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Tuesday, August 13, 2019

कर्मणे ब्राह्मण और सांख्य चर्चा

कर्मणे ब्राह्मण और सांख्य चर्चा 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

अब अंदर का मजा लो। बाहर का बन्द कर दो।

यह जगत है  इसमें रह कर ही सब करना पड़ेगा। इसको छोड़ने की सोंचना कायरता है।

मुझे भी अभी 2 साल नौकरी करनी है।

कायर मत बनो। पुरुषार्थ जगत छोड़ने में नही।

दो रोटी के कारनै , साथ झमेला यार।

राम राम को तू भजे, कर दे बेड़ा पार।

न बुद्ध बनो न महावीर। बनना है तो कृष्ण बनो।

कार्य कोई भी छोटा बड़ा नही होता। सब कार्य बराबर होते है । हा बाजार भाव के कारण मूल्य अलग हो सकते है।

ऐसा आवश्यक नही।

जब किसी को किसी मन्त्र के जाप से कोई अनुभव या क्रिया होने लगती है तो वह प्रायः मात्र व्यक्ति विशेष की अनुभूति होती है। सबको नही भी हो सकती है। क्योंकि हर व्यक्ति के कर्म और प्रारब्ध अलग होते है।

दूसरे हर व्यक्ति को अनुभूतिया भी अलग हो सकती है। क्रिया के करोड़ो रूप हो सकते है।

जय गुरू देव जय महाकाली जय महाकाल


मैं जानता हूँ कुछ मित्रो को जिनको मात्र कुछ सालों में नवार्ण मन्त्र के जाप से कुण्डलनी जागृत हो गई। देव दर्शन हो गई। काली मन्त्र के जाप से 3 साल में काली मां प्रकट हो गई। किंतने 25 साल से गायत्री कर रहे है सिर्फ कुछ अनुभूतिया हुई।

इसका यह मतलब नही की कौन मजबूत कौन कमजोर। हर मन्त्र हर नाम जप करोड़ो द्वारा सिद्ध किये जा चुके है। जितना राम या कृष्ण शक्तिशाली उतना शक्तिशाली और मन्त्र नही भी हो सकता है।

मन्त्र और नाम जप के परिणाम व्यक्ति विषेश पर ही निर्भर हैं। किसी मन्त्र या नाम जप पर नही।

सब बराबर है बस करो तो उसका नाम या मन्त्र जप।

 लीन हो जाओ। करो सतत निरन्तर निर्बाध सदैव। हो जाओ समर्पित। कर लो प्रेम।

इसी में तुम्हरा कल्याण है। सब एक है अनन्त है। बस तुम मूर्ख हो जो अलग देखते हो।

जय महाकाली। जय गुरूदेव।

आत्मा किसी की भी वह। अविनाशी निर्विकार और दोषों के रहित होती है। वह शुद्ध ईश का ही रूप होती है।

अहंकार यानि मेरा वास्तविक स्वरूप आकार। वह क्या है जो गीता में बताया है। यह योग के द्वारा जब योग घटित होकर अनुभव देता है तब ज्ञात होता है।

अहंकार यानि घमंड जो वाहीक ज्ञान के कारण अज्ञानता के कारण होता है।

अंतर्मुखी होने के बाद जब हमे अपनी आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव होता है। वेदांत उसे योग कहता है । यह क्षणिक होता है पर ज्ञान और अनुभव के पिटारे दे जाता है।

फिर धीरे धीरे हम निष्काम कर्म की ओर स्वतः अग्रसर होते है तो हमे कर्म योग का अनुभव होता है। जिसके लक्षण गीता में बताये जो समत्व, स्थिर बुद्धि और स्थित प्रज्ञ हो जाता है। स्थित प्रज्ञ वह जिसका मन बुद्धि अहंकार मुझमे ही लीन हो। यानी जो आत्मस्वरूप में लीन हो जाये। इसी को आगे बढाते हुए तुलसीदास ने कहा। जिसमे संतोष आ जाये। यानि जाही विधि राखे राम ताहि विधि रहिए। यहाँ निष्क्रिय नही बल्कि कर्म करो पर फल की चिंता छोड़ दो।

जब मैं ही ब्रह्म हूँ इसकी अनुभूति होती है। मेरी आत्मा ही परमात्मा है। इसका अनुभव होता है। तो घटित होता है ज्ञान योग।

यह सारी अवस्थाये अनुभव अनूभूति की है। किताबे बेकार।

पातञ्जलि ने यही कहा। जब हम कर्म करते है तब हमारे मन मे कोई भाव न उतपन्न होने से हमारी चित्त में कोई वृत्ति उतपन्न नही होती । वह ही योग है।

पहले आप mmstm करे। जो अनुभव हो वो बताये।

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जी प्रारम्भ योग कुछ क्षणों के लिए ही होता है। किंतु यह सब कुछ दे जाता है। पर अपने कर्मो के द्वारा यह हमारे में परिलक्षित होना चाहिए। यह होने के बाद ज्ञान मिलता है पर यदि मनुष्य सही मार्ग से भटक जाए तो वह ज्ञान सहित पतन की ओर भी अग्रसर हो सकता है।

अतः मनुष्य को कहां पान संगत और पंगत पर ध्यान देना चाहिए।

ज्ञान ग्रंथी खुलने पर ज्ञान को प्रचारित करने का तूफान आता है। क्योंकि आत्म गुरू जागृत हो जाता है।

वास्तव में यह परीक्षा होती है। योग के बाद शक्ति आ जाती है किसी को भी क्रिया करवाने की किसी की भी कुण्डलनी खोलने की। अतः मनुष्य बिना गुरू आदेश के या परम्परा के गुरू बनना चाहता है। जो धीरे धीरे शक्ति ह्वास होने से नीचे गिरता है।

बड़ी कठिन है राह पनघट की।

ध्यान प्रयास सतत करते रहने से मनुष्य बचा रहता है।

तब यह पुरावृति समय समय पर घटित होने लगती है। धीरे धीरे इसकी अवधि स्वतः बढ़ेगी। हम सिर्फ सत्मार्ग की ओर अपनी शक्ति बचाते हुए चले।

यदि गुरू बन गए तो पतन निश्चित।

जो ईश्वर से मांगता है वह सबसे बड़ा भिखारी। स्वामी विविकानन्द

मित्र योग के अनुभव की अवस्था कुछ पलों की ही होती है।

अहम ब्रह्मासमी। सोअह्म। शिविहम योग यह सब कुछ पलों के ही अनुभव होते है। परन्तु सब दे जाते है।

मेरी बात शिव और कृष्ण भी न काट सकते। यदि यह हमेशा है तो लोगो के भरम।

अब क्या बोलूं इसके आगे।

कृष्ण और युधिष्ठिर का किस्सा सर्वविदित है।

इस दशा की समयाविधि कुछ पलों से कुछ मिनट तक ही होती है।

हा नशा आनन्द लगातार रह सकता है। एक अवश्था के बाद जरा सा ध्यान किया चाय पीते पीते ही सही। सर टुन्न और नशा और आनन्द चालू।

नशा लगातार रह सकता है। पर यह योग की अवस्था नही।

समाधि स्वयं लग जाती है। अब यह कौन सी यह बताना मुश्किल।

प्रकाश इत्यादि मात्र क्रियाये और बेहद आरंभिक स्तर की अनुभूति।

यह सब कर्मो में दिखना चाहिए। किसी ने पुरुस्कार दिया। खुश दुनिया को बताते फिरे। यह योगी के लक्षण नही।

कुछ करने का मन नही होता। मतलब आलस्य वाला नही। मतलब किसी प्रकार की घटना से कोई प्रभाव नही। किसी ने गाली दी चलेगा। कोई अंतर नही। किसी ने सम्मान दिया कोई फर्क नही।

धन डूब गया। चलेगा। मिल गया चलेगा। किसी से मोह नही। कोई अपना नही सिर्फ कर्तव्य का बोध।

यह योगी के लक्षण है।

जिसे गीता ने समझाया है।

जब इस अवस्था मे अपने कर्म कुशलता से किया जाए तो पातंनजली की बात। हमारे चित्त में वृत्ति नही आएगी।

गुरू महाराज के अनुसार यदि कर्म भी क्रिया रूप में हो तो संस्कार संचित नही होते।

महाराज जी का यह वाक्य ही बड़े बड़े ज्ञानी समझ नही पायेगे।

अब अपने अनुभव से क्रिया और कर्म समझो। तो कुछ समझ पाओगे।

एक बात समझ लो इतने भार के साथ वर्षो बाद सिद्धार बेट्टी पहाड़ी पर सिर्फ और सिर्फ महाराज जी की वाणी पर अमल कर के ही चढ़ पाया था।

पहाड़ी पर चढ़ना एक क्रिया कर्म था। अतः कोई थकान भी नही आई।

यदि किसी कर्म को क्रिया रूप में लेलो तो वह कर्म सहज हो जाता है। और संस्कार संचित नही होते।

सँ लिप्तता के बिना कर्म कैसे होगा। पर फल क्रिया के कारण  पैदा नही होगा।

एक बात और यदि पापी भी प्रभु का नाम जप्त है तो तर जाता है। प्रभु स्मरण और भक्ति तुमको सब दे देती है गुरू से ज्ञान तक। ध्यान से समाधि तक। शून्य से अनन्त तक सारे ज्ञान सारे अनुभव। अतः यदि भला चाहते हो तो न चाहते हुए भी जो देव अच्छा लगे। उसका सतत निरन्तर निर्बाध मन्त्र जप और नाम जप। उसका ध्यान करते रहो करते रहो।


कुछ उदाहरण है वेदों से। जब यह सब कर्म से  ब्राह्मण बन गए। अर्थात ब्रह्म का वरण कर लिए।

(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(3)  सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)


(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(7) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(8)  विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(9) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(10) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(11) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(12) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |

(13) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(14) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(15) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(16) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए  और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया


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सांख्यदर्शन के कुछ स्मरणीय अंश

* सांख्यदर्शन के प्रवर्तक - देवहूति और कर्द्दम के पुत्र महर्षि कपिल ।

* सांख्य शब्द का अर्थ - समुपसर्गात् "ख्या" ( प्रकाशने) धातुः , 'अङ्ग' प्रत्यये 'टाप्' प्रत्यये च संख्याशब्दस्य निष्पत्ति:। ततः 'तस्येदम्' इत्यनेन ' अण्' प्रत्यये सांख्यम् इति पदस्य निष्पत्ति:।


* सांख्यदर्शन के प्रमुख ग्रन्थ - षष्टीतन्त्रम् , तत्त्वसमास , सांख्यप्रवचनसूत्र , सांख्यषडाध्यायी।


* कपिलमुनि के शिष्यों के नाम क्रमशः - आसुरी, पंचशिख, ईश्वरकृष्ण , भार्गव , उल्लूक , वाल्मीकि , हारीत , वार्षगण्य , वशिष्ठ , गर्ग।


