मन बुद्धि
और प्रज्ञा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
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किसी ने कल पूछा मन और बुद्धि में क्या अंतर है।
प्रश्न बहुत स्वभाविक और प्राकृतिक है। चलिये इसी को समझने का प्र्यास किया जाये
कि मन बुद्धि और प्रज्ञा होती क्या है।
आपने अक्सर घरों में कार्यालयों में भगवान श्री कृष्ण
की अर्जुन के रथ को हांकते हुये तस्वीर देखी होगी। क्या आपने सोंचा कि यही तस्वीर
आपके प्रश्न का सटीक उत्तर देती है। जी, इस तस्वीर के कई अर्थ हो सकते हैं पर
जो जीवन से सम्बंधित हैं। पहला कि इस जगत में सारा कार्य प्रभु कर रहा है तुम बस अर्जुन
की भांति जीवन की संग्राम भूमि में चलते जा रहे हो युद्ध करते जा रहे हो। संकटों में
ईश ही सहायक है। दूसरा ईश के वचनों का मार्ग का पालन करो तो तुम युद्ध जीत लोगे। तीसरा
जीवन की रण भूमि में सिर्फ ईश ही खेवन हार। चौथा ईश की ही शक्ति से तुम जगत व्यवहार
कर सकते हो।
पर इसके दार्शनिक अर्थ हैं। कि अपनी दस इंद्रियों को मन
रूपी लगाम से नियंत्रित कर बुद्धि की चाबुक से अधीन रख और उसको आत्म रूपी ईश के आधीन
कर चलने दे। अर्जुन बन कर अपने लक्ष्य पर संधान कर और प्रहार करते हुये जीवन की रण
भूमि आगे बढता जा।
अब आप कुछ समझ चुके होंगे
कि मन क्या है। यह जो मन है हमारी इन्द्रियों को अपने अधीन बना कर रखता है। जिन इन्द्रियों
से हम कार्य करते है, वह हमारे कर्म बन जाते है, वो इन्द्रिया हमारी कौन सी है। दशरथ
जो भगवान् श्रीराम के पिता थे। रामचरितमानस ग्रन्थ के अनुसार कहा जाता है उन्होंने श्रीराम जो उनके पुत्र थे के वियोग में प्राण दे दिए थे किन्तु
प्रश्न यह उठता है की प्राचीन काल में यथा गुण तथा नाम रखे जाने का प्रचलन था दशरथ
का तात्पर्य यह होता है की दस रथो पर एक साथ नियंत्रण
रखने वाला व्यक्ति दस रथ
कौनसे ? इसका आशय यह है की मानव शरीर में दस इन्द्रिया होती
है। जिनमे पांच ज्ञान इन्द्रिया पांच कर्म इन्द्रिया। दो आंखे, दो हाथ, दो पैर, एक नासिका,
मुँह, ये हैं कर्मेंद्रियां। इसके
द्वारा हम जो भी कार्य करते है, । इन इंद्रियों द्वारा जो ज्ञान
मिलता है वह ज्ञानेंद्रियां।
हमारी इन्द्रिया सारे के सारे काम मन की आज्ञा अनुसार
ही करती हैं। मन यानी इंद्र। क्यों कि मन बाहर की दुनिया में लगाकर रखता है। जैसे
कि आँखों से हम संसार के अच्छे या बुरे दृष्य देखते हैं, कानों
से हम अच्छी बुरी बातें सुनते हैं। और मुँह से हम सात्विक या तामसिक भोजन खाते है,
हाथो से बुरे कार्य करते है,
इत्यादि। मन को गलत काम तो ज्यादा अच्छे लगेंगे वह ज्यादा करेगा। अच्छे
काम में इसका दिल नहीं लगता जैसे कहीं पर पार्टी हो वहा तो वो आदमी भाग कर जायेगा
वहा चाहे सारी रात लग जाए वहा पर बहुत खुश होगा और कही सत्संग होगा चाहे दो घंटे
का हो वहा जाना पसंद नहीं करेगा।
आप कोई भी कर्म जो असमाजिक हो करते है तो अंदर से कोई
आपको न करने की सलाह देता है। यह बुद्धि है जो विवेकशील होती है। आत्मा के निकट। पर
मन नहीं सुनता इंद्रियों को आदेश देकर वह कार्य कर बैठता है।
श्रीभगवानुवाच (श्रीमद भग्वदगीता अध्याय
6 श्लोक 35}
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय
वैराग्येण च गृह्यते॥
