क्या होता है अह्म ब्रह्मास्मि और आत्म ज्ञान तत्व
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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“bullet"
महर्षि
रमण ने (1945) में
उस अवस्था का वर्णन करते हुए एक आगंतुक से कहा था, मुझे यह
अनुभव हुआ कि ........
अहम् स्फुरणा (स्व जागरूकता) शास्वत-चैतन्य है- जिसे हमलोग शरीर,
नाम-रूप या ‘ मैं ’ कहते हैं, वह हमारा यथार्थ
मैं नहीं है। इस आत्मचेतना का कभी क्षय नहीं होता, इसमें कोई
विकार नहीं आता, यह शरीर-मन या नाम-रूप से असंबद्ध है,
आत्म-प्रदीप्त है।
अब मैं
अपने अनुभव से लिखता हूं। यह अनुभुति ईश के बंद आंख पर जब देहाभान न हो तब जैसे
साकार दर्शन के बाद ही होती है।
अहम
ब्रम्हास्मि एक अनुभूति है। जो हमें ब्रह्म होने का अनुभव कराती है। हमें हमारा
वास्तविक स्वरूप जो प्रभु ने निर्मित किया था उसका अनुभव कराती है। जब यह अनुभूति
होती है। उस समय हमारे मन बुद्धि अहंकार सहित हमारे आकाश तत्व की सभी विमायें पूरे
होशोहवास में रहती है पर सब ही तरफ यह महसूस होता है कि हम ही ब्रह्म हैं। जैसे मन
बुद्धि एक तरह से जड़ हो कर सिर्फ ब्रह्म के भाव मे आ जाती है।
मुख से
स्वतः वह शब्द जो कभी पढ़े होंगे। अहम शिव अहम दुर्गा अहम सृष्टि अहम सूर्य इत्यादि
निकलने लगते है। यदि हम शिव की अनुभूति में हो तो हाथ मे ऐसा लगेगा जैसे त्रिशूल आ
गया हो। विष्णु में जैसे ऊंगली में चक्र घूम रहा हो। उस वक्त ऐसा लगता है जैसे हम
ही सब कुछ है। यदि यह अस्त्र किसी का नाम लेकर चला दें तो जैसे उसकी मृत्यु तक हो
सकती है। बाकी सब छोटे और चीटी समान दिखने लगते हैं। यह आवेग कुछ मिनटों तक चलता
रहता है। शरीर
के अंदर ऐसा लगता है जैसे कोई घुस गया और मैं शक्तिशाली हो गया होऊँ।
पर मैं
इस अवस्था को सिर्फ एक क्रिया ही मानता हूँ। अपने मन में ब्रह्म होने का विचार बाद
में अहंकार बढ़ा देता है। फिर ईश वह जिसके अधीन माया, मानव वो जो माया के अधीन। इस अनुभूति
में और बाद में भी हम माया के अधीन ही रहते है। अतः मेरी निगाह में यह मात्र एक
सर्वोच्च क्रिया है। इसके आगे कुछ नही।
अब
क्रिया को समझने हेतु मेरे ब्लाग लेख “गुरू का महत्व और पहिचान” में देखें।
आगे
पीछे आत्मा ही परमात्मा की अनुभुति भी पूर्ण होश हवास में जैसे अंदर से कोई बाहर
निकल कर बोलता हो “तुम मुझे अपनी आत्मा में ही क्यों नहीं देखते हो। मैं तुमसे अलग नहीं”। साथ ही कोई आत्मनुभुति का
मंत्र भी बता दिया जाता है। यह मंत्र मैं नहीं लिख सकता।
मतलब
कुल तीन ज्ञान के अनुभव ज्ञान योग को परिभाषित करते हैं।
पहला आपके इष्ट और मंत्र के स्पष्ट दर्शन जो द्वैत और भक्तियोग समझायेगा।
दूसरा अहम ब्रम्हास्मि जो अद्वैत का अनुभव देगा।
तीसरा आत्मा ही परमात्मा है। यह अनुभव देगा।
श्रीमदभग्वद्गीता
श्रीभगवानुवाच - बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ
परन्तप॥४-५॥
श्री भगवान बोले - हे परंतप
अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं तुम उन सबको नहीं जानते, पर मैं जानता हूँ॥5॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि
सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥४-६॥
अजन्मा,
अविनाशी और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी मैं, अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से
प्रकट होता हूँ॥6॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और
अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने
(साकार) रूप को रचता हूँ॥7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च
दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
साधु पुरुषों का उद्धार करने के
लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए
और धर्म की यथार्थ स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति
तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥४-९॥
हे अर्जुन! जो मनुष्य मेरे जन्म और
कर्म को तत्त्व से दिव्य जान लेता है, वह
शरीर त्याग कर फिर जन्म नहीं लेता, किन्तु मुझे ही प्राप्त
होता है॥9॥
यहां सांतवा श्लोक ईश के साकर रूप
को ही समझाता है।
मेरा जो अनुभव है
और मानना है कि ईश का यहां तक अपना भी अंतिम रूप निराकार है। सिर्फ सुप्त उर्जा
जिसे निराकार कृष्ण या गाड या अल्ल्ह कहते है। जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है।
पर मानव की शक्तियां असीमित अत: ईश को मंत्रों और साधनाओं में साकार रूप में आना
ही पडता है। प्रारम्भ मंदिर और मूर्ति पूजा से होता है फिर मंत्र जप फिर परिपक्व
होने पर भक्ति उत्पन्न होती है। जिसके साथ द्वैत भावना और समर्पण फिर प्रकट होती
है परम प्रेमा भक्ति। जो आनंददायक प्रेमाश्रु देती है जिसका आनन्द असीम। जो
अनुभुति देता है प्रेम की विरह की। यहां तक उद्धव को गोपियों ने उल्टे पांव लौटा
दिया था और उद्धव अपनी ज्ञान की पोटली छोडकर उलटे पांव लौट गये थे। यहां तक कुंती
ने कृष्ण से वर मांगा कि तुम मुझे अपनी साकार भक्ति का ही आशीष दो। मुझे मोक्ष से
क्या लेना देना।
यही प्रेमा भक्ति उस शक्ति को
मजबूर करती है कि वह साकार रूप में साक्षात प्रकट हो जाती है। तब प्राप्त होता है
भक्तियोग। कभी कभी राम रस का भी स्त्राव सहस्त्रसार से होता है जो हमेशा नशा देता
रहता है।
यहां तक द्वैत भाव रहता है साकार
सगुण ही रहता है। फिर अचानक आपका ईष्ट आपको बैठे बैठे अहम ब्र्ह्मास्मि। शिवोहम्।
एकोअहम द्वितीयोनास्ति । जैसी अनुभुतियां कराता है। तब प्रकट होता है ज्ञान योग।
अद्वैत का भाव। इसके भी आगे अचानक इस अनूभूति के साथ निराकार की अनुभुति और कभी देव आह्वाहन में अंदर से आवाज अरे मैं
तेरी आत्मा में ही विराजित हूं। तू मुझसे अलग नहीं। तू आत्म भज मेरे निराकार रूप
को आत्मा में देख। तब वास्तविक अद्वैत घटित होता है। कुल मिलाकर यह तीन अनुभव
ज्ञान योग दे जाते हैं।
अत: पूर्ण वह जो साकार से निराकार.
