सनातन बनाम जैन धर्म
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 9
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 9
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
नोट: यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
आपने भाग 1 से 8 में अब तक पढा कि किस
प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई।
जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और
भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस
प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया। स्वामी दयानंद
सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की।। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम धर्म के प्रचार
प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया। लगभग सभी उपनिषद
विभिन्न ऋषियों द्वारा अपने अनुभव के आधार पर ईश की परम सत्ता की व्याख्या करते
हैं। आपने सारे उपनिषद को संक्षेप में पड लिया होगा। भारत के दस महान वैज्ञानिक
ऋषियों ने किस प्रकार विज्ञान को योगदान दिया। अगस्त ऋषि ने तो 2500 साल पहले ही
बिजली का अविष्कार कर लिया था। सात महान ऋषियों ने आंतरिक विज्ञान पर अपना योगदान
देकर सप्त ऋषि बन गये। जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म कहा जा सकता है। गुरू
परम्परा की पराकाष्ठा रखनेवाला यह धर्म विलक्षण है।
भारत की पवित्र भूमि में जन्म लेकर तमाम
ऋषियों ने ईशवरीय ज्ञान को पूरी दुनिया में फैलाया और जिसके कारण भारत विश्व गुरू
कहलाता था। आज भी अष्टांग योग के मात्र दो अंग आसन और प्रणायाम की बदौलत विश्व के
सभी देशों में यह चर्चा का विषय बन चुका है। और लगता है कि दुनिया पुन: भारत को
विश्व गुरू का स्थान दे चुकी है।
आइये सनातन की संतान एक बार इस दिशा में प्रयास कर अपना योगदान दे।
अब आगे
.......................................
जैन धर्म कितना प्राचीन है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। जैन ग्रंथो के अनुसार जैन धर्म
अनादिकाल से है। महावीर स्वामी या वर्धमान ने ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। इसी समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन
विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। जैनों ने अपने ग्रंथों को आगम, पुराण आदि में विभक्त किया है। प्रो॰ जेकोबी आदि के आधुनिक
अन्वेषणों के अनुसार यह सिद्ध किया गया है की जैन धर्म बौद्ध धर्म से पहले का है। उदयगिरि, जूनागढ आदि के शिलालेखों से भी जैनमत की प्राचीनता पाई जाती है। हिन्दू ग्रन्थ,
स्कन्द पुराण (अध्याय ३७) के अनुसार: "ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम
"भारतवर्ष" पड़ा"|
भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का
प्रचार विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ। पर जैनों के मूल ग्रंथ अंगों में
यवन ज्योतिष का कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्मणों की वेद संहिता में
पंचवर्षात्मक युग है और कृत्तिका से नक्षत्रों की गणना है उसी प्रकार जैनों के अंग
ग्रंथों में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है।
भगवान महावीर के पश्चात इस परंम्परा में
कई मुनि एवं आचार्य भी हुये है, जिनमें
से प्रमुख हैं-
भगवान महावीर के पश्चात 62 बर्ष में तीन केवली (527-465 B.C.), आचार्य गौतम गणधर (607-515 B.C.), आचार्य सुधर्मास्वामी (607-507 B.C.), आचार्य जम्बूस्वामी (542-465 B.C.), इसके पश्चात 100 बर्षो
में पॉच श्रुत केवली (465-365 B.C.), आचार्य भद्रबाहु- अंतिम श्रुत केवली (433-357), आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी (200 A.D., आचार्य उमास्वामी (200 A.D.), आचार्य समन्तभद्र, आचार्य पूज्यपाद (474-525), आचार्य वीरसेन (790-825)
आचार्य जिनसेन (800-880, आचार्य नेमिचन्द्र
सिद्धान्तचक्रवर्ती
तीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न रही
जैन परंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों में विभक्त हो गयी : दिगंबर और श्वेताम्बर। मुनि प्रमाणसागर जी ने जैनों के इस विभाजन
पर अपनी रचना 'जैनधर्म और दर्शन' में
विस्तार से लिखा है कि आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में १२
वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है इसलिए उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि
इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए। आचार्य
भद्रबाहु के साथ हजारों जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु
और कर्नाटक की ओर प्रस्थान कर गए और अपनी साधना में लगे रहे। परन्तु कुछ जैन साधु
उत्तर भारत में ही रुक गए थे। अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह
आगमानुरूप नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं,
जैसे कटि वस्त्र धारण करना, ७ घरों से भिक्षा
ग्रहण करना, १४ उपकरण साथ में रखना आदि। १२ वर्ष बाद दक्षिण
से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि
आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परम्परा को अपना लें पर साधु राजी नहीं हुए और तब
जैन धर्म में दिगंबर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गए।
दिगम्बर
दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है, नग्न
रहते हैं और साध्वियां श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। दिगम्बर मत में तीर्थकरों की
प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया है। दिगम्बर साधु जिन्हें मुनि भी कहा
जाता है सभी परिग्रहों का त्याग कर कठिन साधना करते है। दिगम्बर मुनि अगर विधि
मिले तो दिन में एक बार भोजन और तरल पदार्थ ग्रहण करते है। वह केवल पिच्छि, कमण्डल और शास्त्र रखते है। इन्हें निर्ग्रंथ भी कहा जाता है जिसका अर्थ
है " बिना किसी बंधन के"। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम
दिगम्बर मुनि थे। जैन धर्म में मोक्ष की अभीलाषा रखने वाले
व्रती दो प्रकार के बताय गए हैं— महाव्रती और अणुव्रति। महाव्रत अंगीकार करने वाले
को महाव्रती और अणुव्रत (छोटे व्रत) धारण करने वालों को श्रावक (ग्रहस्त) कहा जाता
है।
दिगम्बर साधुओं
को निर्ग्रंथ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "बिना किसी बंधन के"। इस
शब्द का मूल रूप से लागू उनके लिए किया जाता था जो साधु सर्वज्ञता (केवल ज्ञान) को प्राप्त करने के
निकट हो और प्राप्ति पर वह मुनि कहलाते थे।
सभी दिगम्बर साधुओं के लिए २८ मूल गुणों का पालन अनिवार्य है। इन्हें मूल-गुण
कहा जाता है क्योंकि इनकी अनुपस्थिति में अन्य गुण हासिल नहीं किए जा सकते। यह २८
मूल गुण हैं: पांच 'महाव्रत'; पांच समिति; पांच इंद्रियों पर नियंत्रण ('पंचइन्द्रिय निरोध');
छह आवश्यक कर्तव्यों; सात नियम या प्रतिबंध।
महाव्रत
1.अहिंसा
: पहला व्रत है हिंसा का त्याग करना। एक दिगम्बर साधु अहिंसा महाव्रत धारण करता है
और हिंसा के तीन रूपों का त्याग करता है:
- कृत- वह ख़ुद किसी भी हिंसा के कार्य को करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिए।
- करित- वह किसी और से ऐसा कोई कार्य करने के लिए नहीं कहते या पूछते।
- अनुमोदना- वह किसी भी तरह (वचन और किर्या) से ऐसे किसी कार्य के लिए प्रोत्साहित नहीं करते जिसमें हिंसा हो।
साधु को किसी भी जीव को कार्य और विचारों से चोट नहीं पहुंचाना चाहिये।
2.सच्चाई:
एक दिगम्बर साधु ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता जो, हालांकि
सच हो, पर किसी जीव को चोट कर सकते हैं।
3. अस्तेय:
कुछ भी जो नहीं दिया गया हो वह ग्रहण नहीं करते है। तत्तवार्थसूत्र के अनुसार,
पांच भावनाएँ इस व्रत को मजबूत करती हैं:
- एक एकान्त स्थान में निवास
- एक सुनसान बस्ती में निवास
- जिससे कोई बाधा नहीं दूसरों के लिए,
- स्वच्छ भोजन की स्वीकृति, और
- अन्य साधुओं के साथ झगड़ा नहीं करना।
4. ब्रह्मचर्य:
ब्रह्मचर्य का अर्थ है
आत्म-नियंत्रण प्राकृतिक और अप्राकृतिक मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का पूर्ण त्याग करना।
5. अपरिग्रह: सांसारिक बातों का और
बाह्य एवं आंतरिक परिग्रह का त्याग
पांचगुना गतिविधियों के नियमन
6. ईर्या
समिति: एक दिगम्बर साधु अंधेरे में और न ही घास पर कदम रखता है। वह उसी पथ पर चलता
है जो पहले से प्रयोग में आ रहा हो। चलते समय साधु को सामने चार हाथ (2 गज) जमीन का निरीक्षण करके चलना चाहिए, जिससे किसी
भी जीवित प्राणी का घात ना हो। इस समिति
(नियंत्रण) में दोष निम्न प्रकार से लगता है:
- सावधानी से जमीन ना देख कर चलना, और
- मार्ग में दृष्टि आस पास की वस्तु निहारना।
7. भाषा
समिति: किसी को भी अहित करने वाले शब्द ना कहना।
8. एशना:
भोजन की शुद्धता के अनुपालन की उच्चतम
डिग्री । भोजन को निम्न दोषॉ से मुक्त किया जाना चाहिए। और वह चार प्रकार की
वेदनाओं के लिए त्रस जीव (जीवित प्राणियों जिनके पास दो या अधिक इंद्रियों) से मुक्त
हो। वे वेदनायें दर्द या परेशानी, छेदन और भेदन, आदि, संकट, या मानसिक पीड़ा,
और विनाश या हत्या।
9. अदन-निषेप:
वस्तु उठाने और नीचे रखने में सावधान रहना ।
10
प्रतिष्ठापन: निर्जन्तुक स्थान पर मल-मूत्र का त्याग।.
