क्या होता है सांख्य योग
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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जैसा कि हम जानते
हैं
कि
योग
यानी
जुडना।
किससे
जुडना।
वेदांत
महावाक्य
प्राथमिक
द्वैत
के
अनुसार
अवस्था
बतलाता
है
“
आत्मा
में
परमात्मा
की
एकात्मकता
का
अनुभव
ही
योग
है”। जो भक्ति
मार्ग
से
सहजता
से
प्राप्त
होता
है।
पातन्ज्ली समझाते है जो काफी आगे की बात “चित्त में वृति का निरोध” यानी कार्य में आसक्ति के बिना कार्य” जिससे हमारे चित्त में कोई तरंग न पैदा हो हलचल न हो जो चित्त में संस्कार संचित कर दे। यानी कर्म योग। यह तब होता है जब हम कर्म करते समय भी योग में र्हे।
भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भग्वद्गीता में कहते है। जिसका अर्थ समझा जा सकता है कि पहले मिला भक्ति योग जब यह परिपक्व हुआ तो आया कर्म योग और जब यह भी परिपक्व हुआ तो आया ज्ञान योग।
वास्तव में सारे योग के अर्थ एक साथ ही घटित होते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार जिसमें समत्व की भावना समबुद्दी यानी स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्दी है वह योगी है। यह सब बहुत आगे की योग परिपक्वता के साथ ही होता है। जब कृष्ण का निराकार रुप समझ में आने लगता है। शिव शक्ति भी कृष्णमय होने का अनुभव होता है तब आता है ज्ञान योग।
इनको जानने हेतु सत्युग में हजारो साल का तप द्वापर में कुछ सैकडो त्रेता में कुछ महीने और कलियुग में कुछ घंटों में जाना जा सकता है। एक जीवनकाल पर्याप्त है कलियुग में। यही कलियुग की महानता है। क्योंकि कम्प्टीशन है ही नहीं। जहां सत्युग में प्रत्येक मानव ज्ञान प्राप्त करना चाहता था वहीं कलियुग में नाम जपनेवाला भी ज्ञान मांगनेवाला भी करोडो में एक।
कपिल मुनि
ने
मीमांसा
योग
शास्त्र
में
सांख्य
की
बात
की
है
जो
सन्यासी
के
लिये
श्री
कृष्ण
ने
कहा
है।
मैंने अपने चिंतन को परखने के लिये कलियुगी भौतिक महागुरु गूगल को इंटरनेट पर देखा तो मुझे लगा कि इसकी व्याख्या अधिकतर उन्होने करने का प्रयास किया है जो थे संस्कृत के महा पण्डित पर अपने को न पढ पाये थे। अत: मेरी व्याख्या जो मैंनें बिना पुस्तक पढे गुरु महाराज की दया और शिव शक्ति की कृपा से आत्म गुरु से प्राप्त की है।
मेरे विवेक के अनुसार कपिल मुनि बेहद उच्च कोटि के ज्ञानी और विज्ञानी थे। वे महाकवि भी रहे होंगे। क्योंकि उनको समयकाल की गणना मालूम थी अत: उन्होने सांख्य शब्द का प्रयोग मीमांसा कर किया। यहां सोचने की बात है कि समय को उन्होने 24 भागो में बांटा यानी संख्या दी पर योग का नाम सांख्य क्यों रखा। इसकी व्याख्या नेट पर न मिलेगी। अत: मैं गलत भी हो सकता हूं। यह तो आप विद्वान ही बतायेगे।
चलो यूं समझे शिव / शिवा, निर्झर / निर्झरा, राम / रमा, विपुल विपुला / सोना सोनी । क्या समझे जब किसी सार्थक शब्द में आ की मात्रा लग जाती है तो वह पुरुष से स्त्री बन जाता है। यानी लिंग बदल गया। अत: संख्या जो गणना की शक्ति है वह गणन है अर्थात शिव। यानी आदमी पुरुष और स्त्री प्रकृति यानी औरत। शक्ति परा तो शिव पुरुष। यानी शिव ही शक्ति के साथ मिलकर सृष्टि का निर्माण करते है। और यह ही अर्ध नारीश्वर को भी समझाता है।
आज का विज्ञान कहता है पुरुष के शुक्राणु में में एक एक्स और एक वाई जीन होता है जबकि स्त्री में सिर्फ दोनो एक्स एक्स। यानी गुणसूत्र का जीन सिर्फ पुरुष के पास पर इनको धारण करने की शक्ति सिर्फ स्त्री के पास। मतलब पुरुष भी आधा स्त्री और आधा पुरुष होता है।
अब जब यह मानव का निर्माण करते हैं तव इसी शिव शक्ति से साथ जो मिलना होता है वह है योग। ध्यान दें जब यह योग अल्प कालिक न होकर समय के 24 खंडो तक रहता है तब संन्यास की अवस्था आती है। गेरुआ वस्त्र, अपना पिण्डदान, नया नाम यह सब भौतिक रूप में होते है।
वास्तविक सन्यास यानी सं धन न्यास मतलब पौराणिक माने तो ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक मानस-पुत्र, सनई [सं-स्त्री.] जूट की जाति का एक प्रकार का छोटा पौधा, सनई के पौधे का रेशा; श्वेतपुष्पा। सनक [सं-स्त्री.] पागलों की-सी प्रवृत्ति, धुन या आचरण, झक जुनून। मुहावरा सनक सवार होना, किसी काम या बात की धुन चढ़ना। सनकना [क्रि-अ.] - पागल या उन्मत्त हो जाना, पगलाना, झक्की हो जाना, वेग से हवा में जाना या फेंका जाना। सनकी [वि.] सनक से भरा, जिसे किसी प्रकार की सनक या धुन हो, ख़ब्ती, धुनी, झक्की। सनतकुमार [सं-पु.](पुराण) ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक, वैधात्र जैनों के बारह सार्वभौमों या चक्रवर्तियों में से एक, जैनानुसार तीसरे स्वर्ग का नाम, सदैव युवावस्था में रहने वाला तपस्वी। सनद [सं-स्त्री.] ऐसी चीज़ या बात जिसपर भरोसा किया जाए, सबूत, प्रमाण, प्रामाणिक कथन, प्रमाणपत्र, उपाधि; डिग्री।
ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की स्थापना ही न्यास है। इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है, इसलिए इसे देव पूजा का तबतक अधिकार नहीं है जब तक यह शुद्ध एवम दिव्य न हो जाये। जब तक इसकी (हमारे शरीर की )अपवित्रता बनी है, तब तक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही कारण है कि मन न तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और न विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही। इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित है, उनको जगाने के लिए न्यास अचुक महा औषधि है। शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्र सिद्धि हो जाती है।
हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है मात्र इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं आ सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।
अब आप
जो समझे सं और
न्यास का
जुडाव हुआ
संन्यास। यह
जुडाव समय
के 24 ख़ंडो तक रहे
। दूसरे अर्थों में
जो पाने के बाद
हमेशा पाता रहे और
गलता रहे। यह हुआ
सरल भाषा में मेरे विचार से
सांख्य योग। एक बात
और योग
की इस
व्याख्या को
जो बिना गुरु का
या निराकार का उपासक है वो
बिल्कुल न
समझ सकेगा अनुभव तो
बहुत दूर
की बात
है।
यानी 24 घंटे वेदांत महावाक्य वाल योग होता है सांख्य योग। इस प्रकार के योगी को महायोगी कहा जा सकता है।
योग के दर्शनशास्त्र की मीमांसा की यही मीमांसा है।
श्री हरि विष्णु नम:
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो
तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40
मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने
बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"
देवीदास विपुल