कर्म करते समय निवेदन करे कि अभी मत होओ। कुछ बार बोले तो यह बन्द हो जाएगी।

यही होता निष्काम कर्म। और यही पातञ्जलि के द्वेतीय सूत्र को समझाता है। कि वह कर्म जब निष्काम होगा तो वह कर्म होते हुए भी करता को संस्कार न देगा तो वह वृत्ति को नही बनेगा।

मतलब। चित्त में वृत्ति का निरोध। यानि वृत्ति नही आई।

अपने मन को इंद्रियों के माध्यम से व्यक्त करना है कर्म। इसमें हमारी बुद्धि भी सम्मिलित होती है।

अपने चित्त में संचित संस्कारो को क्रिया के माध्यम बिना बुद्धि का उपयोग किये स्वतः होने देना क्रिया।

कर्म हमारे चित्त में संस्कार संचित करता है।

क्रिया हमारे चित्त के संस्कार नष्ट करती है।

ध्यान देनेवाली बात है यदि क्रिया में बुद्धि या मन को लगाया तो यह कर्म बन जाती है।

अतः कर्म में लिपप्ता।

क्रिया में नही।

कर्म हमे गिरा सकते है।

क्रिया हमे उठाने का प्रयास करती है।

कर्म सुप्त मनुष्य का कार्य है।

क्रिया जागृत मनुष्य को ही होती है।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

यही होता निष्काम कर्म। और यही पातञ्जलि के द्वेतीय सूत्र को समझाता है। कि वह कर्म जब निष्काम होगा तो वह कर्म होते हुए भी करता को संस्कार न देगा तो वह वृत्ति को नही बनेगा।

मतलब। चित्त में वृत्ति का निरोध। यानि वृत्ति नही आई।

क्योकि मनुष्य की बुद्धि मन के नीचे चली जाती है अतः राह कठिन प्रतीत होती है।

यही बात है कि मनुष्य आलस्य और निष्काम कर्म में भेद नही कर पाता।

सभी इंद्रियां खुली है और कुछ करने का मन नही वह आलस्य।

जब हमारी इंद्रियां बन्द हो जाये। मन मे तरंग न हो तब यदि कुछ न करने की इच्छा वैराग्य माना जा सकता है।

अज्ञानी के लिए फल ही कर्म हेतु प्रेरित करता है।

ज्ञानी सिर्फ प्रभु आदेश और प्रकृति का नियम समझ कर बिना फल की सोंचे पूरे उत्साह से कर्म करता है।

भगवान श्री कृष्ण ने इसी लिए योग की पहिचान दी है। कर्मेशु कौशलम। मतलब जो अपने निर्धारित कर्म को बिना फल की सोचे पूरे उत्साह से करे। वो योगी के लक्षण है।

सर कलियुग है सोंच सही हो ही नही सकती। पर मन्त्रो में वह शक्ति है कि रावण को राम बना दे। कंस को कृष्ण बना दे।

अतः जो इष्ट देव अच्छा लगे। मन्त्र नाम अच्छा लगे जुट जाओ।

हा पहले mmstm कर लो। यह बेहद सहायक होता है।

क्या आपने mmstm किया।

वृत्तियों का दमन बेहद कठिन कार्य होता है। इसको गुरू प्रददत साधन और बाकी समय मन्त्र जप से किया जा सकता है। प्रणायाम भी इसमें सहायक होता है। और कोई मार्ग नही।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

कम्बल चोर और बृक्ष त्रिवेणी

 कम्बल चोर और बृक्ष त्रिवेणी

 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

तर्क वो करे जो विषय का पूर्ण जानकार हो।

तर्क का विषय चाहे कुछ भी हो भाषा मर्यादित रहे।

जब तर्क चले कोई अन्य सदस्य बीच में रोक टोक न करे।

तर्क में यदि किसी धर्म, संप्रदाय, भाषा, व्यक्ति पर हो तो जानकार ही बोले।

किसी के गुरु को लेकर तर्क करने से बचे जब तक आवश्यक न हो

शब्द और पोस्ट ज्यादा न हो कम से कम शब्द और अनुकरणीय शब्दो का ही प्रयोग करे।

पुस्तक आधारित तर्क और अनुभव आधारित तर्क एक साथ न हो अर्थात या तो तर्क पुस्तक आधारित हो या अनुभव आधारित।

