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Tuesday, September 18, 2018

समाधि का सम्पूर्ण विवरण



समाधि का सम्पूर्ण विवरण 


सनातन पुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info  
वेब चैनलvipkavi      फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"




आजकल कई ग्रुप में में एक विषय को सनसनी अथवा रहस्य के तौर पर समाज में प्रसारित किया जाता है।  वह विषय है-समाधि! वास्तव में, समाधि कोई रहस्य नहीं, एक अत्यंत आलौकिक या पारलौकिक अवस्था है जो देहातीत है, मन-बुद्धि से अतीत है, जिसकी तुलना में मानव की विचार शक्ति और विज्ञान के संसाधन नितांत बौने हैं। वास्तव में समाधि एक आंतरिक अनूभुति है। इसके मापन का कोई यंत्र या स्केल तो है नहीं। अत: ज्ञानियों ने अपनी अपनी बुद्धि से तमाम बातें कई नाम के साथ बताई हैं। मेरे विचार से आम जगत के लिये यह कुछ ऐसे ही है जैसे बौरे गांव ऊंट आना। एक बौद्धिक प्रलाप और प्रमाद से अधिक कुछ नहीं। फिर भी चलिये कुछ बात करने का प्रयास किया जाये। 


योग शास्त्र में कुंडलनी अध्याय के अंतर्गत हम यही कह सकते हैं कि जब मूलाधार चक्र में सोई कुण्डलनी शक्ति जाग कर सहस्त्रसार में पहुंचती है तब समाधि लगती है। वास्तव में यही वास्तविक समाधि है। यहां कुण्डलनी पर मैं कोई चर्चा नही करता हूं। आप मेरे ब्लाग पर लेख पढ लें अथवा गूगल गुरू की शरण में चले जायें। 


ध्यान की सघन अवस्थाओं को अलग लोगों ने अलग अलग नाम दियें हैं। वैसे मेरे अनुभव और विचार से ध्यान की भी छह अवस्थायें या विमायें होती हैं। जिनमें आपको देहाभान रहता है। सातंवे स्तर से समाधि आरम्भ होती हैं। जहां पर देहाभान समाप्त हो जाता है। यह भी अन्य पांच विमाओं तक रहता है। यानी ध्यान और समाधि की कुल 11 विमायें। हर एक को अलग नाम भी दे सकते हैं। यहां विमायें वह हैं जहां समय की गति बदलती जाती है। मतलब आपका ध्यान अलग अलग समय की गतियों में विचरण करने लगता है। बिना गुरू की कृपा के आप अधिकतम 7 वें स्तर पर ही जा सकते हैं। हो सकता है आपके प्राण वहां फंस भी जायें। आप न मर सकें और न जी सकें।  


'समाधि' शब्द का संधि विच्छेद किया जाए, तो 'समाधि' = 'सम' + ''अधि' अर्थात् समान रूप से, पूरी निरंतरता से, परम चेतना में अधिष्ठित हो जाना- यही समाधि है। यह बात कई जगह लिखी मिल जायेगी। परंतु जो मैंनें समझा वह मैं बताना चाहूंगा। 


विज्ञान के अनुसार मेरे विचार से 'समाधि' = ' सम' + ''अधि' अर्थात् जहां समय का अधिष्ठातापन भी समाप्त हो जाये। एक उदाहरण देखें जो लोग ध्यान लगाते हैं तो बताते हैं “मुझे लगा कि मैं मुश्किल से 10 मिनट ही बैठा होऊंगा पर आंख खोली तो देखा दो घंटे हो गये थे”। चलिये आप जब सोते हैं तो आपका सपना मुश्किल से दस पंद्रह मिनट का होता है पर घडी मे चार घंटे बीत जाते हैं। क्यों?? कुछ इसी तरह समाधि को समझें। मेरे विचार से हर व्यक्ति के लिये समाधि हेतु समय की गति भिन्न ही होती है। क्यों?? 


कारण यह है जिस स्तर पर देहाभान समाप्त हो और आपके मन बुद्धि की गति, (जगत चेतना की नहीं, उस जगत के आयाम की बात है) समय की गति बराबर हो जाती है तो सापेक्षता के नियम के अनुसार स्थिर हो जाती है। वह समाधि की अवस्था होती है। समय की गति और मन बुद्धि की गति को बराबर होने हेतु घडी में नापनेवाला जो समय लगता है वह हर व्यक्ति के लिये अलग अलग होता है। अभ्यास के साथ यह समय कम होता जाता है और आप समाधि के निकट तुरन्त पहुंच सकते हैं। कुछ यूं समझे ध्यान की छह अवस्थायें आपको देहाभान रखती हैं। नये आदमी के लिये यहां तक पहुंचनें मे बहुत समय लगता है पर अभ्यास हो तो बैठते ही आप ध्यान के छठे स्तर को पार कर समाधि के पहले और कुल सांतवे स्तर पर पहुंच जाते हैं। अब इसके आगे आप किस अन्य सत्र तक पहुंचे वो बताना कठिन हो जाता है क्योकिं जब देहाभान समाप्त तो आपकी मन और बुद्धि स्थिर अर्थात इस जगत के लिये मर गई। तो उस जगत के अनुभव कैसे याद रहेंगे। उसको भी कुछ हद तक याद रखने का तरीका पातांजलि महाराज ने बताया कि धारणा के साथ ध्यान में जाओ। इस तरह से देहाभान समाप्त होने के बाद भी अपनी इस जगत की मन बुद्धि दृष्टा भाव से घटना से अलग होकर सक्रिय रहती है। सारे भ्रमण और अनुभव वो कर के मन की स्मृति में भेज कर समाप्त होकर समाधि के उस स्तर में विलीन हो जाती है। कुछ इसी विधि से मैंनें समाधि को जानना चाहा तो पाया कि आप ध्यान में बैठे तो छह स्तर यानि द्वार तक आपको देह का भान रहेगा। फिर सातवे द्वार से सुरंगो की तरह जैसे दीमक की मोटी बाम्बीनुमा सुरंगे जो क्रमश: सातवे द्वार से 11 द्वार तक जाती हैं। आपस में जुडी हैं। तो मुझे समझाया गया यह समाधि की अवस्थायें जो अलग अलग अनुभव देंगी। पर याद न रहेगा। इनमें सिर्फ गुरू शक्ति के सहारे ही जा सकते हैं या साकार देव की आराधना से। इनमें फंसने का भी डर रहता है। अत: मैं डर गया था सिर्फ सातवें द्वार से इनका द्वार देखा पर घुसने की हिम्मत न कर सका। उसके बाद यह अनुभव घटना दोबारा नहीं हुई। मतलब मैं सातवें द्वार तक ही जा पाता हूं शायद। इसके कभी गया भी होऊंगा तो याद नहीं। क्योकि बाद में धारणा के साथ ध्यान नहीं करता हूं।

अब विज्ञानी आइंसटाइन की समय की व्याख्या समझनी पडेगी। तब यह समझ में आयेगा। समय का समयकाल भी गति और गुरुत्वाकर्षण यानी बडा वाला जी और छोटावाला जी के अनुसार बदल जाता है। जैसे 24 घंटे की साधना के बराबर 1 सेकेंड की समाधि का अनुभव। इसी भांति समाधि के भी 11 द्वार यानी समय का काल और गति की विमाओं में समय की गति क्या होगी। (यह फिजिक्स वाली नही बल्कि प्याज की परतें समझो)  आप खुद गणना करे तो जो पुराणो में वर्णित है वही पायेगे। भौतिक शास्त्री इस पर कृपया गणना कर बताये।

ग्रंथों के अनुसार समाधि वह उत्कृष्‍टम या उच्चतम पड़ाव है, जहाँ चेतना स्वयं को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करती है; जहाँ व्यष्टि और समष्टि का भेद तिरोहित हो जाता है। यह विद्याओं की विद्या- 'राजविद्या' है। गोपनीय से भी गोपनीय- 'राजगुह्यं' अवस्था है।

