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Thursday, July 5, 2018

भाग – 2 धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 2 
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”





विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/



आपने अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु कहार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं।  

अब आगे ....................................... 


हम यह जानेंगे कि ऋषियों को वेदों का रचयिता क्यों नहीं माना जा सकता ? जैसा कि नास्तिकों और इन नए मुस्लिमों का कहना है। अब प्रश्न उठता है कि यदि ऋषियों ने वेद नहीं बनाए तो फिर वेदों का रचयिता कौन है? यह प्रश्न ऐसा ही है जैसे यह पूछना कि यह जीवन किस ने बनाया? यह ब्रह्माण्ड किस ने बनाया? कौन है जो इस निपुणता से सब कुछ संचालित कर रहा है? यह बुद्धिमत्ता हमें किस ने दी है? केवल मनुष्य ही क्यों बुद्धिमान प्राणी है?  इत्यादि।

ये प्रश्न आत्ममंथन और विश्लेषण मांगते हैं और हम इन पर निश्चित मत रखते हैं। लेकिन क्योंकि वेद सभी को अपने विवेक से सोचने की छूट देते हैं इसलिए यदि कोई हमारे नजरिए और विचारों से सहमत न भी हुआ तो इस का मतलब यह नहीं है वेद उसे नरक की आग में झोंक देंगे और हम कहीं स्वर्ग में अंगूरों का मजा लेंगे। बल्कि यदि कोई सच की तलाश में अपनी पूरी समझ और ईमानदारी से लगता है तो ईश्वर उसे उचित उत्तम फल देते हैं। वैदिक सिद्धांतों और अंधश्रद्धावादी विचारधारा में यही फरक है। वैदिक सिद्धांतों का आधार कोई अंध श्रद्धा नहीं है और न ही कोई दबाव है, सिर्फ वैज्ञानिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण के प्रतिवचनबद्धता है।

इस परिचय के बाद, आइए अब जाँच शुरू करें – पहले हम वेदों को ऋषिकृत बतलाने वालों का पक्ष रखेंगे और उसके बाद अपने उत्तर और तर्क देंगे।

अवैदिक दावा –

वेद ईश्वरीय नहीं हैं। वे भी रामायण, महाभारत, कुरान इत्यादि की तरह ही मानव रचित हैं। सिर्फ इतना फ़रक है कि रामायण और महाभारत के रचनाकार एक-एक ही थे और वेद, गुरु ग्रन्थ साहिब की ही तरह समय-समय पर अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा लिखे जाते रहे। इसलिए, वेद अनेक व्यक्तियों के कार्य का संग्रह मात्र हैं। इन्हीं को बाद में ‘ऋषि’ कहा जाने लगा और आगे चलकर वेदों को ‘अपौरुषेय’ सिद्ध करने के लिए ही इन ‘ऋषियों’ को ‘दृष्टा’ कहा गया। कई ग्रन्थ स्पष्टरूप से ऋषियों को ‘मन्त्रकर्ता’ कहते हैं, उदाहरण: ऐतरेय ब्राह्मण ६.१, ताण्ड्य ब्राह्मण १३.३.२४, तैत्तिरीय आरण्यक ४.१.१, कात्यायन श्रौतसूत्र३.२.८, गृहसूत्र २.१.१३, निरुक्त ३.११, सर्वानुक्रमणी परिभाषा प्रकरण २.४ , रघुवंश ५.४। आज प्रत्येक वेद मन्त्र का अपना ऋषि है -वह व्यक्ति जिसने उसमन्त्र को रचा है। इसलिए ऋषियों को वेद मन्त्रों का रचयिता न मानना एक अन्धविश्वास ही है।

अग्निवीर का उत्तर-

ऋषियों को मन्त्रों का रचयिता मानने के इस दावे का आधार ‘मन्त्रकर्ता’ शब्द या उसके मूल का किसी रूप में मौजूद होना है। हम इस पर विचार बाद में करेंगे। आइए, पहले युक्ति संगत और ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह जानें कि ऋषि वेदमन्त्रों के रचयिता क्यों नहीं माने जा सकते ? सबसे पहले इस दावे को लेते हैं- “प्रत्येक वेद मन्त्र का अपना ऋषि है -वह व्यक्ति जिसने उस मन्त्र को रचा है।”

(इस धारणा को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि मूल वेद संहिताओं में किसी ऋषि आदि का नाम समाहित नहीं है। उनमें सिर्फ वेद मन्त्र हैं। लेकिन, जिन ऋषियों ने सर्वप्रथम अपने ध्यान में जिस वेद मन्त्र या सूक्त के अर्थ को देखा या जाना उन ऋषियों के नामों का उल्लेख परम्परागत रूप से उस मन्त्र या सूक्त पर मिलता है। कात्यायन कीसर्वानुक्रमणी’ या ‘सर्वानुक्रमणिका’ इन ऋषियों के नामों का मूल स्त्रोतमानी गयी है (कुछ अन्य अनुक्रमणियों के अलावा।) अवैदिक लोग इन ऋषियों को वेद मन्त्रों का शोधकर्ता मानने के बजाए रचयिता मानते हैं।)

प्रतिवाद :