* ईश्वरकृष्ण के द्वारा आर्या छन्द में सांख्यकारिका की गई।


* सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्वों का विचार है।

वे तत्त्व है - पुरुष, प्रकृति, महत्( बुद्धि) , अहङ्कार, पञ्चतन्मात्राएँ ( रूप , रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द) , मन, पञ्चज्ञानेन्द्रिया( चक्षु , रसना, घ्राण, त्वक, श्रोत्र) पञ्चकर्मेन्द्रिया ( वाक् , पाणि , पाद , पायु, उपस्थ) पञ्चमहाभूत ( पृथ्वी , आप , तेज , वायु, आकाश )


* इन पच्चीस तत्त्वों को चार भागों में विभाजित किया गया है।

1 . केवलप्रकृति - (प्रकृति अथवा प्रधान)

2. प्रकृतिविकृति - ( महद् , अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ )

3. केवलविकृति - ( पञ्चकर्मेन्द्रिया, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, मन, पञ्चमहाभूत )

4. न प्रकृति न विकृति - ( पुरुष)


सांख्यदर्शनानुसार दुःख तीन प्रकार के होते हैं।

1. आदिदैविक।

2. आदिभौतिक ।

3 . आध्यात्मिक । ( शारीरिक , मानसिक)


* सत्कार्यवाद - सत एव सज्जायते इति।

सत्कार्यवाद के पांच प्रमाण -

1. असदकरणात्।

2. उपादानग्रहणात्।

3. शक्तस्य शक्यकरणात्।

4. सर्वसम्भवाभावात्।

5. कारणभावात्।


* प्रकृति की सिद्धि के पाँच कारण।

1. कारणकार्यविभागात्।

2. अविभागाद्वैश्वरूस्य।

3. शक्तित: प्रवृत्तेश्च।

4. परिमाणात्।

5. समन्वयात्।


* सांख्यदर्शन तीन प्रमाणों को स्वीकृती देता है।

1 . प्रत्यक्ष।

2. अनुमान।

3. शब्द।


*अनुमान तीन प्रकार के होते है।

1. पूर्ववत्  2. शेषवत् 3. सामान्यतोदृष्ट।


* प्रत्ययसर्ग चार प्रकार के होते है।

1. विपर्यय।

2. अशक्ति।

3. तुष्टि।

4. सिद्धि।


* विपर्यय पाँच प्रकार के होते है।

1. तम।     2. मोह।     3. महामोह।   4. तामिस्र ।

5 . अन्धतामिस्र।


* अशक्ति 28 प्रकार के होते है -

आंध्य , बाधिर्य, अजिघ्रत्व, मूकत्व , जणत्व, कुंठित्व,

आनन्द लो कृष्ण अनुभूति का। जीवन रसमय रहेगा।

आह। आनन्द आनन्द। परमानन्द। जय महाकाली गुरुदेब। क्या नशा दिया। बस उड़ने लगे। अब आगे क्या। राम जाने।

यह नशा जो पीता है सिर्फ वोही बता सकता है। बाकी सिर्फ मुह पीटेंगे।

जय हो प्रभु। आनन्दम।

किसी मित्र ने पूछा था कि शिव और शक्ति का मानव रूप में आना सम्भव क्यो नही।

देखो मित्र कृष्ण विष्णु के रूप। विष्णु इस दृश्यमान जगत के मालिक। क्योकि उनकी पत्नी कौन शक्ति कौन लक्ष्मी। लक्ष्मी की आवश्यकता पड़ती है जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व तक बस। यानि विष्णु मालिक जन्म के बाद मृत्यु के पूर्व। तो इस रूप में कौन आ सकता है।

दूसरे मानव यानि आठ कला का पुतला। उसका मालिक विष्णु। इस कला में क्षमता नही कि शिव और शक्ति की कला जो आठ से अधिक उसको वहन कर सके। पर सिद्ध पुरुष 12 कला तक यानि वे शिव शक्ति से सायुज्य प्राप्त कर सकते है। पर पूरे शिव नही।

अतः श्री कृष्ण जो 16 कला के थे सिर्फ उन्हीं का रूप मानव की 8 कला तक की योनि में आ सकता है।

जय श्री कृष्ण।


एक बात और यदि आप साकार में किसी की भी पूजा करे। आपके बजरंग बली सहायक रहते है। पर कृष्ण भी साकार में स्वतः आकर आपको निराकार का अनुभव करा देते है।

ग्रुप के एक सदस्य की माँ माता जी के सायुज्य में है। पर उनको कृष्ण दर्शनाभूति हुई। वे परेशान। मेरे पास सन्देश आया। पर इसका अर्थ है अब उन्हें शीघ्र ही निराकार की अनुभूति कृष्ण करायेगे।

जय श्री कृष्ण।

कुछ मत मांगो कुछ मत बोलो। सब स्वतः मिल जाता है। माँगनेवाला तो भिखारी होता है। प्रभु से भीख नही प्रभु को मांगो। बल्कि मांगना तो प्रभु पर सन्देह करना होता है।

मांगत है संसार सब, निज अभिलाषा मान।

जो जन मांगे नही कछु, सब मिल जाता  जान।।


प्रवासी चेतना मासिक पत्रिका ने एक साक्षात्कार ले लिया और छाप दिया। पत्रिका प्रदान करने स्वयं सम्पादक जी और पत्रकार महोदया स्वयं आ गए।

आप दोनों को धन्यवाद।

इन्ही माधवी सिंह जी ने साक्षात्कार लिया है।

भगवती के पुत्र को प्रणाम।।


आज मेरा मन व्यथित हुआ। मतलब अच्छा नही लगा। ग्रुप के एक सदस्य को क्रिया हो रही है। पर उनके पास इतना धन नही कि वे रेलवे टिकट ले सके और दीक्षा के लिए जा सके। उनको सहायता की पेशकश मैने नही की। क्योकि उनको बुरा न लगे। अतः मैंने उनकी माँ जिनको माता जी का सायुज्य प्राप्त है। पर वे गुरू नही है। उन्ही को गुरू मानने को बोल दिया। ताकि इनकी शक्ति अपनी माता जी की शक्ति से जुड़ जाये और इनकी क्रिया नियंत्रित हो सके।

कारण इनकी माँ को कोई ऐसी क्रिया या आवेग नही होता है जो अनियंत्रित हो। मतलब वह माँ जगदम्बे की शक्ति को संभाल पा रही है।

उनकी माता बिना पढ़ी लिखी है। बचपन से माता का जाप करती आ रही है। अनिको अनुभव और दर्शनाभूति कर चुकी है। याबी उनको कृष्ण दिखते है। मतलब वे निराकार का भी अनुभव करनेवाली है मुझे ऐसा लगता है।

कभी कभी स्वतः ज्ञान प्राप्त बिना गुरू के भी भक्ति की पराकाष्ठा में पहुँच कर उस स्तर पर पहुँच जाते है जहाँ शक्ति स्वयं गुरु बन जाती है। ऐसा कम होता है पर होता है।

जैसे रमण महृषि, अरविंद घोष इत्यादि।

किताबी ज्ञान को मैं दीमकी ज्ञान ही मानता हूँ।

वेदों द्वारा सिर्फ मार्ग दर्शन हो सकता है। ज्ञान प्राप्त नही हो सकता सब मात्र शब्द है।

ज्ञान तो तब ही होता है जब हम अपने अंदर से होकर अपने को पढ़ने लगते है।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

आर्य समाज की पतली गली और खमत खामणा

आर्य समाज की पतली गली और खमत खामणा 

 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
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सभी से विनम्र निवेदन है कि सभी देशवासियों को  अपने  सभ्यता के  स्वर्णिम   युग के गौरवशाली  अतीत के  बारे में बताइये

कुछ भी करो बस प्रेम से। समर्पण से। कोई भी मन्त्र नाम या स्तुति।


इसमें कोई संदेह नहीं है आर्य समाज ने हिंदुत्व को बचाया साथ हिंदी को स्थापित किया पर जहां तक ज्ञान की बात है यह बहुत छोटे और संकीर्ण मानसिकता के शिकार हो जाते हैं। कारण ये पूर्वाग्रहित होकर सनातन को जानना चाहते हैं वह भी मात्र सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर और दूसरों के पढ़े को सत्य मानकर। जो कि पूर्णतया: गलत है।  


मित्र तुषार मुखर्जी ने वेद के कुछ उदाहरण मेरी बात सिद्ध करने हेतु भेजे हैं।  अतः इस विषय का विश्लेषण करने के लिए मैं कुछ वैदिक उद्धरण देना चाहूंगा.


वेद चुकी सनातन धर्म का आधार है अतः वेदों के कुछ मन्त्रों का उद्धरण देना चाहूंगा.

मैं आर्य समाज का सदस्य नहीं हूँ पर उनके कार्यक्रमों से जुड़ा हूँ. आर्य समाज वैदिक मान्यताओं पर चलते हैं.

लेकिन मेरे विचार से उन्होंने वेद-उपनिषद् और भागवत गीता के सूछ्म बातों की ओर पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया है.

और यह आर्य समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है.

वेद जहाँ एक ओर एक ही ईश्वर (ब्रह्म) जो कि निराकार और निर्गुण है जिसकी प्रतिमा नहीं हो सकती, इस बात का प्रतिपादन करते हैं, अतः आर्य समाज वाले मूर्ती पूजा को नहीं मानते, देवी देवताओं को नहीं मानते.


न तस्य प्रतमिा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।

हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिन्सीदित्येषा यस्मान्न जातऽ इत्येषः ।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र-3


संधि विच्छेद के बाद –

न तस्य  प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महत् यशः ।

हिरण्यगर्भः इति एषः मा मा हिंसित् इति एषा यस्मात् न जातः इति एषः ।।


भावार्थ  –    

जिस सृष्टिकर्ता परमेश्वर को (महिमा का वर्णन करते हुए) सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला (कहा गया) है, यह अनादि अजन्मा (कहा गया) है, यह अपने से हमें मत विमुख करे (इस प्रकार प्रार्थना किया गया है), जिसकी  प्रसिद्धि, कीर्त्ति बहुत बड़ी है, (लेकिन) उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) की तुल्य (कोई भी एक विशेष) मूर्ति या प्रतिकृति नहीं है (क्योंकि सृष्टि में स्थित हर चीज उसी एक ईश्वर का ही रूप या प्रतिकृति हैं) ।

लेकिन वही वेद यह भी कहता है कि वही एक ईश्वर (ब्रह्म) ही चरों और जन्म ले रहे हैं, चारो और प्रकट हो रहे हैं, कि सृष्टि की हर रचना उसी एक ईश्वर (ब्रह्म) का ही स्वरुप है अतः सृष्टि की हर रचना को ब्रह्म स्वरुप मान कर पूजा भी किया जा सकता है.