समाधिस्थ देह की क्या स्थिति रहती है? जहाँ स्वरूप शून्यवत प्रतीत हो, उसे समाधि कहते हैं। समाधि की यह अवस्था एक मृत देह के समान ही दृष्टिगोचर होती है। ...इस स्थिति को जब वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा मापने का प्रयास किया जाता है, तो सभी परिणाम शून्य ही निकालते हैं। धमनियों की गति शून्य! श्‍वास-क्रिया शून्यवत्! हृदय-क्रिया-सीधी रेखा! मस्तिषकीय क्रियायेँ सीधी रेखा! इन समस्त परिणामों के आधार पर आधुनिक विज्ञान एक 'समाधिस्थ देह' को 'मृत' तथा 'समाधि' को मृत्यु (clinical death) करार दे देता है।

अब आप यह सोंचे ध्यान वाली अवस्था इस जगत में हो जाये तो?? मतलब जो स्थिति आपकी मन बुद्धि की आंख बंद करके होती है वो ही आंख खोल कर हो जाये तो यह हो जायेगी जाग्रत समाधि। कोई कोई भाव समाधि बोलता है। यह कुछ समय से लेकर लम्बे समय तक हो सकती है। जैसे बन्दा बैरागी महाराज का सर का ऊपरी फलक औरंगजेब ने कटवा दिया था उस वक्त वह भाव समाधि मतलब आंख खोलकर भी देहाभान में न थे। यह समाधि की उच्चतम अवस्था कही जायेगी। यही परमानेंट समाधि है। सहज समाधि है। आंख  खुली पर देहाभान नहीं। यही स्थिति स्थितिप्रज्ञ कहलाती है। और उस वक्त बुद्धि यदि आत्मभाव में स्थिर होती है तो स्थिर बुद्धि कहलाती है। यही योगी के लक्षण हैं। जो भगवान श्री कृष्ण ने बतायी। 


समाधि निष्क्लेश होनी चाहिए और वह भी फिर निरंतर, उतरे नहीं उसका नाम समाधि और उतर जाए उसका नाम उपाधि! छाया में बैठने के बाद धूप में आए तब बेचैनी होती है, जब आधि, व्याधि और उपाधि में भी समाधि रहे, तब उसका नाम सहज समाधि है। 


भगवान श्री कृष्ण ने भी भागवत गीता में समाधि के बारे में विस्तार से बताया है। योग में समाधि के दो प्रकार बताए गए हैं- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
भक्ति सागर में समाधि के 3 प्रकार बताए गए है- 1.भक्ति समाधि, 2.योग समाधि, 3.ज्ञान समाधि।
पुराणों में समाधि के 6 प्रकार बताए गए हैं जिन्हें छह मुक्ति कहा गया है- 1. साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2. सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3. सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4. सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5. साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6. लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।


देहाभिमाने गलिते विज्ञते परमात्मन । यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधय: ॥
अर्थात जब साधक को शरीर का भी भान न रहे और परमात्मा का ज्ञान हो जाये ऐसी अवस्था में मन जहाँ जहाँ भी जाएगा वहीं वहीं समाधि है । 


तवेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधि । न गंध न रसं रुपं न छ स्पर्श न नि:स्वनम ।
नात्मानं न परस्प छ योगी युक्त: समाधिना ॥
अर्थात जब साधक ध्यान करते करते ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहां उसे खुद का ध्यान ही न रहे मात्र ध्येय ही शेष रह जाये तो ऐसी स्थिति को समाधि कहते हैं । इसमे ज्ञेय, ज्ञान तथा ज्ञाता का अंतर समाप्त हो जाता है । साधक अणु परमाणुओं की संरचना के पार मुक्त साक्षी आत्मा रह जाता है । यहाँ साधक परम स्थिर तथा परम जाग्रत हो जाता है ।

 
सलिलै सैंधवं यद्धत्साम्भजति योगत: । तथात्मन परस्यं छ योगी युक्त: समाधिना ॥
अर्थात जिस प्रकार यदि कोई नमक का टुकड़ा समुद्र में फेका जाये तो वह समुद्र की गहराई तक जाते जाते समुद्र में ही घुल जाता है तथा अपना अस्तित्व खो बैठता है । इसी प्रकार साधक भी समाधि के माध्यम से परम पिता परमेश्वर में समा जाता है ।

 
भगवान शंकराचार्य जी ने कहा है :
समाहिता ये प्रविलाप्य ब्रह्मं । श्रोतादि चेत: स्वयहं चिदात्मानि ॥
त एव मुक्ता भवपाशबंधे । नित्ये तु पारोक्ष्यकथामिध्यामिन: ॥
अर्थात जो साधक अपनी इंद्रियों के वाह्य प्रवाह को रोक कर, दुनयावी वस्तुओं का मोह छोड़ कर, मन से अहंकार त्याग कर, आत्मा में लीन होकर समाधि को धारण करता है वे साधक संसार के बंधनो से मुक्त होकर, जन्म मरण से मुक्त होकर स्थायी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । किन्तु जो केवल आध्यात्मिक बाते तो करते है लेकिन जो ध्यान समाधि का अभ्यास नहीं करते वे कभी भी दुनयावी बंधनो को तोड़कर मुक्ति नही पा सकते है ।

 
समाधि की स्थित को प्राप्त करने वाला साधक रस, गंध, स्पर्श, शब्द, अंधकार, प्रकाश, जन्म, मरण, रूप आदि विषयों के परे हो जाता है । साधक गर्मी - सर्दी, भूख – प्यास, यश – अपयश, सुख – दुख आदि की अनुभूति से परे हो जाता है । ऐसा साधक जन्म मरण से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है । समाधि में ध्याता भी नहीं रहता और ध्यान भी नहीं रहता है । ध्येय और ध्याता एकरूप हो जाते हैं I मन की चेतना समाप्त हो जाती है और मन ध्यान में निहित हो जाता है I प्रभु का ध्याता साधक प्रभू रूपी समुद्र में अपने आप को विसर्जित कर मुक्त पा लेता है I समाधि में शारीरिक एवं मानसिक चेतना का अभाव रहता है I आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हो जाती है I साधक के वास्तविक स्वरूप का केवल अस्तित्व शेष रहता है I ऐसी अवस्था को तुरिया अवस्था कहते है जो परम चेतना की अवस्था है तथा अनिर्वचनीय है ।

 
कभी कभी साधक को अर्द्ध निंद्रा की स्थिति में ऐसा अनुभव भी हो सकता है जब साधक का मस्तिष्क जागृत अवस्था में हो लेकिन शरीर सोया हुआ हो । इसमे नींद के मुक़ाबले साधक को अधिक स्फूर्ति तथा आराम मिलता है । यह अवस्था लंबी साधना से ही संभव हो पाती है । कुछ लोग ऐसा मानते है कि समाधि पत्थर की तरह जड़ अवस्था है I जबकि साधक का ब्रह्मांडीय जीवन यहीं से शुरू होता है I आत्म-विकास शुरू होता है । साधक की कुंडलनी नाभि चक्र से जाग्रत होकर सुषमना के जरिये मस्तिष्क तक पहुँचती है जिससे सभी चक्र जाग्रत हो जाते हैं ।

