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Sunday, June 24, 2018

पर्यावरण की पूजा ईश पूजा है। कुछ उत्तर



पर्यावरण की पूजा ईश पूजा है।
कुछ उत्तर
खोजी देवीदास विपुल

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

कृपया यह जरूर पढ़ें।
सन्देश फैलाये। पर्यावरण बचाये।
वैज्ञानिक विपुल लखनवी
अभी मेरे मित्र इस ग्रुप के सदस्य श्री आर पी गुप्ता जी घर आये थे। चर्चा में मैने जिक्र किया कि मुझे गुड़ इवनिग मार्निग पोस्ट क्यो न पसन्द है। उस पर एक चर्चा पुनः कर रहा हूँ।
नेट बिजली से चलते है। बिजली पर्यावरण को नष्ट कर पैदा होती है। अतः अधिक बिट्स की पोस्ट यानी अधिक प्रदूषण।
फोटो कई जी बी तक की होती है।
फोटो के साथ अक्सर वायरस आते है।
भारत मे 80 प्रतिशत प्रात सन्देश मूर्खतापूर्ण गुड़ मानिग जैसे पोस्ट होते है।
विश्व मे भारतीय सबसे बेवकूफी के ऐसे ही सन्देश देते है।
3 विश्व मे पर्यावरण प्रदूषण सबसे अधिक नेट के कारण होता है।
बिजली कोयले से पानी से बनती है यानी पर्यावरण असंतुलन पैदा कर के बनती है।
अतः ऊर्जा की बचत। ऊर्जा की उपज।
इंजीनियर जानते है स्टीम इंजन कारनाट साइकिल है जिसकी क्षमता 30 प्रतिशत अधिकतम होती है।
यानी 100 किलो शुध्द कोयला जलकर मात्र 30 किलो कोयले के बराबर ऊर्जा पैदा करेगा।
अशुध्द कोयला कितना जलेगा। सोंचे।
यानी कितनी जमीन खोदी। पर्यावरण विनाश।
फिर यह ऊर्जा टरबाइन चलाएगी उसकी क्षमता।
फिर ट्रांसमिशन में 35 प्रतिशत तक नुकसान।
फिर आपके घर के यंत्र की क्षमता।
यानी यदि आप घर पर 1 यूनिट बिजली बचाते है तो 10 यूनिट के बराबर पर्यावरण बचाते है।
अब आप सोंचे आप इस बेकार की पोस्टो से कितना पर्यावरण प्रदूषण कर रहे है।

अब मेरे दिमाग में यह आ रहा है कि ज्ञानी कौन। वो जो अच्छे लेख लिख लेता हो या वो जो कुछ नही जानते हुए सिर्फ भक्ति में लीन रहता है।
अतः मैं अपने विचार रखना चाहता हूँ।
ज्ञानी उसको जानिये, पर्यावरण बचाय।
प्रकृति से प्रेम कर, नाम जपत जुट जाय।।1
अपनी फोटो जे पसन्द, सबको जो दिखाय।
समझो उसको ज्ञान न, गागर उलट भराय।।2
छोट छोट सी बात मा, आपा ही खो जाय।
तनिक जो दूजा बोल दे, कच्चा ही खा जाय।।3
मन बसी एक चाह जो, मेरा हो सन्मान।
मेरी जय जय कार हो, यही मेरा ज्ञान।।4
जन कहे हूँ ज्ञानी मैं, वाणी मेरी मान।
मैंने जाना प्रभु क्या, दूजा है बेईमान।।5
विपुल कहे मैं क्या करूं, रस्ता प्रभु बताय।
कैसे बढ़ कर मैं चलूँ, बार  बार गिर जाय।।6
ज्ञानी की इस भीड़ में, विपुल हुआ असहाय।
मूरख जाने जगत क्या, पुनि पुनि धोखा खाय।।


