एक
वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा भाग- 1
सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"
वर्ष 2008 या 2009 में मुझे देवास नगर परिषद का कवि सम्मेलन
हेतु आमंत्रण मिला। जिस कवि सम्मेलन में शशिकांत यादव के संचालन में स्व.विशेश्वर
शर्मा, शैलेश लोढ़ा, सर्वेश अस्थाना, जगदीश सोलंकी सहित अन्य कवि थे।
वहां मुझे जो होटल ठहरने हेतु दिया गया। उस सड़क के कुछ आगे मेरी गुरू परम्परा का
आश्रम “नारायण कुटी” स्थित था। अत: मेरा जाना स्वभाविक था। देवास तो सुबह पहुंच
गये थे। कवि सम्मेलन शाम को। अत: दिन में आश्रम गया। वहां स्वामी जी को परिचय
दिया। आध्यात्म पर चर्चा हुई। तब स्वामी जी ने कहा “विपुल जी आपको अपने अनुभव
प्रकाशित करने चाहिये”। मेरे मुख से निकला कि महाराज जी अभी मेरा समय नहीं आया है।
उस समय तो कवि सम्मेलन के बाद लौट आया। परन्तु अब लगता है समय आ गया है।
कुछ लिखने के पूर्व मैं आप पाठको की बुद्दि सोंच और आस्था पर
छोडता हूं कि आप इसे गलत, सही,
कल्पना या कहानी इत्यादि जो समझना हो समझे। पर मैं अहंकाररहित होकर
सत्यनिष्ठा पूर्वक अपने अनुभव इसलिये लिख रहा हूं ताकि लोग सत्य सनातन की वास्तविक
शक्ति, श्रीमद्भग्वदगीता की वाणी और हिंदुत्व की सोंच को समझ
सकें और प्रेरणा पाकर प्रभु प्राप्ति हेतु, बिना गुरू के,
बिन पैसा लगाये सचल मन वैज्ञानिक ध्यान की विधि (समवैध्यावि) और अंग्रेजी में MMSTM (Movable Mind Scientific Techniques for Meditation) अपना कर ईश का अनुभव कर सकें।
"MMSTM
समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक
हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल
और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।
मेरा जन्म लखनऊ के नौबस्ते मोहल्ले के मकान नम्बर 342/136 में सन 1960 में प्रात: काल हुआ था। समय तो याद नहीं पर उस दिन इष्टकाल शून्य था। इष्टकाल किसी ने
बताया था जब सूर्य की किरणे धरती पर पडती है तब इष्टकाल शून्य होता था। तो खोजी
होने के नाते मेरा जन्म सूर्य की किरणों के साथ हुआ था।
पिता स्व. योगेन्द्र सेन अशर्फाबाद के गिरधारी सिंह इन्द्र
कुंअर इंटर कालेज में कला के अध्यापक थे। माता स्व. सौभाग्यवती सेन ने वर्ष 1964
में सआदतगंज, बावली बाजार में शिशु
विद्यापीठ नामक स्कूल खोला था। पिता जी एक उच्च कोटि के डाइंग़ टीचर और कवि थे।
अपने को आर्य समाजी बोलते थे और होली दीवाली हवन करते थे। सगुण उपासना पर चिल्लाते
थे। डांटकर फोटो और मूर्तियो तक को फेक देते थे। ईश्वर ठोंग है ठकोसला है पता नहीं
क्या क्या कहा करते थे। यह प्रभाव उन पर एक कम्युनिस्ट नेता बाबू खां की संगत के
कारण आया था। माता जी यही बोला करती थी। माता जी धार्मिक स्वभाव की थी। छिपकर हम
