एक
वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा भाग- 13
सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"
आपने
भाग 1 से 12 में पढा किस प्रकार मां काली ने दर्शन देकर और सीने पर लात मारकर दीक्षा
दे दी। जिसके बाद मैं रोज मरता रहा जीता रहा पर पाठ और जाप बंद न किया। मुरारी
बापू ने भी हाथ जोडकर मुझे संभालने से इंकार कर दिया। बाद में एक तांत्रिक ने मुझे
अपना चेला बनाने के चक्कर में कितने तंत्र किये पर बेइज्जत होकर भागा। अब यह सिद्द
हो गया था कि कोई तंत्र शक्ति मेरा अहित तो नहीं कर सकती हैं। सब मां काली की देन
थी। भटकते भटकते मैं स्वप्न और ध्यान के माध्यम और एक संत की भभूत के सहारे अपने
गुरू तक पहुंचा। दीक्षा के पूर्व किस प्रकार ईश ने वाराणसी की अद्भुत यात्रा कराई।
शिव दर्शन के साथ मस्ती में लखनऊ लौटा। बचपन की यादों में पिता जी का पिटाई उत्सव
और कीडे मकोडे की भुनाई पर मुझे महामकडे के दर्शन। कैसे मैंनें अपना नाम देवीदास
विपुल कर दिया। दीक्षा के बाद गुरू महाराज मेरी क्रिया पर विचलित होते थे। दो माह
बाद जब बडे गुरू महाराज ने सर पर तीन बार हाथ मार कर भीषण शक्तिपात किया तो मेरी
क्रिया बन्द हो गई। पर उनका आशीर्वाद भजान के रूप में दिखता रहा। एक सन्यासी का भी
पुत्र प्राप्ति का प्रण टूट गया। बचपन में घर से भागा। भगवान को मिलने के लिये।
बेटी को सरकारी नौकरी किस प्रकार मिली। सास ससुर के प्रति लोगों की भावनायें सुनकर
मन आहत हुआ किंतु पुत्री का विवाह वहीं क्या जहां धन सम्पत्ति नही सदगुण मिले। किस
प्रकार मां दुर्गा की पूजा करते करते कृष्ण मिल गये। बडे महाराज जी मुझे प्रचार
हेतु फटकारा। प्रचार प्रसार के सख्त खिलाफ बडे महाराज के स्तर का यह भजन शायद किसी
ने लिखा हो। किस प्रकार लोग धर्म के नाम पर ठगी करते हैं। वहीं चमत्कारिक संत आज
भी हैं। बीडी पीने पर मां ने किस प्रकार बडे भाई की कुटाई की। किस प्रकार मैं बचपन
से ध्यान करने लगा। किस प्रकार एक चरित्रवान और स्वस्थ्य बच्चे और शक्तिशाली
राष्ट्र का निर्माण सिर्फ संघ की शाखाओं से ही सम्भव है। फरवरी 2018 में निराकार
की अनुभुति हुई, जिसके साथ मैं देह त्याग की सोंचने लगा।
इसी के साथ समवैध्यावि की रचना हो गई, जिसके कारण ईश
अनुभूति का शत प्रतिशत दावा।
अब
आगे .......................