पांच इंद्रियों पर सख्त नियंत्रण के साथ पंचइंद्रीनिरोध
इस का मतलब है वह सभी चीजें हैं जो करने के लिए मन इंद्रियों का माध्यम से
है। उनका त्याग । इसका मतलब स्पर्श, स्वाद,
गंध, दृष्टि, यानि त्वचा,
मुख, नासिका, आंखे नियंत्रित
हों।
यही सब कुछ पातन्जली महाराज ने अष्टांग योग में कहा है।
मुनि के आवश्यक ६ कर्म
1.सामायिक : दिन में
तीन बार — सुबह, दोपहर, और शाम छह घड़ी (एक घड़ी = 24
मिनट) के लिए सामयिक। 2. स्तुति : चौबीस तीर्थंकरों की पूजा। 3. वंदन अरिहन्त, सिद्ध और आचार्य भगवान का
वंदन 5. प्रतिक्रमण: आत्म-निंदा, पश्चाताप।व 6. प्रतिख्यान-
त्याग, कायोत्सर्ग शरीर से लगाव हटाकर आत्मा की और ध्यान लगाना।
(आसन: कठोर और स्थिर, हाथ कडाई से नीचे, घुटने सीधे, और पैर की उंगलियों सीधे आगे)
सात नियम या प्रतिबंध (नियम)
1. अदंतध्वन : दाँत साफ़ करने के लिए टूथ पाउडर या मँजन नहीं उपयोग करना।
2. भूशयन: आराम करने के लिए ही धरती या लकड़ी के फूस की चटाई का प्रयोग
करना।
3. अस्नान– स्नान ना करना। 4. स्थितिभोजन– खड़े रहकर दोनो हाथो से आहार
लेना।
5. आहार: साधु भोजन और पानी दिन में केवल एक बार ही ग्रहण करता है। वह केवल
46 दोष,
32 अवरोधो और चौदह मलदोषों से रहित भोजन ही ग्रहण करते है। 6.
केश लोंच–हाथ से सिर और चेहरे के बाल उखाड़ना।
7. नग्नय– जन्म समय की अवस्था में
अर्थात नग्न दिगम्बर रहना।
जैन ग्रन्थों के अनुसार मुनि का धर्म (आचरण) दस प्रकार का है, जिसमें
दस गुण है।
1. उत्तम क्षमा - साधु
में गुस्से का अभाव, जब शरीर के संरक्षण के लिए भोजन लेने जाते समय उन्हें
दुर्ज़न लोगों के ढीठ शब्द, या उपहास, अपमान,
शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। 2. शील (विनम्रता) -
अहंकार का आभाव या उच्च जन्म, रैंक आदि के कारण होने वाले
अहंकार का त्याग। 3. सीधापन या आचरण में छल कपट का पूर्ण अभाव। 4. पवित्रता- लालच
से स्वतंत्रता। 5. उत्तम सत्य । 6. आत्म-संयम - जीवों के घात और कामुक व्यवहार से
दूरी। 7. तपस्या: तपस्या के बारह प्रकार है। 8. उत्तम दान । 9.शरीर अलंकरण का
त्याग और यह नहीं सोचना कि 'यह मेरा है'। 10. उत्तम ब्रह्मचर्य और महिलाओं द्वारा इस्तेमाल में लिए जाने वाले
बिस्तर और स्थानों का त्याग।
हर एक के साथ 'उत्तम' शब्द जोड़ा गया है संकेत करने
के लिए क्रम में परिहार के लौकिक उद्देश्य है।
बाईस परिषह
जैन ग्रंथों में बाईस परिषह जय बतलाए गए हैं। यह मोक्ष (मुक्ति) के अभिलाषी
मुनियों के सहने योग्य होते है।
- भूख, 2. पियास, 3. सर्दी, 4. गर्मीं, 5.दशंमशक, 6. किसी अनिष्ट वस्तु से अरुचि, 7. नग्नता, 8. भोगों का आभाव, 9. स्त्री — स्त्री की मीठी आवाज़, सौंदर्य, धीमी चाल आदि का मुनि पर कोई असर नहीं पड़ता, यह एक परिषह हैं। जैसे कछुआ कवछ से अपनी रक्षा करता हैं, उसी प्रकार मुनि भी अपने धर्म की रक्षा, मन और इन्द्रियों को वश में करके करता हैं। 10. चर्या 11. अलाभ, 12. रोग, 13. याचना, 14. आक्रोश, 15. वध, 16. मल, 17. सत्कारपुरस्कार, 18. जमीन पर सोना 19. प्रज्ञा, 20, अज्ञान, 21. अदर्शन 22, बैठने की स्थिति
