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Monday, April 2, 2018

सांख्य योग के गूढार्थ


सांख्य योग के गूढार्थ

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.com     वेब चैनल:  vipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet”

        





जैसा कि हम जानते हैं कि योग यानी जुडना। किससे जुडना। वेदांत महावाक्य प्राथमिक द्वैत के अनुसार अवस्था बतलाता है आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है जो भक्ति मार्ग से सहजता से प्राप्त होता है। 


          
पातन्ज्ली समझाते है जो काफी आगे की बात चित्त में वृति का निरोध यानी कार्य में आसक्ति के बिना कार्य जिससे हमारे चित्त में कोई तरंग पैदा हो हलचल हो जो चित्त में संस्कार संचित कर दे। यानी कर्म योग। यह तब होता है जब हम कर्म करते समय भी योग में र्हे। 


          
भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भग्वद्गीता में कहते है। जिसका अर्थ समझा जा सकता है कि पहले मिला भक्ति योग जब यह परिपक्व हुआ तो आया कर्म योग और जब यह भी परिपक्व हुआ तो आया ज्ञान योग। 


          
वास्तव में सारे योग के अर्थ एक साथ ही घटित होते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार जिसमें समत्व की भावना समबुद्दी यानी स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्दी है वह योगी है। यह सब बहुत आगे की योग परिपक्वता के साथ ही होता है। जब कृष्ण का निराकार रुप समझ में आने लगता है। शिव शक्ति भी कृष्णमय होने का अनुभव होता है तब आता है ज्ञान योग 


          
इनको जानने हेतु सत्युग में हजारो साल का तप द्वापर में कुछ सैकडो त्रेता में कुछ महीने और कलियुग में कुछ घंटों में जाना जा सकता है। एक जीवनकाल पर्याप्त है कलियुग में। यही कलियुग की महानता है। क्योंकि कम्प्टीशन है ही नहीं। जहां सत्युग में प्रत्येक मानव ज्ञान प्राप्त करना चाहता था वहीं कलियुग में नाम जपनेवाला भी ज्ञान मांगनेवाला भी करोडो में एक।





कपिल मुनि ने मीमांसा शास्त्र में सांख्य की बात की है जो सन्यासी के लिये श्री कृष्ण ने कहा है। 

        
मैंने अपने चिंतन को परखने के लिये कलियुगी भौतिक महागुरु गूगल को इंटरनेट पर देखा तो मुझे लगा कि इसकी व्याख्या अधिकतर उन्होने करने का प्रयास किया है जो थे संस्कृत के महा पण्डित पर अपने को पढ पाये थे। अत: मेरी व्याख्या जो मैंनें बिना पुस्तक पढे गुरु महाराज की दया और शिव शक्ति की कृपा से आत्म गुरु से प्राप्त की है। 

          
मेरे विवेक के अनुसार कपिल मुनि बेहद उच्च कोटि के ज्ञानी और विज्ञानी थे। वे महाकवि भी रहे होंगे। क्योंकि उनको समयकाल की गणना मालूम थी अत: उन्होने सांख्य शब्द का प्रयोग मीमांसा कर किया। यहां सोचने की बात है कि समय को उन्होने 24 भागो में बांटा यानी संख्या दी पर योग का नाम सांख्य क्यों रखा। इसकी व्याख्या नेट पर मिलेगी। अत: मैं गलत भी हो सकता हूं। यह तो आप विद्वान ही बतायेगे। 


           चलो यूं समझे शिव / शिवा, निर्झर / निर्झरा, राम / रमा, विपुल विपुला / सोना सोनी क्या समझे जब किसी सार्थक शब्द में की मात्रा लग जाती है तो वह पुरुष से स्त्री बन जाता है। यानी लिंग बदल गया। अत: संख्या जो गणना की शक्ति है वह गणन है अर्थात शिव। यानी आदमी पुरुष और स्त्री प्रकृति यानी औरत। शक्ति परा तो शिव पुरुष। यानी शिव ही शक्ति के साथ मिलकर सृष्टि का निर्माण करते है। और यह ही अर्ध नारीश्वर को भी समझाता है। 