इस सृष्टि का संचालक और पालक ब्रह्म ही है। द्वैत अद्वैत त्री भेद इत्यादि सब हमारे द्वारा अनुभव किये हुए रूप है। जिस प्रकार जल एक है पर कही पर तालाब तो कही कुआ कही नदी सरोवर पर अंततः समुद्र बन जाता है। बीच मे अपना रूप त्याग कर वाष्प रूप धारण कर बादल बन जाता है पर पुनः जल के रूप में आना ही पड़ता है। जिस प्रकार दूध एक है पर रूप बदलने पर नाम अलग हो जाते है उसी प्रकार ब्रह्म एक है पर किस ऋषि ने किस रूप को चखा उसने वही लिख दिया।
अतः किसी को श्रेष्ठ अश्रेष्ठ कहने का सवाल उठाना ही गलत है।
हा यह बोलना कि मैं सही वह गलत यह छोटेपन और अपूर्णता की निशानी है जो बाइबिल या कुरान कहती है कि मेरा और सिर्फ मेरा ही मार्ग सही।
परन्तु एक बात यह है हर रूप के गुण अलग हो जाते है जैसे बर्फ वाष्प और जल। इनके प्रभाव भी अलग हो जाते है।
जैसे जो रस द्वैत में है भक्तिभाव में है वह कही नही।
अद्वैत में ज्ञान है पर अहंकारी और निरंकुश होने का खतरा।
पर द्वैत के नाम पर बेईमानी अधिक होती है। वही अद्वैत के नाम पर दुकानदारी।
कुल मिलाकर मेरा यह अनुभव है। सब किताबे कोने में रख दो। चाहे विज्ञान हो ज्ञान हो। अपने को पढ़ने का प्रयास करो। पहले अंतर्मुखी हो। बाद में तुमको जो अनुभव हो बस वो ही सही।
मेरे विचार से जो गुरू अपने को नहीं सम्भाल सकता वह शिष्य को कैसे सम्भाल पायेगा। कही कुछ गड़बड़ है। शक्ति कभी अपने साधक का अहित नही करती वह तो बचाती है। यह कैसी लीला की शक्ति ही मार रही है।


