शक्तिपात दीक्षा यानी दी इच्छित शक्ति
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
यूं तो जगत
में सनातन द्वारा वर्णित कई प्रकार की दीक्षा का वर्णन है। किंतु शक्तिपात दीक्षा को
सर्वोपरि बताया गया है। क्योकिं इसमें शिष्य को तुरन्त आत्म शक्ति और ईश शक्ति का अनुभव
क्रिया रूप में होने लगता है।
शक्ति +
पात यानि शक्ति का गिरना। मतलब हाई वोल्टेज करेंट का लो वोल्टेज की तरफ आकर्षित होना।
यही होता है शक्तिपात । जब सम्रर्थ गुरू शिष्य पर अनुग्रह करता है तो यह शक्ति शिष्य
के अंदर प्रवाहित हो जाती है। यूं तो सभी प्रकार के गुरू अपने शिष्य पर अनुग्रह करते
हैं पर जब शक्तिशाली गुरू की शक्ति से शिष्य की कुंडलनी शक्ति को आघात लगता है तो वह
जग जाती है और शिष्य को अनेकों प्रकार के अनुभव होने लगते हैं। वह वास्तविक शक्तिपात
कहलाता है। प्राय: इसका अर्थ कुंडलनी जागरण से ही होता है।
''विशारदं ब्रह्मनिष्ठं-श्रोत्रियं गुरू माश्रयेत्''
(शिष्य को ऐसे गुरू की शरण में जाना चाहिए जो शब्द-ब्रह्म को जानने वाला हो तथा ब्रह्म-साक्षात्कार करा सकने की क्षमता रखता हो।)
तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव
उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै।
पुंस:श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमनानिर्गतेनाद्युपधौ।
नित्यानन्दैकधाम
प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥
“मै
ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है
वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन
आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।
हमारे
शरीर में जो ईश्वरीय शक्ति है, उसे ‘कुण्डलिनी शक्ति’ कहते है। उसे हम माँ कह कर पुकारते है। यह बाल
से भी पतली, केसरिया रंग की और करीब साढ़े तीन इंच लंबी होती
है। उसके दो मुख है। एक सांसारिक तो दूसरा आध्यात्मिक। सांसारिक मुख खुला है,
तो आध्यात्मिक मुख बंद है। वह केवल ‘गुरुकृपा’ से ही खुलता है। वैसे
तो हठ विद्या से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण हो सकता है, लेकिन
उसमें शारीरिक कष्ट अधिक है। उचित तो यही है की सद्गुरुकृपा से कुण्डलिनी जाग्रत हो।
फ़िर हमें सिर्फ़ सद्गुरु की तरफ़ देखना है। सर्वस्व सद्गुरु को समर्पित करने से
सद्गुरु ही सब संभालते है, हमें कुछ नहीं करना पड़ता है।
हम
‘शक्ति’ के पुजारी है। कुण्डलिनी ही माँ जगदम्बा है, शक्ति है। हम उसी की पूजा
करते है। ध्यान से हम शक्ति को शिव से मिलाने का प्रयास करते है।
सदगुरू से
दीक्षा प्राप्त हो जाने पर शिष्य को दिव्य शक्ति का संचार होना प्रारम्भ हो जाता है
तथा उसके साधना पथ में प्रबल विघ्न के रूप में उपस्थित होने वाले 2-महान रिपुओं यथा आवरण (शुद्ध ज्ञान को ढक देना) तथा विक्षेप (विपरीत आभास कराना) का दमन हो जाता है।
दीक्षा शब्द
2-अक्षरों
'दी' तथा 'क्षा' से बना है। 'दी' का तात्पर्य देना तथा 'क्षा' का तात्पर्य क्षरण (नष्ट) करना होता है।
