साधना का अर्थ
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
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जहां तक मैंनें समझा है कि साधना
का शाब्दिक अर्थ है, 'किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया
जाने वाला गहन, गम्भीर, सतत कार्य जिसमें
मन की एकाग्रता हो, हमें लक्ष्य के अतिरिक्त और किसी का भान न
हो चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक उसे साधना कहते हैं”।
अगर आपको किसी भी
क्षेत्र में सफल होना है, तो सबसे पहले एक
लक्ष्य बनाना जरूरी होता है, क्योंकि लक्ष्य निर्धारण के साथ
ही रास्ता मिलना शुरू हो जाता है। लक्ष्य अगर स्पष्ट है, तो
सफलता के करीब पहुंचने का मार्ग थोड़ा आसान हो जाता है और भटकाव की गुंजाइश कम
होती है, लेकिन अगर लक्ष्य में सटीकता न हो तो फिर मुश्किल
का सामना करना पड़ता है। लक्ष्य की सटीकता और उससे मिलने वाली सफलता का एक सटीक
उदाहरण महाभारत में दिखाई पड़ता है। महाभारत की कथा के अनुसार जब द्रोणाचार्य से
उनके बेटे अश्वत्थामा धनुर्धर के तौर पर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ माने जाने को लेकर
जब अपने पिता से सवाल करना शुरू कर दिया, तो गुरु द्रोण ने
अपनी बात को साबित करने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया।
उन्होंने पेड़ के ऊपर एक लक्ष्य (चिडिय़ा ) टांग दिया और
उसके आंख को भेदने का लक्ष्य निर्धारित करके अपने सभी शिष्यों को बुलाया। उन्होंने
एक-एक करके सभी शिष्यों को लक्ष्य भेदने के लिए तैयार होने को कहा। सभी से उन्होंने
एक ही सवाल पूछा कि निशाना साधने के वक्त तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। सभी
शिष्यों ने अलग-अलग उत्तर दिया। किसी ने कहा कि आकाश,
पेड़, चिडिय़ा और गुरु के चरण दिखाई दे रहे
हैं।
किसी ने पेड़ और चिडिय़ा
दिखाई देने की बात कही, तो किसी ने अपने
चारो तरफ की वस्तुओं के दिखाई देने की बात कही। इसके बाद गुरु द्रोण ने अर्जुन को
बुलाया। उन्होंने लक्ष्य भेदन के लिए तैयार होने के बाद अर्जुन से सवाल किया कि
तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। तब अर्जुन ने कहा कि उन्हें तो केवल चिडिय़ा की आंख
दिखाई दे रही है। इसके बाद गुरु द्रोण ने अपने पुत्र को बताया कि लक्ष्य की सटीकता
हीं किसी को सर्वश्रेष्ठ बनाता है। मतलब अर्जुन ने लक्ष्य भेदन की साधना की।
सटीक लक्ष्य निर्धारण और उसके प्रति
समर्पण की भावना ही धैर्य पैदा करता है और धैर्य से मंजिल तक पहुंचने का रास्ता
निकलता है। अगर आपके अंदर धैर्य नहीं है, तो आपके प्रयास निष्फल
होते जाएंगे और फिर आप कभी भी मंजिल तक नहीं पहुंच पाएंगे। इसे समझने के लिए एक
पौराणिक प्रसंग को समझने की जरूरत है। इस प्रसंग में निष्फल प्रयासों की बात की गई
है। एक ऋषि अपने शिष्यों के साथ एक स्थान से गुजर रहे थे, जहां
पानी का अभाव था। जब वे वहां से गुजरते हुए आगे बढ़ रहे तो उन्होंने रास्ते में कई
गड्ढे खुदे हुए देखे।
उनके शिष्यों ने उनसे पूछा कि गुरुदेव
इस क्षेत्र में जल का इतना अभाव क्यों है। क्या यहां की भूमि के अंदर जल नहीं है।
ऋषि ने अपने शिष्यों को वहां के गड्ढों को दिखाते हुए कहा कि इन्हें देखकर तो ऐसा
लगता है कि यहां के लोगों के अंदर धैर्य का नितांत अभाव है, जिसके कारण यहां के लोगों को पानी के अभाव का सामना करना पड़ रहा है।