प्रत्याहार। इसका मतलब होता है। प्रति धन आहार। 
हम इंद्रियों के द्वारा जगत को भोगते है। तब यह इंद्रियां और और लगाए रहती है। इंद्रियों की इस और को वासना या लपस्या कह सकते है। और और कई चाह को लालसा कहते है। इन सबसे मन मे जो विकार आता है उसका वास नही होना चाहिए अतः उसे वास ना  कहते है।
यहाँ पर योगी यदि इंद्रियों की पुकार से पुकार से फिसल गया तो यदयपि उसका ज्ञान योग तो नष्ट नहीं होता किंतु कर्म दूषित होने का खतरा बन जाता है। जो समाज मे कानून में निंदननीय हो जाता है।
अतः योगी को प्रति आहार यानी प्रत्याहार की आदत डालने हेतु प्रयास करना चाहिए। मतलब जो इंद्रियों के आहार के विपरीत हो। जैसे स्वामी विवेकानन्द को एक बार केले देखकर खाने की इच्छा हुई। तो उन्होंने केले तो खरीदे पर छिलके खाना चालू किये। गुदा फेक दिया और मन को बोलते गए। ले ढूस ले ढूस। इस प्रकार मन को दंडित किया।
वास्तव में मनुष्य सब प्रत्याहार कर दे किंतु काम को त्यागना बेहद दुर्लभ हो जाता है। और जो प्रायः सन्तो की निंदा का कारण बन जाता है।
कुल मिलाकर यदि मन को वश में कर ले तो प्रत्याहार की आदत बन जाती है। ये मन सबसे बड़ा शत्रु और मित्र है। जहाँ1 एक तरफ जगत की ओर ढेलता है वही यही प्रभु भक्ति की ओर भी ले जाता है। यह सब महामाया के अधीन रहता है। अतः सब प्रभु कृपा से ही होता है। इन सबका एक ही इलाज है बार बार जबरिया अपना मन प्रभु भक्ति में लगाओ मन्त्र जप द्वारा। उसी को समर्पण कर दो सब कुछ। तब ही कल्याण होगा। और अष्टांग योग फलित होगा।
जय हो प्रभु।
मित्रो यह सब अपने अपने अनुभव है। जो जरूरी नही सबको हो।
मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि यह सब केवल सुंदर शब्दो का खेल होता है। सब हमारे लिए व्यर्थ है।
फिलहाल मेरी तो पूरी यात्रा गुरू दीक्षा के पहले तक सिर्फ और सिर्फ मन्त्र जप से हुई। मुझे तो यह भी नही पता था कि आसन का क्या महत्व है। मैं तो पैर पोछनेवाली बोरी के ऊपर बैठ कर मन्त्र जप करता था। बस नियमित था मन्त्र जप और देवी पाठ में। साथ ही जब मौका मिले जाप करता था। इसके अलावा कुछ न जाना और न किसी ने बताया। जब लखनऊ में था तो नियमित शीतला माता के और फिर मसानी देवी के मन्दिर में 7 परिक्रमा मन्त्र जप के साथ। वह भी जैसे विवाह में लेते है। फिर काल भैरव के दर्शन और एक ही मांग मुजगे माँ के दर्शन चाहिए।
वह फलित हुआ। मेरी पहली गुरू माँ काली बनी। फिर उन्होंने वर्तमान गुरू के पास भेजा। 
मुझे सिर्फ इतना पता है और ज्यादा कुछ न मालूम है न जानना है कि सिर्फ मन्त्र जप। दृढ़ श्रध्दा। नियमितता और समर्पण। 
सब खुद मिल जाता है।
कल एक मित्र सदस्य बने। ज्ञानी थे शायद तब ही ज्ञान की बाते पोस्ट की। बाद में बिना भूमिका अकारण अपनी दो फोटो भी डाल दी। जब मैंने निवेदन किया जब तक बहुत आवश्यक न हो फोटो पोस्ट न करे। अपने लेख के माध्यम से पर्यावरण बचाने की अपील की। पर वह तो ज्ञानी थे। मेरे विचार से ज्ञानियों में अहंकार बहुत होता है अतः वे जल्दी क्रोधित होकर बिना कारण ग्रुप को छोड़ गए।
माननीय मित्रो एक निवेदन है।
ग्रुप में कई सदस्य निष्क्रिय है। परंतु कुछ सदस्यों ने चुपचाप mmstm किया है। आपसे अनुरोध है। अपने अनुभव बताये। शोध में मेरी सहायता करें।
कारण यह होता है मनुष्य अपने को जाति से जन्म से उच्च और ज्ञानी समझता है वह एक भृमित सम्मान का पर्दा बना लेता है अतः अपने को छोटा कैसे प्रदर्शित कैसे करे। अतः सब छुप कर करता है।
मित्रो इस ग्रुप का उद्देश्य आत्म उत्त्थान और अवलोकन है। यहाँ सब बराबर। अतः अपना आवरण उतारकर स्पष्ट सामने आकर चर्चा करें। जिससे ग्रुप को डाटा मिले और आपको वास्तविक अनुभव।
मैं इस अनुभव पर पहुचा हूँ कि चूंकि शिव और शक्ति मनुष्य रूप में नही आ सकते अर्थात सम्पूरन साकार। पर कृष्ण ने चुकी मानव अवतार लिया था अतः वह आ सकते है। अतः भक्ति किसी की करो वह कृष्ण पर खत्म होती है। 