 
आनन्दमय कोश में प्रवेश कर जाना भी समाधि की अवस्था कहलाता हैं । समाधि विभिन्न प्रकार की होती हैं। जैसे जड़- समाधि ( काष्ठ समाधि ), ध्यान समाधि, भाव समाधि, सहज समाधि, प्राण समाधि आदि । बेहोशी, नशा तथा क्लोरोफॉर्म इत्यादि सूंघने से प्राप्त समाधि को काष्ठ-समाधि कहा जाता हैं । किसी भावनावश भावनाओं में बहुत डूब जाने से शरीर चेष्टा शून्य हो जाना भाव समाधि है । किसी इष्ट देव आदि के ध्यान में इतना डूब जाए कि साधक को निराकार अद्भुद अदृश्य ताकते साक्षात दिखाई देने लगे, ऐसा प्रतीत होने लगे कि बंद आँखों से स्पष्ट प्रतिमा नज़र आ रही है इसे ध्यान समाधि कहते हैं । ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकाग्र करना प्राण-समाधि कहलाता है । साधक स्वयं को ब्रह्म में लीन होने जैसी अवस्था में बोध पाता है इसे ब्रह्म समाधि कहते हैं । सभी समाधियों में सबसे सहज, सुखकारी तथा सुलभ सहज समाधि” है 


संत कबीर जी ने कहा है –
साधो ! सहज समाधि भली। गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली ॥
आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट न धारूँ।
खुले नयन से हँस- हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ ॥
कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा ॥
जहाँ- जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और न देवा ॥
शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी ॥
कहैं ‘कबीर’ वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई ॥


असंख्य योग-साधनाओं में से सहज समाधि एक सर्वोत्त्म साधन है । इसका विशेष गुण यह है कि सांसारिक जीवन जीते हुए भी साधक का साधना अभ्यास चलता रहता है । साधक के जीवन से अहम भाव लगभग समाप्त हो जाता है । वह संसार का प्रत्येक कार्य प्रभु इच्छा मानकर करता रहता है । वह प्रभु के इस संसार को प्रभु की सुरम्य वाटिका के समान देखते हुए एक माली के समान कार्य करता है । संत कबीर जी भी उक्त पद में ऐसी ही समाधि की चर्चा कर रहे हैं और यह समाधि उन साधकों को ही प्राप्त हो सकती है जो मलिन वासनाओं को त्याग कर हर वक्त शब्द में लीन रहते हैं ।

 
समाधि घटित होने से साधक को मोक्ष मार्ग की यात्रा की और बढ़ते हुए विभिन्न सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती है लेकिन साधक को परम मोक्ष प्राप्ति के लिए इनके प्रयोग से बचना चाहिए अन्यथा यात्रा और कठिन हो जाती है ।
ये सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ इस प्रकार है। 

हनुमान चालीसा में कहा है अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता............!! हनुमान चालीसा की ये पंक्तियां यह बताती हैं कि सीता माता की कृपा से पवनपुत्र हनुमान, अपने भक्तों को अष्ट सिद्धि और नव निधि यानि रिद्धियां प्रदान करते हैं। जो भी प्राणी उनकी सच्चे मन और श्रद्धा के साथ आराधना करता है,  हनुमान उसे अलौकिक सिद्धियां प्रदान करके कृतार्थ करते हैं।

पहली सिद्धि अणिमा हैं, जिसका अर्थ! अपने देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से हैं। जिस प्रकार हम अपने नग्न आंखों एक अणु को नहीं देख सकते, उसी तरह अणिमा सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात दुसरा कोई व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करने वाले को नहीं देख सकता हैं। साधक जब चाहे एक अणु के बराबर का सूक्ष्म देह धारण करने में सक्षम होता हैं। 


अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि हैं महिमा, साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशालता करने में सक्षम होता हैं, वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता हैं। 


गरिमा सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने शरीर के भार को असीमित तरीके से बढ़ा सकता हैं। साधक का आकार तो सीमित ही रहता हैं, परन्तु उसके शरीर का भार इतना बढ़ जाता हैं कि उसे कोई शक्ति हिला नहीं सकती हैं। 


लघिमा सिद्धि में साधक का शरीर इतना हल्का हो सकता है कि वह पवन से भी तेज गति से उड़ सकता हैं। उसके शरीर का भार ना के बराबर हो जाता हैं। 


प्राप्ति सिद्धि में बिना किसी रोक-टोक के किसी भी स्थान पर, कहीं भी जा सकता हैं। अपनी इच्छानुसार अन्य मनुष्यों के सनमुख अदृश्य होकर, साधक जहाँ जाना चाहें वही जा सकता हैं तथा उसे कोई देख नहीं सकता हैं। 


पराक्रम्य सिद्धि में किसी के मन की बात को बहुत सरलता से समझ सकता हैं, फिर सामने वाला व्यक्ति अपने मन की बात की अभिव्यक्ति करें या नहीं। 


इसित्व सिद्धि में भगवान की उपाधि हैं, यह सिद्धि प्राप्त करने से पश्चात साधक स्वयं ईश्वर स्वरूप हो जाता हैं, वह दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता हैं। 


वसित्व सिद्धि में प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं। 


किसी अन्य व्यक्ति के शरीर में अपनी आत्मा का प्रवेश करवाना परकाया प्रवेश कहलाता है। आप अपनी आत्मा को किसी मृत शरीर में प्रवेश करवाकर उसे पुन: जीवित भी कर सकते हैं। 


कई प्राचीन ग्रंथों में हादी विद्या का जिक्र किया गया है। इस विद्या को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति को ना तो भूख लगती है और ना ही प्यास। वह अपनी इच्छानुसार बिना किसी परेशानी के कई दिनों तक बिना कुछ खाए-पीए रह सकता है।


हादी विद्या को प्राप्त करने के बाद जिस तरह व्यक्ति बिना कुछ खाए-पीए रह सकता है उसी प्रकार कादी विद्या की प्राप्ति के बाद व्यक्ति के शरीर और उसके मस्तिष्क पर बदलते मौसम का कोई प्रभाव नहीं होता। उसे ना तो ठंड लगती है ना गर्मी, ना बारिश का कोई असर होता है ना तूफान कुछ बिगाड़ पाता है। 


वायु गमन सिद्धि हासिल करने के बाद व्यक्ति हवा में तैर सकता है और कुछ ही पलों में किसी भी स्थान पर पहुंच सकता है। 


मदलसा सिद्धि प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अपने शरीर के आकार को अपनी इच्छानुसार कम या ज्यादा कर सकता है। लंका में प्रवेश करने के लिए पवनपुत्र हनुमान ने अपने शरीर को सूक्ष्म कर लिया था। 


कनकधर सिद्धि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति असीमित धन का स्वामी बन जाता है, उसकी धन-संपदा का कोई सानी नहीं रह जाता। 


प्रक्य साधना में सफल होने के बाद साधक अपने शिष्य को यह आज्ञा दे सकता है कि किसी विशिष्ट महिला की गर्भ से जन्म ले। या फिर इस साधना के बल पर योगी अपने शिष्य को संतानहीन महिला की गर्भ से जन्म लेने के लिए निर्देशित कर सकता है। 


सूर्य विज्ञान भारत की प्राचीन और बेहद महत्वपूर्ण विद्याओं में से एक सूर्य विज्ञान पर सिर्फ और सिर्फ भारतीय योगियों का ही आधिपत्य है। इसकी सहायता से सूर्य की किरणों की सहायता से कोई भी तत्व किसी अन्य तत्व में तब्दील किया जा सकता है।
मृत संजीवनी विद्या की रचना असुरों के गुरु शुक्राचार्य द्वारा की गई थी। इस विद्या को प्राप्त करने के बाद किसी भी मृत व्यक्ति को दोबारा जीवित किया जा सकता है। 


इन सबके अतिरिक्त सर्वकामना सादिका दुरश्रवण र्वज्ञता वाक्य सिद्धि कल्पवृक्ष संहारशक्ति सृष्टि शक्ति सर्वाग्रगण्यता अमरत्व रिद्धियों का भी उल्लेख है। 