         
आज का विज्ञान कहता है पुरुष के शुक्राणु में में एक एक्स और एक वाई जीन होता है जबकि स्त्री में सिर्फ दोनो एक्स एक्स। यानी गुणसूत्र का जीन सिर्फ पुरुष के पास पर इनको धारण करने की शक्ति सिर्फ स्त्री के पास। मतलब पुरुष भी आधा स्त्री और आधा पुरुष होता है। 

          अब जब यह मानव का निर्माण करते हैं तव इसी शिव शक्ति से साथ जो मिलना होता है वह है योग। ध्यान दें जब यह योग अल्प कालिक होकर समय के 24 खंडो तक रहता है तब संन्यास की अवस्था आती है। गेरुआ वस्त्र, अपना पिण्डदान, नया नाम यह सब भौतिक रूप में होते है। 

          
वास्तविक सन्यास यानी सं धन न्यास मतलब पौराणिक माने तो ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक मानस-पुत्र, सनई  [सं-स्त्री.] जूट की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा, सनई के पौधे का रेशा; श्वेतपुष्पा। सनक [सं-स्त्री.] पागलों की-सी प्रवृत्ति, धुन या आचरण, झक जुनून। मुहावरा  सनक सवार होना, किसी काम या बात की धुन चढ़ना। सनकना [क्रि-.] - पागल या उन्मत्त हो जाना, पगलानाझक्की हो जाना, वेग से हवा में जाना या फेंका जाना। सनकी [वि.] सनक से भरा, जिसे किसी प्रकार की सनक या धुन हो, ख़ब्ती, धुनी, झक्की। सनतकुमार [सं-पु.](पुराण) ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक, वैधात्र जैनों के बारह सार्वभौमों या चक्रवर्तियों में से एक, जैनानुसार तीसरे स्वर्ग का नाम, सदैव युवावस्था में रहने वाला तपस्वी। सनद [सं-स्त्री.] ऐसी चीज़ या बात जिसपर भरोसा किया जाए, सबूत, प्रमाण,  प्रामाणिक कथन, प्रमाणपत्र, उपाधि; डिग्री। 


           ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार   न्यास  का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की  स्थापना ही न्यास है। इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है, इसलिए इसे देव पूजा का तबतक अधिकार नहीं है जब तक यह शुद्ध एवम दिव्य हो जाये। जब तक इसकी (हमारे शरीर की  )अपवित्रता बनी  है, तब तक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि  का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही  कारण है कि मन तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही। इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 

         
शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित  है, उनको जगाने के लिए न्यास अचुक  महा औषधि है। शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्र सिद्धि हो जाती है। 

         
हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है मात्र इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।


           अब आप जो समझे सं और न्यास का जुडाव हुआ संन्यास। यह जुडाव समय के 24 ख़ंडो तक रहे दूसरे अर्थों में जो पाने के बाद हमेशा पाता रहे और गलता रहे। यह हुआ सरल भाषा में मेरे विचार से सांख्य योग। एक बात और योग की इस व्याख्या को जो बिना गुरु का या निराकार का उपासक है वो बिल्कुल समझ सकेगा अनुभव तो बहुत दूर की बात है। 

             
यानी 24 घंटे वेदांत महावाक्य वाला योग होता है सांख्य योग। इस प्रकार के योगी को महायोगी कहा जा सकता है।

योग के दर्शनशास्त्र की मीमांसा की यही मीमांसा है।

                          श्री हरि विष्णु नम: 


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल  

अहंकार या अहम का आकार

अहंकार या अहम का आकार

                                                
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
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          आज सुबह हमारे सहकर्मी ने एक बहुत सुंदर बात कही “ जो


इस   लाइन (आध्यात्मिक) के लोग होते हैं उनमें अहंकार और मैं
बहुत होता है”। उस समय इस बात पर जो उत्तर मिला। वह पोस्ट
करता हूं