1. एक सूक्त के अनेक ऋषि:
a. इतिहास में ऐसी किसी रचना का प्रमाण नहीं मिलता जिसे बहुत सारे लोगों ने साथ मिलकर बिलकुल एक जैसा बनाया हो, भाषा या विषय की भिन्नता अनिवार्य है। जबकि वेदों में ऐसे अनेक सूक्त हैं जिनके एक से अधिक ऋषि हैं – दो या सौ या हजार भी।
उदाहरण के लिए : सर्वानुक्रमणिका (वैदिक ऋषियों की सूचि) में ऋग्वेद के इन मन्त्रों के एक से अधिक ऋषि देखे जा सकते हैं – ५.२, ७.१०१, ७.१०२, ८.२९, ८.९२, ८.९४, ९.५, ५.२७, १.१००, ८.६७, ९.६६, ९.१६. (आर्षनुक्रमणी).
चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मन्त्र के ही सौ ऋषि हैं! ऋग्वेद के ८ वें मंडल के ३४ वें सूक्त के हजार ऋषि हैं!
अब हजार लोगों ने एक साथ मिलकर तीन वाक्यांश कैसे बनाए? यह तो अवैदिक बुद्धिवादी ही जानें!

b. कुछ लोग यह दलील दे सकते है कि सर्वानुक्रमणी के लेखक कात्यायन के समय तक ऐतिहासिक परम्परा टूट चुकी थी इसलिये उन्होंने एक मन्त्र के साथ अनेक ऋषियों के नाम ‘वा’ (या) का प्रयोग करते हुए जोडे कि – इनमें से किसी एक ने यह मन्त्र बनाया है। लेकिन यह दलील देकर प्रश्नों से बचा नहीं जा सकता, यदि आप सर्वानुक्रमणी को विश्वसनीय नहीं मानते तो उसका सन्दर्भ देते ही क्यों हैं?
एक उदाहरण देखें – यास्क के निरुक्त में कई मंत्रों के गूढ़ अर्थ दिए गए हैं और वह सर्वानुक्रमणी से पुराना माना गया है। आचार्य शौनक की बृहद्ददेवता मुख्यतः निरुक्त पर ही आधारित है। इसी बृहद्ददेवता का उपयोग कात्यायन ने सर्वानुक्रमणी की रचना में किया था। निरुक्त ४.६ में ऋग्वेद १०.५ का ऋषि ” त्रित” कहा गया है। बृहद्ददेवता३.१३२ – ३.१३६ में भी यही है। जबकि, कात्यायन ने कई ऋषियों का नाम सूचीबद्ध करके उनको ‘वा’ से जोड़ दिया है। इससे पता चलता है कि कात्यायन द्वारा एक मन्त्र से अनेक ऋषियों के नाम जोड़ने का कारण उस मन्त्र का अनेक ऋषियों द्वारा साक्षात्कार किया जाना है, ऐतिहासिक परम्परा का टूटना नहीं।

निरुक्त१.४ के अनुसारवा’ का प्रयोग केवल ‘विकल्प’ के रूप में ही नहीं बल्कि ‘समूह’ का बोध कराने के लिए भी होता है। वैजयंती कोष का मत भी यही है।
कात्यायन ने स्वयं भी सर्वानुक्रमणी में ‘वा’ का उपयोग विभिन्न सन्दर्भों में किया है – परिभाषा प्रकरण में वह स्पष्ट लिखते हैं कि – जब ‘वा’ का उपयोग करके किसी ऋषि का नाम दिया जाता है तो इसका अर्थ है कि पहले ऋषि के उपरांत इस ऋषि ने भी इस वेद मन्त्र को जाना था। अधिक जानकारी के लिए देखें- ऋग्वेदअनुक्रमणी – ३.२३, ५.२४, ८.४, ९.९८. और यदि हम शौनक रचित आर्षानुक्रमणी ९ .९८ को देखें तो उस में – ‘च’ (और) का प्रयोग मिलेगा, जहाँ सर्वानुक्रमणी में कात्यायनवा’ का प्रयोग करते हैं। इसी तरह सर्वानुक्रमणी ८.९२और आर्षानुक्रमणी ८.४० में हम पाएंगे कि जहाँ कात्यायन ने ‘वा’ का प्रयोग करते हैं वहीँ शौनक ‘च’ का प्रयोग करते हैं। इसी तरह सर्वानुक्रमणी १.१०५। अतः इन से प्रमाणित होता है कि ऋषि वेदों के रचयिता नहीं हो सकते।

c. कुछ लोग कह सकते हैं कि एक सूक्त के मन्त्र अलग- अलग ऋषियों द्वारा बनाए गए इसलिए एक सूक्त के अनेक ऋषि हैं। परन्तु यह दावा कोई दम नहीं रखता, क्योंकि कात्यायन जैसे ऋषि से इस तरह की भूल होना संभव नहीं है।
सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद९ .६६ – ‘पवस्व’ सूक्त के १०० ‘वैखानस’ ऋषि हैं, जबकि सूक्त में मन्त्र ही केवल ३० हैं। ३ मन्त्रों के १००० ऋषि भी हम देख चुके हैं।
जहाँ कहीं भी – एक सूक्त के मंत्रों को भिन्न-भिन्न ऋषियों ने देखा है -कात्यायन ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। जैसे, सर्वानुक्रमणी – ऋग्वेद ९ .१०६ – चौदह मन्त्रों वाले ‘इन्द्र्मच्छ’ सूक्त में – ‘चक्षुषा’ ने ३, ‘मानव चक्षु’ ने ३, ‘अप्स्व चक्षु’ ने ३ और ‘अग्नि’ ने ५ मन्त्रों के अर्थ अपनी तपस्या से जानें। सर्वानुक्रमणी – ऋग्वेद 5 वें मंडल के 24 वें सूक्त के चारों मन्त्रचार विभिन्न ऋषियों द्वारा जाने गए। इसी तरह देखें,सर्वानुक्रमणी – ऋग्वेद १०.१७९ और १०.१८१।.

