धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 2
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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नोट: यूनेस्को ने 7
नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की
श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
आपने अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु कहार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं।
अब आगे .......................................
हम यह जानेंगे कि ऋषियों को वेदों का रचयिता क्यों नहीं माना जा सकता ? जैसा कि नास्तिकों और इन नए मुस्लिमों का कहना है। अब प्रश्न उठता है कि यदि ऋषियों ने वेद नहीं बनाए तो फिर वेदों का रचयिता कौन है? यह प्रश्न ऐसा ही है जैसे यह पूछना कि यह जीवन किस ने बनाया? यह ब्रह्माण्ड किस ने बनाया? कौन है जो इस निपुणता से सब कुछ संचालित कर रहा है? यह बुद्धिमत्ता हमें किस ने दी है? केवल मनुष्य ही क्यों बुद्धिमान प्राणी है? इत्यादि।
ये प्रश्न आत्ममंथन और विश्लेषण मांगते हैं और हम
इन पर निश्चित मत रखते हैं। लेकिन क्योंकि वेद सभी को अपने विवेक से सोचने की छूट
देते हैं इसलिए यदि कोई हमारे नजरिए और विचारों से सहमत न भी हुआ तो इस का मतलब यह
नहीं है वेद उसे नरक की आग में झोंक देंगे और हम कहीं स्वर्ग में अंगूरों का मजा
लेंगे। बल्कि यदि कोई सच की तलाश में अपनी पूरी समझ और ईमानदारी से लगता है तो ईश्वर
उसे उचित उत्तम फल देते हैं। वैदिक सिद्धांतों और अंधश्रद्धावादी विचारधारा में
यही फरक है। वैदिक सिद्धांतों का आधार कोई अंध श्रद्धा नहीं है और न ही कोई दबाव
है, सिर्फ वैज्ञानिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण के प्रतिवचनबद्धता
है।
इस परिचय के बाद, आइए अब जाँच शुरू करें – पहले हम वेदों को ऋषिकृत बतलाने वालों का पक्ष
रखेंगे और उसके बाद अपने उत्तर और तर्क देंगे।
अवैदिक दावा –
वेद ईश्वरीय नहीं हैं। वे भी रामायण, महाभारत, कुरान इत्यादि की तरह ही मानव रचित हैं। सिर्फ इतना फ़रक है कि रामायण और महाभारत के रचनाकार एक-एक ही थे और वेद, गुरु ग्रन्थ साहिब की ही तरह समय-समय पर अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा लिखे जाते रहे। इसलिए, वेद अनेक व्यक्तियों के कार्य का संग्रह मात्र हैं। इन्हीं को बाद में ‘ऋषि’ कहा जाने लगा और आगे चलकर वेदों को ‘अपौरुषेय’ सिद्ध करने के लिए ही इन ‘ऋषियों’ को ‘दृष्टा’ कहा गया। कई ग्रन्थ स्पष्टरूप से ऋषियों को ‘मन्त्रकर्ता’ कहते हैं, उदाहरण: ऐतरेय ब्राह्मण ६.१, ताण्ड्य ब्राह्मण १३.३.२४, तैत्तिरीय आरण्यक ४.१.१, कात्यायन श्रौतसूत्र३.२.८, गृहसूत्र २.१.१३, निरुक्त ३.११, सर्वानुक्रमणी परिभाषा प्रकरण २.४ , रघुवंश ५.४। आज प्रत्येक वेद मन्त्र का अपना ऋषि है -वह व्यक्ति जिसने उसमन्त्र को रचा है। इसलिए ऋषियों को वेद मन्त्रों का रचयिता न मानना एक अन्धविश्वास ही है।