देखो आध्यात्म में शक्ति जागरण के पश्चात जो अनूभूति होती है वह अहमब्रम्हास्मि यानी मैं ही ब्रह्म हूं। एकोअहम द्व्तियोनास्ति यानी मैं एक और दूसरा कोई नहीं। सोअहम यानी वो मैं ही इस जगत 

में। यहां ईश्वर केवल आपको मैं क्यों बोल रहा है। यह अनुभव मैं के द्वारा क्यों करा रहा है। 

अब दूसरा वाक्य जगत से मैं धनवान हूं। मैं 1000 लोगों का पेट पाल रहा हूं मैंने 1 लाख गायत्री जप किये। मैं भगवान हूं। मै ओशो हूं। मुझे ही निराकार की अनूभूति है। मंदिर गलत मस्जिद गलत है। 

यहां भगवान देखो क्योकि मैंने देखा। मैं कहता हूं सम्भोग से समाधि इत्यादि। जैसे सभी मेरी ऊचाई पर हैं वह मेरी बात का गलत अर्थ नहीं लगायेगे।  

इन शब्दो में अंतर नहीं है क्या। खुद सोंचो। ब बात अहम के आकार की यानी अहंकार की। पहली वाली पहले बताये मानव के लिये। 

बाद वाला दूसरे उदाहरित मानव के लिये। जब गुरु अपने शिष्य को टीचर जो गुरु है बोलता है तुम गलत  हो तो यह उसका अह्न्कार हो गया क्या। मां अपने बेटे को बाप अपने बेटे को बोले बेवकूफ तू मूर्ख है। यह तो मां बाप का भी अहंकार कहलायेगा क्या।

एक नंगे के शव से चिकित्सक भौतिक ज्ञान यानी डाक्टरी सीखता है। 

शव साधक अघोरी शिव तक पहुंचने का प्रयास करता है। 

हिंसक पशु उसको भोजन समझ कर खाने लगता है। 

व्यापारी अंग प्रत्यंग बेचने लगता है 

और चाण्डाल उसे कर लेकर जला देता है। 

यानी व्यापारी भी धन कमाता है और चाण्डाल भी। 

पर व्यापारी और कर्म भी कर के धन कमा सकता है पर चाण्डाल का निर्धारित कर्म है। 

समाज सेवा है एक तरह की। 

अब बताओ पाप कर्म किसका। 

मेरे अनुसार केवल व्यापारी का यानी आज जो धर्म के दुकानदार कर रहे हैं। 

भगवान जिसके अधीन माया है वह बनकर माया के अधीन प्राणी धर्म के शव को भी छिन्न भिन्न कर पतित हो रहे हैं

अत: मित्रो अहंकार को जानना ही ज्ञान है। पर अहंकार पालना पाप और विनाशक। 

हरि ओम हरि



  "MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल



क्या कुंडलनी जागरण से मिलती हैं सिद्दियां

                                              
 क्या कुंडलनी जागरण से मिलती  हैं सिद्दियां



विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
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मैं अक्सर देखता हूँ कि चर्चा और पोस्ट में लोग यह समझते है कि कुण्डलनी जागरण तो सीधे सिध्दियां मिली। मैं उनसे निवेदन करना चाहता हूँ। कि पहले वह कुण्डलनी शक्ति को ठीक से समझे।

मनुष्य के निर्माण के बाद जो ऊर्जा बचती है वह एक कन्द के मूल में गुदा और योनि के मध्य जिसे मूलाधार कहते है वहाँ सोई रहती है। जैसे पीपल का बीज कितना छोटा होता है पर उसमें पेड़ के निर्माण की ऊर्जा समाहित होती है। उसी प्रकार मनुष्य शारीरिक और मानसिक विकास के साथ यह ऊर्जा खत्म नही होती है। यू यदि देखे तो यह सम्पूर्ण जगत ऊर्जा का ही एक रूप है। जहाँ सब तरफ ऊर्जा यानी शक्ति भरी पड़ी है। पर चूंकि मनुष्य के पिंजरे में वह ऊर्जा सोई रहती है अतः मनुष्य महसूस नही कर पाता।