इसलिए, एक सूक्त के मन्त्रों को विभिन्न ऋषियों ने बनाया – ऐसा निष्कर्ष निकालना गलत होगा। इसका समाधान यही है कि – ऋषि वह ‘तज्ञ’ थे जिन्होनें वेद मन्त्रों के अर्थ को जाना था।

2. एक मन्त्र के अनेक ऋषि:

वेदों में ऐसे अनेक मन्त्र हैं जो कई बार, कई स्थानों पर अलग- अलग सन्दर्भों में आए हैं। किन्तु उनके ऋषि भिन्न-भिन्न हैं। यदि ऋषियों को मन्त्र का निर्माता माना जाए तो सभी स्थानों पर एक ही ऋषि का नाम आना चाहिए था।
उदाहरण : ऋग्वेद १.२३.१६-१८ और अथर्ववेद १.४.१-३
ऋग्वेद १०.९.१-७ और अथर्ववेद १.५.१-४/ १.६.१-३
ऋग्वेद १०.१५२.१ और अथर्ववेद १.२०.४
ऋग्वेद १०.१५२.२-५ और अथर्ववेद १.२१.१-४
ऋग्वेद १०.१६३.१,,४ और अथर्ववेद २.३३.१,,
अथर्ववेद ४.१५.१३ और अथर्ववेद ७.१०३.१
ऋग्वेद १.११५.१ और यजुर्वेद १३.१६
ऋग्वेद १.२२.१९ और यजुर्वेद १३.३३
ऋग्वेद १.१३.९ और ऋग्वेद ५.५.८
ऋग्वेद १.२३.२१-२३ और ऋग्वेद १०.९.७-९
ऋग्वेद ४.४८.३ और यजुर्वेद १७.९१

इन सभी जोड़ियों में ऋषियों की भिन्नता है। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक ही मन्त्र के इतने सारे ऋषि कैसे हुए, इसे समझने का मार्ग एक ही है कि हम यह मान लें – ऋषि मन्त्रों के ज्ञाता ही थे, निर्माता नहीं।

3. वेद मन्त्र ऋषियों के जन्म के पहले से विद्यमान थे।
इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि वेद मन्त्र – ऋषियों के जन्म से बहुत पहले से ही थे, फ़िर ऋषि उनके रचयिता कैसे हुए?

उदाहरण :
a.सर्वानुक्रमणी के अनुसार ऋग्वेद १.२४’ कस्य नूनं ‘ मन्त्र का ऋषि ‘ शुनः शेप ‘ है। वहां कहा गया है कि १५ मन्त्रों के इस सूक्त का ऋषि, अजीगर्त का पुत्र शुनः शेप है। ऐतरेय ब्राह्मण ३३.३, ४ कहता है कि शुनः शेप नेकस्य नूनं मन्त्र से ईश्वर की प्रार्थना की। वररुचि के निरुक्त समुच्चय में इसी मन्त्र से अजीगर्त द्वारा ईश्वर आराधना का उल्लेख है। इस से स्पष्ट है कि पिता -पुत्र दोनों ने इस मन्त्र से ईश्वर प्रार्थना की। यदि शुनः शेप को मन्त्र का रचयिता माना जाए तो यह कैसे संभव है कि उसके पिता भी यह मन्त्र पहले से जानते हों?
पिता ने पुत्र से यह मन्त्र सीख लिया हो, ऐसा प्रमाण भी ऐतरेय ब्राह्मण और निरुक्त समुच्चय में नहीं है।

स्पष्ट है कि यह मन्त्र अवश्य ही उसके पिता के समय भी था परन्तु इसका ऋषि शुनःशेप ही है। इस से पता चलता है कि ऋषि मन्त्रों के ज्ञाता थे, रचयिता नहीं थे।

b. तैत्तिरीय संहिता ५.२.३ और काठक संहिता २०.१० – विश्वामित्र को ऋग्वेद ३.२२ का ऋषि कहते हैं। जबकि सर्वानुक्रमणी ३.२२ और आर्षानुक्रमणी ३.४ के अनुसार यह मन्त्र विश्वामित्र के पिता ‘गाथि’ के समय भी था। इस मन्त्र के ऋषि गाथि और विश्वामित्र दोनों ही हैं। यह सूचित करता है कि ऋषि मन्त्रों के ज्ञाता थे, रचयिता नहीं थे।

c. सर्वानुक्रमणी के अनुसार ऋग्वेद १०.६१ और ६२ का ऋषि ‘नाभानेदिष्ठ’ है। ऋग्वेद १०.६२ के१० वें मन्त्र में ‘यदु’ और ‘तुर्वशु’ शब्द आते हैं। कुछ लोग इसे ऐतिहासिक राजाओं के नाम मानते हैं। (हम मानते हैं कि यदु और तुर्वशु ऐतिहासिक नाम नहीं हैं किन्तु किसी विचार का नाम हैं।)

महाभारत आदिपर्व ९५ के अनुसार यदु और तुर्वशु – मनु की सातवीं पीढ़ी में हुए थे (मनु – इला – पुरुरवा – आयु – नहुष – ययाति – यदु – तुर्वशु.)