मेरा भी यही हाल है। कभी कृष्ण की विशेष पूजा न कि पर माँ और शिव कृष्ण की ही ओरे धकेल रहे है। गोपाल कृष्ण की अनुभूति और दर्शन नुमा अनुभव होता है। ह्रदय भी कृष्ण भक्ति में लीन हो रहा है अपने आप।
यह एक नया अनुभव और खोज है।
यानि शिव शक्ति के दर्शन बन्द नेत्र से तुरीय अवस्था मे ही होते होंगे।
पर विष्णु अवतार साक्षात मानव रूप में। हॉ शिव के हनुमान भक्त के जरूर। क्योकि वह 8 कला में अवतरित हुए। पर साक्षात शिव और शक्ति नही।
सही मायने में यह अलग तरह की खोज है। मुझे लगता है शिव शक्ति कृष्ण सबमे अंतर है पर अंत एक है। प्रादुर्भाव एक से हुआ। निराकार सुप्त ऊर्जा से।
मैं शब्दों में शायद न लिख पाऊँ। पर कभी व्याख्यान में शायद मुख से निकल जाए।
हे प्रभु वह अनुभव जो शायद कहीं वर्णित नहीं।
नही बिल्कुल नही। यह सब ईष्ट की कृपा से हुआ है। मन्त्र जप सिर्फ इष्ट का।
मैं मन्त्र जप अंत तक माँ का ही करता रहूंगा।
मेरा मन अब सिर्फ एक शब्द का जप करने का होता है। जो मुझे माँ प्रिय लग रहा है। ॐ भी लम्बा लगता है।
हे प्रभु। यानि मैं न भृमित न गलत। मैं तो सोच रहा था यह सब मेरा भरम हो सकता है।
मित्र जो आप शारीरिक देखते है वह योग नही है। कृपया पहले कुछ लेख पढ़ ले तो वार्तालाप में सुविधा होगी।
आपके प्रश्न सही है और एक आम आदमी की सोंच को दर्शाते है।
लेखो में कई बार योग को समझाने का प्रयास किया है।
यही सनातन की विडंबना है। अधकचरे ज्ञानी अधिक है।
इतने सारे भगवान इतने योग देख कर कोई भी भृमित हो सकता है।
लोग भगवान को atm ही समझते है और प्रचारित करते है। यह दुखद है।
योग समझने के लिए कुछ प्रारम्भिक ज्ञान भी आवश्यक है। अंतर्मुखी होने की विधि का पालन के साथ।
आप जिसको योग कह रहे है वह वास्तविक योग नही है।
कृपा करें पहले लेख पढ़ें।
सही। भक्ति के लिए जवान देह चाहिए
मनुष्य का मूल स्वभाव आनन्द है। सन्सार की भौतिक वस्तुओं से जो आनन्द मिलता है वह अस्थाई होता है। जैसे शराब पी बाद का हैंग ओवर कभी कभी बेहद कष्टकारी हो जाता है।
बेटा पैदा किया। बुढापे में लात मार सकता है।
स्त्री भोग किया। उसकी वासना और बढ़ती जाती है। कभी गैर कानूनी काम हो गया तो जेल जाओ।
कार बैंक बैलेंस एक सीमा तक आनन्द देते है फिर और की लापस्या मानव को बेईमान बनाकर गैरकानूनी काम तक करवा देती है।
जब बुढापे में इंद्रियां शिथिल होती है। पर मन वासनाओ की ओर ही भागता है तब बहुत कष्ट होते है।
कभी कभी इन कारणों से मानव आत्महत्या जैसे संगीन कुकृत्य कर बैठता है।
तो फिर वह क्या है जो स्थाई शांति और आनन्द देता है।
वह क्या है जो संकट के समय हमें सहन शक्ति देता है।
वह क्या है जो दुखो को सहने की क्षमता देता है।
वह है अपने आत्म स्वरूप को जानना। पहले यह जानना हम क्या है।
इसके लिए हमें अंतर्मुखी होना पड़ता है।
मित्र आपने एक भी लेख लिंक का नही पढ़ा है। यदि आप सिर्फ बहस करने के लिए जुड़े है तो बात अलग है। पर यदि जानना चाहते है तो कुछ तो आपको ही करना पड़ेगा।
इच्छाएं पूरी नही होती है तो क्रोध उतपन्न होता है। जिससे विवेक नष्ट हो जाता है। जिससे मनुष्य कुछ भी गलत कर सकता है। अतः इच्छाएं सीमित रहे तो बेहतर।
पर सीमित कैसे रहे।
आप आत्मा परमात्मा का अनुभव कर सकते है। मेरी चुनौती और दावा। पर करना आपको होगा। समय आपको ही देना होगा। इस ग्रुप में ईश को गालियाँ देकर भी लोगो ने कुछ नए अनुभव लिए  है। परन्तु उन्होंने बात मानी और किया।
किसी दूसरे के कर्म से आप अनुभव नही ले सकते।
वासना। यानी वास ना। जिसका वास नही होना चाहिए पर है।
वासना एक अग्नि के समान होती है। इनकी जितनी पूर्ति करो उतनी ही बढ़ती जाती है।
कोई इनको सन्तुष्ट नही कर सकता।
तो फिर इनको सन्तुष्ट कैसे करे।