एषो ह देव: प्रदिशोनु सर्वा: पूर्वो ह जात: स उ गर्भे अन्त:  ।

स एव जात: स जनिष्यमाण: प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

एषःह देवः प्रऽदशिः अनु सर्वाःपूर्वः  ह जातः स उ गर्भे अन्त:  ।

सः एव जातः सः जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनाः तिष्ठति सर्वतोमुख: ।।

 

भावार्थ  –

यह उत्तम स्वरूप (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) निश्चय से सब दिशा उपदिशाओं में व्याप्त हैं । भूतकाल में कल्प के आदि में निश्चय ही सर्व प्रथम  प्रकट हुए (थे) । वह ही (अभी) जन्म के लिए माता के गर्भ में अंदर हैं, वह ही (वर्त्तमान में भी) प्रकट (हो रहे) हैं (और) भविष्य में भी (सदा) वह (ही) प्रकट होने वाले हैं। हे मनुष्यों ! (वह) सबका द्रष्टा, प्रत्येक पदार्थों में (जड़-चेतन- प्राणी मात्र व मनुष्यों में भी) व्याप्त होकर अवस्थित है ।

अतः कैलाश पर्वत को ब्रह्म का स्वरुप होने के कारण पूजा किया जा सकता है, वट वृक्ष को पूजा किया जा सकता है, गंगा नदी को माता मान  कर पूजा किया जा सकता है, गाय को माता मान कर पूजा किया जा सकता है, गुरु को ब्रह्म का रूप मान कर पूजा किया जा सकता है और किसी मूर्ती को ब्रह्म का रूप मान कर पूजा किया जा सकता है.

वेदों के अनुसार वही एक ब्रह्म ही विभिन्न दैवी शक्तियों के रूप में प्रकट हुए हैं, सभी देव-देवियाँ उसी एक ब्रह्म के ही रूप हैं. वेद ही उसी एक ईश्वर (ब्रह्म) का अन्य ईश्वरीय शक्तियों के रूप में प्रकट होने की बात भी कहते हैं


जिस पर शायद आर्य समाज वाले ध्यान नहीं दे पाते.


तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र-1


संधि विच्छेद के बाद –

तत् एव अग्निःतत् आदत्यिः तत् वायुः तत् ऊँ इत्यूँ चन्द्रमाः ।

तत् एव शुक्रम् तत् ब्रह्म ताःआपःसः प्रजाऽपतिः इति  प्रजाऽपतिः।।


भावार्थ  –

वही एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर  ही भिन्न भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं, उस का ही नाम अग्नि है, वही सूर्य हैं, वही वायु हैं, वही चन्द्रमा हैं, वही शुक्र हैं, वही ब्रह्म हैं, वही जल हैं, वही प्रजापति हैं ।

वस्तुतः हम चाहे जिस भी पद्धति से ईश्वर की आराधना करें, चाहे आँख बंद कर मूर्ती पूजा करें, चाहे आँख बंद कर मस्जिद में नमाज पढ़ें, चाहे आँख बंद कर चर्च में प्रार्थना करें, चाहे आँख बंद कर मन्त्र जप करें या चाहे आँख बंद कर ध्यान करें, वस्तुतः हम हमारे शरीर में स्थित उसी एक ईश्वर (ब्रह्म) की ही आराधना कर रहे होते हैं.


वेद ईश्वर को एक शक्ति के रूप में व्यक्त करते हैं (किसी व्यक्ति के रूप में नहीं) और ईश्वर कि आराधना से या ईश्वर के ध्यान से सिर्फ सद्बुद्धि मिलती है या सन्मार्ग कि ओर चलने कि प्रेरणा मिलती है.


वेद ईश्वर के साथ हमारा जन्मदाता और संतान जैसा स्नेह और विश्वास का संबंध बताते है. वेद कभी भी ईश्वर से डरने कि शिक्षा नहीं देते.

 

आ ते वत्सो मनो यमत्परमश्चित्सधस्यात् ।  अग्ने त्वांम् कामये गिरा ।।

सामवेद-प्रपाठक-1 दशति-1 - मंत्र-8


संधि विच्छेद के बाद -

आ ते वत्सो मना  यमत् परमात्  चित् सधस्यात् ।  अग्ने त्वांम् कामये गिरा ।।


भावार्थ  –

(हम) (तेरे) पुत्र तेरे मनन करने योग्य (सत्य ज्ञान को), परम् उत्कृष्ट स्थान से (हृदय से) (स्तुति करके) प्राप्त करते हैं, (हे) अग्नि देव, (हम) तुझे ही चाहते हैं ।

ईश्वर शुभ है अतः वोह कभी किसी का अशुभ कर ही नहीं सकता है.


जैसे माता शुभ होती है अतः पुत्र चाहे कितना भी अपराध कर ले माता अपने पुत्र का अशुभ कर ही नहीं सकती.  


वेद कि सबसे अच्छी बात यह है कि वे बताते हैं कि ईश्वर केवल शुभ हैं कोई अशुभ शक्ति नहीं होती सिर्फ हानिकारक  प्रवृत्ति या हानिकारक  विकार होते हैं.

कया नश्चित्रऽ आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ।।

यजुर्वेद- अध्याय-36 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

कया न चित्रः आ भुवत्  ऊती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृ॒ता ।।


भावार्थ  –

सदा से महान आश्चर्य रूप गुण कर्म स्वभावों से युक्त (परमेश्वर) हम सबके कल्याणमय रक्षण (के लिए), मित्र (की तरह) चारों ओर विद्यमान हैं, (वे) अत्यन्त शुभ शक्ति से कल्याणमय आवर्तन के द्वारा चारों ओर विद्यमान (हैं) ।

सर की सनातनी  बातें याद आतीं हैं

इस आद्यात्म के  मार्ग को सरल बनाना हो उसके सम्पूर्ण रहस्य को जानना हो तो


साकार से निराकार का अनुभव

मतलब एक से अनेक

पहले एक में ईश्वर मान सकते हैं जैसे मूर्तियों में

फिर वो साकार देव ही अपने रहस्य प्रकट करके सभी जड चेतन में अपने स्वरूप का अनुभव करा देगा

द्वैत से अद्वैत का अनुभव


इसे ऐसे समझें

निराकार का अनुभव करने वाला यदि  मूर्ति पूजा का विरोध करे

इसका मतलब है कि उसने अभी सम्पूर्ण संसार को ईश्वरमय नहीं देखा नहीं तो सभी के साथ साथ मूर्तियों में भी ईश्वर का आभास होना चाहिए था उसको


शायद इसीलिए सर कहते हैं कि सीधे निराकार का अनुभव अपूर्ण ज्ञान देता है

एक और वेद मन्त्र का उद्धरण देना चाहूंगा जो यह शिक्षा देता है कि उस एकमात्र ईश्वर (ब्रह्म) को ध्यान के द्वारा या समाधी के द्वारा जाना जा सकता है.


यानि त्रीणि बृहन्ति  येषां  चतुर्थ वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चिद्  यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।।  

अथर्ववेद- कांड-8 सूक्त-9-मन्त्र-3


संधि विच्छेद के बाद –

यानि त्रीणि बृहन्ति  येषाम्  चतुर्थम् वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चित् यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।।  


भावार्थ –

जो तीन (प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम) हैं (जो इस चराचर संसार के रूप में) बढ़ते हैं जिनका चौथा (इन तीनों गुणों से बनी प्रकृति को धारण करने वाला प्रभु) वेदमयी वाणी को प्रकट करता है । कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता अपने तप द्वारा उनको ब्रह्म (ही) जानें, जिस में एकमात्र (वही ब्रह्म को) समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, (और) जिस में एक (ब्रह्म ही) अद्वितीय है (ऐसा ही ज्ञान होता है) ।

यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि वेदों में "कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता" का उल्लेख किया गया है.


अतः सच्चा ब्रह्म वेत्ता वही है जिसको सत्य का ज्ञान हो और साथ ही साथ वोह कर्म भी करे, वो सारे कर्म करे जो कि सत्य पर आधारित हों.

ऐसे ब्रह्मवेत्ता को ही समाधी के पश्चात् ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है.

जैन धर्म में 10 दिन पर्युषण पर्व मनाये जाते हैं एवं 10 वें दिन सभी  से क्षमा मांगी जाती है लोग आपस में एक दूसरे से क्षमा मांगकर अपना आपसी बैर भूल जाते हैं, मुझे भी आप सभी से क्षमा माँगना चाहिए और आप लोग भी क्षमा करेंगे ये भी में जानता हूँ, में भी सभी को क्षमा करता हूँ, क्योंकि गलतियाँ तो इंसान से होती ही हैं क्योंकि अगर गलतियाँ न हों तो इंसान भगवान बन जायेगा, इसलिए क्षमा माँगना सबसे अच्छा कर्म हैं एवं क्षमा करना सर्वोच्च कर्म है।


*आज जैन धर्म की परंपरा के अनुसार क्षमा मांगने का दिन है मैं जैन तो नहीं हुं लेकिन किसी भी धर्म में कोई अच्छी चीज है तो उसका जरूर अनुसरण करना चाहिए ।*


 *मेरे अहंकार से....यदि मैने किसी को नीचा दिखाया हो...*

*मेरे क्रोध से.... यदि किसी को दुःख पहुचाया हो।*

*मेरे शब्दो से... किसी को कोई परेशानी हुई हो।*

*मेरे ना से.... किसी की सेवा में,दान में, बाधा आयी हो।*

*मेरे हर एक कण कण से जो मैने किसी को निराश किया हो।*

*मेरे शब्दों से.... जो किसी के हृदय को ठेस पहुचाई हो।*

*जाने अनजाने में यदि मैं आपके कष्ट का कारण बना हु।*

*तो मैं मेरा मस्तक झुकाकर,हाथ जोड़कर, सहृदय...*

*आप से क्षमा मांगता हूं..*

खमण खामणा। मिच्छामि दुक्खड़म

यह राजस्थानी भाषा मे क्षमा पर्व के शब्द है।

जो मैंने कहा उसे माफ करें।

मेरे द्वारा किये गए गलत कार्य को माफ करे। मुझे खेद है।

करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा

श्रवननयंजं वा मानसं वापराधम् ।

विहितमविहितं वा सर्वमेततक्षमस्व

जय जय करुणाब्धे श्री महादेवशम्भो ।।

यह क्षमा प्रार्थना है। शिव से।

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राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण

राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

धार्मिक कथाओं के अनुसार, आज से पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व मथुरा जिले के गोकुल-महावन कस्बे के निकट "रावल गांव" में वृषभानु एवं कीर्तिदा की पुत्री के रूप में राधा रानी ने जन्म लिया था।


राधा रानी के जन्म के संबंध में यह कहा जाता है कि राधा जी माता के पेट से पैदा नहीं हुई थी उनकी माता ने अपने गर्भ में "वायु" को धारण कर रखा था उसने योग माया कि प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया.


