क्या होता है वाम मार्ग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
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युगों युगों से
अध्यात्म के महान संसार में स्वयं को जानने और परम तत्व को प्राप्त की इच्छा के
चलते मानव अपने लक्ष्य को निर्धारित कर स्वयं को अनुशासन में बद्ध करके अध्यात्म
के विभिन्न मार्गों के माध्यम से उस परम तत्व की खोज करता है। जिन्हें अनेक नामों
से जाना जाता है। जैसे वाम मार्ग, दक्षिण
मार्ग, ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग,
योग मार्ग, आनन्द मार्ग, पिशाच मार्ग आदि।
वाममार्ग शाक्तवाद का ही एक रूप माना जाता है। किसी काल
में लघु एशिया से लेकर चीन तक, मध्य एशिया और भारत आदि दक्षिणी एशिया में शाक्तमत का एक
न एक रूप में प्रचार रहा। कनिष्क के समय में महायान और वज्रयान मत का विकास हुआ था और बौद्ध शाक्तों के द्वारा पंचमकार की उपासना इनकी विशेषता थी। वामाचार
अथवा वाममार्ग का प्रचार बंगाल में अधिक व्यापक रहा। दक्षिणामार्गी
शाक्त वाममार्ग को हेय मानते हैं। उनके तंत्रों में वामाचार की निन्दा हुई है।
चलिये इस पर कुछ चर्चा हो। सोंचने का प्रश्न
है कि ईश प्राप्ति का कोई भी मार्ग गलत नहीं हो सकता है। एक ओर तो तथा कथित
मनोचिकित्सक हमारे देश के युवावर्ग को गुमराह कर उसे संयम सदाचार और ब्रह्मचर्य से
भ्रष्ट करके असाध्य विकारों के शिकार बना रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ तथा कथित
विद्वान वाममार्ग का सही अर्थ न समझ सकने के कारण स्वयं तो दिग्भ्रमित हैं ही, साथ ही उसके आधार पर 'संभोग से समाधि' की ओर ले जाने के नाम पर युवानों को पागलपन और महाविनाश की ओर ले जा रहे
हैं। इन सबसे समाज व राष्ट्र को भारी नुकसान पहुँच रहा है। कोई भी दिग्भ्रमित
व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकता,
उसका पतन निश्चित है। अतः समाज को सही मार्गदर्शन की नितांत
आवश्यकता है।
आजकल तंत्रतत्त्व से अनभिज्ञ जनता में
वाममार्ग को लेकर एक भ्रम उत्पन्न हो गया है। वास्तव में प्रज्ञावान प्रशंसनीय
योगी का नाम 'वाम' है और उस
योगी के मार्ग का नाम ही 'वाममार्ग' है।
अतः वाममार्ग अत्यंत कठिन है और योगियों के लिए भी अगम्य है तो फिर इन्द्रियलोलुप
व्यक्तियों के लिए यह कैसे गम्य हो सकता है? वाममार्ग
जितेन्द्रिय के लिए है और जितेन्द्रिय योगी ही होते हैं।
अखंड ज्योति के अनुसार सृष्टि के आदि में
ब्रह्म ने इच्छा की कि ‘एकोऽहं बहुस्याँम’
मैं एक से बहुत हो जाऊँ। यह इच्छा की शक्ति के रूप में परिणत हो गई। ब्रह्म और
माया दो हो गये। यह माया या शक्ति दो विभागों में बंटी। एक संकल्पमयी गायत्री,
दूसरी परमाणुमयी सावित्री। संकल्पमयी गायत्री का उपयोग आत्मिक
शक्तियों को बढ़ाने एवं दैवी सान्निध्य प्राप्ति करने में होता है। आत्मिक गुणों
और विशेषताओं के बढ़ने के कारण साधन को साँसारिक कठिनाइयाँ पार करना, स्वल्प साधन में भी सुखी रहना एवं सुखकर स्थिति को उपलब्ध करना सहज होता
है। यह
योग-विज्ञान है, इसे दक्षिण मार्ग भी कहते हैं। यह सत्
प्रधान होने से हानिरहित एवं व्यक्ति तथा समाज के लिए सब प्रकार हितकर है।
शक्ति
की दूसरी श्रेणी, परमाणुमयी सावित्री है। इसे स्थूल प्रकृति,
पंचभूत, भौतिक सृष्टि आदि नामों से भी पुकारते
हैं। इस प्रकृति के परमाणुओं के आकर्षण, विकर्षण से संसार
में नाना प्रकार के पदार्थों की उत्पत्ति, वृद्धि और समाप्ति
होती रहती है। इन परमाणुओं की स्वाभाविक साधारण क्रिया में हेर-फेर करके अपने लिए
अधिक उपयोगी बना लेने की क्रिया का नाम विज्ञान है। यह विज्ञान दो भागों में
विभक्त है। एक वह जो यंत्रों द्वारा प्रकृति के परमाणुओं को अपने लिए उपयोगी बनाता
है। रेल, तार, टेलीफोन, रेडियो, हवाई जहाज, टेलीविजन,
विद्युत शक्ति आदि अनेकों वैज्ञानिक यंत्र आविष्कृत हुए हैं और होने
वाले हैं। यह सब विज्ञान है। दूसरा है - तंत्र विज्ञान। जिसमें यंत्रों के स्थान
पर मानव अन्तराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता सम्पन्न बनाया
जाता है। जिससे प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणत हो जाते हैं
जिसमें कि मनुष्य चाहता है। पदार्थों की रचना परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना
किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र विद्या द्वारा हो सकता है। विज्ञान के इस
