धर्म ग्रंथ और
संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 4
संकलनकर्ता :
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
नोट: यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004
को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं
अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
आपने अब तक
पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों
अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और
उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम
धर्म के प्रचार प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया।
अब आगे
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2) ऐतरेय उपनिषद
ऐतरेय उपनिषद एक शुक्ल ऋग्वेदीय उपनिषद है। ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक के
अन्तर्गत द्वितीय आरण्यक के अध्याय 4, 5 और 6. का
नाम ऐतरेयोपनिषद् है। यह उपनिषद् ब्रह्मविद्याप्रधान है।
परिचय :
भगवान् शंकराचार्य इसके ऊपर जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
इसके उपोद्घात-भाष्य में उन्होंने मोक्ष के हेतु का निर्णय करते हुए कर्म और
कर्मसमुच्चित ज्ञानका निराकरण कर केवल ज्ञानको ही उसका एकमात्र साधन बतलाता है।
फिर ज्ञानके अधिकार का निर्णय किया है और बड़े समारोह के साथ कर्मकाण्डी के अधिकार
का निराकरण करते हुए संन्यासी को ही उसका अधिकारी ठहराया है।
वहां वे कहते हैं कि ‘गृहस्थाश्रम्’ अपने गृहविशेषके
परिग्रह का नाम है और यह कामनाओं के रहते हुए ही हो सकता है तथा ज्ञानी में
कामनाओं का सर्वथा अभाव होता है। इसलिए यदि किसीप्रकार चित्तशुद्धि हो जाने से
किसी को गृहस्थाश्रम में ही ज्ञान हो जाय तो भी कामनाशून्य हो जाने से अपने
गृहविशेष के परिग्रह का अभाव हो जाने के कारण उसे स्वतः ही भिक्षुकत्व की प्राप्ति
हो जायगी।
आचार्य का सिद्धान्त है कि जिसे आत्मतत्वकी जिज्ञासा है और जो
साध्य-साधनारूप अनित्य संसार से मुक्ति होना चाहता है, वह
किसी भी आश्रम में हो, उसे संसार ग्रहण करना ही चाहिये। इस सिद्धान्त
के मुख्य आधार दो ही हैं-
(1) जिज्ञासु को तो इसलिये गृहत्याग करना चाहिये कि उसके
लिये गृहस्थाश्रम में रहते हुए ज्ञानोपयोगीनी साधनसम्पत्तिको, उपार्जन करना कठिन है और (2) बोधवान में कामनाओं का
सर्वथा अभाव हो जाता है, इसलिये उसका गृहस्थाश्रम में रहना
सम्भव नहीं है।
अतः ज्ञानोपयोगिनी साधन-सम्पत्ति को उपार्जन करना तथा कामनाओं का आभाव-ये
ही गृहत्याग के मुख्य हेतु हैं। जो लोग घर में रहते हुए ही शमदमादि साधनसम्पन्न हो
सकते हैं और जिन बोधवानों की निष्कामतामें अपने गृहविशेष में रहना बाधक नहीं होता
वे घर में रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन और ज्ञानरक्षा कर ही सकते हैं। वे स्वरूप से
संन्यासी न होनेपर भी वस्तुतः संन्यासधर्मसम्पन्न होने के कारण आचार्य के मत का ही
अनुसरण करने वाले हैं।
संरचना :
इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं। उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा
दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड हैं। प्रथम अध्याय में यह बतालाया गया
है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसके
अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प
से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की। इन्हें रचकर उस
परमात्माने उनके लिये लोकपालोकी रचना करनेका विचार किया और जलसे ही एक पुरुष की
रचनाकर उसे अवयवयुक्त किया। इस अध्याय में आत्मज्ञान के हेतुभूत वैराग्य की
सिद्धिके लिये जीव की तीन अवस्थाओं का, जिन्हें प्रथम
अध्यायमें ‘आवसथ’’ नामसे कहा है, वर्णन किया गया है। जीवके तीन
जन्म माने गये हैं।
(1) वीर्यरूपसे माताकी कुक्षिमें प्रवेश करना,
(2) बालकरूप से उत्पन्न होना और
(3) पिता का मृत्युको प्राप्त होकर पुनः जन्म ग्रहण करना।
‘आत्मा वै पुत्रनामासि’ (कौषी) ( 2। 11)
इस श्रुति के अनुसार पिता और पुत्र का अभेद है; इसीलिये
पिता के पुनर्जन्म को भी पुत्रका तृतीय जन्म बतलाया गया है। वामदेव ऋषि ने गर्भ
में रहते हुए ही अपने बहुत-से जन्मों का अनुभव बतलाया था और यह कहा जाता था कि मैं
लोहमय दुर्गों के समान सैकड़ों शरीर में बंदी रह चुका हूँ; किन्तु
अब आत्माज्ञान हो जाने से मैं श्येन पक्षी के समान उनका भेदन कर बाहर निकल आया
हूँ। ऐसा ज्ञान होने के कारण ही वामदेव ऋषि देहपात के अनन्तर अमर पद को प्राप्त हो
गये थे। अतः आत्मा को भूत एवं इन्द्रिय आदि अनात्मप्रपञ्चसे सर्वथा असङ्ग अनुभव
करना ही अमरत्व-प्राप्तिका एकमात्र साधन है।
इस प्रकार द्वितीय अध्यायमें आत्माज्ञान को परमपद-प्राप्तिका एकमात्र साधन
बतलाकर तीसरे अध्यायमें उसी का प्रतिपादन किया गया है। वहाँ बतलाया है कि हृदय मन, संज्ञान,
आज्ञान, विज्ञान, मेधा,
दृष्टि, धृत, मति,
मनीषा, जूति, स्मृति,
संकल्प, क्रतु, असु काम
एवं वश-ये सब प्रज्ञान के ही नाम हैं। यह प्रज्ञान ही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण,
पश्चमहाभूत तथा उद्विज्ज, स्वेदज अण्डज और
जरायुज आदि सब प्रकार जीव-जन्तु हैं। यही हाथी, घोड़े,
मनुष्य तथा सम्पूर्ण स्थावर जङ्गम जगत् है। इस प्रकार यह सारा संसार
प्रज्ञानमें स्थिति है, प्रज्ञानसे ही प्रेरित होनेवाला है
और स्वयं भी प्रज्ञानस्वरूप ही है, तथा प्रज्ञान ही ब्रह्म
है। जो इस प्रकार जानता है वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस परमाधाम में पहुँच समस्त
कामनाओं को प्राप्त कर अमर हो जाता है।
3) कठोपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपनिषदों में है।
इस उपनिषद के रचयिता कठ नाम के तपस्वी आचार्य थे। वे मुनि वैशम्पायन के शिष्य तथा
यजुर्वेद की कठशाखा के प्रवृर्त्तक थे। इसमें दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय
में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा-पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। भर्तु
प्रपंच ने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी भाष्य रचना की थी।
प्रथम अध्याय
इस अध्याय में नचिकेत अपने पिता द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर यम के यहाँ
पहुंचता है और यम की अनुपस्थिति में तीन दिन तक भूखा-प्यास यम के द्वार पर बैठा रहता
है। तीन दिन बाद जब यम लौटकर आते हैं, तब उनकी पत्नी उन्हे एक ब्राह्मण बालक
अतिथि के विषय में बताती है। यमराज बालक के पास पहुंचकर अपनी अनुपस्थिति के लिए
नचिकेता से क्षमा मांगते हैं और उसे इसके लिए तीन वरदान देने की बात कहते हैं। वे
उसे उचित सम्मान देकर व भोजन आदि कराके भी सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं।
तदुपरान्त नचिकेता द्वारा वरदान मांगने पर ‘अध्यात्म’ के विषय में उसकी जिज्ञासा शान्त
करते हैं।
दूसरा अध्याय
दूसरे अध्याय में परमेश्वर की प्राप्ति में जो बाधाएं आती हैं, उनके
निवारण और हृदय में उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। परमात्मा की सर्वव्यापकता
और संसार-रूपी उलटे पीपल के वृक्ष का विवेचन, योग-साधना,
ईश्वर-विश्वास और मोक्षादि का वर्णन है। अन्त में ब्रह्मविद्या के
प्रभाव से नचिकेता को ब्रह्म-प्राप्ति का उल्लेख है।
परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे
जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा
रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की
इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को
देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित
होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव
शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को
जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।
यमराज नचिकेता को बताते हैं-‘हे नचिकेता! शुद्ध जल को जिस पात्र में भी
डालो, वह उसी के अनुसार रूप ग्रहण कर लेता है। पौधों में वह रस,
प्राणियों में रक्त और ज्ञानियों में चेतना का रूप धारण कर लेता है।
उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह शुद्ध रूप से किसी के साथ भी एकरूप हो जाता
हैं जो साधक सभी पदार्थों से अलिप्त होकर परमात्मतत्त्व से लिप्त होने का प्रयास
करता है, उस साधक को ही सत्य पथ का पथिक जानकर ‘आत्मतत्त्व’
का उपदेश दिया जाता है।’
यमराज बताते हैं कि यह सम्पूर्ण विश्व उस प्राण-रूप ब्रह्म से ही प्रकट
होता है और निरन्तर गतिशील रहता है। जो ऐसे ब्रह्म को जानते हैं, वे
ही अमृत्य, अर्थात मोक्ष को प्राप्त करते हैं इस परब्रह्म के
भय से ही अग्निदेव तपते हैं, सूर्यदेव तपते हैं। इन्द्र,
वायु और मृत्युदेवता भी इन्हीं के भय से गतिशील रहते हैं।
4) केनोपनिषद
सामवेदीय ‘तलवकार ब्राह्मण’ के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख है।
यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें ‘केन’ (किसके द्वारा) का विवेचन होने
से इसे ‘केनोपनिषद’ कहा गया है।
इसके चार खण्ड हैं।
प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन)
प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश
डाला गया है।
तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए
‘यज्ञ-रूप’ में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है।
अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए ‘ब्रह्मतत्त्व’ का
उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को ‘श्रेय’
मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
प्रथम खण्ड
इस खण्ड में ‘ब्रह्म-चेतना’ के प्रति शिष्य अपने गुरु के सम्मुख अपनी
जिज्ञासा प्रकट करता है। वह अपने मुख से प्रश्न करता है कि वह कौन है, जो
हमें परमात्मा के विविध रहस्यों को जानने के लिए प्रेरित करता है? ज्ञान-विज्ञान तथा हमारी आत्मा का संचालन करने वाला वह कौन है? वह कौन है, जो हमारी वाणी में, कानों में और नेत्रों में निवास करता है और हमें बोलने, सुनने तथा देखने की शक्ति प्रदान करता है? शिष्य के
प्रश्नो का उत्तर देते हुए गुरु बताता है कि जो साधक मन, प्राण,
वाणी, आंख, कान आदि में
चेतना-शक्ति भरने वाले ‘ब्रह्म’ को जान लेता है, वह जीवन्मुक्त
होकर अमर हो जाता है तथा आवागमन के चक्र से छूट जाता है।
दूसरा खण्ड
इस खण्ड में ‘ब्रह्म’ की अज्ञेयता और मानव-जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डाला
गया है। गुरु शिष्य को बताता है कि जो असीम और अनन्त है, उसे
वह भली प्रकार से जानता है या वह उसे जान गया है, ऐसा नहीं
है। उसे पूर्ण रूप से जान पाना असम्भव है। हम उसे जानते हैं या नहीं जानते हैं,
ये दोनों ही कथन अपूर्ण हैं।अहंकारविहीन व्यक्ति का वह बोध, जिसके द्वारा वह ज्ञान प्राप्त करता है, उसी से वह
अमृत-स्वरूप ‘परब्रह्म’ को अनुभव कर पाता है। जिसने अपने
जीवन में ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे ही परब्रह्म का
अनुभव हो पाता है। किसी अन्य योनि में जन्म लेकर वह ऐसा नहीं कर पाता। अन्य समस्त
योनियां, कर्म-भोग की योनियां हैं। मानव-जीवन में ही
बुद्धिमान पुरुष प्रत्येक वाणी, प्रत्येक तत्त्व तथा प्रत्येक
जीव में उस परमात्मसत्ता को व्याप्त जानकर इस लोक में जाता है और अमरत्व को
प्राप्त करता है।
तीसरा खण्ड
तीसरे खण्ड में देवताओं के अहंकार का मर्दन किया गया है। एक बार उस ब्रह्म
ने देवताओं को माध्यम बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की। इस विजय से देवताओं को
अभिमान हो गया कि असुरों पर विजय प्राप्त करने वाले वे स्वयं हैं। इसमें ‘ब्रह्म’
ने क्या किया?तब ब्रह्म ने उन देवताओं के अहंकार को जानकर उनके सम्मुख
यक्ष के रूप में अपने को प्रकट किया। और उनका अभिमान
चूर किया | तब इन्द्र ने भगवती उमा से यक्ष के बारे में
प्रश्न किया कि यह यक्ष कौन था?
चौथा खण्ड
इन्द्र के प्रश्न को सुनकर उमादेवी ने कहा-‘हे देवराज! समस्त देवों में
अग्नि, वायु और स्वयं आप श्रेष्ठ माने जाते हैं; क्योंकि ब्रह्म को शक्ति-रूप में इन्हीं तीन देवों ने सर्वप्रथम समझा था
और ब्रह्म का साक्षात्कार किया था। यह यक्ष वही ब्रह्म था। ब्रह्म की विजय ही
समस्त देवों की विजय है।’
इन्द्र के सम्मुख यक्ष का अन्तर्धान होना, ब्रह्म
की उपस्थिति का संकेत- बिजली के चमकने और झपकने- जैसा है। इसे सूक्ष्म दैविक संकेत
समझना चाहिए। मन जब ‘ब्रह्म’ के निकट होने का संकल्प करके ब्रह्म-प्राप्ति का
अनुभव करता हुआ-सा प्रतीत हो, तब वह ब्रह्म की उपस्थिति का
सूक्ष्म संकेत होता है।
जो व्यक्ति ब्रह्म के ‘रस-स्वरूप’ का बोध करता है, उसे
ही आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो पाती है। तपस्या, मन और इन्द्रियों
का नियन्त्रण तथा आसक्ति-रहित श्रेष्ठ कर्म, ये ब्रह्मविद्या-प्राप्ति
के आधार हैं। वेदों में इस विद्या का सविस्तार वर्णन है। इस ब्रह्मविद्या को जानने
वाला साधक अपने समस्त पापों को नष्ट हुआ मानकर उस अविनाशी, असीम
और परमधाम को प्राप्त कर लेता है।तब इन्द्र को यक्ष के तात्विक स्वरूप का बोध हुआ
और उन्होंने अपने अहंकार का त्याग किया।अन्त में ब्रह्मवेत्ता जिज्ञासु शिष्यों को
बताता है कि इस उपनिषद द्वारा तुम्हें ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग दिखाया गया है। इस
पर चलकर तुम ब्रह्म के निकट पहुंच सकते हो।
5) छांदोग्य उपनिषद्
छांदोग्य उपनिषद् समवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो
प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। इसके आठ प्रपाठकों में
प्रत्येक में एक अध्याय है।
परिचय
ब्रह्मज्ञान के लिए प्रसिद्ध छांदोग्य उपनिषद् की परम्परा में अ. 8.15 के
अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु
को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण
बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि, सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत
गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार,
इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।
सन्यास प्रधान इस उपनिषद् का विषय 8-7-1 में उल्लिखित इंद्र को दिए गए
प्रजापति के उपदेशानुसार, अपाप, जरा-मृत्यु-शोकरहित,
विजिधित्स, पिपासारहित, सत्यकाम,
सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है।
मुख्य मान्यताएँ
संक्षेप में छांदोग्य उपनिषद् की मुख्य मान्यताएँ इस प्रकार हैं: सृष्टि के
मूलारंभ में एक और अद्वितीय सत् था जिससे असत् की उत्पत्ति हुई। तैत्तरीय उपनिषद्
में असत् से सत् की उत्पत्ति बतलाई गई है, किंतु शब्द वैभिन्नय रहने पर भी
दोनों के तात्पर्य समान हैं। इस सत् को ही “ब्रह्म” कहते हैं जिसने एक से बहुत
होने की इच्छा से सृष्टिरचना करके उसमें जीवरूप से प्रवेश किया। इस उपनिषद् में पंचतन्मात्रों
अथवा पंचमहाभूतों का वर्णन नहीं आता बल्कि तेज, जल और पृथ्वी
इन मूल तत्वों के मिश्रण से विविध सृष्टि का निर्माण माना गया है।
समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; यहाँ तक कि अ. 7 में नारद को दिए गए सनत्कुमार के उपदेशानुसार चतुर्वेद, शास्त्र एवं विद्याएँ नाम रूपात्मक हैं और इनके मूल में जो नित्य तत्व है
वह ब्रह्म है जो वाणी, आज्ञा, संकल्प,
मन, बुद्धि और प्राण तथा अव्यक्त प्रकृति से
भी परे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित है।
जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को
नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा
दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है और इस सिद्धांत को इस उपनिषद्
के महावाक्य “तत्वमसि” में वाग्बद्ध किया है (6-8-16)। 3-16-17
के अनुसार मनुष्य का जीवन एक प्रकार का यज्ञ है जिसकी महत्ता का
वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस यज्ञविद्या का उपदेश घोर आंगिरस ने “देवकीपुत्र
कृष्ण” को किया। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह कृष्ण अवतारी भगवान कृष्ण हैं। 3-14-1
में पुरुष को क्रतुमय कहकर निश्चित किया गया है कि जिसका जैसा क्रतु
(श्रद्धा) होता है मृत्यु के पश्चात् उसे वैसा ही फल मिलता है। जिन्हें
ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, ऐसे पुण्यकर्म करनेवाले देवयान और
पितृयाण मार्गो से पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं किंतु आजीवन पापाचार करनेवाले
तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं। “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, “आत्मैवेदं सर्वं”, “तत्वमसि” इत्यादि वाक्य अद्वैत
का प्रतिपादन करते हैं।
ब्रह्मज्ञान के लिए नितांत आवश्यक ब्रह्मचिंतन के निमित्त चित्त की
एकाग्रता अनिवार्य है जिसके लिए ब्रह्म निर्देशक ओंकार की और ब्रह्म के सगुण
प्रतीक जैसे मन, प्राण, आकाश, वायु,
वाक्, चक्षु, श्रोत्र,
सूर्य, अग्नि, रुद्र,
आदित्य या मरुत और गायत्री इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है।
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क्रमश: .........................................
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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