परन्तु वहाँ स्वेच्छा से श्री राधा प्रकट हो गई.


श्री राधा रानी जी कलिंदजा कूलवर्ती निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मंदिर में अवतीर्ण हुई उस समय भाद्र पद का महीना था,


शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, अनुराधा नक्षत्र, मध्यान्ह काल १२ बजे और सोमवार का दिन था.


उस समय राधा जी के जन्म पर नदियों का जल पवित्र हो गया सम्पूर्ण दिशाए प्रसन्न निर्मल हो उठी.


वृषभानु और कीर्तिदा ने पुत्री के कल्याण की कामना से आनंददायिनी दो लाख उत्तम गौए ब्राह्मणों को दान में दी.


ऐसा भी कहा जाता है कि एक दिन जब वृषभानु जी जब एक सरोवर के पास से गुजर रहे थे, तब उन्हें एक बालिका "कमल के फूल" पर तैरती हुई मिली,


जिसे उन्होंने पुत्री के रूप में अपना लिया।


राधा रानी जी आयु में श्रीकृष्ण से ग्यारह माह बड़ी थीं. लेकिन श्री वृषभानु जी और कीर्ति देवी को ये बात जल्द ही पता चल गई कि श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आँखे नहीं खोली है.


इस बात से उन्हें बड़ा दुःख हुआ कुछ समय पश्चात् जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाड़ले के साथ वृषभानु जी के घर आती है तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती है


यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती है. और जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते है. तब राधा जी पहली बार अपनी आँखे खोलती है.


अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए, वे एक टक कृष्ण जी को देखती है,


अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते है.


जिनके दर्शन बड़े बड़े देवताओ के लिए भी दुर्लभ है तत्वज्ञ मनुष्य सैकड़ो जन्मो तक तप करने पर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहाँ साकार रूप से प्रकट हुई.


और गोप ललनाएँ जब उनका पालन करने लगी. स्वर्ण जड़ित और सुन्दर रत्नों से रचित चंदन चर्चित पालने में सखी जनो द्वारा नित्य झुलाई जाती हुई श्री राधा प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की कला की भांति बढ़ने लगी....


श्री राधा क्या है ? :- रास की रंग स्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानुमंदिर की दीपावली गोलोक चूड़ामणि श्री कृष्ण की हारावली है.


आज श्रीराधारानी जी के प्राकट्य दिवस पर हमारा उन परम शक्ति को सत्-सत् नमन है तथा सभी भक्तों को बहुत बहुत बधाई तथा हार्दिक शुभकामनाएं.


मित्र अनुभव एक अवस्था होती है। हमारे संचित संस्कार साधन में एक एक कर क्रिया के माध्यम से बाहर आते है। यह क्रिया आंतरिक या वाहीक कुछ भी हो सकती है। जब चित्त के कुछ विशिष्ट संस्कार नष्ट हो जाते है तो वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। अतः इन अनुभवों हेतु आसक्ति या विरक्ति कुछ भी नही होनी चाहिए।

कुछ लोग विशेष अनुभव हेतु अपनी ओर से कोशिश करते है जो गलत है दूसरे यह हानिकारक भी हो सकता है। जैसे 100 पेज की पुस्तक को आपको पहले पेज से ही पढ़ना पड़ेगा। यदि आप बीच का पेज खोलेंगे तो आपको कुछ समझ मे भी न आएगा। साथ ही कुछ ऐसा हुआ जिसके पहले कुछ विशेष माइंड सेट अप या बॉडी सेट अप चाहिए पर वह आप पर नही तो गलत हो सकता है।

अत जो होता है सिर्फ दृष्टा भाव से देखो। लिप्त मत हो।

शक्तिपात दीक्षा के बाद अपने ही ग्रुप में कुछ लोगो को खेचरी उड्डयन और जालंधर बन्ध स्वतः ऐसे लगते है जैसे बच्चों का खेल हो।

कुण्डलनी शक्ति जो आवश्यक होता है वही क्रिया करवा कर आगे बढ़ जाती है।

अतः चिंता न करे।

यह क्रिया आपके पूर्व जन्म के आकाश भृमण की क्रिया है। शायद आप पक्षी थे।

मुझे हंसी भी आती है रोना भी आता है। फेस बुक पर गुरु लोग मिल जाते है। एक गुरु के नाम के आगे खेचरी सिद्ध महायोगी लिखा हुआ था।

मतलब खेचरी इतनी तोप है यह हुई तो आप महायोगी हो गए।

योग का न अनुभव न ज्ञान पर चुकी खेचरी हो जाती है तो महायोगी हो गए।

कृपया फोटो न पोस्ट करे। यह प्रदूषण अधिक फैलाती है।

यह सब पोस्ट न करे।

मित्र। इस ग्रुप में अनुभव जनित बातो का समावेश रहता है। अतः वीडियो और फोटो मना रहते है।

मित्र। आपको निरन्तर लिंक पोस्ट करने पर कोई आपत्ति नही की। इच्छुक लोग आपके साथ जुड़ जाएंगे। इसमें इतना उत्तेजित होने की कोई आवश्यकता नही है। कारण यह भी है ग्रुप में हर जाति धर्म के लोग भी सदस्य है। हमारा उद्देश्य बिना किसी को आहत किये सनातन का प्रचार और लोगो की समस्या हल करना है।

💐💐💐

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http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html?m=1

मित्रो। मुझसे मेरे मित्र पत्रकार जो ग्रुप के सदस्य भी है। उन्होंने बोला आप कविता पुस्तक हेतु महाराष्ट्र अकादमी व अन्य जगह अप्लाई करे। मेरे मन से आवाज क्या तुम अपनी कला जो माँ सरस्वती की देन है उसकी कीमत लगवाओगे। क्या इस कला को धन से पुरस्कार से तौलोगे। मैंने मन की सुनी आवेदन नही किया।

मुझे मेरे मित्र ने जो इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक है बोले। यार m.tech हो phd कर डालो। आराम से हो जाएगी।

मेरे मन कहा। अब phd का क्या फायदा 2 साल में रिटायर। यह सिर्फ तुम्हारा सिर्फ अहंकार ही पोषित करेगा। मैंने phd हेतु निवेदन नही किया।

आप मित्र बताये यह गलत या सही।

यह उदाहरण है मन और बुद्धि का। यहाँ मन ने बुद्धि की बात मानी।


किसी ने कल पूछा मन और बुद्धि में क्या अंतर है। प्रश्न बहुत स्वभाविक और प्राकृतिक है। चलिये इसी को समझने का प्र्यास किया जाये कि मन बुद्धि और प्रज्ञा होती क्या है।


अब मेरे दिमाग में यह आ रहा है कि ज्ञानी कौन। वो जो अच्छे लेख लिख लेता हो या वो जो कुछ नही जानते हुए सिर्फ भक्ति में लीन रहता है।


अतः मैं अपने विचार रखना चाहता हूँ।


ज्ञानी उसको जानिये, पर्यावरण बचाय।


प्रकृति से प्रेम कर, नाम जपत जुट जाय।।1


अपनी फोटो जे पसन्द, सबको जो दिखाय।


समझो उसको ज्ञान न, गागर उलट भराय।।2


छोट छोट सी बात मा, आपा ही खो जाय।


तनिक जो दूजा बोल दे, कच्चा ही खा जाय।।3


मन बसी एक चाह जो, मेरा हो सन्मान।


मेरी जय जय कार हो, यही मेरा ज्ञान।।4


जन कहे हूँ ज्ञानी मैं, वाणी मेरी मान।


मैंने जाना प्रभु क्या, दूजा है बेईमान।।5


विपुल कहे मैं क्या करूं, रस्ता प्रभु बताय।


कैसे बढ़ कर मैं चलूँ, बार  बार गिर जाय।।6


ज्ञानी की इस भीड़ में, विपुल हुआ असहाय।


मूरख जाने जगत क्या, पुनि पुनि धोखा खाय।।

इस सृष्टि का संचालक और पालक ब्रह्म ही है। द्वैत अद्वैत त्री भेद इत्यादि सब हमारे द्वारा अनुभव किये हुए रूप है। जिस प्रकार जल एक है पर कही पर तालाब तो कही कुआ कही नदी सरोवरपर अंततः समुद्र बन जाता है। बीच मे अपना रूप त्याग कर वाष्प रूप धारण कर बादल बन जाता है पर पुनः जल के रूप में आना ही पड़ता है। जिस प्रकार दूध एक है पर रूप बदलने पर नाम अलग हो जाते है उसी प्रकार ब्रह्म एक है पर किस ऋषि ने किस रूप को चखा उसने वही लिख दिया।


अतः किसी को श्रेष्ठ अश्रेष्ठ कहने का सवाल उठाना ही गलत है।


हा यह बोलना कि मैं सही वह गलत यह छोटेपन और अपूर्णता की निशानी है जो बाइबिल या कुरान कहती है कि मेरा और सिर्फ मेरा ही मार्ग सही।


परन्तु एक बात यह है हर रूप के गुण अलग हो जाते है जैसे बर्फ वाष्प और जल। इनके प्रभाव भी अलग हो जाते है।


जैसे जो रस द्वैत में है भक्तिभाव में है वह कही नही।


अद्वैत में ज्ञान है पर अहंकारी और निरंकुश होने का खतरा।


पर द्वैत के नाम पर बेईमानी अधिक होती है। वही अद्वैत के नाम पर दुकानदारी।


कुल मिलाकर मेरा यह अनुभव है। सब किताबे कोने में रख दो। चाहे विज्ञान हो ज्ञान हो। अपने को पढ़ने का प्रयास करो। पहले अंतर्मुखी हो। बाद में तुमको जो अनुभव हो बस वो ही सही।


मेरे विचार से जो गुरू अपने को नहीं सम्भाल सकता वह शिष्य को कैसे सम्भाल पायेगा। कही कुछ गड़बड़ है। शक्ति कभी अपने साधक का अहित नही करती वह तो बचाती है। यह कैसी लीला की शक्ति ही मार रही है।


प्रत्याहार। इसका मतलब होता है। प्रति धन आहार।


हम इंद्रियों के द्वारा जगत को भोगते है। तब यह इंद्रियां और और लगाए रहती है। इंद्रियों की इस और को वासना या लपस्या कह सकते है। और और कई चाह को लालसा कहते है। इन सबसे मन मे जो विकार आता है उसका वास नही होना चाहिए अतः उसे वास ना  कहते है।


यहाँ पर योगी यदि इंद्रियों की पुकार से पुकार से फिसल गया तो यदयपि उसका ज्ञान योग तो नष्ट नहीं होता किंतु कर्म दूषित होने का खतरा बन जाता है। जो समाज मे कानून में निंदननीय हो जाता है।