अग्निवीर का उत्तर-
ऋषियों को मन्त्रों का रचयिता मानने के इस दावे का आधार ‘मन्त्रकर्ता’ शब्द या उसके मूल का किसी रूप में मौजूद होना है। हम इस पर विचार बाद में करेंगे। आइए, पहले युक्ति संगत और ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह जानें कि ऋषि वेदमन्त्रों के रचयिता क्यों नहीं माने जा सकते ? सबसे पहले इस दावे को लेते हैं- “प्रत्येक वेद मन्त्र का अपना ऋषि है -वह व्यक्ति जिसने उस मन्त्र को रचा है।”
(इस धारणा को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि मूल
वेद संहिताओं में किसी ऋषि आदि का नाम समाहित नहीं है। उनमें सिर्फ वेद मन्त्र
हैं। लेकिन, जिन ऋषियों ने सर्वप्रथम अपने ध्यान में जिस वेद
मन्त्र या सूक्त के अर्थ को देखा या जाना उन ऋषियों के नामों का उल्लेख परम्परागत
रूप से उस मन्त्र या सूक्त पर मिलता है। कात्यायन की ‘सर्वानुक्रमणी’
या ‘सर्वानुक्रमणिका’ इन ऋषियों के नामों का मूल स्त्रोतमानी गयी है (कुछ अन्य
अनुक्रमणियों के अलावा।) अवैदिक लोग इन ऋषियों को वेद मन्त्रों का शोधकर्ता मानने
के बजाए रचयिता मानते हैं।)
प्रतिवाद :
1. एक सूक्त के अनेक ऋषि:
a. इतिहास में ऐसी किसी रचना का प्रमाण नहीं मिलता जिसे बहुत सारे लोगों ने साथ मिलकर बिलकुल एक जैसा बनाया हो, भाषा या विषय की भिन्नता अनिवार्य है। जबकि वेदों में ऐसे अनेक सूक्त हैं जिनके एक से अधिक ऋषि हैं – दो या सौ या हजार भी।
उदाहरण के लिए : सर्वानुक्रमणिका (वैदिक ऋषियों
की सूचि) में ऋग्वेद के इन मन्त्रों के एक से अधिक ऋषि देखे जा सकते हैं – ५.२, ७.१०१, ७.१०२, ८.२९, ८.९२, ८.९४, ९.५, ५.२७, १.१००, ८.६७, ९.६६, ९.१६. (आर्षनुक्रमणी).
चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मन्त्र के ही सौ ऋषि हैं! ऋग्वेद के ८ वें मंडल के ३४ वें सूक्त के हजार ऋषि हैं!
अब हजार लोगों ने एक साथ मिलकर तीन वाक्यांश कैसे बनाए? यह तो अवैदिक बुद्धिवादी ही जानें!
चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मन्त्र के ही सौ ऋषि हैं! ऋग्वेद के ८ वें मंडल के ३४ वें सूक्त के हजार ऋषि हैं!
अब हजार लोगों ने एक साथ मिलकर तीन वाक्यांश कैसे बनाए? यह तो अवैदिक बुद्धिवादी ही जानें!
b. कुछ लोग यह दलील दे सकते है कि सर्वानुक्रमणी के
लेखक कात्यायन के समय तक ऐतिहासिक परम्परा टूट चुकी थी इसलिये उन्होंने एक मन्त्र
के साथ अनेक ऋषियों के नाम ‘वा’ (या) का प्रयोग करते हुए जोडे कि – इनमें से किसी
एक ने यह मन्त्र बनाया है। लेकिन यह दलील देकर प्रश्नों से बचा नहीं जा सकता,
यदि आप सर्वानुक्रमणी को विश्वसनीय नहीं मानते तो उसका सन्दर्भ देते
ही क्यों हैं?