तीन भाई और एक बहन मंगलवार को 10 पैसे का बेसन का लड्डू लाकर हनुमान जी की पूजा कर
लेते थे। मां के पास राम जी की फोटो थी जिसको वह सुबह सुबह दर्शन कर दिन आरम्भ
करती थी। हम भाई बहन ने मां सरस्वती की फोटो लगा रखी थी। जिसे पढ़ने के पूर्व
प्रणाम कर लिया करते थे।
अपने बारे में लिखने के पहले मैं बता दूं कि मैं अपने
जीवन में आज जब देखता हूं तो मुझे कहीं भी अपना कोई योगदान नहीं दिखता है। बस यही
लगता हैं कि प्रभु ने हर पग पर सम्भाला, पहेली दी, खुद हल की और अंक दे दिये किसी अन्य में भी
उसका योगदान नहीं दिखता बस यह लगता है खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान। जब जिसको चाहता
है प्रभु राजा रंक बना देता है हम तो एक कठपुतली और माध्यम मात्र हैं। एक खिलौना
है उसके हाथों में।
बिच्छू ने डंक क्यों न मारा।
मैं करीबन 4 साल का रहा हूँगा। मां ने मिट्टी और ईंट से बना
पुराना चूल्हा तोड़ा। तो मैं भी ईंट लेकर सामने कच्ची जमीन पर रखने लगा। अचानक
मैंनें मां से कहा कि मेरी छुछू पर कुछ चल रहा है। मां ने तुरंत नेकर उतारा तो एक
काला बडा सा बिच्छू बैठा था। मां ने, मुझे लगता है उस समय प्रेमवश गलत किया, बिच्छू को मार डाला। जबकि मैंनें खुजलाया दबाया पर उसने डंक नहीं मारा था। अब आप
बतायें यह क्या था। ईश की रक्षा या संयोग।
क्या वह शिव थे।
कुछ समय बाद मैं दोपहर को घर पर मां के साथ था। मुझे अभी तक
याद है तीन नागा साधु जिनमें बीचवाला बेहद गोरा और लम्बा तगड़ा था भिक्षा मांगने
आये मां ने शायद चार रोटी उनको दी। मैं भी साथ था तो वे मुझे आशीष देने लगे। मैं
शेखी पर चढ़ गया और रोटी का पूरा डिब्बा उनके हाथ पर चौके से लाकर रख दिया।
उन्होने मेरे सर पर हाथ फेर कर बहुत आशीष दिया। चले गये। मेरे पडोस में स्व.
इन्द्र चंद्र तिवारी उर्फ बौड़म लखनवी, हास्य कवि रहा करते थे। उनकी पत्नी ने देखा कि यह बाबा उनके घर भिक्षा
मांगने नहीं आये तो उन्होने अपने लड़के पप्पू और लड़की मुन्नी को उन्हे बुलाने
दौडाया। पर वह बाबा गली के छोर से गायब हो गये। उनको ढूंढा पर नहीं मिले। यह भी
क्या था।
कितने पुरस्कार
मैंने 11 वर्ष की आयु में अपने कालेज की पत्रिका “प्रभात” हेतु
पहली कविता लिखी थी। वह मुझे आज भी याद है। वह छपी भी थी। वर्ष 1971 में। वर्ष
1973 में मै आठवें आते आते जिला स्तर की सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में बडे भाई, रक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हो गये, डा. अतुल सेन और बडी बहिन डा. रंजना भटनागर के साथ धूम मचा चुके थे। हर
कालेज में प्रथम अतुल सेन, दिव्तीय विपुल सेन और बराबर अंक