अतः योगी को प्रति आहार यानी प्रत्याहार की आदत डालने हेतु प्रयास करना चाहिए। मतलब जो इंद्रियों के आहार के विपरीतहो। जैसे स्वामी विवेकानन्द को एक बार केले देखकर खाने की इच्छा हुई। तो उन्होंने केले तो खरीदे पर छिलके खाना चालू किये। गुदा फेक दिया और मन को बोलते गए। ले ढूस ले ढूस। इस प्रकार मन को दंडित किया।


वास्तव में मनुष्य सब प्रत्याहार कर दे किंतु काम को त्यागना बेहद दुर्लभ हो जाता है। और जो प्रायः सन्तो की निंदा का कारण बन जाता है।


कुल मिलाकर यदि मन को वश में कर ले तो प्रत्याहार की आदत बन जाती है। ये मन सबसे बड़ा शत्रु और मित्र है। जहाँ1 एक तरफ जगत की ओर ढेलता है वही यही प्रभु भक्ति की ओर भी ले जाता है। यह सब महामाया के अधीन रहता है। अतः सब प्रभु कृपा से ही होता है। इन सबका एक ही इलाज है बार बार जबरिया अपना मन प्रभु भक्ति में लगाओ मन्त्र जप द्वारा। उसी को समर्पण कर दो सब कुछ। तब ही कल्याण होगा। और अष्टांग योग फलित होगा।


मित्रो यह सब अपने अपने अनुभव है। जो जरूरी नही सबको हो।


मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि यह सब केवल सुंदर शब्दो का खेल होता है। सब हमारे लिए व्यर्थ है।


फिलहाल मेरी तो पूरी यात्रा गुरू दीक्षा के पहले तक सिर्फ और सिर्फ मन्त्र जप से हुई। मुझे तो यह भी नही पता था कि आसन का क्या महत्व है। मैं तो पैर पोछनेवाली बोरी के ऊपर बैठ कर मन्त्र जप करता था। बस नियमित था मन्त्र जप और देवी पाठ में। साथ ही जब मौका मिले जाप करता था। इसके अलावा कुछ न जाना और न किसी ने बताया। जब लखनऊ में था तो नियमित शीतला माता के और फिर मसानी देवी के मन्दिर में 7 परिक्रमा मन्त्र जप के साथ। वह भी जैसे विवाह में लेते है। फिर काल भैरव के दर्शन और एक ही मांग मुजगे माँ के दर्शन चाहिए।

प्रत्याहार। इसका मतलब होता है। प्रति धन आहार।


हम इंद्रियों के द्वारा जगत को भोगते है। तब यह इंद्रियां और और लगाए रहती है। इंद्रियों की इस और को वासना या लपस्या कह सकते है। और और कई चाह को लालसा कहते है। इन सबसे मन मे जो विकार आता है उसका वास नही होना चाहिए अतः उसे वास ना  कहते है।


यहाँ पर योगी यदि इंद्रियों की पुकार से पुकार से फिसल गया तो यदयपि उसका ज्ञान योग तो नष्ट नहीं होता किंतु कर्म दूषित होने का खतरा बन जाता है। जो समाज मे कानून में निंदननीय हो जाता है।


अतः योगी को प्रति आहार यानी प्रत्याहार की आदत डालने हेतु प्रयास करना चाहिए। मतलब जो इंद्रियों के आहार के विपरीतहो। जैसे स्वामी विवेकानन्द को एक बार केले देखकर खाने की इच्छा हुई। तो उन्होंने केले तो खरीदे पर छिलके खाना चालू किये। गुदा फेक दिया और मन को बोलते गए। ले ढूस ले ढूस। इस प्रकार मन को दंडित किया।


वास्तव में मनुष्य सब प्रत्याहार कर दे किंतु काम को त्यागना बेहद दुर्लभ हो जाता है। और जो प्रायः सन्तो की निंदा का कारण बन जाता है।


कुल मिलाकर यदि मन को वश में कर ले तो प्रत्याहार की आदत बन जाती है। ये मन सबसे बड़ा शत्रु और मित्र है। जहाँ1 एक तरफ जगत की ओर ढेलता है वही यही प्रभु भक्ति की ओर भी ले जाता है। यह सब महामाया के अधीन रहता है। अतः सब प्रभु कृपा से ही होता है। इन सबका एक ही इलाज है बार बार जबरिया अपना मन प्रभु भक्ति में लगाओ मन्त्र जप द्वारा। उसी को समर्पण कर दो सब कुछ। तब ही कल्याण होगा। और अष्टांग योग फलित होगा।


मित्रो यह सब अपने अपने अनुभव है। जो जरूरी नही सबको हो।


मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि यह सब केवल सुंदर शब्दो का खेल होता है। सब हमारे लिए व्यर्थ है।


फिलहाल मेरी तो पूरी यात्रा गुरू दीक्षा के पहले तक सिर्फ और सिर्फ मन्त्र जप से हुई। मुझे तो यह भी नही पता था कि आसन का क्या महत्व है। मैं तो पैर पोछनेवाली बोरी के ऊपर बैठ कर मन्त्र जप करता था। बस नियमित था मन्त्र जप और देवी पाठ में। साथ ही जब मौका मिले जाप करता था। इसके अलावा कुछ न जाना और न किसी ने बताया। जब लखनऊ में था तो नियमित शीतला माता के और फिर मसानी देवी के मन्दिर में 7 परिक्रमा मन्त्र जप के साथ। वह भी जैसे विवाह में लेते है। फिर काल भैरव के दर्शन और एक ही मांग मुजगे माँ के दर्शन चाहिए।


वह फलित हुआ। मेरी पहली गुरू माँ काली बनी। फिर उन्होंने वर्तमान गुरू के पास भेजा।

वह फलित हुआ। मेरी पहली गुरू माँ काली बनी। फिर उन्होंने वर्तमान गुरू के पास भेजा।


मुझे सिर्फ इतना पता है और ज्यादा कुछ न मालूम है न जानना है कि सिर्फ मन्त्र जप। दृढ़ श्रध्दा। नियमितता और समर्पण।


सब खुद मिल जाता है।


कल एक मित्र सदस्य बने। ज्ञानी थे शायद तब ही ज्ञान की बाते पोस्ट की। बाद में बिना भूमिका अकारण अपनी दो फोटो भी डाल दी। जब मैंने निवेदन किया जब तक बहुत आवश्यक न हो फोटो पोस्ट न करे। अपने लेख के माध्यम से पर्यावरण बचाने की अपील की। पर वह तो ज्ञानी थे। मेरे विचार से ज्ञानियों में अहंकार बहुत होता है अतः वे जल्दी क्रोधित होकर बिना कारण ग्रुप को छोड़ गए।


ग्रुप में कई सदस्य निष्क्रिय है। परंतु कुछ सदस्यों ने चुपचापmmstm किया है। आपसे अनुरोध है। अपने अनुभव बताये। शोध में मेरी सहायता करें।


कारण यह होता है मनुष्य अपने को जाति से जन्म से उच्च और ज्ञानी समझता है वह एक भृमित सम्मान का पर्दा बना लेता है अतः अपने को छोटा कैसे प्रदर्शित कैसे करे। अतः सब छुप कर करता है।


मित्रो इस ग्रुप का उद्देश्य आत्म उत्त्थान और अवलोकन है। यहाँ सब बराबर। अतः अपना आवरण उतारकर स्पष्ट सामने आकर चर्चा करें। जिससे ग्रुप को डाटा मिले और आपको वास्तविक अनुभव।


मैं इस अनुभव पर पहुचा हूँ कि चूंकि शिव और शक्ति मनुष्य रूप में नही आ सकते अर्थात सम्पूरन साकार। पर कृष्ण ने चुकी मानवअवतार लिया था अतः वह आ सकते है। अतः भक्ति किसी की करो वह कृष्ण पर खत्म होती है।


मेरा भी यही हाल है। कभी कृष्ण की विशेष पूजा न कि पर माँ और शिव कृष्ण की ही ओरे धकेल रहे है। गोपाल कृष्ण कीअनुभूति और दर्शन नुमा अनुभव होता है। ह्रदय भी कृष्ण भक्ति में लीन हो रहा है अपने आप।


यह एक नया अनुभव और खोज है।


यानि शिव शक्ति के दर्शन बन्द नेत्र से तुरीय अवस्था मे ही होते होंगे।


पर विष्णु अवतार साक्षात मानव रूप में। हॉ शिव के हनुमान भक्त के जरूर। क्योकि वह 8 कला में अवतरित हुए। पर साक्षात शिव और शक्ति नही।


सही मायने में यह अलग तरह की खोज है। मुझे लगराधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण ता है शिवशक्ति कृष्ण सबमे अंतर है पर अंत एक है। प्रादुर्भाव एक से हुआ। निराकार सुप्त ऊर्जा से।


मैं शब्दों में शायद न लिख पाऊँ। पर कभी व्याख्यान में शायद मुख से निकल जाए।


हे प्रभु वह अनुभव जो शायद कहीं वर्णित नहीं।


नही बिल्कुल नही। यह सब ईष्ट की कृपा से हुआ है। मन्त्र जप सिर्फ इष्ट का।


मैं मन्त्र जप अंत तक माँ का ही करता रहूंगा।


मेरा मन अब सिर्फ एक शब्द का जप करने का होता है। जो मुझे माँ प्रिय लग रहा है। ॐ भी लम्बा लगता है।


हे प्रभु। यानि मैं न भृमित न गलत। मैं तो सोच रहा था यह सब मेरा भरम हो सकता है।


मित्र जो आप शारीरिक देखते है वह योग नही है। कृपया पहले कुछ लेख पढ़ ले तो वार्तालाप में सुविधा होगी।


आपके प्रश्न सही है और एक आम आदमी की सोंच को दर्शाते है।


लेखो में कई बार योग को समझाने का प्रयास किया है।


यही सनातन की विडंबना है। अधकचरे ज्ञानी अधिक है।

राधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण

इतने सारे भगवान इतने योग देख कर कोई भी भृमित हो सकता है।


लोग भगवान को atm ही समझते है और प्रचारित करते है। यह दुखद है।


योग समझने के लिए कुछ प्रारम्भिक ज्ञान भी आवश्यक है। अंतर्मुखी होने की विधि का पालन के साथ।


आप जिसको योग कह रहे है वह वास्तविक योग नही है।


कृपा करें पहले लेख पढ़ें।


सही। भक्ति के लिए जवान देह चाहिए


मनुष्य का मूल स्वभाव आनन्द है। सन्सार की भौतिक वस्तुओं से जो आनन्द मिलता है वह अस्थाई होता है। जैसे शराब पी बाद का हैंग ओवर कभी कभी बेहद कष्टकारी हो जाता है।


बेटा पैदा किया। बुढापे में लात मार सकता है।


स्त्री भोग किया। उसकी वासना और बढ़ती जाती है। कभी गैर कानूनी काम हो गया तो जेल जाओ।