समाधि लगने पर साधक बिना आँखों के देख सकता है, बिना कानों के सुन सकता है, बिना मन मस्तिष्क के बोध कर सकता है, जन्म मरण से मुक्त स्थूल देह से बाहर निकल कर खुद को अभिव्यक्त कर सकता है, ब्रह्मांड से भी अलग होने की ताकत प्राप्त कर लेता है । 
इसके बारे में संत कबीर जी ने कहा है –
बिना चोलनै बिना केचुकी, बिनहीं संग संग होई । दास कबीर औसर भाल देखिया जानेगा जस कोई ॥
संत नानक देव जी उक्त संबंध में फरमाते हैं कि -
अखी बाझहु वेखणा, विणु कन्ना सुनणा । पैरा बाझहु चलणा, बिणु हथा करणा ।
जीभै बाझहु बोलणा, एउ जीवट मरणा । नानक हुकमु पछाणी कै तउ खसमै मिलणा ।
दादू दयाल जी कहते है कि –
बिन श्रवणौ सब कुछ सुनै, बिन नैना सब देखै । बिन रसना मुख सब कुछ बोलै, यह दादू अचरज पेखै ॥
रामायण में संत तुलसीदास जी लिखते है कि -
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तन बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥

ध्यान” तथा समाधि” में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि साधक जब ध्यान कर रहा होता है तो उसको यह पूरा अहसास रहता है कि वह ध्याता” है तथा ध्येय” का ध्यान कर रहा है अर्थात यहाँ पर द्वैत भावना रही । लेकिन जब साधक का चित्त पूर्ण रूप से ध्येय” में परिवर्तित होने लगता है और स्वयं के अस्तित्व का अभाव हो जाता है अर्थात यहाँ केवल ध्येय” ही शेष रह जाता है, यहाँ पर अद्वैत ही शेष रह जाता है ।

योग के अनुसार समाधि के दो प्रकार बताए जाते हैं –
क) संप्रज्ञात समाधि
इस प्रकार की समाधि में साधक वैराग्य द्वारा अपने अंदर से सभी नकारात्मक विचार, दोष, लोभ, द्वेष, इच्छा आदि निकाल देता है । इस समाधि में आनंद तथा अस्मितानुगत की स्थिति हुआ करती है ।

ख) असंप्रज्ञात समाधि
इस प्रकार की समाधि में साधक को अपना भी भान नहीं रहता और वह केवल प्रभु के ध्यान में एकरत तल्लीन हो जाता है ।

संप्रज्ञात समाधि को भी चार भागों में बताया गया है :
अ)  वितर्कानुगत समाधि: विभिन्न देवी देवताओं की मूर्ति का ध्यान करते करते समाधिस्थ हो जाना।
समाधि के द्वारा जो ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है वह ब्रह्म ही बन जाता है। समाधि के आरम्भ में उस सिद्ध पुरुष का मन ब्रह्ममय हो जाता है और एक आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रहता तब उसे तदात्मा कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म का मनन करते करते जब मन ब्रह्म में विलीन हो जाता है तो ब्रह्म के विशेष स्वरुप का बुद्धि में अनुभव होता है। तब बुद्धि के द्वारा अनुभव किये हुए उस ब्रह्म के विशेष स्वरुप को लक्ष्य बनाकर जीवात्मा उस ब्रह्म का ध्यान करता है। उस समय ब्रह्म तो ध्येय होता है, ध्यान करने वाला ध्याता/साधक होता है और बुद्धि की वृत्ति ही ध्यान है। इस प्रकार ध्यान करते करते जब बुद्धि भी ब्रह्मरूप हो जाती है तब उसे तदबुद्धि कहते हैं। 

इसके बाद जब ध्याता, ध्यान और ध्येय यह त्रिपुटी न रहकर साधक की ब्रह्म के रूप में अभिन्न स्थिति हो जाती है तब उसे तन्निष्ठ कहते हैं। इसमें ब्रह्म का नाम, रूप और ज्ञान तीनों रहते हैं इसलिए यह समाधि की प्रारंभिक अवस्था सविकल्प समाधि कहलाती है। इसे ही सवितर्क समाधि भी कहते हैं।
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पै:: संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः | पतंजलि योगसूत्र १.४२
ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा कि वह समाधि जिसमें शब्द (नाम), अर्थ (रूप) और ज्ञान (बोध) तीनों विकल्प उपस्थित हों उसे सवितर्क समाधि कहते है. सामान्य भाषा में ईश्वर के सगुण स्वरुप का दर्शन सवितर्क समाधि का उदाहरण है। 

आ) विचारानुगत समाधि: स्थूल पदार्थो पर ध्यान टिका कर विचारों के साथ समाधिस्थ हो जाना ।

इ) आनंदानुगत समाधि: विचार शून्य होकर आनंदित हो कर समाधिस्थ हो जाना ।

 ई) अस्मितानुगत समाधि: इस समाधि में अहंकार, आनंद भी समाप्त हो जाता है ।

 अवस्थाओं के आधार पर समाधि को दो भागों में बांटा जा सकता है:-

 सविकल्प समाधि : 
यह समाधि की शुरुआत है । इसमे ध्येय, ध्याता एवं ध्यान तीनों ही होते हैं । यह समाधि द्वैत भाव युक्त है, इसमें साधक का अस्तित्व भी विद्यमान रहता है । इसको इस प्रकार से समझ सकते हैं जैसे लोहे का कोई बर्तन बनाया तो बर्तन में लोहे की भी अभिव्यक्ति मौजूद रहती है । समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी न किसी सहारे की आवश्यकता होती है । चित्त एकाग्र होने पर ही यह समाधि घटित होती है । ऐसी अवस्था में प्रज्ञा के संस्कार बाकी रह जाते हैं ।
निर्विकल्प समाधि : जब साधक ( ध्याता ) ध्यान करते करते ध्येय में इस प्रकार समाहित हो जाता है कि उसका अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा केवल “ध्येय” ही शेष रह जाता है अर्थात अद्वैत अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो इसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं । समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है । इस समाधि के उपरांत सभी दुखों की निवृत्ति होकर पूर्ण सुख की प्राप्ति हो जाती है ।

इसके बाद साधक की अपने-आप निर्विकल्प समाधि हो जाती है। इस समाधि में ब्रह्म का नाम, रूप व ज्ञान ये तीनों विकल्प भिन्न-भिन्न नहीं रहते बल्कि एक अर्थ रूप वस्तु - ब्रह्म ही रह जाता है। इसी को निर्वितर्क समाधि भी कहते हैं। 

स्मृति परिशुद्धौ स्वरुपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का | पतंजलि योगसूत्र १.४३
स्मृति के सब प्रकार से शुद्ध हो जाने पर जब वह स्मृति अपने मूल स्वरुप शून्य के अर्थ में परिणत हो जाती है तो उस अवस्था में नाम, रूप, ज्ञान तीनो ही नहीं रहते, इसे ही निवितर्क समाधि कहते है। इसमें साधक स्वयं ब्रह्मरूप ही बन जाता है अतः उसे तत्परायण कहते हैं। इस निर्विकल्प समाधि का फल, जो कि निर्बीज समाधि है वाही वास्तव में ब्रह्म की प्राप्ति है। इसे समापत्ति कहते हैं। इस अवस्था में पहुंचे हुए पुरुष को ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। ऐसे महात्मा के अंतःकरण में यह सारा संसार स्वप्नवत भासित होता है.
उपरोक्त दोनों अवस्थाएँ समाधि की शुरुआती तथा आखरी अवस्थाएँ हैं । समाधि को प्राप्त करने के विभिन्न साधनों के आधार पर समाधि के कई प्रकार हैं ।