अंतर्मुखी होकर।
कोई भी अनुभव कैसे ले।
अंतर्मुखी होकर।
एक होती है। सत्व इच्छा जो हमे उत्थान की ओर ले जाती है  दूसरी हमे पतन की ओर ले जाती है।
यह भी जानने हेतु हमे अंतर्मुखी होकर जानना होगा।
मित्र आपसे अनुरोध है एक लिंक में दिए लेखों को पढ़ ले। आपके आधे से अधिक प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे। नही तो ऐसे ही भटकते रहो। आखिर मर्जी आपकी। जीवन आपका।
नहीं श्रीमान। इस स्वरूप में स्थित होना न सहज है और न आसान। आत्म दृष्टा स्वरूप कुछ समय के लिए आता है। फिर वही जगत। अतः इस रूप में निरन्तर प्रभु समर्पण और मन्त्र जप बेहद आवश्यक है। नही तो मनुष्य पुनः जगत में वापिस जाने लगता है। 
पातंजली महाराज स्थाई रूप से स्थित हो गए थे। पर आज बेहद मुशिकल।
भाई होता यह है कि प्रत्येक ऋषि या मनुष्य अपने अनुभव के और अवस्था के अनुसार लिख देता है। जैसे एक नट तलवार की धार पर चल लेगा क्योकि अभ्यास है। पर एक नया अनाड़ी न चल पायेगा।
मैं अनाड़ी हूँ किंतु सत्य लिखने का प्रयास करता हूँ किसी धर्म ग्रन्थ से मिलने की बात नही करता।
प्रभु कृपा से माँ जगदम्बे की दया से मुझे वेद वर्णित लगभग सभी अनुभव हुए है। पर अक्सर वह पूरे मेल नही खाते।
शायद मेरे अनुभव अपूर्ण या भरम हो।
मनुष्य का भाव 24 घण्टे एक नही रह पाता। अतः कलियुग में जब समय मिले। भक्तो की फिल्में देखो इंटर नेट पर। अपने को चेक करो क्या तुमको प्रभु मिलन की तड़प होती है या विरह पैदा होता है। क्या तुम्हारे प्रेमाश्रु गिरते है।
यदि हाँ तो मैं समझता हूँ। आग जल रही है।
मेरी दृष्टि में तुलसी पातंजली से कम योगी नही थे। पर वह मन्त्र जप से ऊपर गए।
वास्तव में अष्टांग योग एक मार्ग है अंतिम नही।
अंतिम लक्ष्य है निराकार का अनुभव। जिज्ञासाओं का अंत। चाहे किसी भी विधि से जाओ।
मैं सहमत नही। तमाम ऋषि मुनि इस अवसथा के बाद भी फिसल जाते है।
प्रश्न है महामाया के चक्र का।
मुझे मेरे जीवन मे अपना कोई योगदान नही दिखता। सिर्फ प्रभु कृपा दिखती है। और यही कृपा सबमे दिखती है।
जैसे लाहिड़ी महाराज सिध्द हुए तो उनका क्या योगदान । प्रभु कृपा हुई। सिध्द महावतार मिले। लाहिड़ी सिध्द हो गए।
भाई अब मुझे सिर्फ प्रभु की लीला हर तरफ दिखती है।
मेरे पाप पुण्य सब उसके। मैं कुछ हूँ ही नही। मात्र एक मास का लोथड़ा।
वह जो बुद्दी प्रेरित करता है। बस यह शरीर कर देता है।
जो करता है वह उसकी इच्छा। जिस पर हो रहा है वह उसकी इच्छा।
नही मैं बहुत पापी हूँ। प्रभु कृपा मुझे पूरी नही मिली। सूर तुलसी मीरा सबको साक्षात मानव रूप में प्रभु मिले। मुझे अभी तक न मिले। जिस दिन मुझे कृष्ण के विष्णु रूप के साक्षात दर्शन होंगे। तब मुझे संतुष्टि मिलेगी और मैं अपने को भाग्यशाली मानूँगा।
हालांकि मैं कुछ नही दोनो वोही। पर इस मांस के लोथड़े को भी चाहिए।
नही बिना प्रभु कृपा के कोई एक घण्टे साधना नही कर सकता।
बिना उसकी कृपा के हम सांस भी नही ले सकते।
सब तरफ उसकी ही कृपा है। उसका ही नूर है।
हाँ हम अपनी बुद्दी को धकेल कर बार बार उसको याद करने की कोशिश कर सकते है। बल्कि वो भी नही।
क्या लिखूं कुछ समझ नही पाता। कौन किसको समझा रहा है। कौन क्या समझ रहा है।
मेरा लिखना बस नाटक मात्र है।
सब तरफ वो ही है।
यार मुझे यह लगता है। जब उसकी कृपा होती है। तब वो ही गुरू बन जाता है। वोही शिष्य बन जाता है। वो ही ज्ञानी बन जाता है वो ही मूर्ख बन कर रहता है।
वो ही भक्त है वो ही विभक्त है। वो ही ज्ञान है वो ही अज्ञान है।
हमको न कुछ जानना है। क्योकि दोनो तरफ वो ही। वो ही शून्य है वो ही अनन्त है।
मैं भृमित होता हूँ कि मैं किसको समझाता हूँ।
मझसे जो आवश्यक होगा करवा लिया जाएगा। मेरी एक ही कोशिश रहती है। बस उसको स्मरण करता रहूँ।
भाई मेरी एक ही बात। प्रभु स्मरण सतत सघन। उसकी याद। समर्पण बस।