यदि हम इसको अलग करे। तो ऊर्जा के दो प्रकार एक तो ब्रम्ह शक्ति दूसरी कुण्डलनी शक्ति। पहली वाली सर्वत्र व्याप्त दूसरी हमारे अंदर। यू समझो जैसे पानी के भरे टब में कुछ पानी भरके गुब्बारे छोड़ दिये। अब पानी तो गुबारे के अंदर भी है और बाहर भी पर कोई कनेक्शन नही है

दोनो में एक ही पानी पर है अलग अलग। कुछ यही हाल है शक्ति का। यह ब्रह्म शक्ति मन्त्र जप से जागती है। मनुष्य को अनुभूतियां देती है। एक समय के बाद यह शक्ति इतनी अधिक आंदोलित होती है कि हमारी कुण्डलनी शक्ति को भी जागृत कर देती है। यह प्रायः जब होता तब मनुष्य को साकार के देव दर्शन भी जाते है। निराकार की कुछ अनुभूतियाँ पर ज्ञान नही। हो जाता है।

दैवत कारणों से यह कुण्डलनी यदि जागकर किसी चक्र के कमलदल में पहुची और कुछ पंखुड़ियों को आंदोलित किया तो कुछ आणिमाई सिध्दियां स्वतः हाथ लगती है। मूर्ख लोग इन सिद्दियों को पाकर इन्ही में जुट जाते है। पर समझदार इन पर ध्यान न देकर अपनी भक्ति में लीन होकर इनको कंकर पत्थर समझकर ध्यान न देकर आगे बढ़ जाते है।

यहाँ ध्यान देनेवाली बात है कुण्डलनी पर। जो तीन अवस्थाओ को प्राप्त कर सकती है। पहली जग गई पर मुंह औधाये पड़ी रही निष्क्रिय। दूसरी जग गई सुषुम्ना नाड़ी को छुआ और फिर मुंह उल्टा कर सो गई। तीसरी सुषुम्ना नाडी में प्रवेश किया।
इन तीनो अवस्थाओ की क्रियाये और अनुभव अलग अलग हो सकते है।

अब जब तीसरी अवस्था मे कुण्डलनी सुषुम्ना में चढ़ने लगी तो दो अवस्थाये हो जाती है पहली वह चक्रो के कमलदल को बीच से भेदे और आगे बढ़ जाये। इस अवस्था मे उस चक्र की क्रिया अनुभव होंगे पर सिद्दी न मिलेगी। ज्ञान मिलेगा पर चमत्कार नही। पर आपकी साधना के कारण या किसी अन्य कारण से जैसे आपकी सिद्दी प्राप्ति की धारणा या इच्छा के कारण यह उसी चक्र में फंस गई और पुष्पदलो को उद्देलित करने लगी तो वह पुष्पदल भी जागृत हो कर आपको उस चक्र की सिद्दी दे देंगे।

मैं समझता हूँ अब आप समझे होंगे कि मात्र कुण्डलनी जागरण से सिध्दियां नही मिलती। यह एक अवस्था है। बाकी आप पर निर्भर है कि आप ज्ञान लेकर ऊपर जाना चाहते हो या समय गंवाकर सिद्दी प्राप्त करना चाहते हो।