कार बैंक बैलेंस एक सीमा तक आनन्द देते है फिर और कीलापस्या मानव को बेईमान बनाकर गैरकानूनी काम तक करवा देती है।


जब बुढापे में इंद्रियां शिथिल होती है। पर मन वासनाओ की ओर ही भागता है तब बहुत कष्ट होते है।


कभी कभी इन कारणों से मानव आत्महत्या जैसे संगीन कुकृत्य कर बैठता है।


तो फिर वह क्या है जो स्थाई शांति और आनन्द देता है।


वह क्या है जो संकट के समय हमें सहन शक्ति देता है।


वह क्या है जो दुखो को सहने की क्षमता देता है।


वह है अपने आत्म स्वरूप को जानना। पहले यह जानना हम क्या है।


इसके लिए हमें अंतर्मुखी होना पड़ता है।


मित्र आपने एक भी लेख लिंक का नही पढ़ा है। यदि आप सिर्फबहस करने के लिए जुड़े है तो बात अलग है। पर यदि जानना चाहते है तो कुछ तो आपको ही करना पड़ेगा।


इच्छाएं पूरी नही होती है तो क्रोध उतपन्न होता है। जिससे विवेक नष्ट हो जाता है। जिससे मनुष्य कुछ भी गलत कर सकता है। अतः इच्छाएं सीमित रहे तो बेहतर।


पर सीमित कैसे रहे।


आप आत्मा परमात्मा का अनुभव कर सकते है। मेरी चुनौती औरदावा। पर करना आपको होगा। समय आपको ही देना होगा। इस ग्रुप में ईश को गालियाँ देराधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण कर भी लोगो ने कुछ नए अनुभव लिए है। परन्तु उन्होंने बात मानी और किया।


किसी दूसरे के कर्म से आप अनुभव नही ले सकते।


वासना। यानी वास ना। जिसका वास नही होना चाहिए पर है।


वासना एक अग्नि के समान होती है। इनकी जितनी पूर्ति करो उतनी ही बढ़ती जाती है।


कोई इनको सन्तुष्ट नही कर सकता।


तो फिर इनको सन्तुष्ट कैसे करे।


अंतर्मुखी होकर।


कोई भी अनुभव कैसे ले।


अंतर्मुखी होकर।


एक होती है। सत्व इच्छा जो हमे उत्थान की ओर ले जाती है दूसरी हमे पतन की ओर ले जाती है।


यह भी जानने हेतु हमे अंतर्मुखी होकर जानना होगा।


मित्र आपसे अनुरोध है एक लिंक में दिए लेखों को पढ़ ले। आपके आधे से अधिक प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे। नही तो ऐसे ही भटकते रहो। आखिर मर्जी आपकी। जीवन आपका।


नहीं श्रीमान। इस स्वरूप में स्थित होना न सहज है और न आसान। आत्म दृष्टा स्वरूप कुछ समय के लिए आता है। फिर वही जगत। अतः इस रूप में निरन्तर प्रभु समर्पण और मन्त्र जप बेहद आवश्यक है। नही तो मनुष्य पुनः जगत में वापिस जाने लगता है।


पातंजली महाराज स्थाई रूप से स्थित हो गए थे। पर आज बेहद मुशिकल।


भाई होता यह है कि प्रत्येक ऋषि या मनुष्य अपने अनुभव के और अवस्था के अनुसार लिख देता है। जैसे एक नट तलवार की धार पर चल लेगा क्योकि अभ्यास है। पर एक नया अनाड़ी न चल पायेगा।


मैं अनाड़ी हूँ किंतु सत्य लिखने का प्रयास करता हूँ किसी धर्म ग्रन्थ से मिलने की बात नही करता।


प्रभु कृपा से माँ जगदम्बे की दया से मुझे वेद वर्णित लगभग सभी अनुभव हुए है। पर अक्सर वह पूरे मेल नही खाते।


शायद मेरे अनुभव अपूर्ण या भरम हो।


मनुष्य का भाव 24 घण्टे एक नही रह पाता। अतः कलियुग में जब समय मिले। भक्तो की फिल्में देखो इंटर नेट पर। अपने को चेक करो क्या तुमको प्रभु मिलन की तड़प होती है या विरह पैदा होता है। क्या तुम्हारे प्रेमाश्रु गिरते है।


यदि हाँ तो मैं समझता हूँ। आग जल रही है।


मेरी दृष्टि में तुलसी पातंजली से कम योगी नही थे। पराधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण र वह मन्त्र जप से ऊपर गए।


वास्तव में अष्टांग योग एक मार्ग है अंतिम नही।


अंतिम लक्ष्य है निराकार का अनुभव। जिज्ञासाओं का अंत। चाहे किसी भी विधि से जाओ।


मैं सहमत नही। तमाम ऋषि मुनि इस अवसथा के बाद भी फिसल जाते है।


प्रश्न है महामाया के चक्र का।


मुझे मेरे जीवन मे अपना कोई योगदान नही दिखता। सिर्फ प्रभु कृपा दिखती है। और यही कृपा सबमे दिखती है।


जैसे लाहिड़ी महाराज सिध्द हुए तो उनका क्या योगदान । प्रभु कृपा हुई। सिध्द महावतार मिले। लाहिड़ी सिध्द हो गए।


भाई अब मुझे सिर्फ प्रभु की लीला हर तरफ दिखती है।


मेरे पाप पुण्य सब उसके। मैं कुछ हूँ ही नही। मात्र एक मास का लोथड़ा।


वह जो बुद्दी प्रेरित करता है। बस यह शरीर कर देता है।


जो करता है वह उसकी इच्छा। जिस पर हो रहा है वह उसकी इच्छा।


नही मैं बहुत पापी हूँ। प्रभु कृपा मुझे पूरी नही मिली। सूर तुलसी मीरा सबको साक्षात मानव रूप में प्रभु मिले। मुझे अभी तक नमिले। जिस दिन मुझे कृष्ण के राधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण विष्णु रूप के साक्षात दर्शन होंगे। तब मुझे संतुष्टि मिलेगी और मैं अपने को भाग्यशाली मानूँगा।


हालांकि मैं कुछ नही दोनो वोही। पर इस मांस के लोथड़े को भी चाहिए।


नही बिना प्रभु कृपा के कोई एक घण्टे साधना नही कर सकता।


बिना उसकी कृपा के हम सांस भी नही ले सकते।


सब तरफ उसकी ही कृपा है। उसका ही नूर है।


हाँ हम अपनी बुद्दी को धकेल कर बार बार उसको याद करने की कोशिश कर सकते है। बल्कि वो भी नही।


क्या लिखूं कुछ समझ नही पाता। कौन किसको समझा रहा है। कौन क्या समझ रहा है।


मेरा लिखना बस नाटक मात्र है।


सब तरफ वो ही है।


यार मुझे यह लगता है। जब उसकी कृपा होती है। तब वो ही गुरू बन जाता है। वोही शिष्य बन जाता है। वो ही ज्ञानी बन जाता है वो ही मूर्ख बन कर रहता है।


वो ही भक्त है वो ही विभक्त है। वो ही ज्ञान है वो ही अज्ञान है।


हमको न कुछ जानना है। क्योकि दोनो तरफ वो ही। वो ही शून्य है वो ही अनन्त है।


मैं भृमित होता हूँ कि मैं किसको समझाता हूँ।


मझसे जो आवश्यक होगा करवा लिया जाएगा। मेरी एक ही कोशिश रहती है। बस उसको स्मरण करता रहूँ।


भाई मेरी एक ही बात। प्रभु स्मरण सतत सघन। उसकी याद। समर्पण बस।


इस उत्तर में समझाया गया है कि मनुष्य क्या है। जैसा माना जाता है पंच तत्वों से बना है। अंतिम तत्व आकाश यानि वह जगह जहाँ मन बुद्दी अहंकार सोंच आत्मा परमात्मा सब रहते है। तू वहाँ भी नही है। तू इन सबके चैतन्य स्वरूप का मिश्रण है और वास्तव में मात्र एक देखनेवाले और सब तत्वों के चैतन्य स्वरूप को महसूस करने वाला दर्शक मात्र है।


कहने का अर्थ तू इन सब पंचतत्व जो निष्क्रिय होते है बेजान होते है सिर्फ अपनी अपनी प्रकृति का ही कार्य कर सकते है । वे सब जब मिले तो तू बना। अर्थात तेरा इन पर क्या नियन्त्रण तू मात्र एक दृष्टा है इस बात को समझ लेना और जानना परम् आवशयक है और यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है।

मजा लो यह शक्ति का खेल। नशा तो बन्द कर दिया है न।

एक ज्ञान यह भी। जानना जरूरी है।


#ज़ीन्यूज़ पर एक डिबेट चल रहा था जिसमे श्री राम मंदिर पर गर्मा गर्म बहस चल रही थी।सपा के एक नेता जो नाम से तो हिन्दू था,लेकिन........

बार बार राम मंदिर के अस्तित्व पर सवाल उठा रहा था.

उसके अनुसार अगर श्री राम का मंदिर तोड़ा गया तो इसका जिक्र तुलसीदास ने क्यो नही किया...????

   प्रश्न वाजिब था......वास्तव में मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया था उस बन्दे ने...

     खैर तलाश, रिसर्च प्रारम्भ हुआ और मिल भी गया....


पढ़ें तुलसीदास जी ने भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख किया है!


सच ये है कि कई लोग तुलसीदास जी की सभी रचनाओं से अनभिज्ञ है और अज्ञानतावश ऐसी बातें करते हैं l वस्तुतः  रामचरित मानस के अलावा तुलसीदास जी ने कई अन्य ग्रंथो की भी रचना की है . तुलसीदास जी ने #तुलसी_शतक में इस घंटना का विस्तार से विवरण भी दिया है .