महाभारत आदिपर्व ७५.१५ -१६ में यह भी लिखा है कि नाभानेदिष्ठ मनु का पुत्र और इला का भाई था। इसलिए अगर वेदों में इतिहास मानें और यह मानें कि नाभानेदिष्ठ ने इस मन्त्र को बनाया तो कैसे संभव है कि वह अपने से छठीं पीढ़ी के नाम लिखे? इसलिए या तो वेदों में इतिहास नहीं है या नाभानेदिष्ठ मन्त्रों का रचयिता नहीं है।

कुछ लोग कहते हैं कि नाभानेदिष्ठ बहुत काल तक जीवित रहा और अंतिम दिनों में उस ने यह रचना की। यह भी सही नहीं हो सकता क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण ५ .१४ के अनुसार उसे गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके आने के बाद पिता से इन मन्त्रों का ज्ञान मिला था।
निरुक्त २.३ के अर्थ अनुसार यदु और तुर्वशु ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं बल्कि एक प्रकार के गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाले मनुष्य हैं।

d. ऐतरेय ब्राह्मण ५.१४, तैत्तिरीय संहिता ३.१.३ और भागवत ९.४.१ – १४ में कथा आती है कि नाभानेदिष्ठ के पिता मनु ने उसे ऋग्वेद दशम मंडल के सूक्त ६१ और ६२ का प्रचार करने के लिए कहा। इस से स्पष्ट है कि उसके पिता इन सूक्तों को जानते थे और नाभानेदिष्ठ भले ही इस का ऋषि है पर वह इनका रचयिता नहीं हो सकता।

e. ऋग्वेद मन्डल ३ सूक्त ३३ के ऋषि विश्वामित्र हैं, जिसमेंविपात’ और ‘शुतुद्रि’ का उल्लेख है। निरुक्त २.२४ और बृहद्ददेवता ४.१०५ – १०६ में आई कथा के अनुसार – विश्वामित्रराजा सुदास के पुरोहित थे और वे विपात और शुतुद्रि नामक दो नदियों के संगम पर गए। जबकि महाभारत आदिपर्व १७७.४-६ और निरुक्त ९.२६ में वर्णन है कि महर्षि

वशिष्ठ ने इन नदियों का नामकरण

विपात और शुतुद्रि किया था। और यह नामकरण राजा सुदास के पुत्र सौदास द्वारा महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों का वध किए जाने के बाद का है। यदि विश्वामित्र इन मन्त्रों के रचयिता माने जाएँ तो उन्होंने इन नामों का उल्लेख वशिष्ठ से बहुत पहले कैसे किया? सच्चाई यह है कि इन मन्त्रों का अस्तित्व विश्वामित्र के भी पहले से था। और इस में आये विपात और शुतुद्रि किन्हीं नदियों के नाम नहीं हैं। बल्कि बाद में इन नदियों का नाम वेद मन्त्र से लिया गया। क्योंकि वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक हैं इसलिए किसी व्यक्ति या स्थान का नाम वेदों पर से रखा जाना स्वाभाविक है। जैसे आज भी रामायण, महाभारत इत्यादि में आए शब्दों से मनुष्यों और स्थान आदि का नामकरण किया जाता है।

f. सर्वानुक्रमणी वामदेव को ऋग्वेद ४.१९, २२, २३ का ऋषि बताती है। जबकि गोपथ ब्राह्मण उत्तरार्ध ६.१ और ऐतरेय ६.१९ में लिखा है कि विश्वामित्रइन मन्त्रों का द्रष्टा (अर्थ को देखने वाला) था और वामदेव ने इस का प्रचार किया। अतः यह दोनों ऋषि मन्त्रों के तज्ञ थे, रचयिता नहीं।

g. सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद १०.३० – ३२ का ऋषि ‘कवष ऐलुष’ है। कौषीतकीब्राह्मण कहता है कि कवष ने ‘भी’ मन्त्र जाना – इस से पता चलता है कि मन्त्रों को जाननेवाले और भी ऋषि थे। इसलिए ऋषि मन्त्र का रचयिता नहीं माना जा सकता।

4.’मन्त्रकर्ता’ का अर्थ ‘मन्त्र रचयिता’ नहीं :
कर्ता’ शब्द बनता है ‘कृत्’ से और ‘कृत्’ = ‘कृञ्’ + ‘क्विप्’ ( अष्टाध्यायी ३.२.८९ )।
कृञ्’ का अर्थ –
निरुक्त २.११ – ऋषि का अर्थ है -“दृष्टा” (देखनेवाला) करता है, निरुक्त३.११ – ऋषि को “मन्त्रकर्ता ” कह्ता है। अतः यास्क के निरुक्त अनुसार “कर्ता ” ही “मन्त्रद्रष्टा” है। ‘कृञ्’ धातु ‘करने’ के साथ हीदेखने’ के सन्दर्भ में भी प्रयुक्त होता है। ‘कृञ्’ का यही अर्थ, सायण ऐतरेयब्राह्मण(६.१) के भाष्य में, भट्ट भास्कर तैत्तरीय आरण्यक (४.१.१) के भाष्य में और कात्यायन गर्ग श्रौतसूत्र (३.२.९) की व्याख्या में लेते हैं।