दीक्षा का अभिप्राय बताते हुए तंत्रशास्त्र कहते हैं-
दीक्षा का अभिप्राय बताते हुए तंत्रशास्त्र कहते हैं-
''दीयते ज्ञानमत्यर्थ-क्षीयते पाश बन्धनम्''।
''ददाति शिव तादात्म्यं-क्षिणोति च मलत्रयम्''।
''दीयते परमज्ञानं-क्षीयते पाप पद्धति:
तेन दीक्षोच्यते
मंत्रे-स्वागमार्थ
बला वलात्।।''
''विज्ञानफलदा सैव-द्वितीया लयकारिणी
तृतीया मुक्तिदा
चैव-तस्माद्दीक्षेति
प्रीयते''॥
(1)
प्रथम तो यह दिव्यज्ञान देती है उसके पश्चात समस्त पापों
को भी नष्ट कर देती है।
(2)
दीक्षा की क्रिया द्वारा भगवान शिव के साथ साधक का तादात्म्य
स्थापित हो जाता है तथा वह साधक के तीनों दोषों को नष्ट कर देती है।
(3)
दीक्षा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है तथा समस्त पापों
का क्षय होता है।
(4)
दीक्षा प्रत्यक्ष विज्ञान फल प्रदा, द्वैतभाव को नष्ट करने वाली, मनोलय कारिणी तथा मुक्ति प्रदात्री
है।
।।दीक्षा
की आवश्यकता तथा माहात्म्य।।
दीक्षा प्राप्त
हो जाने पर शिष्य मनुष्यत्व से शिवत्व के स्तर तक पहुँच सकता है।
शक्तिपात
होने पर क्या होता है, इसका वर्णन आगमशास्त्रों में विस्तार से किया गया है। यथा-
(1)
''उत्पन्न शक्ति
बोधस्य......................... सहजावस्था स्वयमेव प्रजायते''
(शक्तिपात होते ही शिष्य के अन्दर विभिन्न योगिक क्रियाऐं प्रारम्भ हो जाती
है। उसे इसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता)
(2)
''सुप्ता गुरू प्रसादेन-यदा जागर्ति
कुण्डली''.......
(शक्तिपात हाते ही जन्म-जन्मान्तरों से मूलाधार में सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति
जागृत हो जाती है तथा वह षट्चक्रों को भेदन करती हुई सहस्रार में अपने शिव से
मिलने हेतु यात्रा आरम्भ कर देती है।)
(3)
''दीक्षाग्नि कर्म
दग्धासो....................... निर्जीवस्तु शिवोभवेत्''
(दीक्षा रूपी अग्नि में समस्त कर्म भस्म हो जाते हैं, माया का बन्धन छूट जाता है तथा शिष्य 'शिवत्व
प्राप्त कर लेता है।)
(4)
''शक्तिपातेन संयुक्ता.......... विमुक्तिर्नात्र
संशय:''
(जब सद्गुरू शक्तिपात करके शिष्य को मंत्रादि (महावाक्य) प्रदान करते हैं तो उसकी मुक्ति हो
जाती है।)
(5)
''अदीक्षिता ये कुर्वन्ति........................शिलाया मुप्त
बीजवत्''
(जिस प्रकार किसी पत्थर पर बोया हुआ बीज निष्फल हो जाता है उसी प्रकार
अदीक्षित व्यक्ति द्वारा की गई साधना निष्फल हो जाती है।)
(6)
''देवि! दीक्षा विहीनस्य न सिद्धिं न च सद्गतिम्''
(हे पार्वती! दीक्षा रहित व्यक्ति को न तो सिद्धि प्राप्त होती है न सद्गति
ही प्राप्त हो पाती है। अत: सर्वप्रकार से प्रयास करके श्री गुरू से दीक्षा अवश्य
प्राप्त करनी चाहिए।)
महान पुण्य अर्जन करने पर ही शक्तिपात अथवा दीक्षा प्राप्त होती है, जिस दीक्षा से मलत्रय विमुक्त होकर जीव उत्कट साधना द्वारा
परम कारणरूप आनन्द (परब्रह्म) का
साक्षात्कार कर विशोकावस्था प्राप्त करता है:-