हमारे वामपंथी विचारको तथा इतिहासकारो ने ये भ्रम की स्थति उत्पन्न की , कि रामचरितमानस में ऐसी कोई घटना का वर्णन नही है . श्री नित्यानंद मिश्रा ने जिज्ञाशु के एक पत्र व्यवहार में "तुलसी दोहा शतक " का अर्थ इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रस्तुत किया है | हमनें भी उस अर्थो को आप तक पहुंचने का प्रयास किया है | प्रत्येक दोहे का अर्थ उनके नीचे दिया गया है , ध्यान से पढ़ें |


*(1) मन्त्र उपनिषद ब्राह्मनहुँ बहु पुरान इतिहास ।*

*जवन जराये रोष भरि करि तुलसी परिहास ॥*


श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि क्रोध से ओतप्रोत यवनों ने बहुत सारे मन्त्र (संहिता), उपनिषद, ब्राह्मणग्रन्थों (जो वेद के अंग होते हैं) तथा पुराण और इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थों का उपहास करते हुये उन्हें जला दिया ।

राधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण

*(2) सिखा सूत्र से हीन करि बल ते हिन्दू लोग ।*

*भमरि भगाये देश ते तुलसी कठिन कुजोग ॥*


श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि ताकत से हिंदुओं की शिखा (चोटी) और यग्योपवीत से रहित करके उनको गृहविहीन कर अपने पैतृक देश से भगा दिया ।


*(3) बाबर बर्बर आइके कर लीन्हे करवाल ।*

*हने पचारि पचारि  जन तुलसी काल कराल ॥*


श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि हाँथ में तलवार लिये हुये बर्बर बाबर आया और लोगों को ललकार ललकार कर हत्या की । यह समय अत्यन्त भीषण था ।


*(4) सम्बत सर वसु बान नभ ग्रीष्म ऋतु अनुमानि ।*

*तुलसी अवधहिं जड़ जवन अनरथ किये अनखानि ॥*


(इस दोहा में ज्योतिषीय काल गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाते थे, सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1 अर्थात विक्रम सम्वत 1585 और विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 आता है ।)

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि सम्वत् 1585 विक्रमी (सन 1528 ई) अनुमानतः ग्रीष्मकाल में जड़ यवनों अवध में वर्णनातीत अनर्थ किये । (वर्णन न करने योग्य) ।


*(5) राम जनम महि मंदरहिं, तोरि मसीत बनाय ।*

*जवहिं बहुत हिन्दू हते, तुलसी कीन्ही हाय ॥*

राधा की धारा और  और राम मदिर प्रमाण

जन्मभूमि का मन्दिर नष्ट करके, उन्होंने एक मस्जिद बनाई । साथ ही तेज गति उन्होंने बहुत से हिंदुओं की हत्या की । इसे सोचकर तुलसीदास शोकाकुल हुये ।


*(6) दल्यो मीरबाकी अवध मन्दिर रामसमाज ।*

*तुलसी रोवत ह्रदय हति त्राहि त्राहि रघुराज॥*


मीर बाकी ने मन्दिर तथा रामसमाज (राम दरबार की मूर्तियों) को नष्ट किया । राम से रक्षा की याचना करते हुए विदीर्ण ह्रदय तुलसी रोये ।


*(7) राम जनम मन्दिर जहाँ तसत अवध के बीच ।*

*तुलसी रची मसीत तहँ मीरबाकी खाल नीच ॥*


तुलसीदास जी कहते हैं कि अयोध्या के मध्य जहाँ राममन्दिर था वहाँ नीच मीर बाकी ने मस्जिद बनाई ।


*(8)रामायन घरि घट जँह, श्रुति पुरान उपखान ।*

*तुलसी जवन अजान तँह, कइयों कुरान अज़ान ॥*


श्री तुलसीदास जी कहते है कि जहाँ रामायण, श्रुति, वेद, पुराण से सम्बंधित प्रवचन होते थे, घण्टे, घड़ियाल बजते थे, वहाँ अज्ञानी यवनों की कुरआन और अज़ान होने लगे।


अब यह स्पष्ट हो गया कि गोस्वामी तुलसीदास जी की इस रचना में जन्मभूमि विध्वंस का विस्तृत रूप से वर्णन किया किया

है!

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

रथ हांकते कृष्ण का अर्थ और भेद


 रथ हांकते कृष्ण का अर्थ और भेद

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) पूर्व परमाणु वैज्ञानिक, भारत सरकार, लेखक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info
 
आपने अक्सर घरों में कार्यालयों में भगवान श्री कृष्ण की अर्जुन के रथ को हांकते हुये तस्वीर देखी होगी। क्या आपने सोंचा कि यही तस्वीर आपके प्रश्न का सटीक उत्तर देती है। जी, इस तस्वीर के कई अर्थ हो सकते हैं पर जो जीवन से सम्बंधित हैं। पहला कि इस जगत में सारा कार्य प्रभु कर रहा है तुम बस अर्जुन की भांति जीवन की संग्राम भूमि में चलते जा रहे हो युद्ध करते जा रहे हो। संकटों में ईश ही सहायक है। दूसरा ईश के वचनों का मार्ग का पालन करो तो तुम युद्ध जीत लोगे। तीसरा जीवन की रण भूमि में सिर्फ ईश ही खेवन हार। चौथा ईश की ही शक्ति से तुम जगत व्यवहार कर सकते हो।


पर इसके दार्शनिक अर्थ हैं। कि अपनी दस इंद्रियों को मन रूपी लगाम से नियंत्रित कर बुद्धि की चाबुक से अधीन रख और उसको आत्म रूपी ईश के आधीन कर चलने दे। अर्जुन बन कर अपने लक्ष्य पर संधान कर और प्रहार करते हुये जीवन की रण भूमि आगे बढता जा।

अब आप कुछ समझ चुके होंगे कि मन क्या है। यह जो मन है हमारी इन्द्रियों को आपने अधीन बना कर रखता है। जिन इन्द्रियों से हम कार्य करते है,  वह हमारे कर्म बन जाते है,  वो इन्द्रिया हमारी कौन सी है। दशरथ जो भगवान् श्रीराम के पिता थे। रामचरितमानस ग्रन्थ के अनुसार कहा जाता है उन्होंने श्रीराम जो उनके पुत्र थे के वियोग में प्राण दे दिए थे किन्तु प्रश्न यह उठता है की प्राचीन काल में यथा गुण तथा नाम रखे जाने का प्रचलन था दशरथ का तात्पर्य यह होता है की दस रथो पर एक साथ नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति दस रथ कौनसे ? इसका आशय यह है की मानव शरीर में दस इन्द्रिया होती है। जिनमे पांच ज्ञान इन्द्रिया पांच कर्म इन्द्रिया। दो आंखे, दो हाथ, दो पैर, एक नासिका,  मुँह, ये हैं कर्मेंद्रियां।  इसके द्वारा हम जो भी कार्य करते है, । इन इंद्रियों द्वारा जो ज्ञान मिलता है वह ज्ञानेंद्रियां।

हमारी इन्द्रिया सारे के सारे काम मन की आज्ञा अनुसार ही करती हैं। मन यानी इंद्र। क्यों कि मन बाहर की दुनिया में लगाकर रखता है। जैसे कि आँखों से हम संसार के अच्छे या बुरे दृष्य देखते हैं, कानों से हम अच्छी बुरी बातें सुनते हैं। और मुँह से हम सात्विक या तामसिक भोजन खाते है,  हाथो से बुरे कार्य करते है, इत्यादि। मन को गलत काम तो ज्यादा अच्छे लगेंगे वह ज्यादा करेगा। अच्छे काम में इसका दिल नहीं लगता जैसे कहीं पर पार्टी हो वहा तो वो आदमी भाग कर जायेगा वहा चाहे सारी रात लग जाए वहा पर बहुत खुश होगा और कही सत्संग होगा चाहे दो घंटे का हो वहा जाना पसंद नहीं करेगा।

आप कोई भी कर्म जो असमाजिक हो करते है तो अंदर से कोई आपको न करने की सलाह देता है। यह बुद्धि है जो विवेकशील होती है। आत्मा के निकट। पर मन नहीं सुनता इंद्रियों को आदेश देकर वह कार्य कर बैठता है।


श्रीभगवानुवाच (श्रीमद भग्वदगीता अध्याय 6 श्लोक 35} 

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥


श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा;  असंशयम् – निस्सन्देह;महाबाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; मनः – मन को; दुर्निग्रहम् – दमन करना कठिन है; चलम् – चलायमान, चंचल;अभ्यासेन – अभ्यास द्वारा; तु – लेकिन; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; वैराग्येण – वैराग्य द्वारा; च – भी; गृह्यते – इस तरह वश में किया जा सकता है |


हे महाबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है;  परंतु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ।।

बुद्धि जानती है। समझती है। मन का काम है मानना। पर साधारतय: हमारी बुद्धि मन के अधीन हो जाती है जो पतन का कारण बन जाती है। जबकि होना उलटा चाहिये। तब ही हम सही मार्ग पर चल सकेगें।


चलिये कुछ और समझने का प्रयास करते हैं।


योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।


ये पाँच कोश हैं -


1.  अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से निर्मित। शरीर और मस्तिष्क।

2.  प्राणमय कोश - प्राणों से बना।

3.  मनोमय कोश - मन से बना।

4.  विज्ञानमय कोश - अंतर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना।

5.  आनंदमय कोश - आनंदानुभूति से बना।


योग मान्यताओं के अनुसार चेतन और अवचेतन मान का संपर्क प्राणमय कोश के द्वारा होता है

पर मैं वैज्ञानिक स्तर पर कुछ और कोश की बात करना चाहता हूं।


1.   आपने भोजन किया। कहां गया पेट में तो यह स्थूल पेट। जिसे अन्नमय कोश कहें। यहां पाचन होकर रस बना।


2.   अब पाचन के बाद ऊर्जा मिली यानि अग्नि जो पैदा होती है कर्म करने के लिये। तो मैं कहूंगा अग्निमय कोश।


3.   अब अग्नि यानि ऊर्जा ने हमें जिंदा रखा। इस अग्नि ने हमारे प्राण की रक्षा की तो हुआ प्राणमय कोश।


4.   अब जब हम जिंदा है तो मन बोलता है ये करो वो करो। प्राण शक्ति मन को जीवित रखती है। बिना प्राण के मन सम्भव नहीं। अत: मनो मय कोश।


5.   अब मन को नियंत्रित होना चाहिये बुद्धि से। यानि बुद्धिमय कोश।


6.   अब बुद्धि हमेशा सही बात करती है। मन हमें भटकाता है। यानि बुद्धि नियंत्रित है आत्मा से जो कि ईश है। तो हुआ आत्ममय कोश।


7.   अब जब हम आत्ममय कोश तक पहुंचे तो मन से सुख दुख गायब हो गये और हम आनन्द में लीन हो गये। तो हुआ आनन्दमय कोश।

यहां पर अंतर है बुद्ध दर्शन में वो आनन्दमय कोश की जगह दु:खमय कोश मानते हैं। जो सही नहीं है। ईश को आनन्दकंद कहते हैं। यहां पर दृष्टिभेद इसी लिये आया क्योकिं बुद्ध अनीश्वरवादी निराकार मानते थे। आनन्द साकार की ही देन है। क्योकि ईश सर्वाकार है।

बच्चे के बुद्धि विकसित होती है। जगत को देखकर पर मन कुछ भी कराता है। पर कुछ बालक कुछ अलग बात करते हैं जो कारण होता है प्रज्ञा का। यानि प्राकृतिक ज्ञान। वह ज्ञान जो प्रारब्धवश लेकर पैदा हुआ। मतलब बुद्धि जगत से आई जगत में गई। प्रज्ञा अंदर से आई जगत में गई। यही कारण है कुंडलनी जागरण से प्रज्ञा भी विकसित होकर कुछ नया करवाती है। अहम ब्रह्मास्मि की अनुभुति के साथ प्रज्ञा खुलकर ज्ञानमय ग्रंथी खोलकर आत्म गुरू जागृत कर देती है।