लेकर यशोदा रस्तोगी इटंर कालेज की छात्रा कुमारी रंजन सेन। कविताओ की अंत्याक्षरी,
वाद विवाद, भाषण, गेय
कविता पाठ, संस्कृत श्लोक वाचन इत्यादि शील्ड, पुरस्कार मित्रों के सहयोग से साईकिल पर थैलों में लादकर लाते थे। यह सब
मां सरस्वती की कृपा थी।
मां सरस्वती के दर्शन
आठ वर्ष की आयु में मुझे मां सरस्वती ने स्वप्न में दर्शन
दिये। मैंने देखा चारो ओर पानी पानी है सब डूब रहे हैं। मैं भी उतरा रहा हूं तब ही
अचानक वीणावादिनी ने दर्शन देकर अपना हाथ बढ़ाकर मुझे पानी के बाहर खींच लिया।
क्या मै मर कर जिया हूं।
नौ वर्ष की आयु में मैं अपने पडोसी श्री रामप्रकाश सक्सेना के
पुत्र प्रमोद कुमार सक्सेना उर्फ मुन्ना के साथ छत पर कबड्डी खेलते समय नीचे पड़े
टूटे ईंटो पर गिर गया। मुझे अभी भी याद है कि मैं एक कुयें मे गिर रहा हूं। चेतना
जा चुकी थी। जोर से धम्म की आवाज हुई तो जैसा मां ने बताया कि उसने डांटा फिर
कालीन नीचे फेका, फट जायेगा। पर यह तो
विपुल उर्फ टिल्लू नीचे बेहोश लहू लुहान पड़ा था। सर से खून बह रहा था। सर फट गया
था। घर में हाय तोबा मची थी मां रोये जा रही थी। मुन्ना की पिटाई होये जा रही थी
कि तुमने धक्का दिया। सांस बंद हो चुकी थी। पिता जी होमियोपैथ की प्रक्टिस करते
थे। वह मरहम पट्टी कर रहे थे। पूरा मोहल्ला इकठठा हो गया था। बगल के रंजीत सहाय
सीने को दबाकर सांस दे रहे थे। अचानक मेरी आंख खुली मैंने अपने आपको स्व. विजय
शंकर अवस्थी की गोद में पाया वह मां से मुझे छीन रहे थे और मेडिकल कालेज ले जाने
की जिद्द कर रहे थे। सर पर मेरे कस कर पट्टी बंधी थी। मैं बोला मैं अस्पताल नहीं
जाउंगा। मेरे होश आने पर मां ने अपने आंसू पोछे। तो बगल के निवासी श्री रंजीत सहाय
बोले क्या टिल्लू बाबू शतरंज का एक गेम हो जाये। मैं बोला बिल्कुल हो जाये चाचा।
मतलब मैं पूरे होश में था। पर मां ने बताया कि मेरी सांस कुछ समय के लिये बंद हो
गई थी। यह क्या था।
मां शीतला और मसानी देवी
नौबस्ते मोहल्ले के पास त्रिवेणी गंज था जहां माता शीतला का
मंदिर था जहां जब भी मेला लगता था मैं मां के साथ या भाई बहन के साथ जाता था। वहां
शेरों की मूर्ति मुझे बहुत आकृष्ट करती थी। बाद में छठी कक्षा में पुल के पास बनी
मशहूर इंजीनियर साहब कोठी में रहनेवाले मोहल्ले के एकमात्र सिविल इंजीनियर स्व.
रमेश चंद्र प्रकाश सक्सेना के तीसरे पुत्र राजेश चंद्र प्रकाश सक्सेना का दाखिला
मेरी कक्षा मे हुआ। मित्रता घनी हुई। और उनके मामा लखनऊ के मशहूर वकील शंकर सहाय
के पुत्र सुदर्शन सहाय, जो
देवी भक्त थे, उनके साथ स्कूल से आने के बाद मैं, राजेश, दीपक और मामा रोज शाम को शीतला माता के मंदिर
जाते। बगल की बगिया से फूल तोड़कर अर्पित करते। सात परिक्रमा करते। काल भैरव के