''स शोकं तरति, सशोंकं तरति, स शोकं तरति''
योग की 'अथ:' कुण्डिलिनी जागरण और 'इति' उसका सहस्रार में पहुँचना है। यही शक्ति
योग है। यह देखने में आता है कि सभी धर्मोपधर्मो तथा सम्प्रदायों ने इसी को
तोड़-मोड़कर अपने ढंग से अपने-अपने सम्प्रदायों में अपनया है।
शक्तिपात
करने की विधियॉं)
(1) स्पर्श (स्पार्शिकी) दीक्षा। (2) चाक्षुसी (दृष्टि) दीक्षा। (3) वाचिकी (शब्द) दीक्षा
(4) मानसी (ध्यान) दीक्षा (5) आणवी दीक्षा (6) मान्त्री दीक्षा (7) शक्ति दीक्षा (8) शाम्भवी दीक्षा (9) अभिसेचिका दीक्षा (10) स्मार्ती दीक्षा (11) योग दीक्षा
इसके अतिरिक्त
भी जिन 4-प्रकार की दीक्षाओं का उल्लेख
किया गया है उनके नाम हैं-कलावती दीक्षा, क्रियावती
दीक्षा, वेधमयी दीक्षा तथा वर्णमयी दीक्षा। किसी भी विधि से
सद्गुरू द्वारा प्राप्त दीक्षा शिष्य को भोग-मोक्ष प्रदान करने में सहायक होती है।
(1) स्पर्श दीक्षा :
'यथा
पक्षी स्वपक्षाभ्यां ..............................तादृश:
कथित पिये'
(भगवान शंकर मां-पार्वती को बताते हैं कि हे पार्वती! स्पर्शदीक्षा उसी
प्रकार की है जिस प्रकार एक पक्षिणी अपने पंखों के स्पर्श से उनके ऊपर बैठकर अपने बच्चों
का लालन-पालन करती है। जब तक बच्चे अण्डों से बाहर नहीं निकलते तब तक वह अण्डों के
ऊपर बैठी रहती है। अण्डों से बाहर निकल जाने के बाद भी जब तक बच्चे छोटे रहते हैं उन्हें
अपने पंखों से ढककर रखती है।)
स्पर्श दीक्षा
की विधि से शक्तिपात करके शिष्य का उद्धार करने के अनेकों दिव्य उदाहरण
शास्त्रों-पुराणों में उपलब्ध है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में वर्णन किया गया
है कि किस प्रकार भगवान दत्तात्रेय जी द्वारा राजा यदु को आलिंगन (स्पर्श) करके आत्मबोध कराया गया था। इस
घटना का सुन्दर वर्णन सन्त एकनाथ जी ने अपने ग्रन्थ 'एकनाथी
भागवत' में करते हुए बताया है कि 'जब भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को प्रेमपूर्वक गले लगाया तो
दोनों की - स्थिति एकाकार हो गई। राजा यदु का जीवभाव तथा अंहकार नष्ट हो गया। वह
प्रगाढ़ प्रेमसागर में डूब गए। समस्त संकल्प-विकल्प नष्ट हो गए। इस प्रकार वह अपने
गुरू के स्पर्शमात्र से ही आत्मसाक्षात्कार कर कृतार्थ हो गए।
(2)
चाक्षुषी दीक्षा :
दीक्षा
की इस विधि में गुरू द्वारा शिष्य को अपने सामने बिठाकर अत्यन्त करूणाभाव से उसके ऊपर
अपनी अमृतपूर्ण दिव्यदृष्टि डालते हुए परमात्मा से उसके आत्मोद्धार हेतु प्रार्थना
की जाती है। इस दीक्षा की महिमा का वर्णन करते हुए आदि शंकराचार्य लिखते हैं-
'श्री
सद्गुरूणा अतुलित करूणापूर्ण पीयूष दृष्ट्या''
''तदब्रह्मैवाहमस्मी........जीवन्मुक्त: स एव''
(श्री गुरू की करूणापूर्ण दिव्य दृष्टि पड़ते ही शिष्य में ''मैं ब्रह्म हूँ'' का भाव उत्पन्न हो जाता है
तथा वह शोकरहित एवं भय-भ्रम रहित होकर जीवन्मुक्त की पदवी प्राप्त कर लेता है।)
(3)
वाचिकी दीक्षा (शब्द दीक्षा) :