उन्होंने कहा कि यहां के लोगों का लक्ष्य तो स्पष्ट है कि इन्हें कुआं खोदना है
लेकिन इनके पास धैर्य नहीं है।
ये लोग थोड़ा गड्ढा खोदते हैं और पानी नहीं मिलने के बाद वहां से हट जाते
हैं तथा दूसरी जगह गड्ढा खोदने लगते हैं। अगर इन लोगों ने एक हीं जगह धैर्य के साथ
गड्ढा खोदा होता तो इन्हें इनकी मंजिल (पानी) मिल जाती। इस तरह देखा जाए तो लक्ष्य
निर्धारित होने के बावजूद अगर उसके प्रति समर्पण नहीं है और धैर्य का अभाव है, तो मंजिल प्राप्त करना
लगभग असंभव हो जाता है।
बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छोटे-छोटे
लक्ष्य की आवश्यकता होती है। उदाहरण के तौर पर अगर आपको इंजीनियर बनना है, तो इसके लिए पहले बारहवीं तक की पढ़ाई करनी पड़ेगी और उसमें भी आपको
इंजीनियर बनने के लिए आवश्यक योग्यता वाले विषयों भौतिकी, रसायन
एवं गणित को चुनना पड़ेगा। जब चयन के आपके लक्ष्य निर्धारित हो गए, तो उन विषयों में अपने आपको मजबूत करने के लिए एक अगल लक्ष्य निर्धारित
करना होगा और धीरे-धीरे मंजिल की तरफ बढऩा होता है। मतलब अध्ययन की साधना करनी होती
है।
लेकिन अगर पहले से लक्ष्य निर्धारित
नहीं हो और केवल पढ़ाई करते रहें, तो एक सटीक लक्ष्य के
अभाव में भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आप यही सोचते रहते हैं कि चलो पहले
दसवीं पास कर लें, उसके बाद सोचेंगे कि क्या करना है। दसवीं
हो जाने के बाद बारहवीं की बात और फिर उसके आगे की पढ़ाई जारी रखते की सोच तो होती
ही है लेकिन जब भी करियर के चयन की बात आती है तो शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो
जाती है और विभिन्न विकल्पों में से किसी एक का चयन मुश्किल हो जाता है। इसलिए
लक्ष्य का निर्धारण सफलता के लिए आवश्यक माना जाता है और उसी लक्ष्य की प्राप्ति में
जुट जाना ही साधना है।
किन्तु वस्तुतः यह एक आध्यात्मिक क्रिया से ही जोड कर
देखा जाता है। धार्मिक और आध्यात्मिक अनुशासन जैसे कि पूजा , योग , ध्यान ,
जप , उपवास और तपस्या के करने को साधना कहते
हैं। अनुरुद्ध प्रगति के लिए साधना को प्रतिदिन करना चाहिए। सनातन धर्म, बौद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों
में लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भिन्न प्रकार की साधनाएँ की जाती हैं।
मानव शारीर एक मिटटी के घड़े की तरह होता है और मानव शरीर नश्वर है और अपवित्र भी
है। इसलियें किसी मिटटी के घड़े में हम यदी गंदगी भरकर उसे गंगा जल से धोयेंगे या फिर उसे गंगाजी में साल भर डुबाकर रखेंगे पर जब हम सालो बाद उसे
निकालेंगे और खोलेंगे तो घड़े में गन्दगी ही पाएंगे। इसीलियें हम लाखो तीर्थयात्रा
करें, पर हमारा शरीर तो शुद्ध नहीं
होगा। परन्तु हमारा शरीर सजीव है। हमारे शरीर में आत्मा का वास है, इसीलियें ज्ञान से ही ये शरीर निर्मल होताहै।
साधना
का साधारण भाषा में सही अर्थ है साध्य होना, पा लेना,
कुछ है जो आपने साध लिया। मान लीजिये आप एक चित्रकार हो और आप दिन
रात चित्रों के बारे में सोचते हो और चित्रकारी करते हो तब यहीं सालो तक करने के
बाद आपको अपनी चित्रकारी में महारत हासिल हो जाएगी। इसका मतलब आपने अपनी कला को
साध लिया। यानी आपने इतनी सालो मे जो मेहनत की वो आपकी साधना थी और जो उस में
प्रवीणता हासिल की वो आपकी सिद्धि थी !