शोध
निष्कर्ष
आगे
बढने के पूर्व मैं अभिमान रहित होकर अपने अनुभवो से निम्न निष्कर्ष निकालता हूं।
पहला
सत्य - सनातन पूर्णतया: सत्य है। ग़ीता की वाणी को अनुभव किया जा सकता है। तुलसी की
नवधा भक्ति “मंत्र जाप मोही दृढ विस्वासा।“ सत्य है। मंत्र जप सबसे सरल और सहज
मार्ग है। नवार्ण मंत्र की महिमा और देवी पाठ की लीला अपार है जिसको प्रत्यक्ष देख
सकते हैं। मैनें सन 1984 में हवन के साथ जाप आरम्भ किया और 7 वर्षों में मां ने
कृपा की। बजरंग बली किसी की भी पूजा करो हमेशा सहायक होते हैं। बस उनको पुकारो तो।
अत:
मित्रों आप भी प्रभु प्राप्ति हेतु मंत्र जाप में जुट जाइये। हो सकता है इस ही
जन्म में प्रभु कृपा कर दें।
मेरे
अनुभव से सिद्द हो गया है कि ईश्वर है है और है। हलांकि कुछ मूर्ख और उल्टी बुद्दी
के तर्कशास्त्री बोलेगें यह मन का भ्रम है कल्पना है मनोविज्ञान है। तो उन गधों को
मैं बोलना चाहता हूं कि आज की तारीख में मैं तुमको सनातन के शक्ति के अनुभव की
चुनौती देता हूं कि ब्लाग पर दी समवैध्यावि अपने घर पर करो पर ईमानदारी से। यदि
तुमको अनुभव न हो तो मुझे जो सजा देना चाहते हो दे देना। जीवन के हर कार्य हेतु
समय तो देना ही पडता है। ईश अनुभव कोई फालतू नही कि तुमको बिना समय दिये बिना
इच्छा के हो जायेगा।
वैज्ञानिकों
को चुनौती
वैज्ञानिकों
तुम दुनिया के सबसे बडे मूर्ख हो। इंसान की बनाई वस्तु उपकरण और यंत्रों पर यकीन
करते हो पर इंसान पर नहीं। कोई प्रयोग करने हेतु वर्षों दे सकते हो पर ईश प्राप्ति
के अनुभव हेतु समय नहीं है। इस वैज्ञानिक की दुनिया के वैज्ञानिक और मूर्ख हाफकिन
जो मर गया उसके प्रयोगों को चुनौती। उसको आवाज और बोलने का जरिया इस भारत की भूमि
के एक धार्मिक सनातन साफ्ट्वेयर इंजिनियर ने दी थी। प्राय: जो अपंग़ होता है वह
जानते हुये भी ईश को नहीं मानता है।
मां
ने बचाया
बात
1968 की होगी (वर्ष याद नहीं) मैं 8 वर्ष
का था। अपने दोनो भाई छोटा 4 वर्ष,
बडा 12 वर्ष बहिन 14 वर्ष
की र्ही होगी। सब नानी के घर से अपने एक चचेरे ताऊ जी स्व. भद्र सेन, जो राजासाहब, पीलीभीत की शुगर मिल में मैंनेजर थे और
सब भाईयों की जमीन जिरौनिया गांव में थी, उसकी देख रेख करते
थे। हम सब ताऊ जी के घर से उनकी जीप से जिरौनिया गांव गये थे और कुछ आम लेकर जीप से ही लौट रहे थे। जीप के पीछे
तिरपाल का कवर था। मां हम बच्चों के गरदन पर दाहिना हांथ रखकर बेडी पडी साइड सीट
पर बैठी थी।
अचानक सामने से एक इक्का जिसके घोडे के बांस में आगे नुकीला शंकुनुमा
कुछ लगा था। डाईवर ने जीप काटते समय अंदाजा गलत किया। इक्के का शंकु तिरपाल फाडता हुआ
मां के दाहिने हाथ की खाल को फाडता हुआ, उनकी 3 पसली की
हड्डियां और 2 चिटका आगे निकल गया। मां बताती थी यदि उनका हाथ बडे भाई और छोटे भाई
के गले पर न होता तो दोनो का गला कट सकता था। एक बार फिर जननी मां ने देवी मां की
लीला से बच्चों पर आई बला खुद पर झेल ली। जीप में खून ही खून। मां करीबन 40 दिन
सिविल हस्पताल में रही।
निजी वार्ड था अत: चलते समय दो नर्स जिनके नाम मेरिआमा और
लिली थे। उनको पिता जी ने 100 रुपये उस समय दे दिये थे। वास्तव में उन सिस्टर्स ने
