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Tuesday, April 3, 2018

अंतर्मुखी होने की विधियां



अंतर्मुखी होने की विधियां
                                
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info वेब चैनल:  vipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet


          1.        त्राटक विधियाँ
         त्राटक यानी नेत्र और अटक। यानी घूरना नेत्रों का अटक जाना। किसी एक जगह को लगातार घूरना। यह अंतर्मुखी होने की नेत्र ऊर्जा विधि है। जैसा कि हम जानते है। नेत्रों द्वारा हमारी ऊर्जा निरन्तर बाहर निकलती है। अतः इस बहिर्मुखी मार्ग से बाहर निकलनेवाली ऊर्जा को हम अंदर त्राटक के द्वारा मोड़ सकते है।

यह विधियों उनके लिए उचित है जिनको नेत्र रोग न हो और जिनको कोई चित्र देखकर कभी भी आंखे बंद करने पर मस्तक पर दिखने लगता है। यानी नेत्र स्मरण शक्ति अधिक हो उनको यह जल्दी अंतर्मुखी कर देती है।
त्राटक को मुख्यतया दो अवस्थाओ में बांटा जा सकता है।
साकार और निराकार। 
          दोनो त्राटक को मुख्यतया दो अवस्थाओ में भी बांटा जा सकता है।

          पहली साकार विधि : इसमें में मन्त्र जप और बिना मन्त्र जप। अथवा किसी और पद्दति के साथ जो दो या अधिक हो सकती है। उनसे जुड़कर ।

दूसरी निराकार विधि

          साकार विधि में हम किसी देव की फोटो को त्राटक करते है। mmst विधि में यही किया है। विधिवत देव को स्थापित कर उसकी मूर्ति या चित्र को आंख बंद कर मन्त्र जप के साथ या सांसो पर ध्यान देते हुए मस्तक के बीचोबीच देखने का प्रयास करते है। पहले घूरा फिर आंख बंद। यही क्रिया बार बार।

         निराकार विधि में कोई प्रकाश के स्रोत पर त्राटक और फिर वही नेत्र बंद।
यह स्थिर या चलायमान हो सकता है।
          फिर बिंदु त्राटक विभिन्न रंग के और स्थिर या चलायमान।
यह करने से हमारा ध्यान एकाग्र होने लगता है। धीरे धीरे हम अंतर्मुखी हो जाते है। इसकी पहिचान आभासी दर्शनाभूति, रोमांच, रोंगटे खड़े होना, हल्का महसूस करना इत्यादि हो सकता है।

     2.  कर्णेन्द्री द्वारा

       इस विधि में हम कानो के द्वारा अंतर्मुखी हो सकते है। यह भी कई प्रकार से हो सकता है। जिसको लय योग । शब्द योग। ध्वनि योग। नाद योग के नामो से पुकारा जाता है। यह उनको करना चाहिए जिनके कानो में कोई रोग न हो। जैसे बहरापन या कुछ और। यह उनको सूट करता है जिनको विशिष्ट ध्वनि की पकड़ हो या सोंचते ही किसी भी सुनी हुई ध्वनि को कान सुनने जैसा महसूस करे। अथवा मिली हुई विभिन्न वाद्य यंत्रों के बीच किसी एक विशिष्ट वाद्य यंत्र की आवाज पकड़ में आ जाये।

          इसकी पहली विधि में सबसे पहले आप कुछ वाद्य यंत्रों की ध्वनि सुने। फिर सारे वाद्य यंत्रों की एक साथ धुन बज दे। फिर ध्यान कर किसी विशिष्ट वाद्ययंत्र की आवाज सुनने का प्रयास करे।

           दूसरी विधि में कुछ भजन इत्यादि सुने मन्त्र जप इत्यादि सुने या ॐ का जोर से उच्चारण करे फिर शांत होकर भजन मन्त्र ॐ सुनने का प्रयास करे। धीरे धीरे अभ्यास के साथ आप जब चाहेगे आपको भजन ॐ इत्यादि सुनाई देने लगेगा। ॐ पर ध्यान देकर इसको सुनने का प्रयास करे।

3.  नासिका यानी नाक यानी घ्रणानेंद्री विधि 

             जिसमे सांस सुंगध दोनो रहते है। जिसमे हम सांसो के आने जाने पर ध्यान केंद्रित कर सांसो की गति पर ध्यान लगाकर अंदर तक पहुचते है। इसे विपश्यना कहते है। यदि इसके मन्त्र और त्राटक का सहारा ले ले तो प्रेक्षा ध्यान कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जिनके दिमाग मे सुगन्ध लम्बे समय तक रहे उनके लिए सुगन्ध योग या सुगन्ध सिद्दी मार्ग। इसमें कई सुगन्ध अलग अलग सूंघे फिर मिश्रित सुगन्ध में किसी एक विशिष्ट सुगन्ध को सूंघने का प्रयास करे ध्यान के द्वारा। प्रायः इसमें लोगो को दुर्गंध आना बंद हो जाती है क्योंकि वह जो सुंगंध सोंचते है वोही सुगन्ध उनको आने लगती है।
शीतोष्ण विधि में नासिका के द्वार पर कुछ ठंडा लगाए फिर इस ढंढे को अंदर तक धीरे धीरे ले और शरीर की विभिन्न नलिकाओं को महसूस करे।