एक उदाहरण देखें – यास्क के निरुक्त में कई
मंत्रों के गूढ़ अर्थ दिए गए हैं और वह सर्वानुक्रमणी से पुराना माना गया है।
आचार्य शौनक की बृहद्ददेवता मुख्यतः निरुक्त पर ही आधारित है। इसी बृहद्ददेवता का उपयोग
कात्यायन ने सर्वानुक्रमणी की रचना में किया था। निरुक्त ४.६ में ऋग्वेद १०.५ का
ऋषि ” त्रित” कहा गया है। बृहद्ददेवता३.१३२ – ३.१३६ में भी यही है। जबकि, कात्यायन ने कई ऋषियों का नाम सूचीबद्ध करके उनको ‘वा’ से जोड़ दिया है।
इससे पता चलता है कि कात्यायन द्वारा एक मन्त्र से अनेक ऋषियों के नाम जोड़ने का
कारण उस मन्त्र का अनेक ऋषियों द्वारा साक्षात्कार किया जाना है, ऐतिहासिक परम्परा का टूटना नहीं।
निरुक्त१.४ के अनुसार ‘वा’ का प्रयोग केवल ‘विकल्प’ के रूप में ही नहीं बल्कि ‘समूह’ का बोध कराने
के लिए भी होता है। वैजयंती कोष का मत भी यही है।
कात्यायन ने स्वयं भी सर्वानुक्रमणी में ‘वा’ का
उपयोग विभिन्न सन्दर्भों में किया है – परिभाषा प्रकरण में वह स्पष्ट लिखते हैं कि
– जब ‘वा’ का उपयोग करके किसी ऋषि का नाम दिया जाता है तो इसका अर्थ है कि पहले
ऋषि के उपरांत इस ऋषि ने भी इस वेद मन्त्र को जाना था। अधिक जानकारी के लिए देखें-
ऋग्वेदअनुक्रमणी – ३.२३, ५.२४, ८.४,
९.९८. और यदि हम शौनक रचित आर्षानुक्रमणी ९ .९८ को देखें तो उस में
– ‘च’ (और) का प्रयोग मिलेगा, जहाँ सर्वानुक्रमणी में
कात्यायन ‘वा’ का प्रयोग करते हैं। इसी तरह सर्वानुक्रमणी
८.९२और आर्षानुक्रमणी ८.४० में हम पाएंगे कि जहाँ कात्यायन ने ‘वा’ का प्रयोग करते
हैं वहीँ शौनक ‘च’ का प्रयोग करते हैं। इसी तरह सर्वानुक्रमणी १.१०५। अतः इन से
प्रमाणित होता है कि ऋषि वेदों के रचयिता नहीं हो सकते।
c. कुछ लोग कह सकते हैं कि एक सूक्त के मन्त्र अलग- अलग
ऋषियों द्वारा बनाए गए इसलिए एक सूक्त के अनेक ऋषि हैं। परन्तु यह दावा कोई दम
नहीं रखता, क्योंकि कात्यायन जैसे ऋषि से इस तरह की भूल होना
संभव नहीं है।
सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद९ .६६ – ‘पवस्व’ सूक्त के १०० ‘वैखानस’ ऋषि हैं, जबकि सूक्त में मन्त्र ही केवल ३० हैं। ३ मन्त्रों के १००० ऋषि भी हम देख चुके हैं।
सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद९ .६६ – ‘पवस्व’ सूक्त के १०० ‘वैखानस’ ऋषि हैं, जबकि सूक्त में मन्त्र ही केवल ३० हैं। ३ मन्त्रों के १००० ऋषि भी हम देख चुके हैं।
जहाँ कहीं भी – एक सूक्त के मंत्रों को
भिन्न-भिन्न ऋषियों ने देखा है -कात्यायन ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। जैसे, सर्वानुक्रमणी – ऋग्वेद ९ .१०६ – चौदह मन्त्रों वाले ‘इन्द्र्मच्छ’ सूक्त
में – ‘चक्षुषा’ ने ३, ‘मानव चक्षु’ ने ३, ‘अप्स्व चक्षु’ ने ३ और ‘अग्नि’ ने ५ मन्त्रों के अर्थ अपनी तपस्या से जानें।
सर्वानुक्रमणी – ऋग्वेद 5 वें मंडल के 24 वें सूक्त के चारों मन्त्र – चार विभिन्न ऋषियों
द्वारा जाने गए। इसी तरह देखें,सर्वानुक्रमणी – ऋग्वेद
१०.१७९ और १०.१८१।.