अनुभव आधारित तर्क ही अधिकतम मान्य होंगे,

तर्क का उद्देश्य विद्वत्ता साबित करना न हो अपितु कल्याण की भावना हो।

मित्र स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज। गूगल में डालो। मिल जाएगा।


मित्रो। कल मेरे एक ग्रुप सदस्य मित्र की पत्नी को विगत चार दिनों से साधना के समय कोई सुंदर सी वृद्ध स्त्री पास आकर बैठ जाती थी। मेरे कथनानुसार बात करने कल रात पर वह स्त्री देवी अष्टभुजा का रूप धारण कर काफी देर तक लीला करती रही। और भी कुछ हुआ। साक्षात प्रसाद का भी प्रदान हुआ।

निराकार वाले ज्ञानी अभी भी कहेंगे। ईश तो निराकार ही है।

उन ज्ञानियों को गीता का यदा यदाहि धर्मस्य श्लोक समझ लेना चाहिए जो साफ साफ कहता है। मैं अनिको शरीर धारण कर सन्तो की रक्षा करता हूँ।

जय माता दी। जय गुरुदेव।

भक्त की श्रद्धा mmstm में विश्वास ने आज एक और मील का खम्भा गाड़ दिया।

जय हो सत्य सनातन

जय हो सनातन शक्ति।

ग्रुप के अन्य सदस्य यदि चाहे तो अपनी अनुभूति शेयर कर सकते है ताकि अन्य को भी प्रेरणा मिले।

निवेदन है अब  कुछ श्रीमद्भगवद्गीता पर भी व्याख्या प्रस्तुत करें।

एक दिन फकीर के घर रात चोर घुसे। घर में कुछ भी न था।

सिर्फ एक कंबल था, जो फकीर ओढ़े लेटा हुआ था।

सर्द रात, फकीर रोने लगा, क्योंकि घर में चोर आएं और चुराने को कुछ नहीं है, इस पीड़ा से रोने लगा।


उसकी सिसकियां सुन कर चोरों ने पूछा कि भई क्यों रोते हो?

फकीर बोला कि आप आए थे - जीवन में पहली दफा,

यह सौभाग्य तुमने दिया! मुझ फकीर को भी यह मौका दिया!

लोग फकीरों के यहां चोरी करने नहीं जाते, सम्राटों के यहां जाते हैं।

तुम चोरी करने क्या आए, तुमने मुझे सम्राट बना दिया।

 

ऐसा सौभाग्य! लेकिन फिर मेरी आंखें आंसुओ से भर गई हैं,

सिसकियां निकल गईं,

क्योंकि घर में कुछ है नहीं।

तुम अगर जरा दो दिन पहले खबर कर देते तो मैं इंतजाम कर रखता

दो—चार दिन का समय होता तो कुछ न कुछ मांग—तूंग कर इकट्ठा कर लेता।

अभी तो यह कंबल भर है मेरे पास, यह तुम ले जाओ। और देखो इनकार मत करना। इनकार करोगे तो मेरे हृदय को बड़ी चोट पहुंचेगी।


चोर घबरा गए, उनकी कुछ समझ में नहीं आया। ऐसा आदमी उन्हें कभी मिला नहीं था।

चोरी तो जिंदगी भर की थी,

मगर ऐसे आदमी से पहली बार मिलना हुआ था।


*भीड़— भाड़ बहुत है, आदमी कहां?*

*शक्लें हैं आदमी की, आदमी कहां?*


पहली बार उनकी आंखों में शर्म आई, और पहली बार किसी के सामने नतमस्तक हुए।


मना करके इसे क्या दुख देना, कंबल तो ले लिया। लेना भी मुश्किल! क्योंकि इस के पास कुछ और है भी नहीं,

कंबल लिया तो पता चला कि फकीर नंगा है। कंबल ही ओढ़े हुए था, वही एकमात्र वस्त्र था— वही ओढ़नी, वही बिछौना।


लेकिन फकीर ने कहा. तुम मेरी फिकर मत करो, मुझे नंगे रहने की आदत है। फिर तुम आए, सर्द रात, कौन घर से निकलता है। कुत्ते भी दुबके पड़े हैं।