4.  मुख
              जिसमे हठ योग में खेचरी। स्वाद योग जो मैंने सोंचा है जिसमे आप जिव्हा के अभ्यास से विभिन्न खट्टा मीठा मिर्ची अलग अलग खाये फिर आप सबको मिलाकर खाये। और किसी विशिष्ट स्वाद को जिव्हा पर स्वाद कलिकाओं पर ध्यान कर उसको महसूस करे। कुछ समय बाद आपकी कलिकाएं मिर्च को मीठा मीठे को खट्टा आप जो चाहे महसूस कर ले।
इस विधि के बाद आप किलो दो किलो मिर्च बिना तकलीफ खा सकते है।
मुख से मन्त्र जप सर्वश्रेष्ठ है। मन्त्र जाप मोही दृहड़ विस्वासा । पंचम भक्ति वेद प्रकासा। मन्त्र जप से बेहतर कुछ नही । कलियुग में यह सबसे सस्ता सुंदर और टिकाऊ माध्यम है।


            मन्त्र जप की पहली अवस्था होती है वैखरी। जिसमे जापक को मुख से बोलना पड़ता है आवाज के साथ। वास्तव में यह अवस्था कई मायनों में श्रेष्ठ भी कही गई है। यद्यपि प्रारम्भिक जापक को मन एकाग्र करने हेतु यही करनी पड़ती है। किंतु विशेष अनुष्ठान हेतु इसी में मन्त्र जप करना पड़ता है। कारण वैज्ञानिक है। वैखरी में उच्चारण के कारण वायु पर हार्मोनिक पाइप प्रभाव अधिक पड़ता है। जिसके कारण हमारे शरीर के चक्रो के अतिरिक्त वायुमण्डल में भी विशेष पी तरंगे पैदा होती है। जो प्रभाव को बढ़ा देती है। अतः वैखरी जाप की महत्ता कम नही होती। दूसरी बात यह मस्तिष्क में कम्पन पैदा करती रहती है जिसके कारण नींद नही आती है। 


              दिव्तीय अवस्था जब जापक कुछ परिपक्व हो जाता है तो मध्यमा अवस्था होती है। जिसमे जापक के मुख से आवाज नही निकलती केवल होठ हिलते है। यह इसलिए होता है क्योकि जापक को मन्त्र जप का कुछ अभ्यास होने लगता है। 


              तृतीय अवस्था मे जापक के सोंचते ही मस्तिष्क में मन मे जाप आरम्भ हो जाता है जिसे पश्यन्ति कहते है। पश्य यानी देखना मतलब सोंचा और जाप चालू। यह अवस्था मानसिक होती है। जिसमे वाहीक ध्वनि का सवाल ही नही। यह अवस्था वास्तव में ध्यान जप की होती है। 


                 वास्तव में यदि आप अनुष्ठान जप नही कर रहे है तो यह ध्यान जप ध्यान में सहायक होता है। यदि आप ध्यान करते करते सो जाते है तो निद्रा को ध्यान निद्रा या योग निद्रा की श्रेणी मिल जाती है। अतः जब हल्की नींद का प्रभाव हो तो मन शांत होता है। आप तब ध्यान में बैठे पश्यंती में जाप करे। जाप करते करते सो जाएं। मन्त्र भी छूट जाता है और कभी कभी तुरीय अवस्था मे पहुचते है। जो कुछ नए अनुभव ज्ञान दे सकती है।


                   इसके बाद की अवस्था परा पश्यंती होती है जब आप सोंचते ही शरीर के किसी भी अंग से जाप कर सकते है। इस अवस्था मे आप किसी चक्र पर ध्यान केंद्रित कर जाप के साथ चक्र को कम्पन तरंग भी भेज सकते है। समूचे शरीर को एक साथ मन्त्र के साथ या श्वास के साथ संकुचित और फैलते हुए महसूस कर सकते है। अपने ब्रह्म संरंध्र यानी तालु के नीचे ऊपर नीचे होता हुआ भी महसूस कर सकते है।