मनुस्मृति में ताण्ड्य ब्राह्मण (१३.३.२४) की कथा आती है। जिसमें मनुमन्त्रकर्ता” का अर्थ मन्त्र का “अध्यापक” करते हैं। इसलिए ‘कृञ्’ धातु का अर्थ “पढ़ाना” भी हुआ। सायण भी ताण्ड्य ब्राह्मण की इस कथा मेंमन्त्रकर्ता” का अर्थ “मन्त्र दृष्टा” ही करते हैं।
अष्टाध्यायी (१.३.१) पतंजलि भाष्य में ‘कृञ्’ का अर्थ “स्थापना” या “अनुसरण” करना है।
जैमिनी के मीमांसा शास्त्र (४.२.३) में ‘कृञ्’ का अर्थ “स्वीकारना” या “प्रचलित” करना है।
वैदिक या उत्तर वैदिक साहित्य में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि “मन्त्रकर्ता” यामन्त्रकार” या इसी तरह का कोई दूसरा शब्द मन्त्रों के रचयिता के लिए प्रयुक्त हुआ हो।
सर्वानुक्रमणी (परिभाषा २.४) में स्पष्ट रूप से मन्त्र का ‘ दृष्टा’ या मन्त्र के अर्थ का ‘ज्ञाता’ ही, उस का “ऋषि” है।

अत: अवैदिक लोगों ने जितने भी सन्दर्भ ऋषियों को ‘मन्त्रकर्ता’ बताने के लिए दिए, उन सभी का अर्थ ‘मन्त्रदृष्टा’ है।
प्राचीन साहित्य में ‘मन्त्रदृष्टा’ के कुछ उदाहरण :
तैत्तिरीय संहिता१.५.४, ऐतरेय ब्राह्मण ३.१९, शतपथ ब्राह्मण ९.२.२.३८, ९.२.२.१, कौषीताकिब्राह्मण १२.१, ताण्ड्य ब्राह्मण ४.७.३, निरुक्त २.११, ३.११, सर्वानुक्रमणी२.१, ३.१, ३.३६, ४.१, ६.१, ७.१, ७.१०२, ८.१, ८.१०, ८.४२, बृहद्ददेवता १.१, आर्षानुक्रमणी १.१, अनुवाकानुक्रमणी २,३९,१.१।
अचरज की बात है कि जिन मन्त्रों का हवाला देकर अवैदिक दावा करते हैं कि इनको ऋषियों ने बनाया, वही बताते हैं कि ऋषि इनके ‘ज्ञाता’ या ‘दृष्टा’ थे। अत: यह गुत्थी यहीं सुलझ जाती है।

शंका:
वेदों में आए नाम जैसे विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज इत्यादि जो वेद मन्त्रों के ऋषि भी हैं और ऐतिहासिक व्यक्ति भी, इनके लिए आप क्या कहेंगे ?

समाधान:
यह सभी शब्द ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम नहीं अपितु विशेष गुणवाचक नाम हैं। जैसे शतपथ ब्राह्मण में आता है कि प्राण मतलब वशिष्ठ, मन अर्थात भरद्वाज, श्रोत (कान) मतलब विश्वामित्र इत्यादि। ऐतरेय ब्राह्मण २.२१ भी यही कहता है। ऋग्वेद
८.२.१६ में कण्व का अर्थ – मेधावी व्यक्ति है – निघण्टु (वैदिककोष) के अनुसार।

शंका:
इसका क्या कारण है कि कई मन्त्रों के ऋषि वही हैं, जो नाम स्वयं उस मन्त्र में आए हैं?

समाधान:
आइए देखें कि किसी को कोई नाम कैसे मिलता है। नाम या तो जन्म के समय दिया जाता है या अपनी पसंद से या फिर अपने कार्यों से या प्रसिद्धि से व्यक्ति को कोई नाम मिलता है। अधिकतर महापुरुष अपने जन्म नाम से अधिक अपने कार्यों या अपने चुने हुए नामों से जाने जाते हैं। जैसे पं.चंद्रशेखर “आजाद” कहलाए, सुभाषचन्द्र बोस को “नेताजी” कहा गया, मूलशंकर को हम “स्वामी दयानंद सरस्वती” कहते हैं, मोहनदास “महात्मा” गाँधी के नाम से प्रसिद्ध हैं।अग्निवीर” कहलाने वालों के असली नाम भी शायद ही कोई जानता हो।
इसी तरह जिस ऋषि ने जिस विषय का विशेष रूप से प्रतिपादन या शोध किया – उनका वही नाम प्रसिद्ध हुआ है।
ऋग्वेद १०.९० पुरुष-सूक्त – जिसमें विराट पुरुष अथवा परमेश्वर का वर्णन है – का ऋषि “नारायण” है – जो परमेश्वर वाचक शब्द है।
ऋग्वेद १०.९७ – जिसमें औषधियों के गुणों का प्रतिपादन है, इसका ऋषि “भिषक् ” अर्थात वैद्य है।
ऋग्वेद १०.१०१ का ऋषि “बुध: सौम्य” है अर्थात बुद्धिमान और सौम्य गुणयुक्त – यह इस सूक्त के विषय अनुरूप है।
ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिलेंगे।