इसलिए, एक सूक्त के मन्त्रों को विभिन्न ऋषियों ने बनाया – ऐसा निष्कर्ष निकालना गलत होगा। इसका समाधान यही है कि – ऋषि वह ‘तज्ञ’ थे जिन्होनें वेद मन्त्रों के अर्थ को जाना था।
2. एक मन्त्र के अनेक ऋषि:
– वेदों में ऐसे अनेक मन्त्र हैं जो कई बार, कई स्थानों पर अलग- अलग सन्दर्भों में आए हैं। किन्तु उनके ऋषि भिन्न-भिन्न हैं। यदि ऋषियों को मन्त्र का निर्माता माना जाए तो सभी स्थानों पर एक ही ऋषि का नाम आना चाहिए था।
उदाहरण : ऋग्वेद १.२३.१६-१८ और अथर्ववेद १.४.१-३
ऋग्वेद १०.९.१-७ और अथर्ववेद १.५.१-४/ १.६.१-३
ऋग्वेद १०.१५२.१ और अथर्ववेद १.२०.४
ऋग्वेद १०.१५२.२-५ और अथर्ववेद १.२१.१-४
ऋग्वेद १०.१६३.१,२,४ और अथर्ववेद २.३३.१,२,५
अथर्ववेद ४.१५.१३ और अथर्ववेद ७.१०३.१
ऋग्वेद १.११५.१ और यजुर्वेद १३.१६
ऋग्वेद १.२२.१९ और यजुर्वेद १३.३३
ऋग्वेद १.१३.९ और ऋग्वेद ५.५.८
ऋग्वेद १.२३.२१-२३ और ऋग्वेद १०.९.७-९
ऋग्वेद ४.४८.३ और यजुर्वेद १७.९१
इन सभी जोड़ियों में ऋषियों की भिन्नता है। ऐसे
सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक ही मन्त्र के इतने सारे ऋषि कैसे हुए, इसे समझने का मार्ग एक ही है कि हम यह मान लें – ऋषि मन्त्रों के ज्ञाता
ही थे, निर्माता नहीं।
3. वेद मन्त्र ऋषियों के जन्म के पहले से विद्यमान थे।
इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि वेद मन्त्र – ऋषियों के जन्म से बहुत पहले से ही थे, फ़िर ऋषि उनके रचयिता कैसे हुए?
इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि वेद मन्त्र – ऋषियों के जन्म से बहुत पहले से ही थे, फ़िर ऋषि उनके रचयिता कैसे हुए?
उदाहरण :
a.सर्वानुक्रमणी के अनुसार ऋग्वेद १.२४’ कस्य नूनं ‘
मन्त्र का ऋषि ‘ शुनः शेप ‘ है। वहां कहा गया है कि १५ मन्त्रों के इस सूक्त का
ऋषि, अजीगर्त का पुत्र शुनः शेप है। ऐतरेय ब्राह्मण ३३.३,
४ कहता है कि शुनः शेप नेकस्य नूनं मन्त्र से ईश्वर की प्रार्थना
की। वररुचि के निरुक्त समुच्चय में इसी मन्त्र से अजीगर्त द्वारा ईश्वर आराधना का
उल्लेख है। इस से स्पष्ट है कि पिता -पुत्र दोनों ने इस मन्त्र से ईश्वर प्रार्थना
की। यदि शुनः शेप को मन्त्र का रचयिता माना जाए तो यह कैसे संभव है कि उसके पिता
भी यह मन्त्र पहले से जानते हों?
पिता ने पुत्र से यह मन्त्र सीख लिया हो, ऐसा प्रमाण भी ऐतरेय ब्राह्मण और निरुक्त समुच्चय में नहीं है।
स्पष्ट है कि यह मन्त्र अवश्य ही उसके पिता के समय भी था परन्तु इसका ऋषि शुनःशेप ही है। इस से पता चलता है कि ऋषि मन्त्रों के ज्ञाता थे, रचयिता नहीं थे।
b. तैत्तिरीय संहिता ५.२.३ और काठक संहिता २०.१० – विश्वामित्र
को ऋग्वेद ३.२२ का ऋषि कहते हैं। जबकि सर्वानुक्रमणी ३.२२ और आर्षानुक्रमणी ३.४ के
अनुसार यह मन्त्र विश्वामित्र के पिता ‘गाथि’ के समय भी था। इस मन्त्र के ऋषि गाथि
और विश्वामित्र दोनों ही हैं। यह सूचित करता है कि ऋषि मन्त्रों के ज्ञाता थे,
रचयिता नहीं थे।
c. सर्वानुक्रमणी के अनुसार ऋग्वेद १०.६१ और ६२ का ऋषि
‘नाभानेदिष्ठ’ है। ऋग्वेद १०.६२ के१० वें मन्त्र में ‘यदु’ और ‘तुर्वशु’ शब्द आते
हैं। कुछ लोग इसे ऐतिहासिक राजाओं के नाम मानते हैं। (हम मानते हैं कि यदु और
तुर्वशु ऐतिहासिक नाम नहीं हैं किन्तु किसी विचार का नाम हैं।)
महाभारत आदिपर्व ९५ के अनुसार यदु और तुर्वशु –
मनु की सातवीं पीढ़ी में हुए थे (मनु – इला – पुरुरवा – आयु – नहुष – ययाति – यदु –
तुर्वशु.)