श्री गुरू
द्वारा अपने शिष्य को सामने बिठाकर जीवात्मा-परमात्मा, ब्रह्म-माया, प्रकृतिपुरूष एवं जीव-जगत
सम्बन्धी विशद ज्ञानोपदेश दिया जाता है। उसे सुनकर तथा सम्मुख उपस्थित सतगुरू रूपी
तपोपुंज से जो दिव्य-आध्यात्मिक तरेंगे उत्पन्न होती है उनका स्पर्श पाकर सुयोग्य शिष्य
को अलौकिक अनुभव होने लगते हैं। इस विधि से होने वाले शक्तिपात को ही वाचिकी
दीक्षा कहा गया है। गुरूदेव की ऐसी दिव्य-वाणी को सुनकर ही शिष्य को अपने वास्तविक
स्वरूप का बोध हो जाता है तथा शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाने से उसका साधनामार्ग
प्रकाशमय हो जाता है।
(4)
मानसी (शब्द दीक्षा) तथा (संकल्प) दीक्षा :
भगवान
शंकर मॉं पार्वती को बताते हैं कि हे पार्वती! जिस प्रकार मछली अपने बच्चों का
पालन-पोषण ध्यान मात्र से ही करती है उसकी प्रकार ध्यान दीक्षा भी मन के संकल्प से
ही होती है।
''यथामत्सी स्वतनयान...................मनस: स्यीत्तथाविधि:''
अर्थात
श्री गुरूद्वारा शिष्य को स्पर्श करके दिव्य दृष्टि से देखने तथा शिष्य के प्रति
सत्यसंकल्प पूर्वक ध्यान करने से मानसी दीक्षा सम्पन्न हो जाती है तथा शिष्य कृतार्थ
हो जाता है।
(5)
आणवी दीक्षा :
इस विधि
से दीक्षाप्राप्ति के अन्तर्गत सद्गुरू द्वारा शिष्य को उपास्य देवी का मंत्र, उसके पूजन-अर्चन की विधि, आसन, मुद्रा, देवी का
ध्यान तथा जप के माध्यम से उपासना करने का निर्देश दिया जाता है। सुयोग्य शिष्य गुरूवाक्य
तथा वेदवाक्यों का श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन करते हुए आत्मसाक्षात्कार
कर लेता है।
शास्त्रों
में उल्लेख किया गया है कि जिज्ञासु व्यक्ति को शिष्यत्व ग्रहण (दीक्षा प्राप्ति) करने हेतु श्री गुरू के समक्ष उपस्थित
होने से पहले सतत् अभ्यास करते हुए विभिन्न आघ्यात्मिक विचारों एवं भावनाओं को हृदंयगम
करना पड़ता है। इस विषय पर वेदान्त सूत्र का प्रथम सूत्र 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' स्पष्ट रूप से बताता है
कि अब इसके पश्चात् ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा (इच्छा)
उत्पन्न होती है। जिन भावनाओं को हृदयंगम एवं अंगीकृत करने के पश्चात्
ब्रह्मजिज्ञासा की पात्रता उत्पन्न होती है उनमें से प्रमुख है:-
(1)
नित्या-नित्य वस्तु विवेक
: इस संसार में कौन सी वस्तु नित्य (अमर)
है और कोन सी वस्तु अनित्य (क्षणभंगुर/अस्थिर)। ब्रह्म (आत्मा) नित्य
है। माया (संसार) अनित्य है।
(2)
इहामुत्र फल भोग विराग : यह ज्ञात
हो जाना कि न केवल पृथ्वीलोक वरन् स्वर्गादि उच्चलोकों के समस्त भोगेश्वर्य क्षणिक
हैं। इनके प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाना है।
(3)
शम-दमादि 6-प्रकार
की साधन-सम्पत्ति को अर्जित कर लेना :
इस विषय पर योग के 8 अंग जिसे पातांजली का अष्टांग़ योग कहते हैं नामक शीर्षक के अन्तर्गत लिखा गया है।
(4) मोक्ष प्राप्ति की प्रबल इच्छा जागृत कर लेना :