अब बात चक्र साधना कि चूंकि यह साधना है अतः इसको नमन पर है यह बेकार की वस्तु। क्यो। क्योकि आप इसमें किसी विशेष चक्र को आंदोलित कर उनके पुष्प दलों को छेड़कर सिद्दी प्राप्त करना चाहते है जो लंबे समय मे आपको भारी पड़ सकता है। मैंने कही पढा नही है। अपना अनुभव लिख रहा हूँ। चक्र साधना में हम किसी विशेष चक्र को आंदोलित करते है। वहाँ आवश्यक नही कि आप कुण्डलनी को जागृत कर रहे है। आप मन्त्र शक्ति से पुष्प दलों के बीज मंत्र को छेड़ते है। कभी अज्ञान वश हम मूलाधार से आरम्भ न कर किसी ऊपर के चक्र को आंदोलित कर बैठते है। अब न तो ऊपर के चक्र के और न नीचे के चक्र के पुष्पदल आंदोलित है। सिर्फ एक विशेष चक्र आंदोलित हो गया यानी उसकी ऊर्जा बढ़ गई। अब निकले कैसे। ऐसी अवस्था मे वह कोई भयानक रोग उतपन्न कर सकती है।

अतः साधना वही सर्वश्रेष्ठ जिसमे जैसे शक्तिपात दीक्षा में पहले कुण्डलनी जागी फिर धीरे धीरे ऊपर नीचे होकर सब ही चक्रो को भेदा उनकी ऊर्जा को सहने लायक बनाया। प्रत्येक चक्र की क्रिया के माध्यम से संस्कारो को धोया । वहां तक शरीर शुध्द किया  ऊर्जा सहने लायक सहज बनाया। फिर कुण्डलनी आगे बढ़ी।

          कुण्डलनी जो तीन प्रकार से चलती है और उपर चढती है। पहला चीटी की भांति। यानी पिपीलिका गति।  दूसरी मर्कट यानी बन्दर की भांति तुरन्त छलांग लगा कर एक चक्र से दूसरे में ऊपर नीचे। तीसरी पाखी यानी पक्षी की भांति नीचे मूलाधार से उड़ी सीधे सहस्त्रसार पहुची। फिर मन हुआ फुर्र से नीचे आ गई।

चीटी की चाल धीरे धीरे पर स्थायी होती है। इसमें शरीर मे अधिक रोग इत्यादि नही होते है। बाकी दो तरह की गति में किस चक्र में है मालूम नही। अधूरा छोड़कर कहां जाएगी पता नही। अतः कभी भी कोई रोग प्रकट होगा। गायब होगा। कल कौन सा रोग उपस्थित होगा पता नही।

 जो सद्गुरु कुण्डलनी को जगाता है तो शिष्य की कुण्डलनी शक्ति का छोर गुरु की शक्ति से जुड़ जाता है  अतः गुरु पर रोग चले जाने की संभावना हो जाती है  क्योंकि गुरु की शक्ति आपसे अधिक है अतः प्रारब्ध गुरु को शक्तिहीन करने की कोशिश करते है। गुरु शिष्य की क्रिया से समझ जाता है कि शिष्य को किस चक्र में परेशानी है तो वह अपनी शक्ति से समस्या सुलझा देता है। अब आप समझे होंगे गुरु आप पर कितना बड़ा एहसान करता है। वह भी सिर्फ गुरु आज्ञा का पालन करने हेतु विवश है नही तो वह भी मुक्त विचरण करे। क्या जरूरत है सिरदर्द मोल लेने की। मैं भी इसी लिए आपसे अनुभव और साधना पूछता हूँ ताकि आपको किस अवस्था के गुरु पर भेजने की जरूरत है। मालूम कर सकू।

अब होता यह है जब कुण्डलनी सहस्त्रसार में मिलती है। जहाँ 1062 पुष्पदल है। वहाँ वह किस पंखुड़ी को छेड़ती है वैसी ही समाधि लगती है। समाधि तब ही लगती है जब ब्रह्म शक्ति और कुण्डलनी शक्ति का मिलन सहस्त्रसार में होता है। यहां 11 प्रकार की समाधि के अनुभव हो सकते हैं। आठ तो पंखुडियों की परतें , ब्रम्ह और सरस्वती लोक या वेद ज्ञान लोकशिव पार्वती सम्वाद लोक यानी ज्ञान लोक फिर रुद्र काली लोक, जिसके ऊपर निराकार दुर्गा की धुंध और फिर आपके कपाल की सीमा हड्डियां।