द्वैत से अद्वैत, सगुण से निर्गुण की यात्रा करे। अनुभव
अनूभूतियां ले। पर होता क्या है। पहले ही अनुभव के साथ मानव का आत्म गुरू जागृत हो
जाता है। ज्ञान की कुछ ग्रंथियां खुल जाती है। जिससे आदमी बलबला जाता है। गुरू
बनने की तीव्र इच्छा, प्रवचन देने की प्रबल भावना, अपने को श्रेष्ठ समझना जैसी भावनायें आदमी को बहा ले जाती हैं। यह ईश की
गुरू की कृपा होती है कि कुछ लोग इसमें नहीं बहते हैं पर अधिकतर बह जाते हैं।
वास्तव में यह परीक्षा होती है पर अधिकतर अनुतीर्ण ही
होकर बिना गुरू आदेश परम्परा के गुरू बन जाते हैं। फिर शुरू होती है चेले और
अश्रमों की संख्या गिनती। जिसमें फंसकर साधक का पतन ही होता है क्योकिं खुद की
पूंजी चेलों पर लुटाई और साधना का समय नहीं। इसी के साथ मन भी जागृत होकर उल्टा
समझाने लगता है जो गलत काम भी करवा देता है। कोई भगवान या महायोगी बन जाता है और
दुकान खोल लेता है।
आदि
शंकराचार्य ने निर्वाण षट्कम में लिखा है।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि
नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न
तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
मैं न
तो मन हूं, न बुद्धि,
न अहंकार, न ही चित्त हूं। मैं न तो कान हूं,
न जीभ, न नासिका, न ही
नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं
मैं तो
शुद्ध चेतना हूं, अनादि,
अनंत शिव हूं।
न च प्राण संज्ञो
न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न
वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
मैं न
प्राण हूं, न ही
पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं,
और न
ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं
मैं तो
शुद्ध चेतना हूं, अनादि,
अनंत शिव हूं।
न मे द्वेष
रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो
न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप:
शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
न मुझे
घृणा है, न लगाव है,
न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है,
न ईर्ष्या
मैं
धर्म, धन,
काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न
पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव
भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
मैं
पुण्य, पाप,
सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न
तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ
न मैं
भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता
हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत
शिव हूं।
न मे
मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बन्धुर्न
मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
न मुझे
मृत्यु का डर है, न जाति का
भेदभाव। मेरा न कोई पिता है, न माता, न
ही मैं कभी जन्मा था। मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ
निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव
मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
मैं निर्विकल्प
हूं, निराकार
हूं। मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं,
सभी इन्द्रियों में हूं,
न मुझे
किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि,
अनंत शिव हूं।
ऋग्वेद की
मंत्र 10/10/ सूक्त 125
महऋषि अम्भृण की कन्या का नाम वाक था। उसने देवी से सायुज्य प्राप्त कर
लिया था। उसने यह उदगार प्रकट किये थे। जिन्हे देवी सूक्तम के नाम से जाना जाता
है। वास्तव में यह भाव अहम दुर्गा का अनुभव होने के बाद प्रकट होते हैं।
अहं
रुद्रेभिर्वसुभिश्र्चराम्यहमादित्यैरुत विश्र्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा॥1॥
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा॥1॥
ब्रह्मस्वरुपा
मैं रुद्र, वसु,
आदित्य और विश्र्वदेवता के रुप में विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन सभी रुपो में भासमान हो रही हूँ। मैं ही ब्रह्मरुप से मित्र
और वरुण दोनों को धारण करती हूँ। मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ। मैं ही दोनो
अश्विनी कुमारों का धारण-पोषण करती हूँ।
अहंसोममाहनसंबिभर्म्यहंत्वष्टारमुतपूषणंभगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते॥2॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते॥2॥
मैं ही
शत्रुनाशक, कामादि
दोष-निवर्तक, परमाल्हाददायी, यज्ञगत
सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का भरण
पोषण करती हूँ। मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती
हूँ। जो यजमान यज्ञ में सोमाभिषव के द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में
हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने
वाली मैं ही हूँ।
अहं
राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥
मैं ही
राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत् की ईश्र्वरी हूँ। मैं उपासकों को उनके अभीष्ट
वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ। जिज्ञासुओं के साक्षात् कर्तव्य परब्रह्म को अपनी