वैदिक ऋषियों को अपने नामों की प्रसिद्धि की लालसा नहीं थी। वे तो जीवन – मृत्युके चक्र से ऊँचे उठ चुके, वेदों के अमृत की खोज में समर्पित योगी थे। इसलिए नाम उनके लिए केवल सामाजिक औपचारिकता मात्र थे।

महर्षि दयानंद के शब्दों में – “जिस-जिस मंत्रार्थ का दर्शन जिस -जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिसके पहिले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था; किया और दूसरों को पढाया भी। इसलिए अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्र कर्ता बतलावें उनको मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के अर्थप्रकाशक हैं।”
इन मन्त्रों का रचयिता भी वही – इस ब्रह्माण्ड का रचयिता – विराट पुरुष है। जिसने यह जीवन, यह बुद्धि, यह जिज्ञासा और यह क्षमता प्रदान की, जिससे हम जान सकें कि ‘ वेद किसने रचे?’ भले ही कोई इस पर असहमत हो फिर भी – वेदों के रचयिता के बारे में सबसे अच्छा और प्रामाणिक समाधान यही है।

..................................... क्रमश: .........................................
(कथन और तथ्य गूगल और अग्निवीर से साभार)

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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भाग – 1 धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 1
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”




विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
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सनातन मार्ग, वेद, उपनिषद और श्रीमद्भगवद्गीता, और ऋषि:


वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियां भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियां बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

चार ऋषि ने सुने वेद..

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम। दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥ -मनु (1/13)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

जिन्होंने सर्वप्रथम वेद सुने : 4 वेदज्ञ ऋषि हैं- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। बाद में इनकी वाणी को बहुत से ऋषियों ने रचा और विस्तार दिया। ये सभी मूलत: इन्हीं 4 को हिन्दू धर्म का संस्थापक माना जा सकता है। मनुस्मृति कहती है कि अति प्राचीनकाल के ऋषियों ने उत्कट तपस्या द्वारा अपने तप:पूत हृदय में 'परावाक' वेदवाड्मय का साक्षात्कार किया था, अत: वे मंत्रदृष्टा ऋषि कहलाए- 'ऋषयो मंत्रदृष्टार:।'

कैसे बने चार वेद :

वेद पहले एक ही था। फिर ऋग्वेद हुआ, फिर युजुर्वेद व सामवेद। वेद के तीन भाग राम के काल में पुरुरवा ऋषि ने किए थे, जिसे वेदत्रयी कहे गए हैं। फिर अंत में अथर्ववेद को लिखा अथर्वा ऋषि ने। वेदों को परब्रह्म ने सर्वप्रथम किसे सुनाया? यह शोध का विषय हो सकता है। 'वेद' परमेश्वर के मुख से निकला हुआ 'परावाक' है, वह 'अनादि' एवं 'नित्य' कहा गया है। वह अपौरूषेय ही है। वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रंथ हैं, दूसरा कोई धर्मग्रंथ नहीं है।

तो चार वेद हुए : ऋग, यजु, साम और अथर्व। ऋग्वेद पद्यात्मक है, यजुर्वेद गद्यमय है और सामवेद गीतात्मक है। इन चारों वेदों को बाद के ऋषियों ने अपने तरीके से रचा। उन ऋषियों को मंत्रदृष्टा कहा गया। अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य भी मं‍त्र दृष्टा ऋषि थे। अति प्राचीनकालीन में चार ऋषियों के पवित्रतम अंत:करण में वेद के दर्शन हुए थे। वेदों में ही ऋषियों ने लिखा है कि 'तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये'- अर्थात कल्प के प्रारंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ था।

वेदों को हजारों वर्षों से ऋषियों ने अपने शिष्यों को सुनाया और शिष्यों ने अपने शिष्यों को इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी वेद एक-दूसरे को सुनाकर ही ट्रांसफर किए गए अर्थात उनको आज तलक जिंदा बनाए रखा। आज भी यह परंपरा कायम है तभी तो असल में वेद कायम है।
वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परंपरा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले 6-7 हजार वर्षों से चली आ रही है। वेद के असल मंत्र भाग को संहिता कहते हैं और तत्व को ब्राह्मण।


वेद के भी दो विभाग हैं-
'वेदो हि मंत्रब्राह्मणभेदेन द्विविध:।'
1. मंत्र विभाग : (मंत्र का अर्थ मन को एक तंत्र में लाने वाला शब्द)
2. ब्राह्मण विभाग : (ब्राह्मण का अर्थ ब्रह्म को जानने वाला तत्व ज्ञानी जाति से नहीं)

* वेद के मंत्र विभाग को 'संहिता' भी कहते हैं। संहितापरक विवेचन को 'आरण्यक' एवं संहितापरक भाष्य को 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहते हैं।

* वेदों के ब्राह्मण विभाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद' का भी समावेश है। ब्राह्मण विभाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद' का भी समावेश है। ब्राह्मण ग्रंथों की संख्या 13 है, जैसे ऋग्वेद के 2, यजुर्वेद के 2, सामवेद के 8 और अथर्ववेद के 1