यह संकल्प कर लेना कि इसी दुर्लभ मनुष्य जन्म में ही अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मलाभ) को पहचान लेना है।
''स गुरू मेवाभिगच्छेत्, समित्पाणि, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ:'' तब गुरूदेव उस शिष्य के समस्त लक्षणों तथा योग्यता का विचार करके उसे ब्रह्मविद्या
का उपदेश देते थे।
इस विषय पर
आदिशंकराचार्य ने निर्देश दिया है कि
''गुरू मेवाचार्य शम दमादि सम्पन्न मभिगच्छेत्
शास्त्रज्ञोपि
स्वतंत्रेण-ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न
कुर्यात्''
(शिष्य को शम-दमादि गुणों से सम्पन्न होकर ही गुरूदेव
के पास जाना चाहिए। शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भी शिष्य को ब्रह्मज्ञान
की मनमानी खोज नहीं करनी चाहिए।)
कुण्डलिनी जागरण के लक्षण
शक्तिपात
होने पर शिष्य में जो बाहरी और आन्तरिक लक्षण (विशेषताऐं) उत्पन्न हो जाते हैं उनका विवरण
शास्त्रों में इस प्रकार दिया गया है-
''देहपात:
तथा कम्प:-परमानन्द हर्षणे
स्वेदो, रोमांच इत्येत-शक्तिपातस्य लक्षणम्''
''प्रहर्ष:
स्वरनेत्रांग विक्रिया कम्पनं तथा
स्तोम: शरीरपातश्च
भ्रमणं चोदगतिस्तथा
अदर्शनं च देहस्य........निग्रहानुग्रहे शक्ति:''
''शिष्यस्य
देहे विप्रेन्द्रा-धरिण्यां पतते सति
प्रसाद: शंकरस्तस्य-द्विजा
संजात एव हि''
अर्थात् शक्तिपात
होने से शिष्य का देहपात (शरीर का भूमि पर गिरना) होता है। शरीर में कम्पन्न उत्पन्न होता है। अत्यधिक आनन्द प्राप्त होने
से शिष्य जोर-जोर से हॅंसने लगता है। शरीर का रोमांचित होना
तथा पसीना होना भी शक्तिपात का ही लक्षण है। इसके अतिरिक्त निद्रा आना, मूर्छित हो जाना तथा दिमाग का घूमना भी शक्तिपात हो जाने के ही लक्षण होते
हैं। इस विषय पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सूतसंहिता'' के अन्तर्गत ब्रह्मगीता में अनेकों लक्षणों का विवरण दिया गया है।
इन सभी
लक्षणों में महत्वपूर्ण लक्षण है 'देहपात
होना' अर्थात् शक्तिपात होते ही शिष्य का शरीर तत्क्षण
भूमि पर गिर जाता है और वह निर्वाध गति से भूमि पर दीर्घकाल तक चक्कर काटता रहता
है। इसका महत्व बताते हुए शास्त्र कहता है-
अर्थात् जब
शिष्य का शरीर धरती पर गिरता है तो इसे भगवान शंकर की कृपा समझना चाहिए। ऐसा शिष्य
श्री गुरूकृपा से कृतार्थ हो जाता है तथा उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
''तस्य
प्रसाद युक्तस्य........तम: सूर्योदयो यथा''
इस प्रकार शक्तिपात
प्राप्त सत्शिष्य की समस्त-अविद्याऐं उसी प्रकार भस्म हो जाती है जैसे सूर्योदय हो
जाने पर समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है।
इस विषय पर
पूज्यपाद वामनदत्तात्रेय गुलवणी महाराज (महाराष्ट्र-पुणे निवासी) शक्तिपात के पश्चात शिष्य में उत्पन्न
होने वाले विभिन्न लक्षणों का विवरण अपने अद्वितीय लेख 'शक्तिपात
से आत्मसाक्षात्कार' में दिया गया है।
''गुरूकृपा