दर्शन कर लौट आते। वहां मैं काल भैरव से यही प्रार्थना करता कि मुझे मां के दर्शन
हों और मां से कहता मुझे आप प्राप्त हों। समय चलता गया और हम किराये के मकान का
केस हार गये और बावली बाजार स्थित स्व. अनंतराम गुप्ता के घर किराये पर रहने आ
गये। बडे भाई एम.एस.सी करने के बाद आई.आई.टी कानपुर पी.एच.डी करने चले गये। मैं
साइकिल से लखनऊ विश्वविद्यालय जाने लगा। पर एक नियम बना लिया शाम की जगह सुबह आंख
खुलते ही ऐसे ही साइकिल से 4 किमी दूर शीतला माता के मंदिर जाने लगा। रास्ते में
नरकुल सेठें के जामुनी जंगली फूल तोड़कर माता जी को चढ़ा देता था। घर के नजदीक मसानी
देवी का मंदिर था। वहां शाम को जाने लगा। पास के डरावने खंडहर में काल भैरव की
मूर्ति के भी दर्शन करता। यहां तक मुझे पता नहीं इंजीनियर क्या होता है। सड़क
कूटनेवाले सुपरवाइजर को इंजीनियर समझता था। जब भाई से मालूम पडा।
देवी मां ने इंजीनियर बनाया।
इंजीनियर बनकर अच्छी नौकरी मिलती है। तो इंजीनियर बनने की
सोंचा परंतु तब तक उत्तर प्रदेश के पांच इंजीनियर कालेज में प्रतियोगिता से दाखिला
होने लगा। वर्ष 1979 में बी.एस.सी परीक्षा के साथ आवेदन पत्र भरा। चार साल वाली
इंजीनियर कोर्स की परीक्षा के बाद बोला गया बी.एस.सी के बाद तीन साल की
इंजीनियरिंग का पेपर होगा। चलो यह भी दे दे। पढ़े तो थे नहीं। बस मां को यादकर
परीक्षाहाल में लगे सिक्का उछालने और टिक करने। बस यही आस्था के साथ मातारानी ही
सब कुछ करवा सकती हैं। बी.एस.सी कर लिया। कहीं से कुछ नहीं आया। एम.एस.सी का फार्म
भरने की सोंची
कि जनवरी 1980 में एच.बी.टी.आई. से केमिकल टेकनोलाजी की बायोकेमिकल इंजीनियरिंग में एक सीट खाली हुई है। अत: आप आ सकतें हैं। हुआ यह था वर्ष 1979 का सेशन लेट हो गया था। और वहां सैंनडाई हो गया था। दाखिला लिया। मेहनत से पढ़ने की आदत तो थी ही और मालूम पड़ गया कि बेटा नौकरी मिलनी नहीं है। अत: शुद्ध केमिकल इंजीनियर बनो। खैर वर्ष 1982 में बी.टेक की अंतिम परीक्षा नवम्बर माह में हुई और फरवरी 1983 में रिजल्ट। मेरी डिग़्री जून 1982 तक मेरे हाथ में होनी चाहिये थी पर लेट सेशन। सोंचा एम.टेक. करे| 400 रुपये वजीफ़ा मिलेगा। कुछ खरचा पानी निकलेगा। पता चला एम.टेक. के लिये गेट लागू हो गया। इधर आई.आई.टी. दिल्ली में मेरा दाखिला जून 1982 में हो गया शर्त यह कि सेशन शुरू होने के पहले अंतिम वर्ष की अंकतालिका जमा हो। अपनी तो बी.टेक. की परीक्षा का भी पता नहीं। जब फरवरी 1983 में बी.टेक. का परीक्षाफल आया तो एम.टेक. हेतु गेट लागू हो गया। अब एच.बी.टी.आई. में वर्ष 1882 के लेट सेशन के आधार पर एम.टेक. में दाखिला लिया। 400 रुपये मिलने लगे। फिर वह 600 हो गये। दिसम्बर 1983 में एम.टेक. प्रथम वर्ष में टाप किया। उसी के आधार पर उन्नाव के अकरमपुर चकरमपुर स्थित अपार केम लिमिटेड में 1005 रुपये प्रतिमाह की नौकरी की। उन्नाव के गांधीनगर में रहने लगा। डे शिफ्ट नाइट शिफ्ट करते जीवन चला पर प्रभु कृपा से श्रीमद्दुर्गासप्तशती का पूरा पाठ प्रतिदिन चलता रहा।