बहुत सेवा की थी। मां को मरते समय तक पसली का दर्द होता था पर मां खुश रहती थी कि
अपने बच्चों को बचा लिया। माता जी यही कहती थी भगवान ने हर इच्छा पूरी की। मैंनें
बच्चों के लिये सिर्फ विद्या मांगी स्वास्थ्य न मांगा। अत: मेरे बच्चे बीमार पड
जाते हैं। बच्चों की बीमारी का दोष अपने ऊपर लेती थीं कि मैंनें नही मांगा बच्चों
का स्वास्थ्य।
फक्कड
पिता कितने मनमौजी
हम
लोगों का खानदान भले ही नामी हो पर हम लोगों का बचपन एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में ही गुजरा है। चार बच्चों का बोझ और
मामूली पगार। उस पर पिता जी की खुद्दारी
और फक्कडबाजी। मां बताती थी। शादी के बाद दोनों कुछ दिन रामपुर रहे थे। एक दिन
पिता जी शाम को ठंड से कांपते हुये शाम को घर लौटे। मां ने पूछा शादी की जैकेट
कहां गई। पता चला एक भिखारी सडक किनारे ठंड से कांप रहा था। पिता जी अपनी जैकेट
उसको दे आये। दो बार तो अपनी साईकिल तक खाले बाजार में किसी को दे आये थे।
एम.एफ.हुसैन
कुछ नहीं
वैसे
पिता जी क्रोधी तो बहुत थे। पर थे दिल के राजा। यदि उन्होने अपनी कला को बेचा होता
तो मकबूल फिदा हुसैन उनके चरणों की धूल तक न था। पिता जी विभिन्न आयामों से नई
तरीके से पेंटिग्स बनाते थे। कलकत्ता से पेपर मगांते थे। उसको रंगा। फिर उसको दो
दो दिन तल नल के नीचे भिगोया। फिर कुछ किया और धोया महीने महीने भर में एक पेंटिग
बनती थी।
हमारे
ठग मौसा
हमारे
बडे मौसा इग्लैड में थे। नाम था शायद सत्य प्रकाश सक्सेना। वे दो साल में एक बार
आते थे। हम बच्चों और पिता जी को मामूली गिफ़्ट देते थे और पापा की अनेकों पेंटिग्स
बिना पैसे ले जाकर बेचते थे। यह ऐसे मालूम पडा कि एक परिचित इंग्लैंड गये। वहां के
अलबर्ट हाल में “योगेश” नाम से बनी एक पेंन्टिग टंगी थी। उन्होने यह बताया। तब
मालूम पडा कि मेरे सगे पैसेवाले मौसा कितने नीच और गिरे हुये इंसान थे। एक गरीब की
मेहनत और लगन हुनर को किस प्रकार ठगते थे। वैसे वो ह्रदय आघात से ही मरे थे पर
उनकी आत्मा को शांति तो न मिली होगी।
वैसे
कुछ छटी छटाई पेंटिग्स बची हुई जिसे बडे भाई दो चार और छोटे भाई एडवोकेट राहुल
सक्सेना ने लखनऊ के कुर्सी रोड स्थित गायत्री मंदिर गली के स्कूल एस.वी.पी.इंटर
कालेज में लगा रखा था। दस पंद्रह उसके घर में रखी हैं। पिता जी लकडी के पटरों, पत्थरों, दीवारों
पर ऊंगली में पेंट लगाकर घुमा देते थे। बस एक मार्डन आर्ट बन जाती थी।
कला नहीं
बेचूंग़ा
एक बार ह्जरत
गंज स्थित वर्मा जी जो मां के स्कूल के सी.ए. थे। उन्होने पिता जी से बोला
मास्टर साहब आप
कैलेडर कम्पनी के लिये काम करें। ड्राइंग बनायें। कुछ पैसा मिल जायेगा। इतना सुनना
था पिता जी का पारा सांतवे आसमान पर। “तुम मुझे मेरी कला को गिरवी रखने को बोल रहे
हो। तुरंत घर से निकल जाओ” पिता जी चिल्लाकर बोले। यह थी उनकी खुद्दारी। आज जब
पैसे के लिये लोगों को कुकर्म करते देखता हूं। तो पिता जी ही याद आते हैं। उन्होने
न कभी उसूलों से सौदा किया और न कभी अपना दर्द किसी को बताया। कहा जाये तो
वे दुर्वासा ऋषि ही थे।
पिता
जी कवि भी बहुत भावुक और क्रांतिकारी थे। उनकी कुछ कविताओं की धरोहर मेरे पास अभी