से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन,
प्राणायाम, मुद्रा आदि करने की कुछ भी आवश्यकता
नहीं होती। प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने के लिए छटपटाती है।
उसके उस छटपटाने में जो कुछ क्रियाऐं अपने-आप होती है वे ही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम है। शक्ति का मार्ग
खुल जाने के बाद से सब क्रियाऐं अपने-आप होती है और उनसे चित्त को अधिकाधिक - स्थिरता प्राप्त होती
है..........................जिस साधक के द्वारा जिस क्रिया का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं।
........................... योगशास्त्र में वर्णित विधि के अनुसार इन सब-क्रियाओं का
अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है।
...............इस प्रकार होने वाली यौगिक क्रियाओं से साधक को
कोई कष्ट नहीं होता। किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता। प्रबुद्ध शक्ति
स्वयं ही ये सब क्रियाऐं साधक से उसके प्रकृति के अनुरूप करा लिया करती है।
शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधना से जो क्रियाऐं होती हैं,
उनसे शरीर रोगरहित होता है, बड़े-बड़े
असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं। ........... परन्तु इस साधना में आरम्भ से ही सुख
की अनुभूति होने लगती है। शक्ति का जागना जहॉं एक बार हुआ वहॉं फिर वह शक्ति स्वयं
ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है। इस बीच साधक के जितने
भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी फिर कभी
सुप्त नहीं होती।''
शास्त्रों में
शक्तिपात सम्पन्न (कुण्डलिनी जागरण) साधक में पाये जाने वाले जिन विभिन्न लक्षणों का उल्लेख मिलता है उनमें से प्रमुख है –
मूलाधार में
कम्पन होना, शरीर में अत्यन्त स्फूर्ति उत्पन्न होना,
स्वत: ही कुम्भक लग जाना, आखों के तारे घूमना तथा दृष्टि का भ्रूमध्य की तरफ आकर्षित होना, शराब तथा भॉंग पिये बिना ही हर समय नशे की हालत बनी रहना, आखें बन्द करते ही गर्दन तथा शरीर का चक्राकार घूमना, अनेक भाषाऐं (ज्ञात–अज्ञात) वोल सकने की क्षमता उत्पन्न होना तथा स्तोत्रादि, कीर्तन के शब्द स्वत: ही उच्चरित होने लगना, ध्यान में बैठते ही भविष्य
की घटनाओं का पूर्वाभास होने लगना, कम समय में वेदों तथा उपनिषदों
का सार तत्व समझ लेना, दिन, प्रात: सांय एवं रात्रि में पूजा-ध्यान का समय होते ही शरीर, मन तथा प्राण में
आनन्दमय स्थिति उत्पन्न हो जाना। स्पष्ट है कि सत्गुरू से प्राप्त शक्तिपात सम्पन्न साधक शीघ्र
ही मनुष्यत्व से देवत्व की तरफ अनायास ही अग्रसर होने लगजाता है।
दीक्षा–काल ¼दीक्षा हेतु उपयुक्त समय)
आगमशास्त्रों
में स्पष्ट किया गया है कि यदि गुरूदेव शक्तिपात करने में सक्षम हों तो वह प्रसन्न
होकर अपने शिष्य को जब भी दीक्षा देना चाहें वहीं काल (समय) सर्वश्रेष्ट काल बन जाता है। श्री
गुरू की इच्छा होने तथा संतुष्ट होने पर सभी समय (दिन, पक्ष, मास, तिथि,