कि जनवरी 1980 में एच.बी.टी.आई. से केमिकल टेकनोलाजी की बायोकेमिकल इंजीनियरिंग में एक सीट खाली हुई है। अत: आप आ सकतें हैं। हुआ यह था वर्ष 1979 का सेशन लेट हो गया था। और वहां सैंनडाई हो गया था। दाखिला लिया। मेहनत से पढ़ने की आदत तो थी ही और मालूम पड़ गया कि बेटा नौकरी मिलनी नहीं है। अत: शुद्ध केमिकल इंजीनियर बनो। खैर वर्ष 1982 में बी.टेक की अंतिम परीक्षा नवम्बर माह में हुई और फरवरी 1983 में रिजल्ट। मेरी डिग़्री जून 1982 तक मेरे हाथ में होनी चाहिये थी पर लेट सेशन। सोंचा एम.टेक. करे| 400 रुपये वजीफ़ा मिलेगा। कुछ खरचा पानी निकलेगा। पता चला एम.टेक. के लिये गेट लागू हो गया। इधर आई.आई.टी. दिल्ली में मेरा दाखिला जून 1982 में हो गया शर्त यह कि सेशन शुरू होने के पहले अंतिम वर्ष की अंकतालिका जमा हो। अपनी तो बी.टेक. की परीक्षा का भी पता नहीं। जब फरवरी 1983 में बी.टेक. का परीक्षाफल आया तो एम.टेक. हेतु गेट लागू हो गया। अब एच.बी.टी.आई. में वर्ष 1882 के लेट सेशन के आधार पर एम.टेक. में दाखिला लिया। 400 रुपये मिलने लगे। फिर वह 600 हो गये। दिसम्बर 1983 में एम.टेक. प्रथम वर्ष में टाप किया। उसी के आधार पर उन्नाव के अकरमपुर चकरमपुर स्थित अपार केम लिमिटेड में 1005 रुपये प्रतिमाह की नौकरी की। उन्नाव के गांधीनगर में रहने लगा। डे शिफ्ट नाइट शिफ्ट करते जीवन चला पर प्रभु कृपा से श्रीमद्दुर्गासप्तशती का पूरा पाठ प्रतिदिन चलता रहा।
बेरोजगार इंजीनियर ने भांजी को बचाया
उधर लगभग एक साल बाद कम्पनी में ले आफ हो गया। लखनऊ में घर बैठना पड़ा। एक इंजीनियर बिना कमाये। लेकिन वहां भी किराये के राजाजी पुरम स्थित सी-749 में काफी जमीन थी अत: मन लग गया। भिंडी इत्यादि पैदा की। कभी कभी पेड़ों की सेवा करते करते दोपहर के 2 भी बज जाते थे परन्तु बिना माता जी के पाठ और पूजा बिना कुछ नहीं खाता था। मां चिल्लाती रहती थी। वर्ष 1984 में बड़ी बहन लखनऊ आयी जहां उनकी 1 साल की बेटी युक्ति को दस्त लग गये। जो लाख दवा बंद करने पर बंद न हुये। होमियो, ऐलो, आर्युवेद सहित मां ने अफीम तक दी वह ठीक न हुई। उधर बहन परेशान यदि बेटी को कुछ हुआ तो ससुरालवाले तो जान से मार डालेगें। बहन की बेटी बेसुध हो गई। मेरी माता जी और बहन का रोना चालू। दोपहर का समय था मैं पेड़ों में मस्त था। अचानक मेरा मन अनिष्ट की आशंका से घबराया। मैं तुरंत नहाया। देवी पूजन किया और पूजा का जल भांजी को पिलाया साथ में मां की भभूत जो अगरबती से बनी थी लगा दी और प्रार्थना की। कुछ देर बाद एक दस्त आया और फिर तबियत सुधर गई। अब आप यह बतायें यह देवी मां का चमत्कार नहीं तो और क्या था।