इस उत्तर में समझाया गया है कि मनुष्य क्या है। जैसा माना जाता है पंच तत्वों से बना है। अंतिम तत्व आकाश यानि वह जगह जहाँ मन बुद्दी अहंकार सोंच आत्मा परमात्मा सब रहते है। तू वहाँ भी नही है। तू इन सबके चैतन्य स्वरूप का मिश्रण है और वास्तव में मात्र एक देखनेवाले और सब तत्वों के चैतन्य स्वरूप को महसूस करने वाला दर्शक मात्र है।
कहने का अर्थ तू इन सब पंचतत्व जो निष्क्रिय होते है बेजान होते है सिर्फ अपनी अपनी प्रकृति का ही कार्य कर सकते है । वे सब जब मिले तो तू बना। अर्थात तेरा इन पर क्या नियन्त्रण तू मात्र एक दृष्टा है इस बात को समझ लेना और जानना परम् आवशयक है और यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है।



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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आध्यात्म में नीरसता कुछ उत्तर



आध्यात्म में नीरसता
कुछ उत्तर
खोजी देवीदास विपुल



विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
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आध्यात्म में एक अवस्था के बाद नीरसता सी महसूस होती है। धीरे धीरे इसका समय बढ़ता जाता है। जब जगत में मन नही लगता, कोई इच्छा न को, कोई कामना न हो तो अक्सर यह ख्याल आता है कि मैं जिंदा क्यो हूँ। क्या मुझको देह त्याग देना चाहिए।जब मुझे जगत से न कुछ लेना है न कुछ देना है तो मैं जीवित क्यो हूँ।

शिवा जी महाराज के गुरु समर्थ गुरू रामदास महाराज को जब 12 साल में 12 करोड़ रामनाम जप करने के पश्चात राम के दर्शन और ब्रह्म की अनुभूति हुई। तो उन्होंने नदी में यही सब सोंचकर छलांग लगा दी। पर डूबने के पूर्व उनको राम ने बचा लिया और बोला तुम्हारा जन्म सनातन की रक्षा हेतु हुआ है। इसके बाद वह शिवाजी के गुरू बने और सनातन की रक्षा हेतु शिवा को प्रेरित किया।

यदि तुम्हारा यह हाल है तो अपने गुरू महाराज से ब्रह्मचारी दीक्षा हेतु प्रार्थना करो। पर तुम्हे तब घर द्वार नौकरी सब छोड़नी पड़ेगी। सन्यास जीवन बहुत कठिन होता है। अतः गहन विचार करो। ग्रहस्थ्य जीवन के साथ ईश प्राप्ति कर अपने सारे कर्मफल सुखपूर्वक भोगकर मुक्त हो।

जगत कल्याण हेतु एक तरीका यह भी है कि तुम नौकरी के साथ जगत में नाटक करते हुए रहो। शिक्षक हो जो एक अति सुंदर पेशा है। छात्रों का भविष्य और चरित्र निर्माण करो। अपने वहाँ किसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से जुडो। वहाँ तुमको जन सेवा के राष्ट्र सेवा के अनिको मार्ग मिलेंगे। तब तुम वास्तविक जीवन जी सकोगे।

किसी प्रकार के विशेष अनुभवों के पीछे भागोगे तो दुखी रहोगे। मन मे भक्ति के भाव हमेशा नही रहते इसके लिए भक्तो की कथाएँ पढो। विभिन्न उपनिषद और वेदों का अध्ययन करो। यदि सँस्कृत नही आती तो उसमें कोर्स कर डालो। बिना सँस्कृत ज्ञान के आध्यात्मिक जीवन अधूरा है।

अपने मन्त्र जप को निरन्तर करते रहो। यह तुमको निराकार तक भी पहुचा देगा। जहाँ तुम्हारा ज्ञान पूर्ण हो जाएगा। तुम खुद अपनी अंतर्दृष्टि से सृष्टि का निर्माण और विनाश देख सकोगे।