महाभारत आदिपर्व ७५.१५ -१६ में यह भी लिखा है कि
नाभानेदिष्ठ मनु का पुत्र और इला का भाई था। इसलिए अगर वेदों में इतिहास मानें और
यह मानें कि नाभानेदिष्ठ ने इस मन्त्र को बनाया तो कैसे संभव है कि वह अपने से
छठीं पीढ़ी के नाम लिखे? इसलिए या तो वेदों में इतिहास
नहीं है या नाभानेदिष्ठ मन्त्रों का रचयिता नहीं है।
कुछ लोग कहते हैं कि नाभानेदिष्ठ बहुत काल तक
जीवित रहा और अंतिम दिनों में उस ने यह रचना की। यह भी सही नहीं हो सकता क्योंकि
ऐतरेय ब्राह्मण ५ .१४ के अनुसार उसे गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके आने के बाद पिता
से इन मन्त्रों का ज्ञान मिला था।
निरुक्त २.३ के अर्थ अनुसार यदु और तुर्वशु
ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं बल्कि एक प्रकार के गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाले मनुष्य
हैं।
d. ऐतरेय ब्राह्मण ५.१४, तैत्तिरीय
संहिता ३.१.३ और भागवत ९.४.१ – १४ में कथा आती है कि नाभानेदिष्ठ के पिता मनु ने
उसे ऋग्वेद दशम मंडल के सूक्त ६१ और ६२ का प्रचार करने के लिए कहा। इस से स्पष्ट
है कि उसके पिता इन सूक्तों को जानते थे और नाभानेदिष्ठ भले ही इस का ऋषि है पर वह
इनका रचयिता नहीं हो सकता।
e. ऋग्वेद मन्डल ३ सूक्त ३३ के ऋषि विश्वामित्र हैं,
जिसमें ‘विपात’ और ‘शुतुद्रि’ का उल्लेख है।
निरुक्त २.२४ और बृहद्ददेवता ४.१०५ – १०६ में आई कथा के अनुसार – विश्वामित्रराजा
सुदास के पुरोहित थे और वे विपात और शुतुद्रि नामक दो नदियों के संगम पर गए। जबकि
महाभारत आदिपर्व १७७.४-६ और निरुक्त ९.२६ में वर्णन है कि महर्षि
वशिष्ठ ने इन नदियों का नामकरण
– विपात और शुतुद्रि किया था। और यह नामकरण राजा सुदास
के पुत्र सौदास द्वारा महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों का वध किए जाने के बाद का है। यदि
विश्वामित्र इन मन्त्रों के रचयिता माने जाएँ तो उन्होंने इन नामों का उल्लेख
वशिष्ठ से बहुत पहले कैसे किया? सच्चाई यह है कि इन मन्त्रों
का अस्तित्व विश्वामित्र के भी पहले से था। और इस में आये विपात और शुतुद्रि किन्हीं
नदियों के नाम नहीं हैं। बल्कि बाद में इन नदियों का नाम वेद मन्त्र से लिया गया।
क्योंकि वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक हैं इसलिए किसी व्यक्ति या स्थान का नाम वेदों
पर से रखा जाना स्वाभाविक है। जैसे आज भी रामायण, महाभारत
इत्यादि में आए शब्दों से मनुष्यों और स्थान आदि का नामकरण किया जाता है।
f. सर्वानुक्रमणी वामदेव को ऋग्वेद ४.१९, २२, २३ का ऋषि बताती है। जबकि गोपथ ब्राह्मण
उत्तरार्ध ६.१ और ऐतरेय ६.१९ में लिखा है कि विश्वामित्रइन मन्त्रों का द्रष्टा
(अर्थ को देखने वाला) था और वामदेव ने इस का प्रचार किया। अतः यह दोनों ऋषि
मन्त्रों के तज्ञ थे, रचयिता नहीं।
g. सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद १०.३० – ३२ का ऋषि ‘कवष
ऐलुष’ है। कौषीतकीब्राह्मण कहता है कि कवष ने ‘भी’ मन्त्र जाना – इस से पता चलता
है कि मन्त्रों को जाननेवाले और भी ऋषि थे। इसलिए ऋषि मन्त्र का रचयिता नहीं माना
जा सकता।
4.’मन्त्रकर्ता’ का अर्थ ‘मन्त्र रचयिता’ नहीं :
‘कर्ता’ शब्द बनता है ‘कृत्’ से और ‘कृत्’ = ‘कृञ्’ + ‘क्विप्’ ( अष्टाध्यायी ३.२.८९ )।
‘कृञ्’ का अर्थ –
‘कर्ता’ शब्द बनता है ‘कृत्’ से और ‘कृत्’ = ‘कृञ्’ + ‘क्विप्’ ( अष्टाध्यायी ३.२.८९ )।
‘कृञ्’ का अर्थ –
– निरुक्त २.११ – ऋषि का अर्थ है -“दृष्टा” (देखनेवाला)
करता है, निरुक्त३.११ – ऋषि को “मन्त्रकर्ता ” कह्ता है। अतः
यास्क के निरुक्त अनुसार “कर्ता ” ही “मन्त्रद्रष्टा” है। ‘कृञ्’ धातु ‘करने’ के
साथ ही ‘देखने’ के सन्दर्भ में भी प्रयुक्त होता है। ‘कृञ्’
का यही अर्थ, सायण ऐतरेयब्राह्मण(६.१) के भाष्य में, भट्ट भास्कर तैत्तरीय आरण्यक (४.१.१) के भाष्य में और कात्यायन गर्ग
श्रौतसूत्र (३.२.९) की व्याख्या में लेते हैं।
– मनुस्मृति में ताण्ड्य ब्राह्मण (१३.३.२४) की कथा आती
है। जिसमें मनु “मन्त्रकर्ता” का अर्थ मन्त्र का “अध्यापक”
करते हैं। इसलिए ‘कृञ्’ धातु का अर्थ “पढ़ाना” भी हुआ। सायण भी ताण्ड्य ब्राह्मण की
इस कथा में “मन्त्रकर्ता” का अर्थ “मन्त्र दृष्टा” ही करते
हैं।
– अष्टाध्यायी (१.३.१) पतंजलि भाष्य में ‘कृञ्’ का अर्थ
“स्थापना” या “अनुसरण” करना है।
– जैमिनी के मीमांसा शास्त्र (४.२.३) में ‘कृञ्’ का
अर्थ “स्वीकारना” या “प्रचलित” करना है।
वैदिक या उत्तर वैदिक साहित्य में ऐसा कोई प्रमाण
नहीं है कि “मन्त्रकर्ता” या “मन्त्रकार” या इसी
तरह का कोई दूसरा शब्द मन्त्रों के रचयिता के लिए प्रयुक्त हुआ हो।
सर्वानुक्रमणी (परिभाषा २.४) में स्पष्ट रूप से
मन्त्र का ‘ दृष्टा’ या मन्त्र के अर्थ का ‘ज्ञाता’ ही, उस का “ऋषि” है।
अत: अवैदिक लोगों ने जितने भी सन्दर्भ ऋषियों को ‘मन्त्रकर्ता’ बताने के लिए दिए, उन सभी का अर्थ ‘मन्त्रदृष्टा’ है।
प्राचीन साहित्य में ‘मन्त्रदृष्टा’ के कुछ
उदाहरण :
तैत्तिरीय संहिता१.५.४, ऐतरेय ब्राह्मण ३.१९, शतपथ ब्राह्मण ९.२.२.३८,
९.२.२.१, कौषीताकिब्राह्मण १२.१, ताण्ड्य ब्राह्मण ४.७.३, निरुक्त २.११, ३.११, सर्वानुक्रमणी२.१, ३.१,
३.३६, ४.१, ६.१, ७.१, ७.१०२, ८.१, ८.१०, ८.४२, बृहद्ददेवता १.१,
आर्षानुक्रमणी १.१, अनुवाकानुक्रमणी २,३९,१.१।
अचरज की बात है कि जिन मन्त्रों का हवाला देकर
अवैदिक दावा करते हैं कि इनको ऋषियों ने बनाया, वही बताते हैं कि ऋषि इनके ‘ज्ञाता’ या ‘दृष्टा’ थे। अत: यह गुत्थी यहीं
सुलझ जाती है।
शंका:
वेदों में आए नाम जैसे विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज इत्यादि जो वेद मन्त्रों के ऋषि भी
हैं और ऐतिहासिक व्यक्ति भी, इनके लिए आप क्या कहेंगे ?