तक सुरक्षित है जिनको मुझे छपवाना है। कुछ कवितायें उनका एक छात्र चुरा ले गया था।
बेटी
की इच्छा पूरी न हुई
मेरी
बेटी की इच्छा थी कि वो बडी होकर पिता जी से कला सीखे। पर जब वह पढ रही थी। पिता
जी की मृत्यु 2006 में हो गई। पर पिता जी का डी.एन.ए. हम बच्चों में आ गया। बडी बहन को रंजनकला और कविता। बडे भाई को मानवीय
चित्रांकन और कविता। छोटे भाई को तुकबंदी कविता। मैं तो जो हूं आप जानते ही हैं।
मां
का संघर्ष
मां
ने विवाह के 20 वर्ष बाद इंटरमीडियेट,
बी.ए. और एम.ए. किया। घर की तंग हालत देखकर कुछ करने की सोंची। तो
मेरी मां वर्ष 1964 में त्तत्कालीन आई.जी. पुलिस, उत्तर
प्रदेश स्व. निगमेंद्र सेन सक्सेना जो पिता जी के सगे चचेरे भाई थे। उनसे मिलने
गईं। पिता जी को अपनी गरीबी का गर्व रहता था। अत: वह किसी भाई से मिलते ही नहीं
थे। अत; माता जी अकेले गई थी। वहां ताऊ जी ने बोला। “बेटा
मैं एक ईमानदार पुलिस अधिकारी। मेरे पास सिर्फ तुम्हारे लिये आशीर्वाद है। मैं
तुमको यह एक सौ रूपये देता हूं। इससे तुम जनसेवा हेतु स्कूल खोलो। ईश्वर तुम्हारी
सहायता करेगा”। मैं तुम्हारे घर जरूर आऊंगा। चाहे योगी (मेरे पिता जी को सब यही
कहते थे) मुझे धक्के मारे”। उन सत्त पुरूष का आशीर्वाद था कि आज छोटे भाई साहब उस नन्हे
से बीज के सहारे ही नेतागीरी के साथ परिवार चला रहें हैं।
मां
ने जन सेवा हेतु स्कूल खोला
मां
ने उन सौ रूपयों से मुझे याद है। पांच बेंच और पांच डेस्क बनवाकर बावली बाजार
सहादतगंज के एक मंदिर में “शिशु विद्या पीठ” स्कूल खोला। घर घर जाकर प्रचार किया।
जन सेवा की भावना पूर्ति के साथ कुछ कमाई भी हो जाती थी। कितने बच्चों को निशुल्क
पढाया। बडी दीदी के नाम से मशहूर उस स्कूल से सआदगंज की आधी पापुलेशन ने पढाई की
होगी।
ईमानदारी
की सीमा
अंग्रेजों
के आई.पी. स्व. निगमेंद्र सेन स्वतंत्रता पूर्व ग्रेजुएशन कर पंडित नेहरू के पास गये
थे तो नेहरू ने कहा था “तुम नौकरी करो। होनहार हो”। स्वतंत्रता बाद वह नेहरू के
प्रिय बने रहे। पर वे थे बेहद ईमानदार। मेरे दूसरे ताऊ जी स्व. धर्मेंद्र सेन जो
नौबस्ते मोहल्ले में रहते थे। वे बताते थे। निग्मेंद्र दादा बिटिया की शादी नहीं हो पा रही है। कारण लडका आई.ए.एस. हो पर ईमानदार हो, शराब, सिगरेट न पीता हो। कायस्थों में यह शर्त पूरी
होना असम्भव। बाद में उन्होने एक दिन बताया निग्मेंद्र दादा रिटायर हो गये नरेंद्र
दादा के घर आये थे। कह रहे थे मुझे
रिटायर्मेंट मे अट्टानवें हजार मिले है। लखनऊ में कोई घर खरीद दो।
सिफारिश
नहीं
वर्ष
1982 में बडे भाई लोक सेवा चयन आयोग में डी.आर.डी.एल. में वैज्ञानिक “बी” के पद
हेतु साक्षात्कार के लिये दिल्ली हये थे। जहां उनको कलाम साहब ने पसन्द किया और
नौकरी दे दी थी। वहीं ताऊ जी का बोर्ड लगा था। उत्सुकतावश भाई साहब ने उनसे भेंट
की इच्छा की। आज्ञा मिली। जब अंदर गये तो ताऊ जी फोन पर किसी को गुस्से में बोल
रहे थे “ यह बूटा सिंह, एक नम्बर का चोर, यदि मैं अभी पुलिस में होता तो उसे
जेल में डाल देता”। भाई साहब ने अपना परिचय दिया और बोला “ ताऊ जी मैं बस ऐसे ही
मिलने आया हूं। किसी सिफारिश के लिये नहीं आया हूं। इस पर ताऊ जी बोले बेटा मैं
सिफारिश कर भी नहीं सकता।
स्व.