यह बात मन से निकाल दो कि मैं तुमसे नाराज हूँ या कोई प्रसन्न है। मुझमे कोई विशेष बात मत देखो। अपने गुरू के प्रति निष्ठा रखो। व्यर्थ के प्रश्नों से बचो। तुम्हारा आत्मगुरू जागृत है। जो तुमको उत्तर दे देता है तब तुम क्यो अपनी मूर्खता प्रदर्शित करते हो। समय के पूर्व कुछ घटित नही होता। अतः समय को भूल जाओ। तुम्हारा आध्यात्मिक भविष्य उज्ज्वल है। अतः परेशान और भृमित मत हो।

चरैवेति चरैवति। सिर्फ चलते रहो। चलते रहो। निर्बाध अनन्त से अनन्त की ओर। एक नदी की भांति। बस दृष्टा भाव रखो। विश्वास रखो अपने पर। प्रभु पर। तुम न कुछ लेकर आये और न जाओगे। एक मुसाफिर हो जीवन यात्रा की गाड़ी के। यह तुम समझ चुके हो पर बीच बीच मे भटक कर किसी अन्य स्टेशन पर बीच मे उतरने की चेष्टा कर भूल करते हो।
मैं समझता हूँ तुम्हारे पिछले अनेको प्रश्नों के उत्तर आज तुम्हे सही मार्गदर्शन के साथ मिल गए होंगे। आगे हरि इच्छा। 

मनुष्य बड़ा नही होत है। समय होत बलवान।।
और अधिक कर गुजरने की तमन्ना है। अपने कस्बे में प्रवचन की व्यवस्था करो। जहाँ लोगो की आध्यात्मिक जिज्ञासा के साथ अन्य योग सम्बन्धी चर्चा हेतु मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊंगा। साथ मे अंशुमन द्विवेदी भी रहेगे। हो सकता है साथ मे अरुण दद्दा और तुषार मुखर्जी भी आ जाये और तुमको समाज सेवा की एक दिशा मिल जाये।

यह अनुभव करना आसान नही होता है। यह मात्र भक्ति योग या मार्ग से सहज प्राप्त होता है। जब मनुष्य परम् प्रेमा भक्ति में डूबकर ब्रह्म मैं हूँ यह अनुभव करता है और यह अनुभव लम्बा चलता है। भक्ति विभक्त न होकर गहन होती जाती है। गर्व की गुरू बनने की नाम या दाम की लालसा नही होती है तब प्रभु यह अनुभव करवाते है। 

अतः आपकी बात दूर की बात है। पास की नही। 
दूसरे ज्ञान योग का अनुभव जो बिना भक्ति के हो वह अनिल जैसी अवस्था ला देता है। आप दोनों एक ही स्तर पर है पर अनुभव अलग होने के कारण भाषा अलग है।

निश्चित संख्या और प्रतिदिन जाप हेतु माला ठीक है। पर उंगली पर भी कर सकते हैI। यू टाइमपास हेतु करते रहो।
वैसे मेरा मानना है यदि माला सिद्द हो जाये तो यह एक शक्ति का हथियार और बचाव हेतु कवच भी बन जाती है। वहीं ईश भक्त को कामना से क्या अत: मंत्र जप बिना माला सतत निरंतर सघन करते रहो। यह तुमको गुरू से लेकर ज्ञान तक स्वत: पहुंचा देगा।
सवाल यह है हम बहुत कुछ मानते है। पर मानना सत्य नही भी हो सकता है। प्रश्न यह है कि हम जाने कैसे। क्योकि जानना ही श्रेष्ठ है। एक बार हम जान ले तो मानना तो अपने आप हो जाएगा।
जानने हेतु हमे प्रयत्न करना पड़ता है।
सही दिशा में किया गया प्रयत्न ही हमे सही गन्तव्य तक ले जाता है।
जहाँ पहुचकर हम जान लेते है। हम क्या है। यही ज्ञान हमे बन्धनों से मुक्त करता है।
जानने के मार्गो में सबसे सहज सुंदर टिकाऊ और सस्ता मार्ग है नाम जप और समर्पण।
नाम जप से मरा शब्द भी डाकू रत्नाकर को बाल्मीकि ऋषि बना गया।
अतः शब्दो के भंवर में पुस्तकीय ज्ञान के महासागर में मत उतराओ। यहाँ डूबकर कुछ न मिलेगा।
भक्ति के और प्रभु स्मरण यानी नाम जप के सागर में बार बार गोते लगाओ। यही कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग है।
दुनिया मे जो दिख रहा है वह खजाना नही है, वह तो कागज के टुकडे और खनकते सिक्के है, सच्चा खजाना तो हमारे अंदर है, जो बहुत बेशकीमती है, इस खजाने को हर कोई पाना चाहता है लेकिन मिलता उन्ही को है जो अन्तर्मन होकर खोजने का प्रयास करते है। जिनको यह खजाना प्राप्त हो जाता है उनको न बंगला न गाडी न किसी तरह का ऐश्वर्य चाहिये होता है, वरन् दुनिया के सभी तथाकथित ऐशवर्यवान उनके इसी धनी रूप के दर्शन के ललायित होते है, दूर दूर से आते है। जय बाबा महाकाल जय हिन्द जय माँ नर्मदे जय सत्य सनातन।