तुम चुपचाप ले जाओ और दुबारा जब आओ मुझे खबर कर देना।


चोर तो ऐसे घबरा गए और एकदम निकल कर झोपड़ी से बाहर हो गए।

जब बाहर हो रहे थे तब फकीर चिल्लाया कि सुनो, कम से कम दरवाजा बंद करो और मुझे धन्यवाद दो।

आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा।


कुछ ऐसी कड़कदार उसकी आवाज थी कि उन्होंने उसे धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया और भागे।

फकीर खिड़की पर खड़े होकर दूर जाते उन चोरों को देखता रहा।

*कोई व्यक्ति नहीं है ईश्वर जैसा, लेकिन सभी व्यक्तियों के भीतर जो धड़क रहा है, जो प्राणों का मंदिर बनाए हुए विराजमान है, जो श्वासें ले रहा है, वही तो ईश्वर है।*


कुछ समय बाद वो चोर पकड़े गए। अदालत में मुकदमा चला,

वह कंबल भी पकड़ा गया। और वह कंबल तो जाना—माना कंबल था।

वह उस प्रसिद्ध फकीर का कंबल था।


जज तत्‍क्षण पहचान गया कि यह उस फकीर का कंबल है।

तो तुमने उस फकीर के यहां से भी चोरी की है?

फकीर को बुलाया गया। और जज ने कहा कि अगर फकीर ने कह दिया कि यह कंबल मेरा है और तुमने चुराया है,

तो फिर हमें और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है।

उस आदमी का एक वक्तव्य, हजार आदमियों के वक्तव्यों से बड़ा है।

फिर जितनी सख्त सजा मैं तुम्हें दे सकता हूं दूंगा।


चोर तो घबरा रहे थे, काँप रहे थे

जब फकीर अदालत में आया।

और फकीर ने आकर जज से कहा कि नहीं, ये लोग चोर नहीं हैं, ये बड़े भले लोग हैं।

मैंने कंबल भेंट किया था और इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था।

और जब धन्यवाद दे दिया,

बात खत्म हो गई।


मैंने कंबल दिया, इन्होंने धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं,

ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे।

जज ने तो चोरों को छोड़ दिया, क्योंकि फकीर ने कहा. इन्हें मत सताओ, ये प्यारे लोग हैं, अच्छे लोग हैं, भले लोग हैं।


चोर फकीर के पैरों पर गिर पड़े और उन्होंने कहा हमें दीक्षित करो।

वे संन्यस्त हुए।

और फकीर बाद में खूब हंसा।

और उसने कहा कि तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए तो कंबल भेंट दिया था।

इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे। इस कंबल में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थी।


झीनी—झीनी बीनी रे चदरिया

उस फकीर ने कहा प्रार्थनाओं से बुना था इसे।

इसी को ओढ़ कर ध्यान किया था। इसमें मेरी समाधि का रंग था,

गंध थी। तुम इससे बच नहीं सकते थे।

यह मुझे पक्का भरोसा था, कंबल ले ही आएगा तुमको

उस दिन चोर की तरह आए थे

आज शिष्य की तरह आए।

मुझे भरोसा था।

क्योंकि बुरा कोई आदमी है ही नहीं।

श्रीरामचरितमानस : उत्तर काण्ड

सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ । भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ।।

तिन्ह कर संग सदा दुखदाई । जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ।।


अब असंतों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग सदा दुःख देने वाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है ।।


खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी । जरहिं सदा पर संपति देखी ।।

जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई । हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ।।


दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो ।।


काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।।

बयरु अकारन सब काहू सों । जो कर हित अनहित ताहू सों ।।


वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं ।।


झूठइ लेना झूठइ देना । झूठइ भोजन झूठ चबेना ।।

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा । खाइ महा अहि हृदय कठोरा ।।


उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है।

(अर्थात्‌ वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए, करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए, अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से परहेज है, इत्यादि।

मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं।) जैसे मोर साँपों को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं। (परंतु हृदय के बड़े ही निर्दयी होते हैं) ।।


पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद । ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ।।


वे दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही तो हैं ।।


लोभइ ओढ़न लोभइ डासन । सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न ।।

काहू की जौं सुनहिं बड़ाई । स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ।।


लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात्‌ लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें ज्वर आ गया हो ।।