                 यह अवस्था मन्त्र जप की अंतिम अवस्था है। इसके आगे यदि आप अपनी हथिलियो में मन्त्र जप करते हुए किसी रोगी के शरीर पर हथेली रख दे। उसका कम्पन अपने से मिलकर एक कर दे। तो आप अपने मन्त्र जप से रोगी को स्वस्थ कर सकते है।  पर रोगी कितना स्वस्थ्य होगा यह आपके मन्त्र पर निर्भर होगा।


                     इसके आगे भी आप मन्त्र जप बिना किसी भाव के करते रहो। तो हो सकता एक दिन आप देहभान खो बैठो और आप को अचानक आपका इष्ट सामने दिखाई दे जाए। आपकी कुण्डलनी स्वतः जग जाए और आपका जीवन बदल जाये।

                      जय गुरुदेव। जय माँ शक्ति। 



                                          हरि ॐ हरि 


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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वास्तविक दान : दान कुदान या सद दान



दान कुदान या सद दान


                                                                                     

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
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मेरे पास किसी अंजान व्यक्ति का फोन आया जो बोला विपुल जी मैं फेस बुक पआपकी हर पोस्ट को संभाल कर रखता हूं। मैंनें पैसा तो कमा लिया पर न विवाह किया न कोई परिवार मैं 65 का हो गया हूं। अब सोंचता हूं कि इस पैसे का क्या करूं। कभी कभी गोवा जाकर कैसीनो में दांव लगाता हूं पर वहां भी जीतता अधिक हूं हारता कम। अब मैं दुनियादारी से दूर भागना चाहता हूं एक धार्मिक संस्था को कई करोड दिये पर वहां जो देखा तो मुझे सब चोर दिखते हैं। आप वैज्ञानिक हैं आप बतायें मैं क्या दान पुन्य करूं। क्या आपको कुछ पैसा दूं।

अब यह फोन हमारी परीक्षा था या सही या गलत पर मैंने जो सोंचा वह आपके सामने हैं।
महाकवि कालिदास ने कहा है।   अदानं हि विसर्गाय सताँ वारिमुचामिव।” जैसे बादल पृथ्वी पर से जल लेकर फिर पृथ्वी पर ही वर्षा देते हैं, उसी तरह सज्जन जिस वस्तु का ग्रहण करते हैं, उसका त्याग भी कर देते हैं।” अर्थात दान कर देते हैं यानी इस धरती से इस देह जो भी प्राप्त होता है उसको जगत में ही देकर चले जाते हैं। महृऋषि दधीची का दान तो सब जानते है कि जगत के कल्याण हेतु अपना शरीर तक त्याग दिया ताकि उनकी मेरुदंड ब्रह्मास्त्र बनकर दैत्यों का संहार कर सके।

गीताकार ने दान की व्याख्या करते हुए कहा है
दातव्यति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। देशे कालेच पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतं॥ यत्ततु प्रत्युपकारार्थं फलर्मुाद्दश्य वा पुनः। दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥ अदेशेकाले यद्दानमात्रेभ्यश्च दीयते। असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥
        “दान देना मनुष्य का कर्तव्य है, ऐसा जानकर बिना बदले की भावना से देश, काल, पात्र का ध्यान रखकर जो दान दिया जाता है वह सात्विक दान है।” 
        क्लेश पाकर या बदले की भावना से किसी कामना पूर्ति के लिये दिया जाने वाला राजसिक दान है। जो दान बिना सत्कार के, देश-काल-पात्र का ध्यान रखे बिना, उपेक्षा या तिरस्कार के साथ दिया जाता है, वह तामसिक दान है।

वैसे कहा गया है कि “ विद्याधनं सर्व धन प्रधानं। विद्या का दान सभी प्रकार के दानों में सर्वश्रेष्ठ है। इस बात को सनातन में कितने ही प्रकार से समझाया गया है। अत: सनातन के मार्ग पर चलनेवाला अपने ज्ञान का मस्तिष्क का विस्तार कर लेता है पर वही मात्र एक पुस्तक पर आधारित विश्व के अन्य धर्म आदमी की सोंच को और मानवता को सीमित करने की शिक्षा देते हैं।

अब विद्यादान श्रेष्ठ क्यों
" विद्या ददाति विनयम विनयात पात्रताम, पात्रतात धनमाप्नोती धनात धर्म ततः सुखम। अर्थात
        विद्या के विनम्रता प्राप्त होती है विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है योग्यता से धन और धन से धर्म तत्पश्चात सुख प्राप्त होता है!
अन्न दानं महादानं विद्या दानं ततः परम। अन्नेन क्षुधा त्रिप्तिर याज्जिवं त विद्यया॥ यानी 
        अन्न का दान महादान है पर विद्या दान उससे भी श्रेष्ठ क्योकि अन्न से केवल भूख मिटती है पर विद्या से जीवन भर की भूख।