धर्मेद्र सेन बहुत मिलनसार थे। यू.पी. मेडिकल बोर्ड में निदेशक के कार्यालय के
प्रमुख थे। उनके हाथ में प्रदेश भर के सरकारी डाक्टरों के ट्रांसफर की क्षमता थी।
पर वे भी ईमानदार सूर्य उपासक। एक बार एक डाक्टर ने उनको खुश होकर बीस रूपये दे
दिये। ताऊ जी का पारा चढ गया। नोट फाड कर फेंक दिया और उसका ट्रांसफर रुकवा दिया।
वे गुजारे के लिये होमगार्ड में भी शाम को सेवा देते थे। एक बार एक बदमाश ने
रिवाल्वर निकाल ली थी। ताऊ जी ने निहत्थे उसको पकड लिया था। पर एक गोली हाथ में लग
गई थी। पर मजा देखिये वीरता पुरस्कार इंस्पेक्टर को मिला जो पकडने के बाद पहुंचा।
रिश्वत
बुरी नहीं
वहीं
हमारे सगे ताऊ स्व. नरेंद्र सेन,
जो कस्टम और एक्साइज में अधीक्षक थे, रिश्वत को
बुरा नहीं मानते थे। जिस कारण पिता जी उनसे बात नहीं करते थे। जब भी वे हमारे घर
आते पिता जी घर से गायब हो जाते थे। धन में बहुत बडे अंतर के कारण हम लोगों को
अक्सर उनके घर कभी ताई जी से, कभी बच्चों से अपमानित होना
पडता था। आज हम भाई उनसे प्रतिष्ठा में काफी ऊपर हैं। सब समय का फेर है। ऊपर की
पीढी अनंत में जा चुकी है। हम सब अलग अलग शहरों में रह रहे हैं। यदा कदा मिलन हो
पाता है। हम भाईयों में माता जी की वजह से कोई लत नहीं। पर ताऊ जी के बेटे
सर्वगुणी यानी सब शराब, सिगरेट, मांसाहार
इत्यादि सब का शौक।
मां
मैहर ने बचाया
वर्ष
1984 में मैं जब कलकत्ता शा वालेस साक्षात्कार हेतु गया था। तो लौटते पर मैहर
स्टेशन पडा। देवी जी का नाम सुनकर ब्रेक जर्नी की और मैहर देवी के मंदिर पहुंचा।
दर्शन किये। जब लौट रहा था तो मुझे लगा भीड अधिक है। रेलिंग गिर सकती है। अत: मैं
बाईं रेलिग से हटकर धीरे धीरे बीच में आ गया। यह क्या। दस मिनट भी न हुये। बाईं
रेलिंग जिसपर मैं चल रहा था। टूट गई और सैकडों लोग गिर गये। कुछ घायल हुये लोग पर
मरा कोई न था। यह क्या था मैहर मां ने बचा लिया। बाद में मैंनें प्रसाद की चूडी को
अपनी पहले राउंड की बात वाली,
जो अभी पत्नी है, उसको भेंट करने हेतु
मीडियेटर के हाथों भिजवा दिया था।
सरस्वती
पुत्र या पियक्क्ड
याद
पडता है वर्ष 1991 जब मैंने वाशी स्थित नवनिर्मित जैन मंदिर, बस स्टेशन के पास, में तेरापंथ युवक परिषद के सचिव
मंगलम ज्वैलर्स के मालिक स्व. चिम्मन सिंघवी के द्वारा एक कवि सम्मेलन का आयोजन
कराया। यह मेरे द्वारा आयोजित पहला कवि सम्मेलन था। जिसमें मैंनें सुभाष काबरा को
संचालन दिया था। मुख्य कवि स्व. शैल चतुर्वेदी थे। जो लेट आये। काली कार से आये और