Dear Vipul
I have query -
As you pointed that Sanskrit has ' Beej Mantra' oe seed words.
If I am not good at Sanskit, due to which I commit errors in reciting the Mantra, which may mean anything different that it intends, than is it not better to recitr its hindi equivalent or Tikka(meaning as may be explained by some knowledgeable man).
I have no hesitation to say that I had sanskrit language during my studies of class 5th & 6th but due to long illness I could hardly learn & retain it.

मात्र अनुष्ठानिक जप करने में शुध्दि पर बहुत ध्यान देना पड़ता है। दूसरे जानबूझकर अशुद्धि उचित नही।
अनजाने में हुई अशुध्दि क्षम्य है क्योंकि आपके मस्तिष्क में तो सही विचार है। प्रभु प्रेम के भूखे होते है। दिखावे के नही।
आप हिंदी का टीका पढेंगे तो वह मन्त्र नही हुआ। मन्त्र केवल कुछ शब्दों का जो अर्थ युक्त होते है और प्रार्थना लिए हुए होते है । वह होता है । 

फिर आप कैसे जानते है कि आप गलती कर रहे है। इसके मतलब आप जानते है। प्रयास करे।
हा गीता, माँ का पाठ सँस्कृत में मजा नही आता क्योकि समझ नही पाते तो उसको हिंदी में ही पढ़ सकते है। मैं भी हिंदी पढ़ता था और हूँ।
तुम पुर्व जन्म के उच्च साधक हो। तुमको अनुभव हो चुके है। पर तुम्हे अपने कर्मफल भी भोगने है। जिसके कारण तुम भृमित रहते हो। दूसरे तुमको मोबाइल्मीनिया है जो उचित नही। हफ्ते में कुछ दिन मोबाइल से दूर रहने का प्रयास करो।
सत्य वचन। कलियुग का कारण ब्राम्हणत्व का डगमगाना ही है। इसकी वास्तविक परिभाषा को भूलकर वाहीक रूप में जाने से पुण्य का क्षय होता है। तब पाप बढ़ जाता है और कलियुग चरम पर पहुच जाता है।
वर्ण यदि अपने कर्म के हिसाब से बने और कर्म करे तो समाज सुखी रहे। पर कर्म से नही जन्म से वर्ण बनते है जो गलत है।

मैं तो महाराष्ट्र के महादलित साहित्यकार डॉ रोहिदास वाघमारे के घर पर उनके साथ उनकी पत्नी के हाथ का बना भोजन कर चुका हूँ। वह भी 1994 में। उस समय वे जे जे अस्पताल अलब्स कामा में थे।
आज यदि हमें सनातन को बचाना है। हिंदुत्व की रक्षा करनी है। तो हमे वास्तविक रूप में छुआछूत से निकलकर अपने को मात्र हिन्दू बोलना होगा। वरना वह दिन भी आएगा जब जिस तरह पाकिस्तान से दलित मिट गया तो हिंदुत्व भी मिटा गया। इसी तरह देश से हिन्दू मिट जाएगा।
जो मूर्ख दलित इस मुगालते में वे बचे रहेंगे। तो यह भूल जाओ। चलती तलवार सिर्फ कुछ मुस्लिम को छोड़ती है । इस बात का तो इतिहास गवाह है।


Mmst का निर्माण आस्तिक नास्तिक अहंवादी ईसाई मुस्लिम किसी भी व्यक्ति के लिए है। बस वह पागल न हो। राम का नाम अपना नाम जेसस का नाम अल्लहरहीम कुछ भी बोलो और mmst करो तुमको खुदा गाड़ भगवान की अनभूति का अनुभव होगा होगा और होगा
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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