जब काहू कै देखहिं बिपती । सुखी भए मानहुँ जग नृपती ।।

स्वारथ रत परिवार बिरोधी । लंपट काम लोभ अति क्रोधी ।।


और जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत्‌भर के राजा हो गए हों। वे स्वार्थपरायण, परिवारवालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अत्यंत क्रोधी होते हैं ।।


मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं । आपु गए अरु घालहिं आनहिं ।।

करहिं मोह बस द्रोह परावा । संत संग हरि कथा न भावा ।।


वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपनी संगत से) दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है, न भगवान्‌ की कथा ही सुहाती है ।।


अवगुन सिंधु मंदमति कामी । बेद बिदूषक परधन स्वामी ।।

बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा । दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ।।


वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी, वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परंतु ब्राह्मण द्रोह विशेषरूप से करते हैं। उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं ।।


ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं। द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ।।

ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोड़े से होंगे और कलियुग में तो इनके झुंड के झुंड होंगे ।।

(यह प्रसंग है - भरतजी की जिज्ञासा पर भगवान का उपदेश)


देखो तुम जिस मार्ग पर हो। वहाँ दर्शनाभूति किसी भी देव की हो सकती है। पर अपना इष्ट केवल एक बनाओ। मतलब बाइक ग्राउंड देव।

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मित्र। नाम जप हमें तकलीफ सहने की क्षमता देता है। अतः यह मत सोंचो की प्रभु को याद किया तो सब अच्छा ही अच्छा।

दूसरे बात कि हम बासी भोजन करते है। मतलब पूर्व जन्म के संस्कार जो प्रारब्ध बन जाते है वो भी भोगते है।

आफिस में मुझे सबसे धीरे गति से उन्नति मिली। मेरे कनिष्ठ तक वरिष्ठ हो गए पर मुझे कोई शिकायत या मलाल नही।

क्योकि जीवन का माप दण्ड ये सब कुछ प्रतिशत ही मायने रखता है।

जब भीष्म पितामह शर शैय्या पर पड़े थे तो कृष्ण से पूछा। है मधुसूदन मेरा क्या पाप था जो मैं शर शैय्या पर पड़ा हूँ।

श्रीकृष्ण ने भीष्म को ध्यान के माध्यम से पूर्व जन्मों को देखने को कहा।

भीष्म 72 जन्म देखते गए कही कुछ न मिला। पर 73वे जन्म में उन्होंने एक पेड़ के नीचे बैठ कर विश्राम करते समय एक छिपकली को यूंही बाण से छेद कर दिया था। छिपकली काफी देर तक तड़प कर मरी।

भीष्म को उस समय का दण्ड भोगना पड़ा क्योकि मात्र मनोरंजन हेतु एक निरीह प्राणी को मारा।

इसी प्रकार हम इस जीवन मे सुख और दुख दोनो भोगते है।

अतः आप निराश न हो। प्रभु के आगे ही रोये अपना दुख व्यक्त करे। जगत मात्र हंसेगा। कोई सहायता न करेगा।

वैसे आप पूजा में क्या करते है किसको जपते है।

आप विष्णु या कृष्ण के मन्त्र का जप करे।

बजरंग बाण दुख निवारण के संकल्प के साथ रोज पाठ करे।

21 दिन तक बजरंग बाण पढ़े। पर विष्णु या कृष्ण का मन्त्र आगे भी करते रहे।

बाकी हरि इच्छा।

देखिये। आप स्वतन्त्र है कि आप मेरी बात न माने।

उचित होगा। आप ब्लाग के कुछ अनुभवित लेख पढ़ ले ताकि कुछ जिज्ञासाएं शांत हो जाये।

लिंक: Freedhyan.blogspot.com

हर रोज की अलग दवा होती है। है समस्या हल का अलग देव।

इस दुनिया मे कुछ अज्ञानी अपूर्ण ज्ञानी कहते है राम सीता हनुमान इत्यादि सब गलत। सब काल्पनिक।

मित्रो पहली बात तो यह कि यही एकमात्र ज्ञानी पैदा हुए है जिनको सरस् ज्ञान है। क्षुद्र नदी भर चल इतराई। वाली बात जरा सा प्रणायाम ध्यान किया पहुँच गए सूर तुलसी के ऊपर मीरा के बाप हो गए हो सब गलत बोलने लगे।