इसका मतलब हम जो भगवान की कृपा पाने को करते है, वही हमारी साधना है। और जो हम भगवान से प्राप्त करते है, वो हमारी सिद्धि कहलाती ही। इस साधना को करने के लियें हमें अपनी आत्मा की पवित्रता की जरुरत होती है। क्योंकि हमारा शरीर ही हमारा माध्यम है, जो हमें हमें इश्वर प्राप्ति में मदत करता है। शरीर आत्मा से ही सजीव कहलाता है। हमारी आत्मा का मंदिर ही हमारा शरीर होता है। बस हमें जरुरत है उस आत्मा को और उसके ज्ञान को पाने की अनुभव करने की उस आत्मज्ञान को।
योग
की भाषा में इंद्रियों को अपने अधीन करने का नाम साधना है। इसे हम स्वयं पर
नियंत्रण करके अपने मन मुताबिक फल हासिल करने का तरीका भी कह सकते हैं। जो मनुष्य
इस तरीके को सम्यक रूप से जानता है, वह
अच्छा साधक बन जाता है और जो नहीं जानता वह अच्छा साधक नहीं बन पाता। योग-दर्शन
में चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करने को ही योग साधना माना गया है। योग को साधने
वाला योग साधक कहा जाता है और अन्य क्षेत्रों में जो साधना करता है, वह उस क्षेत्र विशेष का साधक माना जाता है। बहरहाल, कई
वर्षो से साधना का मतलब आमतौर पर योग साधना से लगाया जाने लगा है। इसलिए जैसे ही
हम साधना की बात करते हैं, तो तुरंत ही लोग उसका अर्थ योग
साधना से लगा लेते हैं। वस्तुत: साधना एक व्यापक शब्द है। साधना का मतलब तपस्या,
ध्यान, कठोर श्रम और किसी क्षेत्र में प्रयत्न
करना भी होता है। इन सभी क्रियाओं में ऊर्जा जहां व्यय होती है, वही संचित भी होती है।
हम
साधना के पथ पर निरंतर जितना आगे बढ़ते जाएंगे,
उतने ही हम बाहर और अंदर से मजबूत भी होते जाते हैं। साधना यदि सही
यानी मानवता के सम्यक पथ पर है तो उससे अपना और मानवता का कल्याण होता है और यदि
गलत दिशा में है तो अपना और मानवता दोनों का नुकसान होता है। गीता में और चारों
वेदों में मनुष्य को श्रेष्ठ साधक बनने की प्रेरणा दी गई है। संसार में जितने भी महापुरुष
या ईश्वरीय गुणों से भरपूर तपस्वी जन रहे हैं वे एक श्रेष्ठ साधक भी रहे हैं।
साधना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का
आधार है। परमात्मा से साक्षात्कार हो, समाज सुधार हो,
साहित्य सृजन हो या फिर समाज को बेहतर रास्ते पर ले चलने का संकल्प
हो, ये सभी कार्य साधना से ही पूरे होते हैं। जब साधना के
बारे में लोगों को सम्यक तरीके से मालूम हो जाएगा तब जीवन का मूल उद्देश्य भी
मालूम हो जाएगा। जरूरत इस बात की है कि हम सम्यक साधना के बारे में जानने की अपने
स्तर से ईमानदार कोशिश करें।
योग, साधना में चौदह प्रकार के विघ्न महऋषि पतंजलि जी ने अपने योगसूत्र में
बताये हैं और साथ ही इनसे छूटने का उपाय भी बताया है. भगवन श्री रामचंद्रजी के १४
वर्ष का वनवास इन्हीं १४ विघ्नों व इनको दूर करने का सूचक है. वे १४ विघ्न इस
प्रकार हैं:
व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-अविरति-भ्रान्तिदर्शन-अलब्धभूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि
चित्त विक्षेपस्ते अंतराया: प. योगसूत्र,
समाधि पाद, सूत्र ३०
१.
व्याधि: शरीर एवं इन्द्रियों में किसी प्रकार का रोग उत्मन्न हो
जाना।
२.
स्त्यान: सत्कर्म/साधना के प्रति होने वाली ढिलाई,
अप्रीति, जी चुराना।
३.
संशय: अपनी शक्ति या योग प्राप्ति में संदेह उत्पन्न होना।
४.
प्रमाद: योग साधना में लापरवाही बरतना (यम-नियम आदि का ठीक से
पालन नहीं करना या भूल जाना)।
५.