बस इसके आगे आप ज्ञानी बतायें। मैंनें जो सोंचा लिख दिया। मीमांसा आपके हाथ।

मैंने एक लेख में इन्ही का जिक्र किया है। प्राण फंस गए। न अंदर न बाहर। यह नतीजा होता है बिन समर्थ गुरू साकार गुरू के समाधि का प्रयास करना। हालाँकि यह यदा कदा होता है पर यह आपके साथ नही हो सकता है क्या।

कारण इनके चेले इनको इसी अवस्था मे नहला धुला रहे है। पर यह न आंख खोल पाते है न कुछ खा पाते है। पर है जिंदा।

मैं गलत भी हो सकता हूँ। हो सकता है यह समाधि का कोई और तरीका हो। मात्र फोटो से सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है।

स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने भी ऐसे एक साधु का जिक्र किया था।


अक्सर देखने को मिलता है कि सोशल मीडिया पर कि ज्ञानी बुद्धिजन ईश के साकार निराकार द्वैत अद्वैत सगुण निर्गुण के रूप पर एक दूसरे को गलत सही बताने में लगे रहते हैं कि तू गलत मैं नहीं। यह तो कुछ इसी प्रकार हुआ कि एक गांव में सब अंधे रहते थे। उस गांव में एक बार एक आंखवाला एक हाथी लेकर आया। पूरे गांव में शोर मच गया कि हाथी आया हाथी आया। अब सब लोग अंधे तो हाथी देखें कैसे। तय हुआ छूकर देखा जाये। एक अंधा बढा उसने सूंड पकडी तो बोला हाथी तो मोटी रस्सी जो घूम भी जाती है। वैसा ही होता है। दूसरे की पकड मे कान आये तो बोला। गलत हाथी तो सूप जैसा होता हैं। तीसरे ने पैर को छूआ तो बोला गलत हाथी तो मोटे खम्भे जैसा होता है। चौथे ने पूंछ पकडी और बोला तुम सब बेवकूफ हाथी तो रस्से जैसा पतला होता है। पर जो महावत ऊपर आंखवाला बैठा था वह देखता हुआ बोला ठीक है अब तुम्हारे हाथ में जो हैं पकडकर ऊपर तो आओ। अंधे ऊपर चढे तो बोले अरे यह तो छत जैसा है। यहां पर चारो का मत एक हो गया। पर फिर लडने लगे कि मेरा वाला मार्ग सही था। पर आंखवाला महावत देख सकता था कि किसी भी तरफ से हाथी पर चढा जा सकता है।


बस कुछ ऐसे ही होते हैं ज्ञानी जो आम मानव से ऊपर,  पर होते हैं अपूर्ण ज्ञानी। सिर्फ जिसने ऊपर चढकर आंख खोली वह ही देख सकता है जान सकता है कि किधर से भी हाथी पर चढ सकते हैं। अब आप खुद देखें इस जगत में ज्ञानी बहुत हुये पर अपूर्ण और अंधे। उनमें पूर्णता में कमी रह गई इसी लिये अपनी गाकर चले गये और पीछे छोडकर अनुभवहीन या उन्ही के मार्ग से प्राप्त अनुभव वाले जो वो ही ढिढोरा पीटने में लगे हैं। समाज में इनकी संख्या अधिक है। पर महावत तो सिर्फ कुछ इक्का दुक्का और उनकी भी सुनें कौन। मित्रों इन महावतों की श्रेणी में आते हैं कुछ समर्थ शक्तिशाली कौल गुरू जो महावत की तरह किसी को भी किसी मार्ग से ऊपर खींच ले। पर इस प्रकार के सामर्थ्यवाले प्रचार प्रसार से दूर सिर्फ शिव के शक्ति के सहारे जगत में चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं।


आप देखें मैं नाम न लूंगा पर अलग दुकानें आश्रम जहां गुरू जी यही बहस करते हैं नहीं एक सत ॐकार बाकी सब बकवास गलत। सिर्फ ॐ का जाप करों। ईश्वर निराकार अद्वैत निर्गुण। तो दूसरा कहेगा नहीं सब गुरू का चक्कर छोडों राम कृष्ण ने नवार्ण मंत्र किया काली प्रकट हुई वो ही सही कोई और बोलेगा सिर्फ गायत्री की साधना करो। तो तीसरा नहीं राम राम बोलो। ईश्वर साकार है देखो मीरा सूर तुलसी तुकाराम ज्ञानेशवर तमाम लोग साकार की भक्ति कर तर गये। तो कहीं बोला जायेगा नही कोई कुण्डलनी नहीं सिर्फ ब्रह्मा बाबा सबका मालिक, पति पत्नी भाई बहन बन जाओ। लाल प्रकाश पर त्राटक करो। कहीं, सब बेकार एक मात्र रास्ता है योग अभ्यास खेचरी करो। प्राणायाम करो समाधि लगाओ। निराकार तक पहुंचों। तो कहीं यज्ञ करो। यज्ञ ही श्रेष्ठ है। स्वामी दयानंद सरस्वती साकार का खंडन करते थे। मूर्तिपूजा के विरोधी थे। तैलंग स्वामी ने उनको एक पत्र लिखा स्वामी दयानंद को साकार की भीषण अनुभुति हुई कि उसके बाद मूर्ति पूजा का विरोध बंद कर दिया। यहां पर जितने मुंह उतनी बातें कि एक आम हिंदू चकराकर गिर जाये और हाथ जोडकर बोलने लगे सब बकवास है। मानव सेवा करो वो ही सर्वश्रेष्ठ है।


मेरा जो अनुभव है और मानना है कि ईश का यहां तक अपना भी अंतिम रूप निराकार है। सिर्फ सुप्त उर्जा जिसे निराकार कृष्ण या गाड या अल्ल्ह कहते है। जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। पर मानव की शक्तियां असीमित अत: ईश को मंत्रों और साधनाओं में साकार रूप में आना ही पडता है। प्रारम्भ मंदिर और मूर्ति पूजा से होता है फिर मंत्र जप फिर परिपक्व होने पर भक्ति उत्पन्न होती है। जिसके साथ द्वैत भावना और समर्पण फिर प्रकट होती है परम प्रेमा भक्ति। जो आनंददायक प्रेमाश्रु देती है जिसका आनन्द असीम। जो अनुभुति देता है प्रेम की विरह की। यहां तक उद्धव को गोपियों ने उल्टे पांव लौटा दिया था और उद्धव अपनी ज्ञान की पोटली छोडकर उलटे पांव लौट गये थे। यहां तक कुंती ने कृष्ण से वर मांगा कि तुम मुझे अपनी साकार भक्ति का ही आशीष दो। मुझे मोक्ष से क्या लेना देना।


यही प्रेमा भक्ति उस शक्ति को मजबूर करती है कि वह साकार रूप में साक्षात प्रकट हो जाती है। तब प्राप्त होता है भक्तियोग। कभी कभी राम रस का भी स्त्राव सहस्त्रसार से होता है जो हमेशा नशा देता रहता है।


यहां तक द्वैत भाव रहता है साकार सगुण ही रहता है। फिर अचानक आपका ईष्ट आपको बैठे बैठे अहम ब्र्ह्मास्मि। शिवोहम्। एकोअहम द्वितीयोनास्ति । जैसी अनुभुतियां कराता है। तब प्रकट होता है ज्ञान योग। अद्वैत का भाव। इसके भी आगे अचानक इस अनूभूति के  साथ निराकार की अनुभुति और कभी देव आह्वाहन में अंदर से आवाज अरे मैं तेरी आत्मा में ही विराजित हूं। तू मुझसे अलग नहीं। तू आत्म भज मेरे निराकार रूप को आत्मा में देख। तब वास्तविक अद्वैत घटित होता है। कुल मिलाकर यह तीन अनुभव ज्ञान योग दे जाते हैं।


अत: पूर्ण वह जो साकार से निराकार. द्वैत से अद्वैत, सगुण से निर्गुण की यात्रा करे। अनुभव अनूभूतियां ले। पर होता क्या है। पहले ही अनुभव के साथ मानव का आत्म गुरू जागृत हो जाता है। ज्ञान की कुछ ग्रंथियां खुल जाती है। जिससे आदमी बलबला जाता है। गुरू बनने की तीव्र इच्छा,
भावना, अपने को श्रेष्ठ समझना जैसी भावनायें आदमी को बहा ले जाती हैं। यह ईश की गुरू की कृपा होती है कि कुछ लोग इसमें नहीं बहते हैं पर अधिकतर बह जाते हैं। वास्तव में यह परीक्षा होती है पर अधिकतर अनुतीर्ण ही होकर बिना गुरू आदेश परम्परा के गुरू बन जाते हैं। फिर शुरू होती है चेले और अश्रमों की संख्या गिनती। जिसमें फंसकर साधक का पतन ही होता है क्योकिं खुद की पूंजी चेलों पर लुटाई और साधना का समय नहीं। इसी के साथ मन भी जागृत होकर उल्टा समझाने लगता है जो गलत काम भी करवा देता है। कोई भगवान या महायोगी बन जाता है और दुकान खोल लेता है।


मेरे कृष्ण पूर्ण योगी क्योकि उन्होने कहा सभी मार्ग ईश तक जाते हैं।


बुद्ध अपूर्ण ज्ञानी या योगी क्योकि सिर्फ निराकार और अनीश्वरवाद। हलांकि इनके पहले गुरू आलारकलाम और दूसरे शिवरामदत्त्पुत्त सनातनी ही थे।


महावीर गुरू शिष्य परम्परा के सनातन वाहक पर देव पूजा की जगह 24 तीर्थयंकर की पूजा


शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, कबीर, तुलसी, गुरू नानक देव, श्री राम शर्मा आचार्य इत्यादि पूर्ण ज्ञानी। साकार से निराकार


जीसस अपूर्ण ज्ञानी क्योकि सिर्फ मुझे ही मान


मोहम्मद अपूर्ण ज्ञानी क्योकि जो मुझे न माने उसे सजा दो। सिर्फ निराकार


ओशो अपूर्ण अज्ञानी और पापी ज्ञानी सिर्फ निराकार


सारांश यह है कि जो ईष्ट अच्छा लगे प्रिय लगे उसको सतत याद करो। मंत्र जप नाम जप चरित्र स्मरण के द्वारा। ये ही नाम तुमको तार देगा। सारे ज्ञान अनुभव दे देगा। करा देगा साकार से निराकार। सगुण से निर्गुण। द्वैत से अद्वैत की यात्रा। बस बढे चलो बढे चलो साधना के पथ पर। बिना सोंचे बिना कुछ समझे। अपने ईष्ट को समर्पित होकर। सब ईश एक हैं सिर्फ नाम अलग है। कोई भी सिरा पकडो पर कस कर पकडो।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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