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; असंशयम् – निस्सन्देह; महाबाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; मनः – मन को;
दुर्निग्रहम् – दमन करना कठिन है; चलम् – चलायमान,
चंचल; अभ्यासेन – अभ्यास द्वारा; तु – लेकिन; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; वैराग्येण – वैराग्य द्वारा; च – भी; गृह्यते – इस तरह वश में किया जा सकता है |
हे महाबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परंतु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और
वैराग्य से वश में होता है ।।
बुद्धि जानती है। समझती है। मन का काम
है मानना। पर साधारतय: हमारी बुद्धि मन के अधीन हो जाती है जो पतन का कारण बन जाती
है। जबकि होना उलटा चाहिये। तब ही हम सही मार्ग पर चल सकेगें।
चलिये कुछ और समझने का प्रयास करते हैं।
योग
की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है
जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान
होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की
अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध होता है। वे एक दूसरे
को प्रभावित करती और होती हैं।
ये पाँच कोश हैं -
1. अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से
निर्मित। शरीर और मस्तिष्क।
योग मान्यताओं के अनुसार चेतन और अवचेतन मान का
संपर्क प्राणमय कोश के द्वारा होता है
पर मैं वैज्ञानिक स्तर पर कुछ और कोश की
बात करना चाहता हूं।
1.
आपने भोजन किया। कहां गया पेट में तो यह
स्थूल पेट। जिसे अन्नमय कोश कहें। यहां पाचन होकर रस बना।
2.
अब पाचन के बाद ऊर्जा मिली यानि अग्नि
जो पैदा होती है कर्म करने के लिये। तो मैं कहूंगा अग्निमय कोश।
3.
अब अग्नि यानि ऊर्जा ने हमें जिंदा रखा।
इस अग्नि ने हमारे प्राण की रक्षा की तो हुआ प्राणमय कोश।
4.
अब जब हम जिंदा है तो मन बोलता है ये करो
वो करो। प्राण शक्ति मन को जीवित रखती है। बिना प्राण के मन सम्भव नहीं। अत: मनो मय
कोश।
5.
अब मन को नियंत्रित होना चाहिये बुद्धि
से। यानि बुद्धिमय कोश।
6.
अब बुद्धि हमेशा सही बात करती है। मन हमें
भटकाता है। यानि बुद्धि नियंत्रित है आत्मा से जो कि ईश है। तो हुआ आत्ममय कोश।
7.
अब जब हम आत्ममय कोश तक पहुंचे तो मन से
सुख दुख गायब हो गये और हम आनन्द में लीन हो गये। तो हुआ आनन्दमय कोश।
यहां
पर अंतर है बुद्ध दर्शन में वो आनन्दमय कोश की जगह दु:खमय कोश मानते हैं। जो सही नहीं
है। ईश को आनन्दकंद कहते हैं। यहां पर दृष्टिभेद इसी लिये आया क्योकिं बुद्ध अनीश्वरवादी
निराकार मानते थे। आनन्द साकार की ही देन है। क्योकि ईश सर्वाकार है।
बच्चे
के बुद्धि विकसित होती है। जगत को देखकर पर मन कुछ भी कराता है। पर कुछ बालक कुछ अलग
बात करते हैं जो कारण होता है प्रज्ञा का। यानि प्राकृतिक ज्ञान। वह ज्ञान जो प्रारब्धवश
लेकर पैदा हुआ। मतलब बुद्धि जगत से आई जगत में गई। प्रज्ञा अंदर से आई जगत में गई।
यही कारण है कुंडलनी जागरण से प्रज्ञा भी विकसित होकर कुछ नया करवाती है। अहम ब्रह्मास्मि
की अनुभुति के साथ प्रज्ञा खुलकर ज्ञानमय ग्रंथी खोलकर आत्म गुरू जागृत कर देती है।
बस इसके
आगे आप ज्ञानी बतायें। मैंनें जो सोंचा लिख दिया। मीमांसा आपके हाथ।