मुख्य ब्राह्मण ग्रंथ 5 हैं- 1. ऐतरेय ब्राह्मण, 2. तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3. तलवकार ब्राह्मण,
4. शतपथ ब्राह्मण और 5. ताण्डय ब्राह्मण।


उपनिषद क्या हैं

वेदों के अंतिम भाग को 'वेदांत' कहते हैं। वेदांतों को ही उपनिषद कहते हैं। उपनिषद में तत्व ज्ञान की चर्चा है। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गए हैं, जैसे-
1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छांदोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. कौषीतकि, 12. श्वेताश्वतर

संहिता : मंत्र भाग। वेद के मंत्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है।

ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है।
मुख्य ब्राह्मण 3 हैं- (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ।

आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'
मुख्य आरण्यक 5 हैं- (1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।

असंख्य वेद-शाखाएं, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में ऋग्वेद के 10, कृष्ण यजुर्वेद के 32, सामवेद के 16, अथर्ववेद के 31 उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।

इन वेदों के 4 उपवेद इस प्रकार हैं-
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गांधर्वश्र्चेति ते त्रय:। स्थापत्यवेदमपरमुपवेदश्र्चतुर्विध:॥


1. आयुर्वेद के कर्ता धन्वंतरि। 2. धनुर्वेद के कर्ता विश्वामित्र।
3. गांधर्ववेद के कर्ता नारद मुनि। 4. स्थापत्यवेद के कर्ता विश्वकर्मा हैं।


उपवेद क्यों बनाए?  

चार वेदों के ज्ञान को श्रेणीबद्ध किया गया ताकि उसको समझने और अनुसरण करने में आसानी हो। आयुध संबंधी जितने भी मंत्र थे उनको धनुर्वेद नामक ग्रंथ में संग्रहीत किया गया इसी तरह क्रमश: चारों वेदों में बिखरे हुए मंत्रों को विषयानुसार विद्वान ऋषियों ने एकत्रित किया।

व्यासजी ने किए वेद विभाजन:-

पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इंद्र, धनंजय, कृष्ण द्वैपायन, अश्वत्थामा आदि 28 वेदव्यास हुए। समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है।
कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से 4 शिष्यों को 4 वेद पढ़ाए-
* मुनि पैल को ऋग्वेद * वैशंपायन को यजुर्वेद
* जैमिनी को सामवेद तथा * सुमंतु को अथर्ववेद पढ़ाया।

वेद के विभाग 4 हैं:  
ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्हीं के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

ऋग्वेद : ऋग- स्थिति,
ऋक अर्थात स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,028 ऋचाएं। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएं हैं- शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।

यजुर्वेद : यजु- रूपांतरण। यजुर्वेद का अर्थ : यत्+जु = यजु। 'यत्' का अर्थ होता है गतिशील तथा 'जु' का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मंत्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की 2 शाखाएं हैं- कृष्ण और शुक्ल।

सामवेद : साम- गति‍शील 'साम' अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 (1824) मंत्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएं हैं। इस संहिता के सभी मंत्र संगीतमय हैं, गेय हैं। इसमें मुख्य 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।

अथर्ववेद : अथर्व- जड़। 'थर्व' का अर्थ है कंपन और 'अथर्व' का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ काम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5,987 मंत्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएं हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है।

वेद से निकला षड्दर्शन :

वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। इसे भारत का षड्दर्शन कहते हैं। 1.न्याय, 2.वैशेषिक, 3.सांख्य, 4.योग, 5.मीमांसा, 6.वेदांत। उक्त 6 को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन)
तथा
7. चार्वाक, 8. बौद्ध, 9. जैन इन 3 को 'अवैदिक दर्शन' (नास्तिक-दर्शन) कहा है। वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है।

6 वेदांग :
वेदों के 6 अंग- (1) शिक्षा, (2) छंद, (3) व्याकरण,
(4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प।

6 उपांग : यानी उप अंग
(1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छंदोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक।
ये 6 उपांग ग्रंथ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।

वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्य वेद-  ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया- (1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक।

वेदों का सार है उपनिषदें और उपनिषदों का सार 'गीता' को माना गया है। इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना गया है। विद्वानों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।

ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है और वेदों को ईश्वर वाक्य। वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है। ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि उन्होंने पूर्ण जाग्रत अवस्था में देखा, सुना और परखा।

मनुस्मृति में श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। वेद किसी भी प्रकार के ऊंच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त (X.90.12) व श्रीमद्‍भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।

श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणंतु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥

भावार्थ : अर्थात जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात की मान्य होगी। -वेद व्यास

प्रकाश से अधिक गतिशील तत्व अभी खोजा नहीं गया है और न ही मन की गति को मापा गया है। ऋषि-मुनियों ने मन से भी अधिक गतिमान किंतु अविचल का साक्षात्कार किया और उसे 'वेद वाक्य' या 'ब्रह्म वाक्य' बना दिया। ।।ॐ।।
ईश्वर सर्व व्यापी,

वेदों का काल
वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए 2017 (चैत्रशुक्ल/तपाःशुक्ल1) को 1,97,29,49,118 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदौंको संरक्षित करने अथवा अच्छि तरहसे समझनेके लिये वेदौंसे ही वेदांगौंको आविस्कार कीया गया। इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानुसार कई इतिहासकार इसे 5000, 7000 साल पुराना मानते हैं परंतु आत्मचिंतन से ज्ञात होता है कि जैसे सात दिन बीत जाने पर पुनः रविवार आता है वैसे ही ये खगोलीय घटनाएं बार बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं।