शादी के बाद किस्मत खुली
एक दिन सुदर्शन सहाय मामा कहने लगे यार तुम्हारी किस्मत शादी
के बाद खुलेगी। बडे भाई, जिनको
डी.आर.डी.एल, हैदराबाद में नौकरी मिल गई थी उनकी शादी फरवरी
1985 मे हो गई। अप्रैल माह में मैं अपनी मां को बताया मामा ऐसा बोल रहे हैं। वह
कुछ सोंच पाती कि पड़ोस के विधि अधिकारी के दामाद गोरखपुर के निवासी बाबू आद्यानन्द
वर्मा की नातिन और श्री सिद्देश्वरनाथ सहाय, वकील की बेटी
पूनम से विवाह का प्रस्ताव ले आये। दो तीन और भी प्रस्ताव आये। पूनम को मैनें भी
देखा बाकी को माता जी और भाभी ने देखा। पूनम से शादी की बात तय होकर किसी कारण से
लेन देन में कट गई। सारे ताजिया ठंडे हो गये। अचानक एक दिन मैं दोपहर को कमरे में
लेटा था। आंखे बंद थी, कुछ सोंच रहा था कि लगा जैसे नेत्रों
के आगे अष्टभुजा मां दुर्गा प्रकट हुईं और बोली देख यदि तूने पूनम से विवाह न किया
तो तेरा सर्वनाश कर दूंगी और कहकर वह गायब। भयभीत होकर मैंने माता जी को बताया।
माता जी भी कुछ समझ न पाईं। जब यह बात पड़ोसी को मालूम पड़ी तो उन्होने फिर यह बात ससुराल
में बताई। अबकी बात पक्की हो गई और पूनम सहाय पूनम सेन बनकर 16 दिन में मेरे पास आ
गईं। आप यह बतायें इस घटना को क्या कहेगे।
जब बीबी से डर लगता था।
अब मैं पूनम से मन ही मन भयभीत रहने लगा और एक तरह से चिंता
करना और ध्यान देना बंद कर दिया। सोंचता था तांत्रिक विद्या का प्रयोग किया होगा।
वगैरह वगैरह। पति धर्म भी अनमने मन से नकली खुशी दिखाते हुये निभाने लगा। जबकि आज
मैं महसूस करता हूं कि पूनम के टक्कर की किसी भी परिचित मित्र की बीबी नहीं दिखती
पर समय की बुद्धि की बलिहारी और प्रारब्ध।
एम.टेक. पूरा हुआ।
एम.टेक. पूरा हुआ।
दिन बीतते गये। मैं नौकरी खोजता गया। साथ ही एम.टेक. भाग 2
पूरा करने हेतु दाखिला लेने का प्रयास किया पर उस समय के हेड डा. एन. डी.श्रेरालकर
ने मुझे बिना वजीफ़ा दाखिला दिया। 4 माह का समय बीत गया तब मैंनें एक क्लर्क
मुन्नीलाल के कहने पर अपना केस दिल्ली भिजवाया। जहां से मुझे गेट क्लियर करने के
कारण 1000 रू. माह का वजीफ़ा मिला। मुझे मुन्नीलाल को भी 1200 देने पडे क्योकि उसने
कहा मुझे उप रजिस्ट्ररार एल. एस. मेहता से बोलकर केस लटकवा देगा। कारण यह था कि
मैंने दिल्ली जाकर अपना पक्ष रखा था और उन्होने हाथ में आदेश पत्र दे दिया था। जिसको वेरीफाई करने के नाम पर मुन्नीलाल डिले कर परेशान कर सकता था। इसके साथ ही
मुझे फैजाबाद स्थित के.एम.सुगर मिल में नौकरी मिली जो मैंनें 15 दिन की।