नक्षत्र, लग्न तथा राशियां) स्वत: ही शुभ बन जाते हैं।
''न तिथिं,
न ब्रतं पूजा न सन्ध्या न जप–क्रिया यदैवेच्छा तदा दीक्षा गुरोराज्ञा
नुरूपत:'' दीक्षा–काल सम्बन्धी विवरण में यह भी बताया गया है कि किस काल में दीक्षा
प्राप्त करने से क्या फल मिलता है। इस विषय पर संक्षिप्त रूप से लिखा जा रहा है–
(1) ग्रहण–काल (सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण) दीक्षा हेतु सर्वश्रेष्ट तथा शुभप्रद माना जाता है। सूर्य ग्रहण के समय
किया गया कोई भी आध्यात्मिक कार्य अनन्त फलदाई होता है। ग्रहण के समय पक्ष–मासादि का
कोई विचार नहीं किया जाता है। चन्द्र ग्रहण का समय भी दीक्षा हेतु अत्यन्त शुभ माना
गया है।
(2) मल–मास में दीक्षा कार्य वर्जित है। चैत्र, ज्येष्ट,
आषाड़, भाद्रपद तथा पौष मास अशुभ माने गये
हैं जबकि बैसाख, श्रावण, आश्विन,
कार्तिक मार्गशीर्ष, माघ तथा फाल्गुन मास
शुभ माने गये हैं।
(3) गुरू पूर्णिमा, अक्षय तृतीया, अक्षय नवमी, गंगा दशहरा, चैत्र, त्रयोदशी, फाल्गुन
शुक्ल नवमी, बसन्त पंचमी तथा आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को शुभ
तिथियां माना गया है। पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी
तथा पूर्णिमा को भी शुभ माना गया है।
(4) मोक्षार्थी के लिए कृष्णपक्ष तथा भोगार्थी के लिए शुक्लपक्ष को शुभ मानते
हैं।
(5) सोमवार, बुधवार, गुरूवार
तथा शुक्रवार को शुभ जबकि रविवार, मंगलवार तथा शनिवार को अशुभ
मानते हैं।
(6) नक्षत्रों में रोहिणी, मृगशिरा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उ0 फाल्गुनी, चित्रा,
स्वाति, विशाखा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उ0
षाढ़ा, शतभिखा, पू0 भाद्रपदा, उ0
भाद्रपदा तथा रेवती नक्षत्र को शुभ माना गया है।
(7) बृख, सिंहलग्न, कन्या,
धनु तथा मीनलग्न दीक्षा हेतु शुभ माने गये हैं।
दीक्षा हेतु
उपयुक्त स्थल
शास्त्रों
में बताया गया है कि काशी, प्रयाग,
कुरूक्षेत्र, श्रीपर्वत, शक्तिपीठ (प्रमुख 4-पीठ) तथा द्वादश ज्योतिर्लिगों में से किसी
भी ज्योतिर्लिंग में उपस्थित होकर दीक्षा लेने में किसी काल का विचार नहीं किया जाता। पवित्र नदियों के
तटों पर, घने जंगलो एवं पर्वतों पर दीक्षा
लेना शुभ माना गया है। इसके अतिरिक्त गुरू के घर में, गोशाला
में, देव मन्दिर, उद्यान,
बिल्व वृक्ष एवं धात्री वृक्ष के नीचे दीक्षा लेना श्रेष्ट है-
''गोशालाया,
गुरोर्गेहे-देवागारे च कानने
पुण्यक्षेत्रे
तथोद्याने-नदीतीरे च दीक्षणम्।।''
यदि अपने घर
में साधना करनी हो तो कूर्मचक्र की विधि से दीपस्थान (जहॉं पर बैठकर नित्य पूजन-अर्जन करना
है) का निर्णय कर लेना चाहिए ताकि साधना की सफलता सुनिश्चित हो सके। शास्त्रों
में पूजा-अनुष्ठान हेतु उपयोगी अनेक मण्डलों यथा सर्वतोभद्रमण्डल आदि के निर्माण का
विवरण भी मिलता है। लेख विस्तारभय के कारण यहॉं पर अनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है।