समाधान:
यह सभी शब्द ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम नहीं
अपितु विशेष गुणवाचक नाम हैं। जैसे शतपथ ब्राह्मण में आता है कि प्राण मतलब वशिष्ठ, मन अर्थात भरद्वाज, श्रोत (कान) मतलब विश्वामित्र
इत्यादि। ऐतरेय ब्राह्मण २.२१ भी यही कहता है। ऋग्वेद
८.२.१६ में कण्व का अर्थ – मेधावी व्यक्ति है –
निघण्टु (वैदिककोष) के अनुसार।
शंका:
इसका क्या कारण है कि कई मन्त्रों के ऋषि वही हैं, जो नाम स्वयं उस मन्त्र में आए हैं?
समाधान:
आइए देखें कि किसी को कोई नाम कैसे मिलता है। नाम
या तो जन्म के समय दिया जाता है या अपनी पसंद से या फिर अपने कार्यों से या
प्रसिद्धि से व्यक्ति को कोई नाम मिलता है। अधिकतर महापुरुष अपने जन्म नाम से अधिक
अपने कार्यों या अपने चुने हुए नामों से जाने जाते हैं। जैसे पं.चंद्रशेखर “आजाद”
कहलाए, सुभाषचन्द्र बोस को “नेताजी” कहा गया, मूलशंकर को हम “स्वामी दयानंद सरस्वती” कहते हैं, मोहनदास
“महात्मा” गाँधी के नाम से प्रसिद्ध हैं। “अग्निवीर” कहलाने
वालों के असली नाम भी शायद ही कोई जानता हो।
इसी तरह जिस ऋषि ने जिस विषय का विशेष रूप से प्रतिपादन या शोध किया – उनका वही नाम प्रसिद्ध हुआ है।
इसी तरह जिस ऋषि ने जिस विषय का विशेष रूप से प्रतिपादन या शोध किया – उनका वही नाम प्रसिद्ध हुआ है।
– ऋग्वेद १०.९० पुरुष-सूक्त – जिसमें विराट पुरुष अथवा
परमेश्वर का वर्णन है – का ऋषि “नारायण” है – जो परमेश्वर वाचक शब्द है।
– ऋग्वेद १०.९७ – जिसमें औषधियों के गुणों का प्रतिपादन
है, इसका ऋषि “भिषक् ” अर्थात वैद्य है।
– ऋग्वेद १०.१०१ का ऋषि “बुध: सौम्य” है अर्थात
बुद्धिमान और सौम्य गुणयुक्त – यह इस सूक्त के विषय अनुरूप है।
ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिलेंगे।
ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिलेंगे।
वैदिक ऋषियों को अपने नामों की प्रसिद्धि की
लालसा नहीं थी। वे तो जीवन – मृत्युके चक्र से ऊँचे उठ चुके, वेदों के अमृत की खोज में समर्पित योगी थे। इसलिए नाम उनके लिए केवल
सामाजिक औपचारिकता मात्र थे।
महर्षि दयानंद के शब्दों में – “जिस-जिस
मंत्रार्थ का दर्शन जिस -जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिसके पहिले उस मन्त्र का
अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था; किया और दूसरों को
पढाया भी। इसलिए अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा आता है।
जो कोई ऋषियों को मन्त्र कर्ता बतलावें उनको मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के
अर्थप्रकाशक हैं।”
इन मन्त्रों का रचयिता भी वही – इस ब्रह्माण्ड का रचयिता – विराट पुरुष है। जिसने यह जीवन, यह बुद्धि, यह जिज्ञासा और यह क्षमता प्रदान की, जिससे हम जान सकें कि ‘ वेद किसने रचे?’ भले ही कोई इस पर असहमत हो फिर भी – वेदों के रचयिता के बारे में सबसे अच्छा और प्रामाणिक समाधान यही है।
इन मन्त्रों का रचयिता भी वही – इस ब्रह्माण्ड का रचयिता – विराट पुरुष है। जिसने यह जीवन, यह बुद्धि, यह जिज्ञासा और यह क्षमता प्रदान की, जिससे हम जान सकें कि ‘ वेद किसने रचे?’ भले ही कोई इस पर असहमत हो फिर भी – वेदों के रचयिता के बारे में सबसे अच्छा और प्रामाणिक समाधान यही है।
..................................... क्रमश: .........................................
(कथन और तथ्य गूगल
और अग्निवीर से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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