आत्मा के रुप में मैंने अनुभव कर लिया है। जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। सम्पूर्ण
प्रपञ्चके रुप में मैं ही अनेक-सी होकर विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर
में जीवनरुप में मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ। भिन्न-भिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है,
किया जा रहा है, वह सब मुझ में मेरे लिये ही
किया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्वके रुपमें अवस्थित होने के कारण जो कोई जो कुछ भी
करता है, वह सब मैं ही हूँ।
मया सो
अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितियईं श्रृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥
जो कोई
भोग भोगता है, वह मुझ
भोक्त्री की शक्ति से ही भोगता है। जो देखता है, जो
श्र्वासोच्छ्वास रुप व्यापार करता है और जो कही हुई सुनता है, वह भी मुझसे ही है। जो इस प्रकार अन्तर्यामिरुपसे स्थित मुझे नहीं जानते,
वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण
हो जाते हैं। मेरे प्यारे सखा! मेरी बात सुनो, मैं तुम्हारे
लिये उस ब्रह्मात्मक वस्तुका उपदेश करती हूँ, जो
श्रद्धा-साधन से उपलब्ध होती है।
अहमेव
स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
मैं स्वयं
ही ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ। देवताओं और मनुष्यों ने भी इसी का सेवन
किया है। मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ। मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूँ, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ,
मैं चाहूँ तो उसे सृष्टि कर्ता ब्रह्मा बना दूँ और उसे बृहस्पति के
समान सुमेधा बना दूँ। मैं स्वयं अपने स्वरुप ब्रह्मभिन्न आत्मा का गान कर रही हूँ।
अहं
रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥6॥
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥6॥
मैं ही
ब्रह्मज्ञानियों के द्वेषी हिंसारत त्रिपुरवासी त्रिगुणाभिमानी अहंकारी असुर का वध
करने के लिये संहारकारी रुद्र के धनुष पर प्रत्यञ्चा
चढाती हूँ। मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओं के विरोधी शत्रुओं के साथ संग्राम करके
उन्हें पराजित करती हूँ। मैं ही द्युलोक और पृथिवी में अन्तर्यामिरुप से प्रविष्ट
हूँ।
अहं
सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि॥7॥
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि॥7॥
इस विश्वके
शिरोभाग पर विराजमान द्युलोक अथवा आदित्य रुप पिता का प्रसव मैं ही करती रहती हूँ।
उस कारण में ही तन्तुओं में पटके समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दीख रहा है। दिव्य
कारण-वारिरुप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थों का उदय-विलय होता रहता है,
वह ब्रह्मचैतन्य ही मेरा निवास स्थान है। यही कारण है कि मैं
सम्पूर्ण भूतों में अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारण भूत मायात्मक स्वशरीर
से सम्पूर्ण दृश्य कार्य का स्पर्श करती हूँ ।
अहमेव
वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्र्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव॥8॥
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव॥8॥
वायु किसी
दूसरे से प्रेरित न होने पर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरे के
द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होने पर भी स्वयं ही कारण रुप से सम्पूर्ण भूत रुप
कार्यों का आरम्भ करती हूँ। मैं आकाश से भी परे हूँ और इस पृथ्वी से भी। अभिप्राय
यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारों से परे, असङ्ग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्मचैतन्य हूँ। अपनी महिमा से
सम्पूर्ण जगत् के रुप में मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ।
जनक ने एक धर्म—सभा बुलाई थी। उसमें बड़े—बड़े पंडित आए। उसमें अष्टावक्र के पिता
भी गए। अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़ा था, इसलिए तो नाम पड़ा अष्टावक्र। दोपहर
हो गई। अष्टावक्र की मां ने कहा कि तेरे पिता लौटे नहीं, भूख
लगती होगी, तू जाकर उनको बुला ला। अष्टावक्र गया। धर्म—सभा
चल रही थी, विवाद चल रहा था। अष्टावक्र अंदर गया। उसको आठ
जगह से टेढ़ा देख कर सारे पंडितजन हंसने लगे। वह तो कार्टून मालूम हो रहा था। इतनी
जगह से तिरछा आदमी देखा नहीं था। एक टांग इधर जा रही है, दूसरी
टांग उधर जा रही है, एक हाथ इधर जा रहा है, दूसरा हाथ उधर जा रहा है, एक आंख इधर देख रही है,
दूसरी आंख उधर देख रही है। उसको जिसने देखा वही हंसने लगा कि यह तो
एक चमत्कार है! सब को हंसते देख कर.. .यहां तक कि जनक को भी हंसी आ गई।
मगर एकदम से धक्का लगा, क्योंकि अष्टावक्र बीच दरबार में खड़ा
होकर इतने जोर से खिलखिलाया कि जितने लोग हंस रहे थे सब एक सकते में आ गए और चुप
हो गए। जनक ने पूछा कि मेरे भाई, और सब क्यों हंस रहे थे,
वह तो मुझे मालूम है, क्योंकि मैं खुद भी हंसा
था, मगर तुम क्यों हंसे? उसने कहा मैं
इसलिए हंसा कि ये चमार बैठ कर यहां क्या कर रहे हैं!