पर आजकल के अज्ञानी ज्ञानी किसी भी ध्यान को समाधि बोल देते है। अब क्या बोलू। हा भक्तियोग के व्यक्ति को यह सब योग क्या हो रहा मालूम नही पड़ता पर हो जाता है। पातंजलि महाराज ने समाधि को योग शास्त्र और वाहीक ब्रह्म शक्ति से समझाया है। जो पांच वाहीक बाते कही। क्या करे। क्या न करे। त्याग की आदत डालें। आसन ।प्रणायाम।  यह अंदर की कुण्डलनी को भी जगा कर सहस्त्रसार में ले जा सकते है।

वही मन्त्र जाप ब्रह्म शक्ति का जाप करके धारणा ध्यान समाधि तक वाहीक रूप से ले जाता है। अब समाधि एक तो शरीर के चक्रो को भेदकर पहुचे जो कबीर साहब कहते है । दूसरा तुलसीदास कुछ नही बोले पर समाधि का दिव्य अनुभव प्राप्त किया। पर दोनों का अंत एक। 

महाभारत का युध्द समाप्त हुआ एक दिन युधिष्ठर ने भगवान कृष्ण से कहा प्रभु आप वह ज्ञान दे जो आपने अर्जुन को युध्द भूमि में दिया था।  भगवान श्री कृष्ण मुस्कुरा कर बोले है युधिष्ठिर कोई भी मानव सदैव एक भाव मे नही रहता है। मैं इस समय युध्द के भाववाला वो ज्ञान जो अर्जुन को दिया था। वह नही दे सकता। मेरा भाव वह नही है। तब युधिष्ठिर ने कुछ और पूछा जो कृष्ण युधिष्ठिर गीता के नाम से जाना जाता है। यहां शिव पार्वती यानी ज्ञान लोक में जो भाव जाता है शिव उसी भाव का ज्ञान पार्वती यानी अपनी शक्ति को देने लगते हैं। शिव और पार्वती के चारो ओर चमदार 64 बिजलियां चमककर घूमती रहती है। जो शिव की योगिनी है। यदि यह बिजली मनुष्य की बुद्दि पर गिर जाये तो मनुष्य को उस योगिंनी की सिद्दी मिल जाती है। जो सबसे अलग और शक्तिशाली होती है। मनुष्य की कुंडलनी किस पंखुडी के दल सदस्यो को छेडती हैं उस प्रकार की सिद्दीयां मिल जाती हैं।

अत: साधक यह भ्रम न पालें कि कुंडलनी जाग्रत तो कारु का खजाना मिला। यह सब निरन्तर अभ्यास साधना और स्थिरता से ही होता है। प्रभु की कृपा और गुरु दया से मिलता है। आप खुद उल्टी सीधी साधना करके यदि ध्यान समाधि के किसी द्वार में फंस गये तो बिना गुरु के बाहर न आ पाओगे। न मरोगे न जिओगे। हलांकि यह लाखों में एक को होता है पर यह कहीं आप न हो। 

आजकल व्हाट्सअप फेस बुक पर एक योगी की फोटो आती है जो वास्तव में समाधि के द्वार में फंसे हुये हैं न मर पा रहें और न चेतना में आकर जी पा रहें हैं। अब इनको कोई शक्तिशाली कौल गुरु ही अपनी शक्ति से चेतना में ला सकता है। 

 अत: मित्रों यदि अदीक्षित हो तो जो अच्छा लगे उस इष्ट देव का साकार मंत्र जप करो निरंतर अखंड और जब अनुभुतियां आरम्भ हो जाये तो शक्तिशाली कौल गुरु की प्रार्थना करो। जो तुमको प्रभु कृपा से अवश्य मिलेगा। पर अपने अनुभवों का तनिक भी अहंकार मत करना ये मार्ग में रुकावट बन खडा हो जायेगा और गुरु तो मिलेगा ही नहीं।
                   
                                                  ॐ हरि ॐ   


"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल  

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...