 जैसे-
ध्यान योग समाधि : समाधि की यह आरंभिक स्थिति है । ध्यान पक्का होने पर ही समाधि लगती है अत: साधक “ध्येय” का ध्यान कर ध्यान की सिद्धि प्राप्त करता है । ध्यान की सिद्धि के लिए साधक का मन पवित्र तथा पाप रहित रहना चाहिए । घेरण्ड संहिता में उल्लखित है कि-
शांभावी मुद्रिकामं कृत्वा आत्मप्रत्यक्षमानयेत । बिन्दुब्रह्म सकृद्दृष्ट्वा मनस्तत्रनियोजयेत ॥
खमध्ये कुरुचात्मानं आत्ममध्ये च खं कुरु । आतमानं खमयं दृष्ट्वा न किंचदपि बाध्यते ॥
सदानंदमयों भूत्वा समाधिस्थों भवेन्नर: ।
अर्थात शांभावी मुद्रा द्वारा आत्मा को साक्षात करें और बिन्दु समान ब्रह्म का साक्षात्कार करें। उसके बाद मस्तिष्क में मौजूद ब्रह्म में आत्मा का प्रवेश कराएं। अब आत्मा को आकाश में लय कर दें। अब आत्मा को परमात्मा के मार्ग की और प्रवेश कराये इससे साधक हमेशा के आनंद तथा समाधि को प्राप्त कर लेता है।

नाद योग समाधि : साधक इस प्रकार की समाधि में अपने मन को पूर्णरुपेण अनाहत नाद में लगा देता है । इससे नि:शब्द समाधि की प्राप्ति होती है । इसमें मन नाद रूपी नि:अक्षर शक्ति में समाने लगता है । इसको महाबोध समाधि भी कहते हैं ।
मंत्र योग समाधि : इसमें साधक अपने मन को श्वास प्रश्वास की क्रिया में लय करता है। श्वास लेते तथा छोड़ते हुए उत्पन्न आवाज पर साधक ध्यान रखता है और एकाग्रचित होकर समाधिस्थ हो जाता है। अभ्यास पक्का हो जाने पर श्वास उलट जाती हैं। इसी उल्टे जाप का उच्चारण महाऋषि बाल्मीकि जी ने किया था ।

लय योग समाधि: हमारे शरीर में “कुंडलनी” सुषमना नाड़ी का रास्ता बंद कर साढ़े तीन चक्कर ( कुण्डल ) मार कर सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती है। कुंडलनी को शक्ति का द्योतक माना जाता है। ध्यान साधना द्वारा समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के लिए कुंडलनी को जाग्रत करते हुए छ चक्रों को भेदना होता है। इसमे साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसमे परमात्मा की शक्ति लय होती जा रही है। इसे “महालय समाधि” भी कहा जाता है।


भक्ति योग समाधि : जब साधक अपने मन को अपने इष्ट में इस प्रकार समा देता है कि उस अपने शरीर का भी भान नही रहता है । वह बाहरी सभी प्रकरणों से अपने आप को संज्ञाशून्य समझने लगता है । शरीर प्रसन्नता से भर जाता है आनंद में आँसू निकालने लगते है तो इसे भक्ति योग समाधि कहा जाता है । इससे मन में एकाग्रता आ जाती तथा ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है ।
राज योग समाधि : मन को बाहरी सभी प्रपंचों से हटाकर आत्मा में तथा आत्मा को परमात्मा में लगा देना ही राज योग समाधि है । इसमे साधक की प्राथमिकता यही रहती है कि मन की सभी वृत्तियों को रोककर प्रभु में लगा दिया जाये ।

समाधि के अभ्यास से ऐसा समाधिस्थ पुरुष जब समाधि में रहता है तो उसे सुषुप्ति अवस्था की भांति संसार का बिलकुल भान नहीं रहता और जब वह समाधि से उठकर कार्यरत होता है तो बिना कामना, संकल्प, कर्तापन के अभिमान के ही सारे कर्म होते रहते हैं और उसके वे सभी कर्म शास्त्रविहित होते हैं। उसकी कभी समाधि अवस्था रहती है और कभी जाग्रत अवस्था रहती है। वह बिना किसी दूसरे के प्रयत्न के स्वयं ही समाधि से जाग जाता है, लेकिन संसार के अभाव का निश्चय होने के कारण वह जगा हुआ भी समाधि में ही रहता है। इस अवस्था में उस महात्मा का शरीर व संसार से अत्यंत सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिए इसे समाधि की असंसक्ति अवस्था कहते हैं। इस समाधि के और अधिक अभ्यास से उसकी नित्य समाधि रहती है। इसके कारण उसके द्वारा कोई क्रिया नहीं होती। उसके अंतःकरण में शरीर और संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का अत्यंत अभाव सा हो जाता है। उसे संसार और शारीर के बाहर और भीतर का बिलकुल भी ज्ञान नहीं रहता, केवल श्वास आते-जाते रहते हैं, इसलिए समाधि कि इस अवस्था को "पदार्थाभावना" कहते हैं।  जैसे गहरी नींद में स्थित पुरुष को बाहर-भीतर के पदार्थों का बिलकुल भी ज्ञान नहीं रहता, वैसे ही समाधि की इस अवस्था में भी होता है। ऐसा समाधिस्थ पुरुष दूसरों के बारम्बार जगाने पर ही जागता है, अपने-आप नहीं। जागने पर वह ब्रह्म-विषयक तत्त्व-रहस्य बता सकता है इसलिए ऐसे पुरुष को "ब्रह्मविद्वरीयान" केते हैं।
इसके अभ्यास से समाधि की तुर्यगा अवस्था शीघ्र ही स्वतः सिद्ध हो जाती है। उस ब्रह्मवेत्ता के हृदय में संसार और शारीर के बाहर-भीतर के लौकिक ज्ञान का अत्यंत अभाव हो जाता है. ऐसा महात्मा पुरुष समाधि से न तो स्वयं जागता है और न दूसरों के द्वारा, बस यह शास लेता रहता है। ऐसे पुरुष का जीवन निर्वाह दूसरों के द्वारा केवल उसके प्रारब्ध संस्कारों के कारण ही होता रहता है।  वह प्रकृति और उसके कार्य सत्व, रज, तम तीनो गुणों से और जाग्रत-स्वप्न- सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे होकर ब्रह्म में विलीन रहता है, इसलिए समाधि की इस अवस्था को तुर्यगा अवस्था कहते हैं। 

इस प्रकार समाधि के साथ योग का क्रम पूर्ण होता है। 

योग साधन में समाधि की अवस्था को परमानंद-मयी माना गया है। चित्त जब जिस स्थान पर रुकने लगता है तो उस किसी भी विषय में आनंद आने लगता है। यदि चित्त वृत्तियों का निरोध होने के पश्चात वे निरुद्ध वृत्तियाँ आत्मा परमात्मा में लगती हैं तब तो और भी अधिक आनन्द का अनुभव होता है। इसे ही परमानंद कहते हैं। योग की सफलता इस समाधि रूपी परमानंद से आँकी जाती है। मोटे तौर से समझा जाता है कि बेहोश हो जाने जैसी दशा को समाधि कहते हैं। यदि ऐसा ही होता तो क्लोरोफार्म सूँघ कर या शराब आदि नशीली चीजों को पीकर आसानी से बेहोश हुआ जा सकता था और समाधि सुख भोगा जा सक
समाधि के अभ्यास से ऐसा समाधिस्थ पुरुष जब समाधि में रहता है तो उसे सुषुप्ति अवस्था की भांति संसार का बिलकुल भान नहीं रहता और जब वह समाधि से उठकर कार्यरत होता है तो बिना कामना, संकल्प, कर्तापन के अभिमान के ही सारे कर्म होते रहते हैं और उसके वे सभी कर्म शास्त्रविहित होते हैं। उसकी कभी समाधि अवस्था रहती है और कभी जाग्रत अवस्था रहती है। वह बिना किसी दूसरे के प्रयत्न के स्वयं ही समाधि से जाग जाता है, लेकिन संसार के अभाव का निश्चय होने के कारण वह जगा हुआ भी समाधि में ही रहता है। इस अवस्था में उस महात्मा का शरीर व संसार से अत्यंत सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिए इसे समाधि की असंसक्ति अवस्था कहते हैं। इस समाधि के और अधिक अभ्यास से उसकी नित्य समाधि रहती है। इसके कारण उसके द्वारा कोई क्रिया नहीं होती। उसके अंतःकरण में शरीर और संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का अत्यंत अभाव सा हो जाता है। उसे संसार और शारीर के बाहर और भीतर का बिलकुल भी ज्ञान नहीं रहता, केवल श्वास आते-जाते रहते हैं, इसलिए समाधि कि इस अवस्था को "पदार्थाभावना" कहते हैं।  जैसे गहरी नींद में स्थित पुरुष को बाहर-भीतर के पदार्थों का बिलकुल भी ज्ञान नहीं रहता, वैसे ही समाधि की इस अवस्था में भी होता है। ऐसा समाधिस्थ पुरुष दूसरों के बारम्बार जगाने पर ही जागता है, अपने-आप नहीं। जागने पर वह ब्रह्म-विषयक तत्त्व-रहस्य बता सकता है इसलिए ऐसे पुरुष को "ब्रह्मविद्वरीयान" केते हैं।
ता था। पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है। शरीर भाव का होश छोड़कर आत्म भाव में जागृत हो जाना ही समाधि है। जैसे दिन में दिन का कामकाज सत्य मालूम पड़ता है और रात को सपने सच्चे लगते हैं। दिन में सपने झूठे हैं और स्वप्न में दिन का जीवन निष्प्रयोजन है। इसी प्रकार साँसारिक आदमियों की दृष्टि में समाधि एक प्रकार की बेहोशी है। समाधि अवस्था में गया हुआ आत्मज्ञानी दुनिया वालों को मोह मदिरा पीकर उन्मत्त विचरता हुआ देखता है। यह दृष्टिकोण की विपरीतता ही ‘बेहोशी’ है। अन्यथा बेहोशी का और कोई कारण नहीं। गीता में इसी तथ्य को इस प्रकार कहा है कि ‘जो साधारण प्राणियों के लिए रात है संयमी के लिए दिन है। उसमें वह जागता है और जिसमें जीव जगा करते हैं उनमें मुनि सोया करता है।” तात्पर्य यह कि आत्मज्ञानी के लिए साधारण लोग बेहोश हैं और साधारण लोगों के लिए आत्मज्ञानी बेहोश है। ध्यान की तन्मयता के कारण शरीराभ्यास का ध्यान न रहना यह दूसरी बात है और बेहोश या मूर्च्छित हो जाना बिल्कुल पृथक बात है।

महर्षि पतंजलि ने अपने लोग दर्शन में चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहा है और बताया है कि यह निरोध बलवान होने से समाधि अवस्था प्राप्त होती है। “तस्यापि निरोधे सर्वनिधन्निर्वीज समाधिः” अर्थात् उसके (चित्त के) निरोध से निर्बीज समाधि होती है। इस चित्त निरोध के लिए प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि उपाय हैं। जिनके द्वारा चित्त को अमुक कल्पनाओं से हटाकर अमुक कल्पनाओं में लगाया जाता है। योगी लोग स्थिर होकर एकान्त में एक आसन से बैठते हैं और आंखें मूँद कर ध्यान लगाते या किन्हीं भावनाओं पर चित्त जमाते हैं। यह कल्पना योग हुआ। उस मार्ग में अनेकों प्रकार की साधनाएं होती हैं।
केवल कल्पना योग की साधनाओं द्वारा समाधि प्राप्त होती हो सो बात नहीं है। क्रिया योग में भी ऐसी साधनाएं मौजूद हैं जिन्हें करते हुए काम काजी मनुष्य भी चित्त को एकाग्र कर सकता है और समाधि का आनंद पा सकता है। योगदर्शन के साधन पाद में महर्षि पातंजलि ने तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को क्रियायोग बताया है। (तपस्स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रिया योगः) और इस क्रिया योग का फल लिखते हुए उन्होंने कहा है कि इस क्रियायोग से क्लेश तथा व्यथाएं दूर होकर समाधि प्राप्त होती है। (समाधि भावनार्थः केश तनूकरणार्थंच) इस प्रकार प्रकट है कि क्रियायोग से भी समाधि की सिद्धि हो सकती है।

 सत्कार्य के लिए कष्ट सहन करना तप कहलाता है। आत्मोन्नति के लिए लोक कल्याण के लिए, परमार्थ के लिए जो परिश्रम किया जाता है, कष्ट सहन किया जाता है वह तपश्चर्या का प्रतीक है। शुभ कर्म के मार्ग में कठिनाइयों को न गिनना तपस्या का तत्व है। यह तपश्चर्या मनुष्य को समाधि की ओर ले जाती है।

स्वाध्याय का अर्थ है- स्व+अध्याय, अध्ययन। अपने आपको पढ़ना। आत्म चिन्तन, आत्म निरीक्षण, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण यह स्वाध्याय के चार अंग है। इन चारों की पूर्ति के लिए सद्ग्रन्थों का पठन, श्रवण तथा सत्पुरुषों का सत्संग भी उपयोगी है। वैसे तो स्वाध्याय बिना पढ़े मनुष्य भी, बिलकुल अकेले रहकर भी कर सकते हैं। मेरी आत्मा वस्तुतः क्या है? इस जीवन का सच्चा प्रयोजन क्या है? मेरे विचार एवं कार्य में उचित तथा अनुचित का कितना अंश है? किन दोषों को छोड़ना और किन गुणों को बढ़ाना मेरे लिए आवश्यक है? अपनी भीतरी तथा बाहरी दुनिया को सुव्यवस्थित किन उपायों से बनाया जाय? अपने सत् निश्चयों को कार्य रूप में परिणत किस प्रकार किया जाय? इन प्रश्नों पर निष्पक्षता, गंभीरता, दृढ़ता एवं सच्चाई से विचार करना और उन विचारों को चरितार्थ करने के लिए कार्यक्रम बनाना यही स्वाध्याय है। स्वाध्यायी मनुष्य को आत्मा का दर्शन होकर रहता है और वह समाधि सुख का रसास्वादन करता है।

 
ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर परायणता को कहते हैं। विश्वात्मा, समस्त प्राणियों की सम्मिलित आत्मा, परमात्मा का आराधन ग्रह है कि अपने स्वार्थ को परमार्थ में मिला दिया जाय। जिसका स्वार्थ, परमार्थ मय है अथवा जिसे परमार्थ में ही स्वार्थ दीखता है वह सच्चा ईश्वर प्रणिधानी है। प्राणि मात्र चर अचर में प्रभु के दर्शन करना, साकार पूजा है। प्रकृति से परे, अजर, अमर, अविनाशी, निष्पाप आत्मा में स्थित होना, पाँच भूतों की संवेदना से ऊपर उठना निराकार पूजा है। चाहे जिस प्रकार भी कीजिए आत्मा को उन्नत, विकसित, महान बना देना, परम बना देना, परम आत्मा, परमात्मा की प्राप्ति है। वह प्रत्यक्ष समाधि ही तो है। इस प्रकार महर्षि पातंजलि के अनुसार हर व्यक्ति साधारण जीवन व्यतीत करते हुए भी समाधिस्थ हो सकता है।