अष्टावक्र ने चमार की ठीक परिभाषा की, क्योंकि इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है।
मेरा शरीर आठ जगह से टेढ़ा है, इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है।
ये सब चमार इकट्ठे कर लिए हैं और इनसे धर्म—सभा हो रही है और ब्रह्मज्ञान की चर्चा
हो रही है? इनको अभी आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। है कोई यहां
जिसको मेरी आत्मा दिखाई पड़ती हो? क्योंकि आत्मा तो एक भी जगह
से टेढ़ी नहीं है।
कहते
हैं, जनक ने उठ
कर अष्टावक्र के पैर छुए। और कहा कि आप मुझे उपदेश दें। इस तरह अष्टावक्र—गीता का
जन्म हुआ।
जनक उवाच -
कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं
मुक्तिर्भविष्यति। वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो॥१-१॥
वयोवृद्ध
राजा जनक, बालक
अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे
होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे
बताएं॥१॥
अष्टावक्र
उवाच - मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्,
विषयान विषवत्त्यज। क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥१-२॥
श्री
अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों
(वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया,
संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥
न पृथ्वी न
जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्। एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि
मुक्तये॥१-३॥
आप न
पृथ्वी हैं, न जल,
न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के
लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए॥३॥
यदि देहं
पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि। अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥१-४॥
यदि आप
स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥४॥
न त्वं
विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:। असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥
आप ब्राह्मण
आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न
पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा
जान कर सुखी हो जाएँ॥५॥
धर्माधर्मौ
सुखं दुखं मानसानि न ते विभो। न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा॥१-६॥
धर्म, अधर्म, सुख,
दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप
से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा
मुक्त ही हैं॥६॥
एको
द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा। अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं
पश्यसीतरम्॥१-७॥
आप
समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल
इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं॥७॥
अहं
कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहिदंशितः। नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव॥१-८॥
अहंकार
रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं। 'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर
सुखी हो जाइये॥८॥
एको
विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना। प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव॥१-९॥
मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस
प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ॥९॥
यत्र
विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्। आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर॥१-१०॥
जहाँ
ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम
आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें ॥१०॥
मुक्ताभिमानी
मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥
स्वयं
को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि
होती है वैसी ही गति होती है॥११॥
आत्मा
साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः। असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥
आत्मा
साक्षी, सर्वव्यापी,
पूर्ण, एक, मुक्त,
चेतन, अक्रिय, असंग,
इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है॥१२॥
कूटस्थं
बोधमद्वैत- मात्मानं परिभावय। आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्॥१-१३॥
अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें
और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त
होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें॥१३॥
देहाभिमानपाशेन
चिरं बद्धोऽसि पुत्रक। बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१-१४॥
हे पुत्र!
बहुत समय से आप 'मैं शरीर
हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं
को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो
जाएँ॥१४॥
निःसंगो
निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः। अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥
आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान
तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही
बंधन है॥१५॥
त्वया
व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः। शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा गमः
क्षुद्रचित्तताम्॥१-१६॥
यह
विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और
ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो॥१६॥
निरपेक्षो
निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः। अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन:॥१-१७॥
आप
इच्छारहित, विकाररहित,
घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा
वाले हो जाइये॥१७॥
साकारमनृतं
विद्धि निराकारं तु निश्चलं। एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव:॥१-१८॥
आकार
को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः
जन्म लेना संभव नहीं है॥१८॥
यथैवादर्शमध्यस्थे
रूपेऽन्तः परितस्तु सः। तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥१-१९॥
जिस
प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर
भी निवास करता है और उसके बाहर भी॥१९॥
एकं
सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे। नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥१-२०॥
जिस
प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा
समस्त प्राणियों में विद्यमान है॥२०॥
चतुः श्लोकी भागवत (मूल संस्कृत)
श्रीभगवानुवाच:
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥१॥
श्री
भगवान कहते
हैं - सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे
परे मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलय काल में) भी मैं ही रहता
हूँ। यह सब सृष्टि रूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति
तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ॥१॥
ऋतेऽर्थं यत्
प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥२॥
जो मुझ
मूल तत्त्व के अतिरिक्त (सत्य सा) प्रतीत होता(दिखाई देता) है परन्तु आत्मा में
प्रतीत नहीं होता (दिखाई नहीं देता), उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार
की भांति मिथ्या है॥२॥
यथा महान्ति
भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु। प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥३॥
जैसे
पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों
में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही
मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक् हूँ।॥३॥
एतावदेव जिज्ञास्यं
तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥४॥
आत्म-तत्त्व
को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि)
अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा(स्थान और समय से
परे) रहता है, वही
आत्मतत्त्व है॥४॥
श्री अध्यात्म
रामायण के बाल कांड में कहा गया।
श्रीमहादेव
उवाच - ततो रामः स्वयं प्राह हनूमंतमुपस्थितम्।
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥१॥
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥१॥
श्री
महादेव कहते हैं - तब श्री राम ने अपने पास खड़े हुए श्री हनुमान से स्वयं कहा, मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और परमात्मा का तत्त्व बताता हूँ, तुम ध्यान से सुनो॥१॥
आकाशस्य
यथा भेद- स्त्रिविधो दृश्यते महान्। जलाशये महाकाशस्- तदवच्छिन्न एव हि॥२॥
विस्तृत
आकाश के तीन भेद दिखाई
देते हैं - एक महाकाश, दूसरा जलाशय
में जलावच्छिन्न(जल से घिरा हुआ सा) आकाश॥२॥
प्रतिबिंबाख्यमपरं
दृश्यते त्रिविधं नभः। बुद्ध्यवचिन्न चैतन्यमे- कं पूर्णमथापरम्॥३॥
और
तीसरा (महाकाश का जल में) प्रतिबिम्बाकाश। उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का होता
है - एक बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन(बुद्धि से परिमित हुआ सा), दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है॥३॥
आभासस्त्वपरं
बिंबभूत- मेवं त्रिधा चितिः। साभासबुद्धेः कर्तृत्वम- विच्छिन्नेविकारिणि॥४॥
और
तीसरा आभास चेतन जो
बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है। कर्तृत्व आभास चेतन के सहित बुद्धि में होता है
अर्थात् आभास चेतन की प्रेरणा से ही बुद्धि सब कार्य करती है॥४॥
साक्षिण्यारोप्यते
भ्रांत्या जीवत्वं च तथाऽबुधैः। आभासस्तु मृषाबुद्धिः अविद्याकार्यमुच्यते॥५॥
किन्तु
भ्रान्ति के कारण अज्ञानी लोग साक्षी आत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते
हैं अर्थात् उसे ही कर्ता और भोक्ता मान लेते हैं। आभास तो मिथ्या है और बुद्धि
अविद्या का कार्य है॥५॥
अविच्छिन्नं
तु तद् ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पितः। विच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं
प्रतिपाद्यते॥६॥
वह
ब्रह्म विच्छेद रहित है और विकल्प(भ्रम) से ही उसके विभाजन(विच्छेद) माने जाते
हैं। इस प्रकार विच्छिन्न(आत्मा) और पूर्ण चेतन(परमात्मा) के एकत्व का
प्रतिपादन किया गया॥६॥
तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्च
साभासस्याहमस्तथा। ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः॥७॥
तत्त्वमसि
(तुम वह आत्मा हो) आदि
वाक्यों द्वारा अहम् रूपी आभास चेतन की
आत्मा(बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन) के साथ एकता बताई जाती है। जब महावाक्य द्वारा एकत्व
का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है॥७॥
तदाऽविद्या
स्वकार्येश्च नश्यत्येव न संशयः। एतद्विज्ञाय मद्भावा- योपपद्यते॥८॥
तो अविद्या
अपने कार्यों सहित नष्ट हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। इसको जान कर मेरा भक्त, मेरे
भाव(स्वरुप)
को प्राप्त हो जाता है॥८॥
मद्भक्तिविमुखानां
हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्। न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥९॥
मेरी
भक्ति से विमुख जो लोग शास्त्र रूपी गड्ढे में मोहित हुए पड़े रहते हैं, उन्हें सौ जन्मों में भी न ज्ञान
प्राप्त होता है और न मुक्ति ही॥९॥
इदं रहस्यं
ह्रदयं ममात्मनो मयैव साक्षात्- कथितं तवानघ। मद्भक्तिहीनाय शठाय च त्वया दातव्यमैन्द्रादपि
राज्यतोऽधिकम्॥१०॥
हे
निष्पाप हनुमान! यह रहस्य मेरी आत्मा का भी हृदय है और यह साक्षात् मेरे द्वारा ही
तुम्हें सुनाया गया है।
यदि तुम्हें इंद्र के राज्य से भी अधिक संपत्ति मिले तो भी मेरी भक्ति से रहित
किसी दुष्ट को इसे मत सुनाना॥१०॥
इन सभी
ज्ञानियों की वाणी एक है सार एक है। बस हम मूर्ख साकार निराकार सगुण निर्गुण द्वैत
अद्वैत का नकली और उथला ज्ञान लेकर अपनी दुकान चला रहे हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि
निराकार उपासक प्राय: अनीश्वरवादी हो जाते हैं वही साकार आराधक साकार और निराकार दोनों
की अनुभुति कर वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते हैं।
मेरे अनुसार कृष्ण पूर्ण योगी क्योकि उन्होने कहा
सभी मार्ग ईश तक जाते हैं।
बुद्ध सिर्फ निराकार
और अनीश्वरवाद। हलांकि इनके पहले गुरू आलारकलाम और दूसरे शिवरामदत्त्पुत्त सनातनी
ही थे।
महावीर गुरू शिष्य परम्परा के सनातन वाहक पर देव
पूजा की जगह 24 तीर्थयंकर की पूजा।
शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, कबीर, तुलसी, गुरू नानक देव, श्री राम शर्मा आचार्य इत्यादि पूर्ण ज्ञानी। साकार
से निराकार।
जीसस मुझे ही मान।
मोहम्मद मुझे न माने उसे
सजा दो यहां तक मार दो। सिर्फ निराकार
ओशो अपूर्ण अज्ञानी और पापी ज्ञानी सिर्फ निराकार अनीश्वरवाद व क्रिया की आड़ में रजोगुण कार्य की छूट
जीसस और मोहम्मद की सीमा सिर्फ स्वर्ग नरक तक की ही
बात। जो बेहद सीमित ग्यान की बात है।
श्रीमदभग्वद्गीता के अध्याय 2 के अनुसार:
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः
पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥४२॥
हे अर्जुन! जो (अयथार्थ वेद के कहने वाले) अविवेकीजन इस प्रकार की (बनावटी) शोभायुक्त वाणी कहा करते हैं कि स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं
है,॥42॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविश्लेषबहुलां
भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥४३॥
जिनके लिए स्वर्ग ही परम प्राप्य है, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए
नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं में रूचि रखने वाले हैं,॥43॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका
बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥४४॥
जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, और जिनका चित्त उस वाणी द्वारा हर लिया गया है,
उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥44॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो
नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥४५॥
हे अर्जुन! वेद तीनों गुणों (सत्त्व, रज और तम) के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों
का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तुम उन भोगों एवं उनके साधनों
में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाले और आत्म-परायण बनो॥45॥
जय हो महाकाली गुरूदेव्। जय महाकाल
जय हो महाकाली गुरूदेव्। जय महाकाल