मुम्बई में नौकरी मिली।
एक दिन मैंने घरेलू सास बहू की शिकायतों से तंग आकर मसानी माता से प्रार्थना की माता मुझे घर से दूर ही भेज दो जहां मैं शांति से रह सकूं। उसके तुरंत बाद कभी भरा होगा, याद नहीं कि मुम्बई के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र से बुलावा आ गया। एक मात्र मैं बायोकेमिकल इंजीनियर ने केंद्र में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर सन 21 मई 1986 को मात्र 820 रुपये बेसिक पर 700- 40- 1300 के स्केल में ज्वाइन किया। वाशी मे रहता केंद्र में एक संयत्र में सतत पारी में नौकरी करने लगा। यहां पर किसी ने नौकरी छोड़ी थी जिसकी जगह पर मुझे बुलाया गया था।
नवी मुम्बई जहां दुनिया बदल गई।
वाशी नवी मुम्बई में जे.एन.2/79/बी-6 में रहा। दूसरी तरफ विवाह
के पूर्व मैनें वर्ष 1980 में श्रीमद्दुर्गासप्तशती का पूरा पाठ प्रतिदिन करने के
अतिरिक्त ढूंढ कर नवार्ण मंत्र का 11 माला का जाप भी आरम्भ कर दिया था। इसके अलावा
रात्रि पारी में रात को भी जाप करता। कभी कभी 101 माला तक करने की कोशिश करता। तब
यह होने लगा कि जाप करते करते मुझे नींद सी आनी लगती। मैं कुछ मिनटों के लिये सो
जाता। फिर वर्ष 1990 में एक वर्ष नेरूल ई-34/सी10, सेक्टर 10 में रहा।
वर्ष 1991 में सी2/4/02, सेक्टर 4 वाशी में आ गया। जहां से मेरे जीवन में नया और अद्भुत अध्याय
जुडा। हुआ यूं मेरी पहिचान उत्तर भारतीय नेता और आज के सांसद श्री हरिवंश सिंह
से वाशी रामलीला के कवि सम्मेलन में काव्य पाठ से हुई। जिसमें पत्रकार विश्वनाथ
सचदेव, राहुल देव, स्व. आलोक
भट्टाचार्य, कैलाश सेंगर, नरेन्द्र
बंजारा, देवमणि पाण्डेय, दुबले पतले
वागीश सारस्वत, जो अभी मनसे के उपाध्यक्ष हैं। पूरण पंकज, प्रो. अगम
शर्मा से पहिचान हुई। और मैं वाशी के पत्रकार स्व. अमल कुमार डे, विनोद प्रधान के साथ हरिगोविंद विश्वकर्मा, अजय
भट्टाचार्य, अजय ब्रह्मात्ज के साथ विभिन्न नव भारत टाइम्स,
जनसत्ता, सबरंग और संझा जनसता में वैज्ञानिक
लेख लिखने लगा। जहां पत्रकार धीरेंद्र अस्थाना, सतीश पेडणेकर,
प्रदीप सिंह सहित कई लोगों से पहिचान हुई। नवभारत टाइम्स में लालजी
मिश्र, प्रकाश हिंदुस्तानी, विमल मिश्र
सहित पत्रकार मिले। वर्ष 1992 में सामना अखबार हिंदी में चालू हुआ तो संजय निरुपम,
संजय शुक्ल इत्यादि से लेखन हेतु मुलाकात हुई। लेकिन सबसे
महत्वपूर्ण मुलाकात स्व. रमा सक्सेना से हुई। जिनको मैं आंटी कहने लगा। जो एक
महिला नेता, मां संतोषी की भक्त और उनको दर्शन भी हो चुके
थे। उनको मैंनें बताया मुझे नींद आती है जाप करते करते। तो उन्होने कहा रात नौ बजे
के बाद दीपक जलाकर मंत्र जप करो।
आप बतायें यह क्या था??