वाह्य तप
सर्वार्थसिद्धि जैन ग्रन्थ के
अनुसार "परिषह अपने आप से होते है, बाह्य तप ख़ुद इच्छा
से किया जाता है। इने बाह्य कहते है क्योंकि यह बाहरी चीजों पर निर्भर होते हैं और
दूसरों के द्वारा देखने में आते है।"
तत्त्वार्थ सूत्र आदि जैन
ग्रंथों में उल्लेखित है कि छह बाह्य तप होते है:
- 'उपवास' - आत्म नियंत्रण और अनुशासन को बढ़ावा देने के लिए और मूर्छा के विनाश के लिए।
- अल्प आहार का उद्देश्य है बुराइयों का दमन, सतर्कता और आत्म-नियंत्रण विकसित करना, संतोष और अध्ययन में एकाग्रता।
- 'विशेष प्रतिबंध' में शामिल है आहार लेने के लिए घरों की संख्या सीमित करना आदि। इच्छाओं के शमन के लिए ऐसा किया जाता है।
- उत्तेजक और स्वादिष्ट भोजन जैसे घी, क्रम में करने के लिए पर अंकुश लगाने के उत्साह की वजह से इंद्रियों पर काबू पाने, नींद, और अध्ययन की सुविधा.
- अकेला बस्ती - तपस्वी गया है करने के लिए 'बनाने के अपने निवास में अकेला स्थानों' या घरों, जो कर रहे हैं से मुक्त कीट वेदनाओं, क्रम में बनाए रखने के लिए अशांति के बिना ब्रह्मचर्य, अध्ययन, ध्यान और इतने पर।
- धूप में खड़े, निवास के पेड़ के नीचे, सोने में एक खुली जगह के बिना किसी भी कवर, के विभिन्न आसन – इन सभी का गठन छठे तपस्या, अर्थात् 'वैराग्य का शरीर'है।
आचार्य मुनि संघ के मुख्या को कहते है। आचार्य छत्तीस मूल गुणों के धारक
होते है:
- बारह प्रकार की तपस्या (तपस);
- दस गुण (दस लक्षण धर्म);
- पांच प्रकार के पालन के संबंध में विश्वास, ज्ञान, आचरण, तपस्या, और वीर्य.:
- छह आवश्यक कर्तव्यों (षट्आवश्यक'); और गुप्ति - गतिविधि को नियंत्रित करने के तीन गुणों की : शरीर, भाषण और मन आवश्यकता है।
जैन दर्शन के अनुसार, केवल दिगम्बर साधु को ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो सकती
है। इसके पश्चात साधु १८ दोषों से रहित हो जाता है और केवली पद को प्राप्त कर लेता है।
अरिहन्त भगवान के शरीर में मलमूत्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए
कमण्डल की आवश्यकता भी नहीं होती। जैन ग्रंथों के अनुसार जब सर्वज्ञता प्राप्त
करने के बाद शेष दो संयम उपकरण (मोरपंख की पिच्छिका और शस्त्र) की भी आवश्यकता
नहीं रहती क्यूँकि सर्वज्ञ जमीन पर ना ही बैठते और ना ही चलते है। केवल ज्ञान के
बाद शास्त्र की भी ज़रूरत नहीं रहती। केवली भगवान के शरीर में कई शुभ और अद्भुत
लक्षण प्रकट हो जाते है।
.............क्रमश:...............
(तथ्य कथन गूगल, जैन साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/