जैन मंदिर के प्रांगण में अपनी कार से उतरने से पहले कार में ही दारू पीने लगे।
जिसको किसी ने देख लिया। बस उसके बाद अभी तक जैन मंदिर में कोई कवि सम्मेलन नहीं
हुआ है। बाद में वहां दिगम्बर जैन मंदिर भी बना। जिसमें स्व. नैनसी साहब का बडा
योगदान था।
मिला
देवदूत वारिश में
वर्ष
2017 की अगस्त की बात है। बिटिया बंगलोर से आई थी। उसको वापिस जाने के लिये छोडने
डोमेस्टिक एयर पोर्ट तक जाना था। फ्लाइट साढे पांच की। दो बजे अपनी कार से ड्राइवर
कमलेश शुक्ला के साथ निकले। अचानक बूंदाबांदी तेज हो गई। सांताक्रुज पहुंचते पहुंचते
पानी बढ गया। कार रोक दी। क्या करे। पानी रूकने का नाम न ले। ट्रैफिक जाम। आधे
घंटे बाद कार छोडी। मैंने बिटिया के सामान की अटैची को सर पर रखा। बिटिया ने बेटे
को सिर पर कांधे पर बैठाया। और चल दिये। सांताक्रुज जंक्शन पर कमर तक पानी। सब
वाहन ठहरे। क्या करें। एयर पोर्ट दो किमी। सामान भारी। अब भगवान को याद किया।
अचानक एक ऊंचे पहियोंवाली गाडी चली आ रही थी। निवेदन किया। उसने बैठा लिया और एयर
पोर्ट मोड तक छोडा। ब्रिज के बाईं तरफ गले तक पानी। अत: सारा ट्रेफिक दाईं तरफ से
आये जाये। पैदल सामान घसीटते मोड तक ले गये। कुछ कम पानी। एक आटो 500 रूपये में
आधा किमी दूर एयर पोर्ट तक छोडने को राजी। एयर पोर्ट बिटिया पहुची। फ्लाइट लेट थी
पर बोर्डिंग पास विंडो बंद। कैसे बिटिया ने निवेदन किया। बोर्डिंग पास मिला। मैं
पैदल दो किमी वापिस पहुंचा। कही कहीं कमर के ऊपर पानी। उस दिन जिनके फोन नहीं भी
आते थे। न्यूज देखकर हाल चाल हेतु फोन करने लगे। फोन भीगा। एक गणपति पंडाल में सिम
सुखाया। किसी तरह गिरते पडते टूटी चप्पल के साथ कलीना ब्रिज के ऊपर खडी कार तक
पहुचे।
सलाम
मुम्बई
यहां
एक बात कहनी पडेगी। मुम्बई के तरह हिंदुस्तान का कोई शहर नहीं। आपदा में कितने लोग
सीवर में होल जो पानी में डूब जाते हैं। उनपर लाल झंडिया लगाकर। बेरीकेडिंग कर।
हाथ पकडकर पार कराते लोग। एक अलग दृश्य। कोई बदतमीजी नहीं। केवल सहयोग ही सहयोग और
घरों को भागते पद यात्री। फिर भी एक बडे डाक्टर दीपक अमरापुरकर की मेन होल में गिरकर हुई मौत दुखद थी। कलीना ब्रिज
के चारो ओर पानी ही पानी। काफी घूमने के बाद स्पीड में डाइवर ने गाडी निकाली और
अंधेरी की तरफ मोडी। तो दो लडकियां रोती मिली। कुल तीन लडकियों को और एक लडके को
गोरेगांव तक छोडा फिर ऐरोली ब्रिज से पंक्चर टायर से गाडी चलाते हुये सुबह तीन बजे