दूसरा सवाल यह है कि तुम अपना कल्याण चाहते कि दुनिया मे बकवास बिखेरने के लिए आये हो। इस जगत में बकवास कर क्या प्राप्त करना चाहते हो क्या दिखाना चाहते हो।

बड़े बड़े मर कर नष्ट होकर विलीन हो गए कुछ कर नही पाए तुम लोगो की आस्था के साथ खिलवाड़ करोगे।

तीसरे तुम्ही एक विद्द्वान पैदा हुए हो बाकी सब मूर्ख। अरे मूर्ख क्यो बकवास में समय नष्ट कर रहे हो। समय को नष्ट करोगे समय तुमको नष्ट कर देगा।

चौथी सबसे बड़ी बात। भले ही यह सब काल्पनिक हो पर इन नामो ने कितनो तारा था तार रहे है और तारते रहेगे।

क्या फर्क पड़ता है कथा सत्य थी या झूठी। सत्य यह है राम कृष्ण हनुमान सदा तारणहार रहे है।

आज भी हनुमान जीवित देव है जो हर व्यक्ति की जो प्रभु प्राप्ति मार्ग पर चलता है उसकी सहायता करते है।

अब प्रश्न यह है कि तुम अपना उद्द्वार करोगे या चांद पर थूकोगे। यदि चांद पर थूकोगए तो वह तुम्हारे ही मुंह पर गिरेगा। यह निश्चित है।अतः बकवास बन्द करो। मत फैलाओ। चुपचाप अपने कल्याण के मार्ग पर चलते रहो।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

किसी अन्य ग्रुप में जहाँ मैं सदस्य नही हूँ। वहाँ हनुमान जी का अपमान हो रहा है।

यह गधे जरा सा पढ़ गए। जरा से अनुभव से बौरा गए है| मीन मेख निकालने लगे।

नही। यह जगत है। अल्पज्ञ ज्ञानियों की कमी नही।

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देखो वाम मार्गी साधना भी सनातन साधना है पर यह मुक्ति नही दे पाती है। ये सिद्ध जल्दी होगी। सिद्धया देगी पर मोक्ष तक यह नही पहुँच पाती है।

प्रायः वाम मार्ग में शक्ति को अपने अधीन करते है। जबकि दक्षिण में शक्ति के अधीन।

इष्ट वह जो आपका कुल देव हो। जो आपको बचपन से लुभाता हो। जिसका नाम संकट में स्वतः निकल आये। जिसके नाम से काम होते हो।

मन के गुलाम होने से अच्छा है बीबी का गुलाम हो जाओ।

जिससे तुम्हे अपनी और अपने पूरे खानदान की कमियां देखने को मिल जाएगी।

कवि बनने को चाहिए| न फूलों का हार।।

कवि बनने को चाहिए। बीबी की फटकार।।

बीबी की फटकार। बनेगी कविता प्यारी।।

तुलसी कालीदास को। जाने दुनिया सारी।।

कह ज्ञानी कविराय। सभी कवि बन जाओ।।

घर जाकर बीबी से। पहले मार खाओ।।

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प्राप्य पुण्य कृतांलोकान् उषीत्वा शास्वतीसमा:। शुचीनाम् श्रीमतां गेहे योग भ्रष्टो अभिजायते।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्। एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यद्ईदृशम्।।

भावार्थ :- जो भी योगी साधक योगाभ्यास ध्यान साधन करते-करते आत्म स्वरुप को आत्मबोध को उपलब्ध नहीं हो पाते और उनका शरीर बीच में ही  पात हो जाता है।(छूट जाता है) उनको योग भ्रष्ट की संज्ञा से संबोधित किया     जाता है। ऐसे लोग इस लोक में दुर्लभ पावन पवित्र आत्माओं, श्रीमन्तों,योगियों व विद्वानों के कुल में जन्म पाते हैं !!ॐ!!