असली वेद जो ज्ञान का भंडार थे , उनमे से कुछ जानकारी मुगल साम्राज्य मे व कुछ अंग्रेजो के समय मे नष्ट हो गई । वेद हमे ब्रह्मांड के अनोखे , आलोकिक व अनंत राज बताते है जो समय व समझ से परे है। वेद की पुरात्न नीतिया व ज्ञान इस दुनिया को न केवल समझाते है इसके अलावा वो इस दुनिया को पुनः सुचारू तरीके से चलाने मे मददगार साबित हो सकते है।

वेदों का महत्व

प्राचीन काल से भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम(हिन्दू) धर्म अनुसार आर्षयुग में ब्रह्मा से लेकरवेदव्यासतथा जैमिनि तक के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकौं ने शब्द,प्रमाण के रूप में इन्हीं को माने हैं और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किये हैं। इतिहास(महाभारत), पुराण आदि महान् ग्रन्थ वेदों का व्याख्यानके स्वरूपमें रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य विषय - देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्दों को लेकर हुए।

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है।

कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्" और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत माना है। हिन्दू धर्म अनुसार सबसे प्राचीन नियमविधाता महर्षि मनु ने कहा वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद अर्थात् समग्रसंहिता,ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदके रूपमें वेद ही धर्म वा धर्मशास्त्र का मूल आधार है। न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यताको जानने का एक ही वेद तो साधन है। मानव-जाति और विशेषतः वैदिकौंने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान केवल वेदों से मिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनको प्राचीनतम ग्रन्थ( पुस्तक )माना सलोगन लेखन जाता है। आर्यौंका-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है।

सभी बड़े विद्वान और शोधकर्ता वेद को मानव सभ्यता की सबसे प्राचीन पुस्तक मानते हैं। वे अपने जन्म से आज तक अपने मूल रूप में बने हुए हैं। उन्हें मूल स्वरुप में बनाए रखने वाली अनूठी विधियों को जानने के लिए पढ़ें – ‘वेदों में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता?कई विद्वान इसे सृष्टि के महानतम आश्चर्यों में गिनते हैं।


आतंकवादी जाकिर नाइक के गुरु


आतंकवादी जाकिर नाइक के गुरु और जाने पहचाने इस्लामिक विद्वान अब्दुल्ला तारिक भी वेदों को प्रथम ईश्वरीय किताब मानते हैं। जाकिर नाइक ने अपने वहाबी फाउंडेशन के चलते भले ही इस बात को खुले तौर पर स्वीकार न किया हो, पर इसका खंडन भी कभी नहीं किया। वेदों में मुहम्मद की भविष्यवाणी दिखाने की उनकी साजिश से इस बात की पुष्टि होती है कि वह वेदों को अधिकारिक रूप से प्रथम ईश्वरीय पुस्तक मानते हैं। वैसे उनकी यह कोशिश मशहूर कादियानी विद्वान मौलाना अब्दुल हक़ विद्यार्थी की जस की तस नक़ल है।
कादियानी मुहीम का दावा ही यह था कि वेद प्रथम ईश्वरीय किताब हैं और मिर्जा गुलाम आखिरी पैगम्बर। वेद मन्त्रों के गलत अर्थ लगाने और हेर-फेर करने की उनकी कोशिश को हम नाकाम भी हो चुकी है। लेकिन इतनी कमजानकारी और इतनी सीमाओं के बावजूद वेदों को प्रथम ईश्वरीय पुस्तक के रूपमें मुसलमानों के बीच मान्यता दिलवाने की उनकी कोशिश काबिले तारीफ है।

मूलतः यह धारणा कि वेद ईश्वरीय नहीं हैं – ईश्वर को न मानने वालों और साम्यवादियों की है। हालाँकि वे वेदों को प्राचीनतम तो मानते हैं। उनकी इस कल्पना की जड़ इस सोच में है कि मनुष्य सिर्फ कुछ रासायनिक प्रक्रियाओं का पुतला मात्र है। खैर, यह लेख नास्तिकों और साम्यवादियों की खोखली दलीलों और उनकी रासायनिक प्रक्रियाओं के अनुत्तरित प्रश्नों पर विचार करने के लिए नहीं है।


गौर करने वाली बात यह है कि नास्तिकों के इस मोर्चे को अब कई हताश मुस्लिमों ने थाम लिया है, जो अपने लेखों से वेदों की ईश्वरीयता को नकारने में लगे हुए हैं। पर अपने जोश में उन्हें यह होश नहीं है कि इस तरह वे अपने ही विद्वानों को झुठला रहेहैं और इस्लाम की मूलभूत अवधारणाओं को भी ख़त्म कर रहे हैं। हम उन से निवेदन करना चाहेंगे कि पहले वे अपने उन विद्वानों के खिलाफ फ़तवा जारी करें – जो वेदों को प्रथम ईश्वरीय पुस्तक मानते हैं या उन में मुहम्मद को सिद्ध करनेकी कोशिश करते हैं, साथ ही अपनी नई कुरान को निष्पक्षता से देखने की दरियादिली दिखाएं।
.................... क्रमश: ..............................................
(तथ्य, कथन गूगल से साभार) 


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...