दूसरे अन्न दान याचक को कर्महीन और आलसी भी बना सकता है। “घर बैठे मिले खाने को तो ठेंगा जाये कमाने को”। यह कहावत भी चरितार्थ हो सकती है। 

आचार्य विनोबा भावे के शब्दों में “दान के मायने फेंकना नहीं वरन् बोना है।” समाज के धरातल पर दान एक प्रकार की खेती है। जो दिया जाता है, वह परिपक्व होकर समाज की उन्नति, कल्याण, विकास में सहायक होना चाहिए। दान से समाज का शरीर पुष्ट होना चाहिए, तभी वह दान है। अन्यथा दान के नाम पर अपने धन, सम्पत्ति साधनों को नष्ट करना है, व्यर्थ गँवाना है। अत: ज्ञान-दान में लीन, विद्वान, परोपकार में लीन, कर्मवीर, ज्ञानवृद्धि में सहायक तत्वज्ञानी, अनेकों जन-सेवकों के अभावों की पूर्ति करना समाज को ही भोजन देना है। इन परमार्थकारियों को दिया गया दान जैसे खेत में बोये गए बीज की तरह कई गुना होकर समाज को वापिस ही मिल जाता है।

आचार्य विनोबा भावे आगे कहते हैं “तगड़े और तन्दुरुस्त आदमी को भीख देना,  दान करना, अन्याय है। जो दान अनीति और अधर्म को बढ़ाता है,  वह दान नहीं वह तो अधर्म ही है। विवेकशील लोग अनुमान लगा सकते हैं कि इस तरह की अन्धदान प्रवृत्ति के कारण समाज में बहुत से लोगों ने भीख माँगकर,  दान के ऊपर ही गुजारा करने का जन्म सिद्ध अधिकार-सा मान लिया है।

व्यवहारिक क्षेत्र में भी दान के पीछे मुख्यतया तीन भावनायें निहित होती है। एक दान वह जो श्रद्धा से प्रेरित होकर किसी सामर्थ्यवान यथा-विद्वान,  तपस्वी जननेता,  देशसेवक, वैज्ञानिक,  कलाकार आदि को दिया जाता है। इसमें श्रद्धा ही मुख्य होती है। दूसरे प्रकार का दान दया प्रेरित होकर दीन-हीन सामर्थ्य-विहीन लोगों को दिया जाता है। तीसरे प्रकार का दान अहंकार से प्रेरित होकर अपनी दानशीलता की ड्योढ़ी पिटवाने के लिये, नाम यश खरीदने के लिए, किसी लाभ के लिए, बड़ा बनने के लिए दिया जाता है।

अत: सात्विक, राजस और तामस, इन भेदों से दान तीन प्रकार का कहा गया है। जो दान पवित्र स्थान में और उत्तम समय में ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने दाता पर किसी प्रकार का उपकार न किया हो वह सात्विक दान है। अपने ऊपर किए हुए किसी प्रकार के उपकार के बदले में अथवा किसी फल की आकांक्षा से अथवा विवशतावश जो दान दिया जाता है वह राजस दान कहा जाता है। अपवित्र स्थान एवं अनुचित समय में बिना सत्कार के, अवज्ञतार्पूक एवं अयोग्य व्यक्ति को जो दान दिया जात है वह तामस दान कहा गया है।
        दान (जैन दृष्टि से) जैन ग्रंथों में पात्र, सम और अन्वय के भेद से दान के चार प्रकार बताए गए हैं। पात्रों को दिया हुआ दान पात्र, दीनदुखियों को दिया हुआ दान करुणा, सहधार्मिकों को कराया हुआ प्रीतिभोज आदि सम, तथा अपनी धनसंपत्ति को किसी उत्तराधिकारी को सौंप देने को अन्वय दान कहा है। दोनों में आहार दान, औषधदान, मुनियों को धार्मिक उपकरणों का दान तथा उनके ठहरने के लिए वसतिदान को मुख्य बताया गया है। ज्ञानदान और अभयदान को भी श्रेष्ठ दानों में गिना गया है।

मेरी बुद्धी के अनुसार दान की महत्ता इस क्रम में होनी चाहिये
विद्या दान - विद्या देना क्योकि यह समाज का हित करता है। याचक को सामर्थ्य प्रदान करता है। 
भू दान - भूमि देना क्योकि यह रोजगार देता है।
गो दान - गाय देना क्योकि यह पर्यावरण प्रदूषण रोकता है। समाज को सवास्थ्य देता है।  
अन्न दान - खाना देना
अंग दान - अपने अंगो को किसी के लिये दान कर देना
कन्या दान - कन्या को विवाह के लिए वर को देना
                             (श्लोक  इत्यादि गूगल  से साभार)
                             हरि ॐ हरि 

  "MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 


                                                                                          

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