जब देवी दर्शन हुये।
13 मार्च 1993 को मैं रात्रि नौ बजे के बाद, अपनी पैर पोछनेवाली बोरी को आसन बनाकर जाप
करने लगा। 6 साल की बच्ची सो रही थी पत्नी भी जाप कर रही थी कि अचानक मेरी बंद
आंखो के सामने तीव्र गेरुआ सुनहरा अनेको सूर्यों की भांति किंतु ठंडा प्रकाश आ गया
और उसके साथ स्वर्ण रंग के बैठे हुये आशीष मुद्रा में श्री गणेश, श्वेत वस्त्र में हंस पर सवार मां सरस्वती, एक नीचे
से ऊपर तक घूमती आकृति जैसे कोई मोटा ड्रिल घूमता हो और बाद में भयंकर रूप में मां
काली अचानक दिखी। मां काली का रूप देखकर मैं डर गया। अचानक मां काली बोली रे मूर्ख
मुझे क्यों बुलाया मुझे बलि दे।
मैं चकरा गया मैंनें कहा माता मैंने आपको नहीं बुलाया था मैं तो माता दुर्गा के दर्शन चाहता हूं। मां बोली रे गधे यह मेरा ही मंत्र है जो तू जपता है। मुझे पता नहीं मंत्र यंत्र क्या होता है बस भक्ति भाव से नवार्ण मंत्र जापना। ऊधर काली मां क्रोध में बलि मांगे। अचानक मुझे लगा कि मां सरस्वती बोलीं अरे अपनी किसी बुरी आदत की बलि दे दे। यदि तुमने किसी की भी बलि दी तो समझो तांत्रिक बन कर भटक जाओगे। साथ ही देखा कई देवता उस विकराल काली के हाथ जोडे खड़े हैं। विनती कर रहें है, यह तो मूर्ख है पागल है गधा है इसको माफ करो मां शांत हो जाओ।
मैं भी बोला मां मुझे चाहे मार डालो मैं किसी की रक्त की बलि न
दूंगा। हां मैं मांस और मदिरा के प्रयोग की बलि देता हूं। मां काली बोली ठीक है पर
याद रखो जिस दिन तुमने इनका सेवन किया मैं तेरे परिवार की बलि ले लूंगी। यह कहकर
उन्होने मुझे सीने पर लात मार दी। मैं उस वक्त हाथ जोड़कर खड़ा था और पीछे की ओर दीवार
से टकराकर गिर गया। इसी के साथ मेरा शरीर बेकाबू होकर हिलने लगा। पैर रोंकू तो पेट,
पेट रोकू तो गर्दन हिलने लगी जैसे कोई भूत घुस गया हो। पत्नी डर गई।
मैं जमीन पर मछली की तरह फड़फड़ाता रहा। अचानक मैंनें पत्नि से कहा कपूर
लाओ। पत्नि जलता कपूर लाई मै उसे खा गया। पता नहीं कितना कपूर जलाकर खा गया। इस
प्रकार यह प्रकरण सुबह साढ़े चार बजे तक चलता रहा। मैं तड़पता रहा आश्चर्य से बिना यातना के, पत्नि डर के मारे कांपती रही।
देवी दर्शन या जीती मौत
इसके बाद मुझे हर तरफ काली दिखे।
अचानक कमजोरी आये मैं निढाल हो जाऊं। शक्तिहीनता को मैंनें पहली बार महसूस किया कि
सांस तक लेने में दम लगती थी। ऐसा लगता था अब प्राण निकले। जाप करता था तो शक्ति
आती थी। दूसरे दिन मुझे अह्म ब्रह्मास्मि की अनुभूति हुई। ऐसा लगे मैं ही दुर्गा
हूं। और मैं बड़बड़ाने लगता मैं ही दुर्गा मैं ही काली मैं ही शिव मैं ही सब कुछ।
इसके साथ शरीर में तनाव और ऐसा लगे मेरे हाथ की तर्जनी में चक्र है। कभी त्रिशूल
कभी धनुष बाण। कुल मिलाकर एक पागल की स्थिति पर बाद में सामान्य। कई बार अस्पताल
में भर्ती जहां मलेरिया समझकर एक ग्राम कुनैन तक की गोली दी गई। यही सब चलता रहा।
ऐसा लगे कोई संत पुरूष हाथ रख दे तो ठीक हो जाऊं। वाशी एनबीएसए में मुरारी बापू
आये वहां गया तो वो हाथ जोड़ने लगे भाई मेरे पास तुम्हारा इलाज नहीं। दिन चलते गये
ऐसे ही कभी आफिस कभी छुट्टी होती गई। मैं कभी मरता कभी जीता पर मैंनें मंत्र जाप
और पाठ न छोडा।
........................क्रमश:
......................
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल