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Thursday, July 5, 2018

भाग – 4 धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी


धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 4 
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”



विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/


आपने अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम धर्म के प्रचार प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया।  

अब आगे ....................................... 

2) ऐतरेय उपनिषद
ऐतरेय उपनिषद एक शुक्ल ऋग्वेदीय उपनिषद है। ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक के अन्तर्गत द्वितीय आरण्यक के अध्याय 4, 5 और 6. का नाम ऐतरेयोपनिषद् है। यह उपनिषद् ब्रह्मविद्याप्रधान है।

परिचय :
भगवान् शंकराचार्य इसके ऊपर जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके उपोद्घात-भाष्य में उन्होंने मोक्ष के हेतु का निर्णय करते हुए कर्म और कर्मसमुच्चित ज्ञानका निराकरण कर केवल ज्ञानको ही उसका एकमात्र साधन बतलाता है। फिर ज्ञानके अधिकार का निर्णय किया है और बड़े समारोह के साथ कर्मकाण्डी के अधिकार का निराकरण करते हुए संन्यासी को ही उसका अधिकारी ठहराया है।

वहां वे कहते हैं किगृहस्थाश्रम्’ अपने गृहविशेषके परिग्रह का नाम है और यह कामनाओं के रहते हुए ही हो सकता है तथा ज्ञानी में कामनाओं का सर्वथा अभाव होता है। इसलिए यदि किसीप्रकार चित्तशुद्धि हो जाने से किसी को गृहस्थाश्रम में ही ज्ञान हो जाय तो भी कामनाशून्य हो जाने से अपने गृहविशेष के परिग्रह का अभाव हो जाने के कारण उसे स्वतः ही भिक्षुकत्व की प्राप्ति हो जायगी।

आचार्य का सिद्धान्त है कि जिसे आत्मतत्वकी जिज्ञासा है और जो साध्य-साधनारूप अनित्य संसार से मुक्ति होना चाहता है, वह किसी भी आश्रम में हो, उसे संसार ग्रहण करना ही चाहिये। इस सिद्धान्त के मुख्य आधार दो ही हैं-

(1) जिज्ञासु को तो इसलिये गृहत्याग करना चाहिये कि उसके लिये गृहस्थाश्रम में रहते हुए ज्ञानोपयोगीनी साधनसम्पत्तिको, उपार्जन करना कठिन है और (2) बोधवान में कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाता है, इसलिये उसका गृहस्थाश्रम में रहना सम्भव नहीं है।

अतः ज्ञानोपयोगिनी साधन-सम्पत्ति को उपार्जन करना तथा कामनाओं का आभाव-ये ही गृहत्याग के मुख्य हेतु हैं। जो लोग घर में रहते हुए ही शमदमादि साधनसम्पन्न हो सकते हैं और जिन बोधवानों की निष्कामतामें अपने गृहविशेष में रहना बाधक नहीं होता वे घर में रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन और ज्ञानरक्षा कर ही सकते हैं। वे स्वरूप से संन्यासी न होनेपर भी वस्तुतः संन्यासधर्मसम्पन्न होने के कारण आचार्य के मत का ही अनुसरण करने वाले हैं।

संरचना :
इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं। उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड हैं। प्रथम अध्याय में यह बतालाया गया है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की। इन्हें रचकर उस परमात्माने उनके लिये लोकपालोकी रचना करनेका विचार किया और जलसे ही एक पुरुष की रचनाकर उसे अवयवयुक्त किया। इस अध्याय में आत्मज्ञान के हेतुभूत वैराग्य की सिद्धिके लिये जीव की तीन अवस्थाओं का, जिन्हें प्रथम अध्यायमें ‘आवसथ’’ नामसे कहा है, वर्णन किया गया है। जीवके तीन जन्म माने गये हैं। 

(1) वीर्यरूपसे माताकी कुक्षिमें प्रवेश करना,
(2) बालकरूप से उत्पन्न होना और
(3) पिता का मृत्युको प्राप्त होकर पुनः जन्म ग्रहण करना।

आत्मा वै पुत्रनामासि’ (कौषी) ( 211)
इस श्रुति के अनुसार पिता और पुत्र का अभेद है; इसीलिये पिता के पुनर्जन्म को भी पुत्रका तृतीय जन्म बतलाया गया है। वामदेव ऋषि ने गर्भ में रहते हुए ही अपने बहुत-से जन्मों का अनुभव बतलाया था और यह कहा जाता था कि मैं लोहमय दुर्गों के समान सैकड़ों शरीर में बंदी रह चुका हूँ; किन्तु अब आत्माज्ञान हो जाने से मैं श्येन पक्षी के समान उनका भेदन कर बाहर निकल आया हूँ। ऐसा ज्ञान होने के कारण ही वामदेव ऋषि देहपात के अनन्तर अमर पद को प्राप्त हो गये थे। अतः आत्मा को भूत एवं इन्द्रिय आदि अनात्मप्रपञ्चसे सर्वथा असङ्ग अनुभव करना ही अमरत्व-प्राप्तिका एकमात्र साधन है।

इस प्रकार द्वितीय अध्यायमें आत्माज्ञान को परमपद-प्राप्तिका एकमात्र साधन बतलाकर तीसरे अध्यायमें उसी का प्रतिपादन किया गया है। वहाँ बतलाया है कि हृदय मन, संज्ञान, आज्ञान, विज्ञान, मेधा, दृष्टि, धृत, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु काम एवं वश-ये सब प्रज्ञान के ही नाम हैं। यह प्रज्ञान ही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पश्चमहाभूत तथा उद्विज्ज, स्वेदज अण्डज और जरायुज आदि सब प्रकार जीव-जन्तु हैं। यही हाथी, घोड़े, मनुष्य तथा सम्पूर्ण स्थावर जङ्गम जगत् है। इस प्रकार यह सारा संसार प्रज्ञानमें स्थिति है, प्रज्ञानसे ही प्रेरित होनेवाला है और स्वयं भी प्रज्ञानस्वरूप ही है, तथा प्रज्ञान ही ब्रह्म है। जो इस प्रकार जानता है वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस परमाधाम में पहुँच समस्त कामनाओं को प्राप्त कर अमर हो जाता है।

3) कठोपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपनिषदों में है। इस उपनिषद के रचयिता कठ नाम के तपस्वी आचार्य थे। वे मुनि वैशम्पायन के शिष्य तथा यजुर्वेद की कठशाखा के प्रवृर्त्तक थे। इसमें दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा-पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। भर्तु प्रपंच ने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी भाष्य रचना की थी।

प्रथम अध्याय
इस अध्याय में नचिकेत अपने पिता द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर यम के यहाँ पहुंचता है और यम की अनुपस्थिति में तीन दिन तक भूखा-प्यास यम के द्वार पर बैठा रहता है। तीन दिन बाद जब यम लौटकर आते हैं, तब उनकी पत्नी उन्हे एक ब्राह्मण बालक अतिथि के विषय में बताती है। यमराज बालक के पास पहुंचकर अपनी अनुपस्थिति के लिए नचिकेता से क्षमा मांगते हैं और उसे इसके लिए तीन वरदान देने की बात कहते हैं। वे उसे उचित सम्मान देकर व भोजन आदि कराके भी सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। तदुपरान्त नचिकेता द्वारा वरदान मांगने पर ‘अध्यात्म’ के विषय में उसकी जिज्ञासा शान्त करते हैं।

दूसरा अध्याय
दूसरे अध्याय में परमेश्वर की प्राप्ति में जो बाधाएं आती हैं, उनके निवारण और हृदय में उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। परमात्मा की सर्वव्यापकता और संसार-रूपी उलटे पीपल के वृक्ष का विवेचन, योग-साधना, ईश्वर-विश्वास और मोक्षादि का वर्णन है। अन्त में ब्रह्मविद्या के प्रभाव से नचिकेता को ब्रह्म-प्राप्ति का उल्लेख है।

परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।

यमराज नचिकेता को बताते हैं-‘हे नचिकेता! शुद्ध जल को जिस पात्र में भी डालो, वह उसी के अनुसार रूप ग्रहण कर लेता है। पौधों में वह रस, प्राणियों में रक्त और ज्ञानियों में चेतना का रूप धारण कर लेता है। उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह शुद्ध रूप से किसी के साथ भी एकरूप हो जाता हैं जो साधक सभी पदार्थों से अलिप्त होकर परमात्मतत्त्व से लिप्त होने का प्रयास करता है, उस साधक को ही सत्य पथ का पथिक जानकर ‘आत्मतत्त्व’ का उपदेश दिया जाता है।’

यमराज बताते हैं कि यह सम्पूर्ण विश्व उस प्राण-रूप ब्रह्म से ही प्रकट होता है और निरन्तर गतिशील रहता है। जो ऐसे ब्रह्म को जानते हैं, वे ही अमृत्य, अर्थात मोक्ष को प्राप्त करते हैं इस परब्रह्म के भय से ही अग्निदेव तपते हैं, सूर्यदेव तपते हैं। इन्द्र, वायु और मृत्युदेवता भी इन्हीं के भय से गतिशील रहते हैं।

4) केनोपनिषद
सामवेदीय ‘तलवकार ब्राह्मण’ के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमेंकेन’ (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे ‘केनोपनिषद’ कहा गया है।
इसके चार खण्ड हैं।

प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है।
तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए ‘यज्ञ-रूप’ में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है।
अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए ‘ब्रह्मतत्त्व’ का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को ‘श्रेय’ मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।

प्रथम खण्ड
इस खण्ड में ‘ब्रह्म-चेतना’ के प्रति शिष्य अपने गुरु के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है। वह अपने मुख से प्रश्न करता है कि वह कौन है, जो हमें परमात्मा के विविध रहस्यों को जानने के लिए प्रेरित करता है? ज्ञान-विज्ञान तथा हमारी आत्मा का संचालन करने वाला वह कौन है? वह कौन है, जो हमारी वाणी में, कानों में और नेत्रों में निवास करता है और हमें बोलने, सुनने तथा देखने की शक्ति प्रदान करता है? शिष्य के प्रश्नो का उत्तर देते हुए गुरु बताता है कि जो साधक मन, प्राण, वाणी, आंख, कान आदि में चेतना-शक्ति भरने वाले ‘ब्रह्म’ को जान लेता है, वह जीवन्मुक्त होकर अमर हो जाता है तथा आवागमन के चक्र से छूट जाता है।

दूसरा खण्ड
इस खण्ड में ‘ब्रह्म’ की अज्ञेयता और मानव-जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। गुरु शिष्य को बताता है कि जो असीम और अनन्त है, उसे वह भली प्रकार से जानता है या वह उसे जान गया है, ऐसा नहीं है। उसे पूर्ण रूप से जान पाना असम्भव है। हम उसे जानते हैं या नहीं जानते हैं, ये दोनों ही कथन अपूर्ण हैं।अहंकारविहीन व्यक्ति का वह बोध, जिसके द्वारा वह ज्ञान प्राप्त करता है, उसी से वह अमृत-स्वरूपपरब्रह्म’ को अनुभव कर पाता है। जिसने अपने जीवन में ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे ही परब्रह्म का अनुभव हो पाता है। किसी अन्य योनि में जन्म लेकर वह ऐसा नहीं कर पाता। अन्य समस्त योनियां, कर्म-भोग की योनियां हैं। मानव-जीवन में ही बुद्धिमान पुरुष प्रत्येक वाणी, प्रत्येक तत्त्व तथा प्रत्येक जीव में उस परमात्मसत्ता को व्याप्त जानकर इस लोक में जाता है और अमरत्व को प्राप्त करता है।

तीसरा खण्ड
तीसरे खण्ड में देवताओं के अहंकार का मर्दन किया गया है। एक बार उस ब्रह्म ने देवताओं को माध्यम बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की। इस विजय से देवताओं को अभिमान हो गया कि असुरों पर विजय प्राप्त करने वाले वे स्वयं हैं। इसमें ‘ब्रह्म’ ने क्या किया?तब ब्रह्म ने उन देवताओं के अहंकार को जानकर उनके सम्मुख यक्ष के रूप में अपने को प्रकट किया। और उनका अभिमान चूर किया तब इन्द्र ने भगवती उमा से यक्ष के बारे में प्रश्न किया कि यह यक्ष कौन था?

चौथा खण्ड
इन्द्र के प्रश्न को सुनकर उमादेवी ने कहा-‘हे देवराज! समस्त देवों में अग्नि, वायु और स्वयं आप श्रेष्ठ माने जाते हैं; क्योंकि ब्रह्म को शक्ति-रूप में इन्हीं तीन देवों ने सर्वप्रथम समझा था और ब्रह्म का साक्षात्कार किया था। यह यक्ष वही ब्रह्म था। ब्रह्म की विजय ही समस्त देवों की विजय है।’

इन्द्र के सम्मुख यक्ष का अन्तर्धान होना, ब्रह्म की उपस्थिति का संकेत- बिजली के चमकने और झपकने- जैसा है। इसे सूक्ष्म दैविक संकेत समझना चाहिए। मन जब ‘ब्रह्म’ के निकट होने का संकल्प करके ब्रह्म-प्राप्ति का अनुभव करता हुआ-सा प्रतीत हो, तब वह ब्रह्म की उपस्थिति का सूक्ष्म संकेत होता है।

जो व्यक्ति ब्रह्म के ‘रस-स्वरूप’ का बोध करता है, उसे ही आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो पाती है। तपस्या, मन और इन्द्रियों का नियन्त्रण तथा आसक्ति-रहित श्रेष्ठ कर्म, ये ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के आधार हैं। वेदों में इस विद्या का सविस्तार वर्णन है। इस ब्रह्मविद्या को जानने वाला साधक अपने समस्त पापों को नष्ट हुआ मानकर उस अविनाशी, असीम और परमधाम को प्राप्त कर लेता है।तब इन्द्र को यक्ष के तात्विक स्वरूप का बोध हुआ और उन्होंने अपने अहंकार का त्याग किया।अन्त में ब्रह्मवेत्ता जिज्ञासु शिष्यों को बताता है कि इस उपनिषद द्वारा तुम्हें ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग दिखाया गया है। इस पर चलकर तुम ब्रह्म के निकट पहुंच सकते हो।

5) छांदोग्य उपनिषद्
छांदोग्य उपनिषद् समवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। इसके आठ प्रपाठकों में प्रत्येक में एक अध्याय है।

परिचय
ब्रह्मज्ञान के लिए प्रसिद्ध छांदोग्य उपनिषद् की परम्परा में अ. 8.15 के अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि, सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।

सन्यास प्रधान इस उपनिषद् का विषय 8-7-1 में उल्लिखित इंद्र को दिए गए प्रजापति के उपदेशानुसार, अपाप, जरा-मृत्यु-शोकरहित, विजिधित्स, पिपासारहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है।

मुख्य मान्यताएँ
संक्षेप में छांदोग्य उपनिषद् की मुख्य मान्यताएँ इस प्रकार हैं: सृष्टि के मूलारंभ में एक और अद्वितीय सत् था जिससे असत् की उत्पत्ति हुई। तैत्तरीय उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति बतलाई गई है, किंतु शब्द वैभिन्नय रहने पर भी दोनों के तात्पर्य समान हैं। इस सत् को ही “ब्रह्म” कहते हैं जिसने एक से बहुत होने की इच्छा से सृष्टिरचना करके उसमें जीवरूप से प्रवेश किया। इस उपनिषद् में पंचतन्मात्रों अथवा पंचमहाभूतों का वर्णन नहीं आता बल्कि तेज, जल और पृथ्वी इन मूल तत्वों के मिश्रण से विविध सृष्टि का निर्माण माना गया है।

समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; यहाँ तक कि अ. 7 में नारद को दिए गए सनत्कुमार के उपदेशानुसार चतुर्वेद, शास्त्र एवं विद्याएँ नाम रूपात्मक हैं और इनके मूल में जो नित्य तत्व है वह ब्रह्म है जो वाणी, आज्ञा, संकल्प, मन, बुद्धि और प्राण तथा अव्यक्त प्रकृति से भी परे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित है।

जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है और इस सिद्धांत को इस उपनिषद् के महावाक्य “तत्वमसि” में वाग्बद्ध किया है (6-8-16)3-16-17 के अनुसार मनुष्य का जीवन एक प्रकार का यज्ञ है जिसकी महत्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस यज्ञविद्या का उपदेश घोर आंगिरस ने “देवकीपुत्र कृष्ण” को किया। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह कृष्ण अवतारी भगवान कृष्ण हैं। 3-14-1 में पुरुष को क्रतुमय कहकर निश्चित किया गया है कि जिसका जैसा क्रतु (श्रद्धा) होता है मृत्यु के पश्चात् उसे वैसा ही फल मिलता है। जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, ऐसे पुण्यकर्म करनेवाले देवयान और पितृयाण मार्गो से पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं किंतु आजीवन पापाचार करनेवाले तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं। “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, “आत्मैवेदं सर्वं”, “तत्वमसि” इत्यादि वाक्य अद्वैत का प्रतिपादन करते हैं।

ब्रह्मज्ञान के लिए नितांत आवश्यक ब्रह्मचिंतन के निमित्त चित्त की एकाग्रता अनिवार्य है जिसके लिए ब्रह्म निर्देशक ओंकार की और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे मन, प्राण, आकाश, वायु, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, सूर्य, अग्नि, रुद्र, आदित्य या मरुत और गायत्री इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है।

..................................... क्रमश: .........................................
(कथन और तथ्य गूगल से साभार) 

भाग 5 का लिंक:

 https://freedhyan.blogspot.com/2018/06/5.html 



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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भाग – 3 धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 3
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”





विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
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आपने भाग 1 और 2 में अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की। 

अब आगे ....................................... 

मुख्य उपनिषद् 11 माने जाते हैं,जिनके नाम इस प्रकार हैंः-- 1. ईशावास्योपनिषद्, 2. केनोपनिषद् 3. कठोपनिषद् 4. प्रश्नोपनिषद्, 5. मुण्डकोपनिषद्, 6. माण्डूक्योपनिषद्, 7. ऐतरेयोपनिषद्, 8. तैत्तरीयोपनिषद्, 9. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 10. बृहदारण्यकोपनिषद्, और--11. छान्दोग्योपनिषद्आदि शंकराचार्य ने इनमें से १० उपनिषदों पर टीका लिखी थी। इनमें मांडूक्योपनिषद सबसे छोटा है (१२ श्लोक) औऱ छांदोग्य सबसे बड़ा। संभवतः इशावास्योपनिषद सबसे पुराना है क्योंकि यह यजुर्वेद का ही अंतिम अध्याय है।
इनको मुख्य मानने का कारण इनको ऋषिकृत (यानि आर्ष) और प्राचीनतम मानना है।

बाद में कई उपनिषद लिखे गए जो उतने मान्य नहीं हैं। यहाँ तक कि सोलहवीं सदी में अल्लोपनिषद भी लिखा गया - जिसमें अरबी के शब्दों को संस्कृत में ढाला गया प्रतीत होता है।

उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत्‌ का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं।

उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म। उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है। मुख्य उपनिषद 12 या 13 हैं। हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। १७वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं।

उपनिषद शब्द का अर्थ

उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।

आध्यात्मिक चिंतन की अमूल्य निधि

उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बाँधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।

उपनिषदकाल के पहले : वैदिक युग

वैदिक युग सांसारिक आनंद एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्‍गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए। जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें। कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी और‍ जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्‍गम कहाँ है, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।

उपनिषदकालीन विचारों का उदय

ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं। आत्मा शरीर से भिन्न तत्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती है इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का आवागमन क्यों होता है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं हुए। अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी हुआ कि वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई है?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें'? वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकार है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।'वेदों में यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि इस जीवन में सुखी, संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के लिए आवश्यक है कि देवताओं की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ है। यज्ञ के कर्मफल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही सूत्र चारों ओर गुँजित थे। दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने यज्ञ को बहुत अधिक महत्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक बढ़ गई तब इस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात हुआ। लोग सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?' 'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस रूप के प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा देंगे?' इस प्रकार, कर्मकाण्ड पर बहुत अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में प्रतिपादित किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार करने को प्रेरित किया। प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत, पूषन, मित्र, पितर, यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग प्रशस्त किया।

उपनिषदों का स्वरूप

उपनिषद चिंतनशील एवं कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं। जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया जाता है। उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग-अनुसंधान सुविधाएँ संभव है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है। उपनिषद अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान, विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है। सृष्टि के उद्‍गम एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत में कहा यह गया कि हमारी श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं जानता हो।'
संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था। उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।

विषय-वस्तु
उपनिषद् में वास्तविक वैदिक दर्शन का सार है।
उपनिषद् में आत्म और अनात्म तत्त्वों का निरूपण किया गया है जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता है। प्राय: उपनिषद् वेद के अन्त में ही आते हैं। इसलिए ये वेदान्त के नाम से भी प्रख्यात हैं। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को तीन प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणित करते हैं जो प्रस्थानत्रयी के नाम से विख्यात हैं, ये हैं - उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता

उपनिषद् ब्रह्म विद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या नष्ट हो जाती है (विवरण); वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति); जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दु:ख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। फलत: उपनिषद् वे ‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रंथ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां, पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम, सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल

उपनिषदों का महत्व :

उपनिषदों में ॠषियों ने अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निचोड़ डाला है। इसी कारण विश्व साहित्य में उपनिषदों का महत्व सर्वोपरि स्वीकार किया गया है।जीवन के सभी विचार और चिन्तन बेमानी सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु जीव और परमात्मा के मिलन के लिए किया गया अध्यात्मिक चिब्तब कभी बेमानी नहीं हो सकता। वह शाश्वत है, सनातन है और जीवन के महानतम लक्ष्य पर पहुंचाने वाला सारथि है। जिस प्रकार महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन के लिए सारथि का कार्य सम्पन्न किया था, उसी प्रकार जन-जन के लिए उपनिषदों ने यह महान का कार्य सम्पन्न किया है। वह आलोक है, जो समस्त मानवता के अज्ञानपूर्ण अन्धकार को दूर करने के लिए ॠषियों द्वारा अवतरित कराया गया है। इसीलिए उपनिषदों का महत्व, सर्व-कल्याण का श्रेष्ठतम प्रतीक है।

उपनिषद गूढ़ भाषा में है और इनको समझना कठिन है, क्योंकि हमारा मस्तिष्क और मन बाह्या वस्तुओं को ही पहचान पाता है, संवेदन अंगो के द्वरा ग्रहन किया जा सकने वाला अनुभव ही मस्तिस्क में दर्ज़ होता है और वही हम समझ पाते है और इसी वजह से


उपनिषदों को समझना भी मुश्किल होता है क्योंकि उपनिषद ईश्वर के बारे में कुछ नही कहते, ना ही शैतान के बारे में ना ही स्वर्ग, ना ही नरक के बारे में | उपनिषद बात करते है स्वयं की चेतना के बारे में जिसे हम आत्मा भी कहते है जो की समझने में बेहद मुश्किल है, इसलिये उपनिषदों को समझना भी मुश्किल लगता है |

1) ईशावास्योपनिषद  
यह शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है, जिसे ‘ईशावास्योपनिषद’ कहा गया है। उपनिषद शृंखला में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। इस उपनिषद में ईश्वर के गुणों का वर्णन है, अधर्म त्याग का उपदेश है। सभी कालों में सत्कार्मों को करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में दिया गया है। सभी प्राणियों में ‘आत्मा’ को परमात्मा का अंश जानकर अंहिसा की शिक्षा दी गयी है। समाधि द्वारा परमेश्वर को अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख किया गया है।

प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। ‘यह किसका धन है?’ प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है। यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1

यहाँ इस जगत में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥2
अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है

परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥15
इसका अर्थ यही है कि परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आंखें उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। हे अग्ने! हे विश्व के अधिष्ठाता! आप कर्म-मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। आप हमें पाप कर्मों से बचायें और हमें दिव्य दृष्टि प्रदान करें। यही हम बार-बार नमन करते हैं।

..................................... क्रमश: .........................................
(कथन और तथ्य गूगल से साभार) 


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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