महत्वपूर्ण नोट: समाधि में प्रवेश की विद्या का अभ्यास किसी भी साधक को किसी पूर्ण संत सद्गुरु/ समर्थ / कौल गुरू / शक्तिपात गुरू के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए क्योंकि इसमे कई प्रकार की जटिलताएँ आने की संभावना रहती है। इसमे साधक को समय समय पर सद्गुरु की मदद की आवश्यकता पड़ती है जिसमे सद्गुरु द्वारा शिष्य को दी जाने वाली आध्यात्मिक शक्ति भी शामिल है। आप माने न माने लाखों में एक को यह भी हो सक्ता है कि प्राण किसी अवस्था मे न नीचे न ऊपर। मत्लब न जीवन न मौत्। आजकल व्हाटप फेस बुक पर गुजरात के एक संत की फोटो लगाकर जय जयकार हो रही है। लेकिन कब्र का हाल मुर्दा ही जानता है। 
अत: हठ योग सम्बंधी मार्ग पर ध्यान दे। 
हा साकार मंत्र जप में कभी भी कोई कठिनाई नहीं आती है।  


Monday, September 17, 2018

नवार्ण मंत्र में समाहित हैं गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र


नवार्ण मंत्र में समाहित हैं गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
"

मित्रो कुछ सनातन के अनुभवी और प्रेमी प्राय: इस बात पर तर्क करते है कि गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है तो कोई महामृत्युंजय मंत्र तो कोई नवार्ण मंत्र। मेरे विचार से यह तीनों मंत्र अदीक्षित हेतु सर्वश्रेष्ठ हैं। यद्यपि मुझे जो कुछ भी मिला सिर्फ नवार्ण मंत्र के जप से मिला अत: मेरे लिये नवार्ण मंत्र ही सर्वश्रेष्ठ होगा। पर मुझे इन तीनों मंत्रों के जाप में आनंद आता है। मैं समझता हूं कि कौन अच्छा कौन कम अच्छा यह बात करना बेहद आरम्भिक और बचकाना है। मेरे विचार से यह तीनों तंत्र के मंत्र हैं और यह साधक पर निर्भर करता है कि उसके लिये क्या श्रेष्ठ है।

मेरा अनुभव है और मानना है कि आप कोई भी मंत्र करें। कोई भी नाम जप करें। कोई भी शब्द का जाप करें। सब श्रेष्ठ हैं। बस समय आगे पीछे हो सकता है। कारण अक्षर ही ब्रह्म है। और आपके समर्थ गुरु के मुख से आपको दिया गया मंत्र, नाम, शब्द जो भी वह आपके लिये किसी भी मंत्र से श्रेष्ठ है।

 
कारण स्पष्ट है कि लगभग सभी मंत्र, नाम या शब्द कितने सिद्धों द्वारा जपित होकर सिद्ध हो चुके हैं। अत: सब बराबर ही हैं। न कोई आगे न कोई पीछे। जैसे राम नाम को कितने लोगों को तार दिया। अब आप कहें यह बेकार। ठीक है यह मंत्र नही पर यह प्रचलित सिद्ध मंत्र है। जिसको स्वयं हनुमान जपते हैं। अत: यह कमजोर कैसे हुआ। वहीं बिठठल तो तुकाराम नामदेव गोरा कुभार, राखू बाई सहित कितनों को तारने वाला तो यह राम से छोटा क्यों। मेरा मानना है छोटी आपकी सोंच है जो संकुचित होकर सनातन की धरोहर को निम्न बनाती है।कितने नारायण बोलकर तर गये। 

परंतु कुछ गायत्री के उपासकों के पूर्वाग्रह के कारण मुझे इन मंत्रों पर ध्यान कर इनकी व्याख्या समझने को विवश होना पडा। जिसमें मुझे ज्ञात हुआ कि नवार्ण मंत्र ब्रह्मांड का सबसे शक्तिशाली मंत्र है। यह भी सत्य है कि ये उनके लिये तुलनात्मक है जो आध्यात्म के शून्य स्तर पर है मतलब जीरो स्तर पर हैं। तुलना तो तब ही हो पायेगी। सिद्ध पुरूष और समर्थ गुरूओं हेतु कोई साधारण शब्द ही शक्तिशाली है। मैं यहां पर मां गायत्री या भोलेनाथ का अपमान या छोटा दिखाने हेतु यह व्याख्या नहीं कर रहा हूं और न ही मेरे अंतस में किसी के लिये छोटे बडे का भाव है पर कुछ पूर्वाग्रहित अधूरे ज्ञानियों हेतु यह व्याख्या कर रहा हूं। जिसका विवरण स्वयं मां जगदम्बे ने ध्यान में समझाया।

नवार्ण मंत्र:

सबसे पहले हम नवार्ण मन्त्र देखते हैं। जो शक्ति मंत्र है। 
ऋग्वेद, (१०।१२५।३) में आदिशक्ति का कथन है-'मैं ही निखिल ब्रह्माण्ड की ईश्वरी हूँ, उपासकगण को धन आदि इष्टफल देती हूँ। मैं सर्वदा सबको ईक्षण (देखती) करती हूँ, उपास्य देवताओं में मैं ही प्रधान हूँ, मैं ही सर्वत्र सब जीवदेह में विराजमान हूँ, अनन्त ब्रह्माण्डवासी देवतागण जहां कहीं रहकर जो कुछ करते हैं, वे सब मेरी ही आराधना करते हैं।'

सूक्तं १२५
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥१॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥२॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥५॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥७॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥


नवार्ण/नवाक्षर मन्त्र
इसका स्वरूप है- 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।'

नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र
मां दुर्गा के तीन चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में दुर्गा का महाकाली रूप है। मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी तथा उत्तर चरित्र में वह महासरस्वती हैं। इन तीन चरित्रों से बीज वर्णों को चुनकर नवार्ण मन्त्र का निर्माण हुआ है।

नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र हैं-
'ऐं'-यह सरस्वती बीज है। '' का अर्थ सरस्वती है और 'बिन्दु' का अर्थ है दु:खनाशक। अर्थात् सरस्वती हमारे दु:ख को दूर करें।

अब यहां देखें सरस्वती ब्रह्मा के साथ सत्व गुणी होकर सृष्टि का निमार्ण करती हैं। मतलब हमारे जन्म के पहले का जीवन जो इस बीज मंत्र द्वारा रक्षित होता है।

'ह्रीं'-भुवनेश्वरी बीज है महामाया का जिसमें महालक्ष्मी का बीज मन्त्र श्रीं भी समाहित है।

अब यहां देखें आप जब इस शरीर में तब ही तक आपको लक्ष्मी की आवश्यकता है और महामाया के अज्ञान का पर्दा भी आप इस शरीर में रहकर हटा सकते हैं और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लक्ष्मी विष्णु के साथ आपके जीवन का पालन करती हैं।

'क्लीं'-यह कृष्णबीज, महाकालीबीज एवं कामबीज माना गया है। परंतु यहां यह सिर्फ महाकाली से अर्थित है।

अब यहां देखें महाकाली शिव की शक्ति श्मशान विहारिणी मतलब मृत्यु की अधिष्ढात्री। मतलब यह आपके जीवन के पश्चात आपकी रक्षित शक्ति।

चामुन्डा इन सबकी सम्मिलित शक्ति जो दुर्गा है।

मतलब इस मंत्र में आप जन्म, जीवन और मृत्यु तीनों की शक्तियों की आराधना करते हैं।
यानि आप पूर्ण रूपेण सुरक्षित होने की प्रार्थना करते हैं

वैसे नवार्ण मन्त्र का वैदिक भावार्थ
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनन्दरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'


सरल शब्दों में-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नामक तीन रूपों में सच्चिदानन्दमयी आदिशक्ति योगमाया को हम अविद्या (मन की चंचलता और विक्षेप) दूरकर प्राप्त करें।


एक बात और देखें
नवार्ण मंत्र के नौ अक्षरों में पहला अक्षर ऐं है, जो सूर्य ग्रह को नियंत्रित करता है। ऐं का संबंध दुर्गा की पहली शक्ति शैल पुत्री से है, जिसकी उपासना 'प्रथम नवरात्र' को की जाती है। 
दूसरा अक्षर ह्रीं है, जो चंद्रमा ग्रह को नियंत्रित करता है। इसका संबंध दुर्गा की दूसरी शक्ति ब्रह्मचारिणी से है, जिसकी पूजा दूसरे नवरात्रि को होती है। 

तीसरा अक्षर क्लीं है, चौथा अक्षर चा, पांचवां अक्षर मुं, छठा अक्षर डा, सातवां अक्षर यै, आठवां अक्षर वि तथा नौवा अक्षर चै है। जो क्रमशः मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों को नियंत्रित करता है। 

मतलब आप सकल विश्व की शक्तियों की आराधना इस मंत्र से करते हैं।
सवाल है अब फिर बचा क्या?? यह आप बतायें।

अब आप पूरा मंत्र छंद देखें।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
ॐ ग्लौ हू क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।'

इस पूरे मंत्र के अर्थ कहीं नहीं दिये हैं। यहां तक कुछ सिद्ध पूरुष जान गये थे पर उन्होने दुनिया को नहीं बताया क्योकि गलत लोग इसका दुरूपयोग कर सकते हैं। इसके कुछ अर्थ जो मैं समझ पाया।  

ग्लौं—– ग=गणेश ल=व्यापक औ =तेज बिंदु=दुःख हरण मतलब व्यापक रूप विध्नहर्ता अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें!

हूँ—- ह=शिव ऊ=भैरव अनुस्वार=दुःख हर्ता यह कूर्च यानी कुंजी है बीज है! इसका तात्पर्य यह है असुर-संहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें!

क्लीं — क= कृष्ण या काली ल=इंद्र ई=तुष्टिभाव अनुस्वार=सुखदाता कामदेव रूप श्रीकृष्ण / काली मुझे सुख-सौभाग्य दें!

जूं एक कुंजी है। स: श्वास प्रक्रिया है। मतलब तुम सब खुलो। कार्यशील हो।

ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल । मतलब जो बाधायें हैं और सिद्धियों के पुष्पदल हमारे चक्रों पर अनाहत है वह जले। तीव्र जलें और तीव्रतम तरीके से प्रकाशित हो।

अब दुबारा आपकी अराधना आपके जो अन्य अर्थ हों बीज मंत्र हों वह इसमें समाहित हो।
हं–आकाश बीज । मतलब आकाश तत्व। सं, स =दुर्गा यानि शक्ति, बिंदु=दुःख हर्ता । लं–पृथ्वी बीज । क्षं, क्ष= नृसिंह, बिंदु=दुःख हरण । नृसिंह मतलब जानवर जो शेर है और मानव की शक्ति। फ़ट : विस्फोटक रूप में बिखरो स्वाहा : जल कर खाक हो।  

अब आप इस भीषण शक्तिशाली मंत्र के अर्थ स्वयं लगा लें। पर चलिये कुछ यूं होगे सीधे अर्थ
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी  महालक्ष्मी, आनन्दरूपिणी महाकाली! महासरस्वती ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'  
मेरे दुखों का नाश करें जो गणेश है। असुर-संहारक शिव है। शक्तिदाताकाली, इच्छा पूर्ति कर्ता कृष्ण और कामदेव आप सब जब तक मुझमें श्वांस है सदैव क्रियाशील रहें। 

पुन: हे  महासरस्वती महालक्ष्मी महाकाली स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। और आप तीनों पृथ्वी से आकाश तक, मेरे जीवन के पहले और बाद में, मेरे मूलाधार से आकाशत्व के चक्र सिंह की भांति दहाडकर वीर भद्र की भांति शक्तियुक्त हों और बाधायें दूर हो, सिद्धियों के पुष्पदल हमारे चक्रों पर अनाहत है वह जले। तीव्र जलें और तीव्रतम तरीके से प्रकाशित हो। अनन्त शक्ति के साथ विस्फोटक रूप में बिखरे और जल कर खाक हो। (यानि मुझे सर्व सिद्धियां प्रदान करें)। 

यह अर्थ मैनें लगाये हैं। इसके अर्थ कहीं दिये नहीं हैं। आप भी अर्थ बताने का प्रयास करें।

अब आप स्वयं देखेक्या इससे शक्तिशाली कोई प्रार्थना है???  


गायत्री मंत्र:

गायत्री मंत्र व उसका अर्थ:  ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ऊँ - ईश्वर । भू: - प्राणस्वरूप । भुव: - दु:खनाशक। स्व: - सुख स्वरूप । तत् - उस । सवितु: - तेजस्वी । वरेण्यं - श्रेष्ठ । भर्ग: - पापनाशक । देवस्य – दिव्य । धीमहि - धारण करे । धियो – बुद्धि । यो - जो न: - हमारी । प्रचोदयात् - प्रेरित करे।

सभी को जोड़ने पर अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।

आप देखें यह ज्ञान और सन्मार्ग की प्रार्थना करता है। मतलब एक सीमित आराधना। जो अर्थ रूप में नवार्ण मंत्र में भी दिख जाती है।

हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'


महामृत्युंजय मंत्र ( दो तरह से दिये हैं)

प्रथम प्रकार : ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!

दिव्तीय प्रकार: ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् भूर्भुवः स्वरों जूं सः हौं ॐ !!

मुझे दूसरा वाला याद है और मैं जाप करता हूं। मुझे यही सही लगता है। आप बता सकते हैं। मुझे विवाद में न पडकर आगे बढना है।

त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम = मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली
उर्वारुकम् = ककड़ी (कर्मकारक)
इव = जैसे, इस तरह
बन्धनात् = तना (लौकी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
मृत्योः = मृत्यु से
मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा =
अमृतात् = अमरता, मोक्ष


महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ  
समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।

महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।

ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठ के अनुसार 33 कोटि यानि प्रकार के देवताओं के घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं। साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है। महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है। भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।

त्रि – ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में स्थित है।
यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम – जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य – वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, बाम हस्त के मणिबन्धा में स्थित है।
व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् – कपाली रुद्र का घोतक है। उरु मूल में स्थित है।
उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है। यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु – भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है। वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् – भगादित्यअ का बोधक है। वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है। वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु – पूषादित्यं का बोधक है। पृष्ठै भगा में स्थित है।
क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है। नाभि स्थिल में स्थित है।
य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है। गुहय भाग में स्थित है।
मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं। जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग (जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं) उनकी रक्षा होती है।


मंत्रगत पदों की शक्तियाँ
जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों) की शक्तियाँ हैं। उसी प्रकार अलग – अल पदों की भी शक्तियाँ है।

त्र्यम्‍‍बकम् – त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।
यजा- सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है।
महे- माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् – सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि – पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम – वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है।
उर्वा – ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है।
रुक – रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।
मिव रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है।
बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है।
मृत्यो: – मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय – मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है।
मा – माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है।
अमृतात – अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।

अब आप देखें यह मंत्र कया कहता है। जिसके अर्थ कितने व्यापक हैं पर जो नवार्ण मंत्र में भी दिख जाते हैं। इस मंत्र में सभी शक्तियों को अलग अलग वर्णित किया है। जबकि नवार्ण में समलित कर आराधना की है

फिलहाल मेरा मूल मंत्र तो नवार्ण है पर मैं बाकी दोनों मंत्रों का भी जाप करता हूं। इस खोजी ने जो जाना वह लिख दिया। अब क्या गलत क्या सही यह आप विद्वान जानें। मै ठहरा मूर्ख अज्ञानी। जो लिखा वह मेरा नहीं। सब मां की कृपा। 
 
 
 
 

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल। आन्नद्म। सर्व आन्नद्म।


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