आलस्य: शरीर व मन में एक प्रकार का भारीपन आ जाने से योग साधना
नहीं कर पाना।
६.
अविरति: वैराग्य की भावना को छोड़कर सांसारिक विषयों की और पुनः
भागना।
७.
भ्रान्ति दर्शन: योग साधना को ठीक से नहीं समझना,
विपरीत अर्थ समझना.
सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझ लेना।
८.
अलब्धभूमिकत्व: योग के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं
होना. योगाभ्यास के बावजूद भी साधना में विकास नहीं दिखता है । इससे उत्साह कम हो
जाता है।
९.
अनवस्थितत्व: चित्त की विशेष स्थिति बन जाने पर
भी उसमें स्थिर नहीं होना।
दु:ख-दौर्मनस्य-अङ्गमेजयत्व-श्वास-प्रश्वासा
विक्षेप सह्भुवः।
प.
योगसूत्र, समाधि पाद, सूत्र
३१
१०.
दु:ख: तीन प्रकार के दु:ख आध्यात्मिक,आधिभौतिक और आधिदैविक।
११.
दौर्मनस्य: इच्छा पूरी नहीं होने पर मन का
उदास हो जाना या मन में क्षोभ उत्पन्न होना.
१२.
अङ्गमेजयत्व: शरीर के अंगों का कांपना।
१३.
श्वास: श्वास लेने में कठिनाई या तीव्रता होना।
१४.
प्रश्वास: श्वास छोड़ने में कठिनाई या तीव्रता होना.
इस प्रकार ये चौदह विघ्न होते हैं जिसके लिए पतंजलि
जी ने समाधि पाद सूत्र ३२ से ३९ तक ८ प्रकार के उपाय बताये हैं जो की इस प्रकार हैं
:
साधना के विघ्नों को दूर करने के उपाय:
१. तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाSभ्यासः ||32|| योग के उपरोक्त विघ्नों के नाश
के लिए एक तत्त्व ईश्वर का ही अभ्यास करना चाहिए. ॐ का जप करने से ये विघ्न शीघ्र
ही नष्ट हो जाते हैं.
पर याद रखें ॐ का जाप करने से तीव्र वैराग्य उतपन्न होता है जो गृहस्थ्य जीवन में बाधक हो सकता है??? अत:अति न करे।
पर याद रखें ॐ का जाप करने से तीव्र वैराग्य उतपन्न होता है जो गृहस्थ्य जीवन में बाधक हो सकता है??? अत:अति न करे।
२. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां
सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ||33||
सुखी जनों से मित्रता, दु:खी लोगों पर दया, पुण्यात्माओं में हर्ष और पापियों की उपेक्षा की भावना से चित्त स्वच्छ हो
जाता है और विघ्न शांत होते हैं.
३. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ||34||
श्वास को बार-बार बाहर निकालकर रोकने से उपरोक्त
विघ्न शांत होते हैं. इसी प्रकार श्वास भीतर रोकने से भी विघ्न शांत होते हैं. मतलब प्राणायाम करें।
४. विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः
स्थितिनिबन्धिनी ||35||
दिव्य विषयों के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न नष्ट होते हैं.
५. विशोका वा ज्योतिष्मती ||36||
हृदय कमल में ध्यान करने से या आत्मा के प्रकाश का
ध्यान करने से भी उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं.
६. वीतरागविषयं वा चित्तम् ||37||
रागद्वेष रहित संतों, योगियों, महात्माओं
के शुभ चरित्र का ध्यान करने से भी मन शांत होता है और विघ्न नष्ट होते हैं. मतलब खाली समय में मोबाइल पर बकवास छोडकर धार्मिक फिल्म ही देखें।
७. स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ||38||
स्वप्न और निद्रा के ज्ञान का अवलंबन करने से, अर्थात योगनिद्रा के अभ्यास से
उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं.
८.यथाभिमतध्यानाद्वा ||39||
उपरोक्त में से किसी भी एक साधन का या शास्त्र सम्मत
अपनी पसंद के विषयों (जैसे मंत्र, श्लोक, भगवन के
सगुन रूप आदि) में ध्यान करने से भी विघ्न नष्ट होते हैं.
अब यहां पर भी सग़ुण की महत्ता भी देख सकते हैं।
(तथ्य,
कथन गूगल से साभार)
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास
विपुल खोजी