वास्तव में दीक्षा का विषय अत्यन्त विशद एवं महत्वपूर्ण है क्योंकि साधना की सफलता
दीक्षा क्रिया पर ही पूर्ण रूपेण निर्भर है।
शिष्य के कर्तव्य
दीक्षा के पश्चात्
गुरू-शिष्य का सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तरों तक चलता रहता है जबकि मनुष्य जीवन में पुत्र
का सम्बन्ध अपने पिता के देह-विसर्जन के पश्चात् ही समाप्त हो जाता है। इस
अद्वितीय एवं अलौकिक सम्बन्ध के निर्वहन के लिय शिष्य को अहर्निश मन, वचन तथा कर्म से तत्पर तथा सजग रहना पड़ता है। तंत्र-शास्त्रों में स्पष्ट
रूप से बताया गया है कि शिष्य के लिए गुरू साक्षात् शिव रूप होते हैं। यदि शिवजी रूष्ट
होंगे तो श्री गुरू रक्षा कर सकते हैं परन्तु गुरू के रूष्ट होने पर शिव जी भी शिष्य
की रक्षा नहीं कर सकते।
''शिवे
रूष्टे गुरूस्त्राता-गुरौ रूष्टे न कश्चन''
ऐसे महान गुरू
को संतुष्ट रखने हेतु शिष्य को सदैव तत्पर रहना चाहिए तथा -
(1) गुरूवाक्यों को ही महामंत्र समझकर तथा संशयहीन होकर सदैव मंत्र-जप में तत्पर
रहना चाहिए।
(2) गुरू की छाया, गुरू के वस्त्रों तथा गुरूपादुकाओं
को नहीं लांघना चाहिए।
''गुस्च्छाया
शक्तिच्छाया सुरच्छाया न लंघयेत्''
(3) श्री गुरूपत्नी तथा उनके परिवारजनों को सदैव सम्मान देना चाहिए।
(4) श्री गुरू के आगे नहीं वरन् पीछे दूरी बनाकर चलना चाहिए।
(5) विदा होते समय गुरू को पीठ नहीं दिखानी चाहिए वरन् उल्टे पैर निकलना चाहिए।
(6) गुरू के समक्ष सदैव विनम्र तथा दासवत् व्यवहार करना चाहिए। अपने ज्ञान,
धन-सम्पत्ति, प्रतिष्ठा तथा प्रभाव को नहीं
दिखाना चाहिए। अपनीजाति, कुल तथा पदवी का अहंकर नहीं करना
चाहिए।
''अभिमानो
न कर्तव्यो-जाति विद्या धनादिकम्''
(7) गुरू देव की तरफ पैर फैलाकर नहीं बैठना चाहिए तथा हंसी-मजाक भी नहीं करना
चाहिए।
(8) गुरूगृह पहुँचकर उनके समक्ष अपने मंत्र का जप, पूजन अर्चन नहीं करना चाहिए क्योंकि गुरू का घर शिष्य के लिए 'कैलाश तीर्थ' की तरह होता है जहॉं पहुंचकर कुछ
भी करना शेष नहीं रह जाता है।
(9) दीक्षा के पश्चात् भी शिष्य को यथा सम्भव गुरू के व्यक्तिगत सम्पर्क में
रहना चाहिए और अपनी साधना के अनुभव उनको बताकर समाधान कर लेना चाहिए। शास्त्रों में
दूरी के विचार से गरू से मिलने के सम्बन्ध में विस्तार से बताया गया है-
''एक
ग्राम स्थित: शिष्य:-त्रिसन्ध्यं प्रणमेद् गुरूम्
.............................................................
अतिदूर ग्रह:
शिष्य:-यदीच्छास्या तदा व्रजेत्''
(10) सदैव गुरू की सेवा में तत्पर रहना चाहिए तथा उनकी प्रत्येक आज्ञा को शिरोधार्य
करना चाहिए। समय-समय पर अन्न, वस्त्र, धन-धान्यदि अर्पित करके गुरू को संतुष्ट रखना चाहिए।
ऐसे गुरू पदानुरागी
भाग्यशाली शिष्य के लिए ही शास्त्रों का उद्घोष है:
''यस्य
देवे पराभक्ति-यथा देवे तथा गुरौ
तस्यैते कथिता
अर्था-प्रकाश्यन्ते महात्मन:''
(तथ्य संकलन गूगल की विभिन्न साइट से साभार )