शाबर मंत्र का निर्माण बाबा गोरखनाथ समय समय पर पूर्वांचल भाषा मे करते रहते थे। कारण यह था कि बीच मे सँस्कृत सिर्फ जन्मने ब्रहामण ही पढ़ सकते थे। अतः अधिकतर भक्त यहॉ तक सन्त ज्ञानेश्वर भी मराठी में आये।

सँस्कृत में निर्माण और अध्य्यन न के बराबर सिर्फ जन्मने ब्राह्मणों द्वारा ही हुआ।

दूसरी बात इस समय तक लगभग सभी मन्त्र तन्त्र इत्यादि कई बार कई सिद्धों द्वारा सभी साकार रूपो में सिद्ध किये जा चुके है। अतः उनको सिद्ध करने में इतनी परेशानी नही होती है।

वैसे भी यह कलियुग है यहाँ भगवान की ओर देखनेवाले भी मुश्किल से मिलते है। सिर्फ भिखारी ही मिलते है जो बस प्रभु को atm कार्ड समझ कर भीख ही मांगते रहते है। मिली तो खुश नही तो मजारों को भी पूजने लगते है।

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त्रिवेणी का महत्व पर्व मित्तल ने यूं समझाया


वट वृक्ष धीरे-धीरे बहुत बड़े क्षेत्र में अपनी जड़ें फैला लेता है।  उनकी हजारों शाखाएं झुककर पृथ्वी तक आती हैं और पृथ्वी के अंदर नया वट वृक्ष उत्पन्न  कर देती हैं।

वट वृक्ष को शास्त्रों ने ऋषि की संज्ञा दी है। जैसे ऋषियों का जीवन केवल परोपकार के लिये होता है उसी प्रकार वह भी पुरुषार्थ एवं परोपकार का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति की तुलना वट से करना अतिशयोक्ति नहीं होगी। वट वृक्ष को काटने से भी वह बार-बार बढ़ता जाता है। जैसे प्रयाग  के अक्षय वट को जहांगीर ने जिद करके कटवाया था परंतु वह आज भी उतना ही शानदार है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति को भी संसार के अनेक आसुरों, दैत्यों, राक्षसों, यूनानियों, शकों, हूणों, तुर्कों, मुगलों एवं अंग्रेजों आदि ने नष्टï करने का प्रयत्न किया परंतु भारतीय संस्कृति सब प्रहारों को सहकर आज भी पूरी शान के साथ खड़ी है। जैसे वट वृक्ष की हजारों शााखाएं वट वृक्ष का सौंदर्य व बल बढ़ाती हैं उसी प्रकार भारत की हजारों  जातियां, उपजातियां, संप्रदाय, पंथ, भाषाएं व बोलियां उसका उसी प्रकार सौंदर्य व बल बढ़ाती हैं।

वट को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का स्वरूप माना गया है।  वट वृक्ष भारतीय नारियों के लिये दीर्घ जीवन व सुहाग का प्रतीक है।

वट का आयुर्वेदिक महत्व सर्वविदित है। वट का दुग्ध दर्द  निवारक, वर्ण हर एवं नपुंसकता को दूर करता है। वट की दाड़ी की छाल एवं तना अमर-अजर है। इसके सेवन से  बुढ़ापा नहीं आता।


पीपल को भगवान विष्णु का साक्षात रूप माना गया है। भगवान विष्णु जो कि जगत का भरण-पोषण करने वाले हैं, उसी प्रकार पीपल भी दिन-रात प्राण वायु (आक्सीजन) देकर हमें  जीवन प्रदान करता है। पीपल वृक्ष वातावरण के परिष्कारों एवं परिमार्जन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह वृक्ष अन्य वृक्षों की अपेक्षा वातावरण में आक्सीजन की मात्रा अधिकतम रूप से अभिवृद्धि करता है तथा प्रदूषित वायु को कम करता है। इसी कारण इस वृक्ष के नीचे ध्यान का विशिष्ट महत्व है। इस तथ्य का श्रीमद्भागवत महापुराण (3/4/8) में बड़े स्पष्ट ढंग से उल्लेख किया गया है। महापुराण के अनुसार द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस दिव्य एवं पवित्र वृक्ष के नीचे बैठकर ही ध्यानावस्थित हुए थे। कलियुग में भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति बोधगया में पीपल वृक्ष के  नीचे हुई थी। इसी वजह से इस वृक्ष को बोधिवृक्ष कहा जाता है। आयुर्वेद की दृष्टि में पीपल का बहुत महत्व है। यह 100 अलग-अलग बीमारियों की दवा है। इसकी जड़ें छिलका, पत्ता, दाड़ी एवं फल अलग-अलग रूप से 25-25 बीमारियों को नियंत्रित करते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले को ये रोग स्वत: ही नहीं लगते।   यह रक्त शोधन, टीबी, हैजा, पेचिश, कब्ज, अजीर्ण आदि में अचूक दवा है।