घर पहुंचे। तब तक बिटिया बंगलोर पहुंच कर सो चुकी थी।
यहां
यह देखिये। वह मेरे लिये देवदूत ही था। जिसने इतने पानी में सहायता की। मैंनें
निशुल्क लोगों को गोरेगांव छोड दिया। यानी “कर भला तो हो भला”। संकट में पडे व्यक्ति
की सहायता करने का स्वभाव बनाओ और भूल जाओ। प्रभु तुम्हारी सहायता अवश्य करेगा। वह
तुम्हारे उपकार को नहीं भूलेगा।
तीन
वर्ष की बिटिया को भगवान ने बचाया
वर्ष
1990 में मैं नेरूल रहने चला गया। पता था ई-4,
सी10, सेकटर 10। बिटिया को केजी में त्रेरणा
स्कूल मे डाला। जो पीछे की सडक पर था। सडक पार कर जाना पडता था। सुबह के समय चहल
पहल कम ही रहती थी। मैं बिटिया का हाथ पकडकर बीच के डिवाइडर तक पहुंचा कि पीछे से
एक लडका, जरूर नौसीखिया था, स्कूटर का हार्न
बजाता हुआ आया। मैंनें चिल्लाते हुये बोला प्राची और प्राची का हाथ छोडा कि प्राची
दूसरी तरफ दौडते हुये हो गई। यदि मेरी तरफ आती तो दुर्घटना निश्चित थी। मात्र दो
सेकेंड के अंतराल से बिटिया बच गई थी।
यह सब मां की कृपा थी। आज भी यह घटना एक सिहरन ला देती है
ऐसे
ही मैं कहीं गया था। शायद गोवा। जहां एक शांत झील में पैडलवाली नांव पर मैं और
बिटिया पानी में उतर गये। नाव चलाकर लौटे तो मैं पहले उतरा। अचानक नाव सीधी हुई और
झटके से बिटिया नाव पर ही गिरी। कहीं पानी में गिरती तो?? मेरे वजन के कारण नाव मेरी ही तरफ झुक
कर चल रही थी।
आप
देखें कभी अपने जीवन के झरोखे में,
झांकें कभी अपने अतीत में आपको साफ नजर आयेगा। आपकी हर सफलता और
जीवन रक्षा में प्रभु आपके साथ ही था। हर अनहोनी घटना में संयोग प्रभु का ही था।
हर दुर्घटना में हमारा कोई पाप या दुष्कर्म हमें दंडित कर रहा होता है। आज हम अपनी
सफलता को अपना कर्म मानकर अपने को कर्मयोगी बोलने लगते हैं। पर हर अनचाही घटना को
प्रभु का दोष बताते हैं। अपने गलत कर्मों को स्वीकार न करके, अहंकार और दर्प के कारण प्रभु से और दूर हो जाते हैं।
यही विडम्बना है हमारी आपकी। आखिर कलियुग है न। पर याद रखो इस युग में प्रभु से न मिल सके तो कभी न मिल सकोगे। प्रभु प्राप्ति हेतु यह युग सर्वश्रेष्ठ है। जागो मेरे भाई जाग जाओ। बिना गुरू और पैसे के अपने घर पर ही प्रभु का अनुभव करो। ब्लाग पर दी समवैध्यावि कर के।
आगे के
अंक और अन्य लेख ब्लाग पर देखें।
......................
क्रमश: ..........................
आगे का भाग बाद में
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल