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Wednesday, July 11, 2018

भाग – 8 सनातन बनाम जैन धर्म / धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी




 सनातन बनाम जैन धर्म
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 8
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”




विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
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वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
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आपने भाग 1 से 6 में अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की।। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम धर्म के प्रचार प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया। लगभग सभी उपनिषद विभिन्न ऋषियों द्वारा अपने अनुभव के आधार पर ईश की परम सत्ता की व्याख्या करते हैं। आपने सारे उपनिषद को संक्षेप में पड लिया होगा। भारत के दस महान वैज्ञानिक ऋषियों ने किस प्रकार विज्ञान को योगदान दिया। अगस्त ऋषि ने तो 2500 साल पहले ही बिजली का अविष्कार कर लिया था। सात महान ऋषियों ने आंतरिक विज्ञान पर अपना योगदान देकर सप्त ऋषि बन गये।  

भारत की पवित्र भूमि में जन्म लेकर तमाम ऋषियों ने ईशवरीय ज्ञान को पूरी दुनिया में फैलाया और जिसके कारण भारत विश्व गुरू कहलाता था। आज भी अष्टांग योग के मात्र दो अंग आस और प्रणायाम की बदौलत विश्व के सभी देशों में यह चर्चा का विषय बन चुका है। और लगता है कि दुनिया पुन: भारत को विश्व गुरू का स्थान दे चुकी है।
आइये  सनातन की संतान एक बार इस दिशा में प्रयास कर अपना योगदान दे। 

अब आगे ....................................... 


बिना जैन धर्म की बात किये मैं सनातन की बात करूंगा तो यह बेईमानी ही होगी क्योकि जितना पुराना सनातन का इतिहास है उतना ही पुराना जैन धर्म का इतिहास है। बल्कि यूं कहो सनातन के जन्म के साथ जैन शब्द का प्रादुर्भाव हो गया था। हिंदू शब्द तो वेद में कहीं नहीं दिखेगा पर जैन शब्द तो दिख जाता है। ईश के माननेवाले और उस ईश की शक्ति को कुछ अलग ढंग से व्याख्या करने वाले जैन हो गये। 


ऋषभदेव,  अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था। विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण,  लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है। योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं। इसी तरह रुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है।


जैन धर्म भारत के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है। जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता ईश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। गूढ में जाये तो अंतर्मुखी होने के लिये मूर्ती का सहारा भी लिया जा सकता है। जिस प्रकार सनातन में हिंदू देवी देवताओं की विभिन्न और अलग अलग शक्तियों की बात करते हैं और उनके पूजा स्थल बनाते हैं कुछ उसी प्रकार जैन जो सिद्द पुरूष या जिनेंद्र, जिन्होने ने अहिंसा परमो धर्म: के साथ अन्य नियम कानून से निर्वाण यानी मोक्ष प्राप्त किया उनको ही देव बनाकर उन्ही के मंदिर स्थापित कर पूजा की परम्परा ही जैन धर्म की व्याख्या करता है। मतलब इस धर्म में देव मानव रूप में आये और लीला की। जहां सनातन हिंदू काल्पनिक गैर मानवीय मूर्तियों की पूजा करता है वहीं जैन मानव रूप मूर्ति की पूजा करतें हैं। 


वास्तव में जैन धर्म एक महान गुरू परम्परा को पूजने और माननेवाला ही धर्म है। इसके असाधारण कठोर नियम होने के कारण यह विश्व में बौद्ध धर्म की तरह फैलाव न कर सका। इनके गुरूओं के नियम देख कर कम से कम मेरी तो रूह कांप जाती है। सहनशीलता और अहिंसा की अनंत सीमा को भी लांघ कर इनको निर्वाण की ओर जाना होता है। 


जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं।


जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही | जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत् का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत 'स्याद्वाद' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है।



तीर्थंकर


जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-


21 नमिनाथ जी 22 अरिष्टनेमि जी - इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। 23 पार्श्वनाथ 24 वर्धमान महावीर - इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।

ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था। विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है। योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं। इसी तरह रुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है। नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। अंतिम दो तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी ऐतिहासिक पुरुष है[2]। महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पहले होना ग्रंथों से पाया जाया है। शेष के विषय में अनेक प्रकार की अलौकीक और प्रकृतिविरुद्ध कथाएँ हैं। ऋषभदेव की कथा भागवत आदि कई पुराणों में आई है और उनकी गणना हिंदुओं के २४ अवतारों में है। महाभारत अनुशासन पर्व, महाभारत शांतिपर्व, स्कन्ध पुराण, प्रभास पुराण, लंकावतार आदि अनेक ग्रंथो में अरिष्टनेमि का उल्लेख है।


जैनधर्म के सिद्धान्त : अहिंसा परमो धर्मः । 


जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैनधर्म में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेंद्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।


जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म। 


महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।
जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। 


सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर व्रत, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अंतकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।
अनेकान्तवाद जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिंदु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकांतवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी मत या सिद्धांत को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकांतवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धांत को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा, स्यात् अस्ति', 'स्यात् नास्ति', स्यात् अस्ति नास्ति', 'स्यात् अवक्तव्य,' 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' और 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य', इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ।


आचार विचार


जैन धर्म में आत्मशुद्धि पर बल दिया गया है। आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिये जैन धर्म में देह-दमन और कष्टसहिष्णुता को मुख्य माना गया है। निर्ग्रंथ और निष्परिग्रही होने के कारण तपस्वी महावीर नग्न अवस्था में विचरण किया करते थे। यह बाह्य तप भी अंतरंग शुद्धि के लिये ही किया जाता था। प्राचीन जैन सूत्रों में कहा गया है कि भले ही कोई नग्न अवस्था में रहे या एक एक महीने उपवास करे, किंतु यदि उसके मन में माया है तो उसे सिद्धि मिलने वाली नहीं। जैन आचार-विचार के पालन करने को 'शूरों का मार्ग' कहा गया है। जैसे लोहे के चने चबाना, बालू का ग्रास भक्षण करना, समुद्र को भुजाओं से पार करना और तलवार की धार पर चलना दुस्साध्य है, वैसे ही निर्ग्रंथ प्रवचन के आचरण को भी दुस्साध्य कहा गया है।


जैन धर्म जातिवाद को बिल्कुल नहीं मानता है। प्राचीन जैन ग्रंथों में कहा गया है कि सच्चा ब्राह्मण वही है जिसने राग, द्वेष और भय पर विजय प्राप्त की है और जो अपनी इंद्रियों पर निग्रह रखता है। जैन धर्म में अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की कल्पना की गई है, किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने से नहीं। महावीर ने अनेक म्लेच्छ, चोर, डाकू, मछुए, वेश्या और चांडालपुत्रों को जैन धर्म में दीक्षित किया था। इस प्रकार के अनेक कथानक जैन ग्रंथों में पाए जाते हैं।


जैन धर्म के सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए थे। इससे मालूम होता है कि पूर्वकाल में जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म था, लेकिन आजकल अधिकांश वैश्य लोग ही इसके अनुयायी हैं। वैसे दक्षिण भारत में सेतवाल आदि कितने ही जैन खेतीबारी का धंधा करते हैं। पंचमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के धंधे करनेवाले लोग पाए जाते हैं। जिनसेन मठ (कोल्हापुर) के अनुयायियों को छोड़कर और किसी मठ के अनुयायी चतुर्थ नहीं कहे जाते। चतुर्थ लोग साधारणतया खेती और जमींदारी करते हैं। सतारा और बीजापुर जिलों में कितने ही जैन धर्म के अनुयायी जुलाहे, छिपी, दर्जी, सुनार और कसेरे आदि का पेशा करते हैं।


तत्त्व


जैन ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन मिलता हैं। यह हैं-
जीव- जैन दर्शन में आत्मा के लिए "जीव" शब्द का प्रयोग किया गया हैं। आत्मा द्रव्य जो चैतन्यस्वरुप है।
अजीव- जड़ या की अचेतन द्रव्य को अजीव (पुद्गल) कहा जाता है।
आस्रव - पुद्गल कर्मों का आस्रव करना
बन्ध- आत्मा से कर्म बन्धना
संवर- कर्म बन्ध को रोकना
निर्जरा- कर्मों को क्षय करना
मोक्ष - जीवन व मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।


व्रत


जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है। तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है
अहिंसा - किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना। किसी जीव के प्राणों का घात नहीं करना।
सत्य - हित, मित, प्रिय वचन बोलना।
अस्तेय - बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्य - मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का त्याग करना।
अपरिग्रह- पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धिपूर्वक त्याग
मुनि इन व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करते है, वही श्रावक स्थूल रूप से करते है।
नौ पदार्थ
जैन ग्रंथों के अनुसार जीव और अजीव, यह दो मुख्य पदार्थ हैं।आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप अजीव द्रव्य के भेद हैं।




जैन धर्म के अनुसार लोक ६ द्रव्यों (substance) से बना है। यह ६ द्रव्य शाश्वत हैं अर्थात इनको बनाया या मिटाया नहीं जा सकता। यह है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
सम्यक् दर्शन
सम्यक् चारित्र


यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता। सम्यक्त्व के आठ अंग है —निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन / उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य।
क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषाय है जिनके कारण कर्मों का आस्रव होता है।
चार गतियाँ जिनमें संसरी जीव का जन्म मरण होता रहता है— देव गति, मनुष्य गति, तिर्यंच गति, नर्क गति। मोक्ष को पंचम गति भी कहा जाता है।
चार निक्षेप
नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप।


अहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। सभी जैन शाकाहारी होते हैं।




अनेकान्तवाद का अर्थ है- एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म युगलों का स्वीकार।
स्यादवाद
स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।


मन्त्र


जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-
णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पंच परमेष्ठी हैं।


काल चक्र


जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है— उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि,हर वस्तु का मान,आयु,बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि,हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण का जन्म होता है। इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है। ऊपर जो २४ तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है।

.............क्रमश:...............
(तथ्य कथन गूगल, जैन साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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