‘अश्वत्य: सर्ववृक्षाणां' अर्थात् वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूं। भगवान श्री कृष्ण की यह उक्ति पीपल के महत्व  और महत्ता को और  बढ़ाता है। पीपल वानस्पतिक जगत में सर्वश्रेष्ठ है। इसी कारण स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा दी है। नि:संदेह पीपल देववृक्ष है जिससे सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अंत:चेतना पुलकित और  प्रफुल्लित होती है, इसलिये पीपल सदा से  ही भारतीय जनजीवन में विशेष रूप से पूजनीय रहा है।


पीपल और वट वृक्ष का जलदान कर पित्तरों को तृप्त करने की दृढ़ मान्यता हिंदुओं में है। जहां पीपल को लगाना इतना पुण्य कार्य है वहीं इस वृक्ष को काटना बड़ा पाप माना जाता है। इसका वैज्ञानिक तर्क भी है। इसकी जड़ों अथवा टहनियों को काटने से यह दूषित वायु छोड़ता है जो कि सीधे हार्ट पर प्रभाव डालती है।


नीम जिसका वैज्ञानिक नाम निम्बिन है, इसके प्रत्येक भाग में मार्गोसीन नामक रसायन पाया जाता है। यह  स्वाद एवं गंध दोनों में कड़वा  पाया जाता है। इसकी पत्तियां, टहनी, छाल,  जड़, फूल और फल सभी औषधीय दृष्टिï से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

आयुर्वेद में निम्ब वृक्ष को 100 प्रकार के ज्वर का नाशक बताया है। इसका सेवन सूर्य उदय से सुबह दस बजे तक एवं शाम  3 बजे से सूर्य अस्त तक ही करना चाहिए। यह वात-कफ को हर लेने वाला बताया गया है।

नीम को सृष्टि के संहारक भगवान शिव का रूप माना गया है। अपने औषधीय गुणों के लिये मशहूर नीम के बीज से बने पर्यावरण मित्र और सुरक्षित कीटनाशक के इस्तेमाल के  उत्साहवर्धक नतीजे सामने आये हैं। नीम की छाया ज्यादा शीतलता प्रदान  करती इसलिये गर्मी में चलकर आये व्यक्ति को तुरंत इसकी छाया में विश्राम नहीं करना चाहिए।


अत: बड़, पीपल, नीम का आध्यात्मिक, धार्मिक एवं आयुर्वेद की दृष्टि में महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिवेणी  साक्षात  ब्रह्म, विष्णु, शिव का रूप है। त्रिवेणी के जितना सामर्थ्य अन्य की वृक्ष में नही है, जब त्रिवेणी के तीनों वृक्ष एक साथ लगाये जाते है तो इनकी जड़े एक दूसरे में गूँथ जाती है, इनके पत्ते व् टहनियां एक दूसरे में संयुक्त हो जाती है। परिणाम स्वरुप ये वायु का और अधिक परिमार्जन व् परिष्करण कर देते है, केवल त्रिवेणी में ही वो सामर्थ्य है जो आण्विक विकिरणों को अवशोषित कर ले। यदि तीनो वृक्ष अलग अलग लगाये जाये तो वो आण्विक विकिरणों को अवशोषित पूर्णतः नही कर सकते जितने ये संयुक्त रूप से। यदि एक महानगर में चक्रवहुआ आकर में दो दो 5 किलोमीटर के दायरे में त्रिवेणी लगा दी जाये तो वायु प्रदूषण की समस्या स्वतः समाप्त हो जाये, त्रिवेणी भूमि जलस्तर को बढ़ाने में भी मददग़ार है, त्रिवेणी के कारण अकाल की नोबत नही आती।

अत: बच्चे और बूढ़े, स्त्री और पुरुष सभी मनोयोग से एक-एक  त्रिवेणी व पांच अन्य वृक्ष लगायें तो पृथ्वी पुन: सुजलां, सुफलां हो उठेगी।


 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...