तन्त्र माँग को सावित्री विद्या, तन्त्र साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं।
वाममार्ग में मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, व्यभिचार आदि निषिद्ध बातों का विधान रहता है। तांत्रिक मत की दक्षिण
मार्ग शाखा भी है, जिसमें दक्षिणकाली, शिव, विष्णु आदि की उपासना का विशिष्ट विधान है। 'वाम' का अर्थ है कि सुन्दर, सरस
और रोचक उपासनामार्ग। शाक्तों के दो मार्ग हैं- दक्षिण (सरल) और वाम (मधुर)। पहला
वैदिक तांत्रिक तथा दूसरा अवैदिक तांत्रिक सम्प्रदाय है। भारत ने जैसे अपना वैदिक शाक्तमत औरों को
दिया, वैसे ही जान पड़ता है कि उसने वामाचार औरों से ग्रहण
भी किया। आगमों में वामाचार और शक्ति की उपासना की अद्भुत विधियों का विस्तार से
वर्णन हुआ है।
'चीनाचार' आदि तंत्रों में लिखा है कि वसिष्ठ देव ने चीन में जाकर बुद्ध के उपदेश से तारा का दर्शन किया था।
इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि चीन के शाक्त तारा के उपासक थे और
दूसरे यह कि तारा कि उपासना भारत में चीन से आयी। इसी तरह 'कुलाकिकाम्नायतंत्र'
में मगों को ब्राह्मण स्वीकार किया गया है। भविष्यपुराण में भी मगों का भारत
में लाया जाना और सूर्योपासना में साम्ब की पुरोहिताई करना वर्णित है। पारसी साहित्य में भी 'पीरे-मगाँ' अर्थात् मगाचार्यों की चर्चा है। मगों की
उपासनाविधि में मद्य मांसादि के सेवन की विशेषता थी। प्राचीन हिन्दू और बौद्ध तंत्रों में शिव-शक्ति अथवा
बोधिसत्व-शक्ति के साधन प्रसंग में पहले सूर्यमूर्ति की भावना का भी प्रसंग है।
वाम
शब्द का अर्थ बांया, स्त्री से संबंधित और उलटा है। यहां
इसका अर्थ वामा अर्थात स्त्री से है। वाम मार्ग में स्त्री के सम्मान को सर्वोच्च
स्थान दिया गया है। जो विभिन्न रूपों में मातृस्वरूप होती हैं। ऐसा माना जाता है
कि बिना वामा की प्रसन्नता के, बिना उसके सहयोग के किसी भी
कुल में कोई उच्चावस्था या सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
वाम मार्ग में जाति व्यवस्था
को क्षुद्रता माना जाता है और स्त्री को शक्ति स्वरूपा। जाति से उठकर स्त्री को
शक्ति स्वरूपा मानकर ही साधक उच्चावस्था को प्राप्तकर अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, क्यों कि
वाम मार्ग में स्त्री को जो सम्मान प्राप्त है, वह कहीं ओर
प्राप्त हो ही नहीं सकता। विभिन्न जाति की महिलाओं को ऊर्जा / शक्ति अर्थात्
सर्वोच्च शक्ति का रूप माना जाता है।
इस
संबंध में रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र में कहा गया भी है कि
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी। चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
रजस्वला पुष्करं तीर्थ चाण्डाली तु महाकाशी। चर्मकारी प्रयाग: स्याद्रजकी मथुरामता॥
वाम
मार्ग में साधक, स्त्री को वह पवित्रावस्था में हो या
अपवित्रावस्था में, अपने
जीवन और शरीर से अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिवाहिनी मानता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
वाम मार्गीय तंत्र में न तो जातियां ही महत्वपूर्ण हैं और न रंगभेद। इस मार्ग में मां के नौ रूपों में भिन्न भिन्न जाति की कन्याओं को सर्वोच्च शक्तिसंपन्न मां दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है।
रसयामल तंत्र के उत्तर तंत्र
में इस संबंध में स्पष्टï कहा गया है कि
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना। ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:। मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
नटी कपालिका वेश्या रजकी नापिताङ्गना। ब्रह्माणी शुद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका:। मालाकारस्य कन्या च नवकन्या प्रकीर्तिता:॥
अर्थात्
नट की कन्या, अंतिम संस्कार कराने वाले की कन्या,
वेश्या की कन्या, वस्त्रादि धोकर आजीविका
चलाने वाले की कन्या, नापित की कन्या, ब्राह्मïण की कन्या, शूद्र कर्मकार की कन्या, गौ आदि चराकर उदरपूर्ति करने वाले की कन्या और बाग बगीचों का कार्य कर
उदराभरण करने वाले की कन्या। इन सभी नौ कन्याओं को दुर्गा स्वरूपा देवी माना जाता
है। माँ के नौ समान शक्तिशाली पवित्र रूपों में सर्वशक्तिमान इन नौ कन्याओं को मां
दुर्गा देवी की तरह पूजा जाता है और सम्मान दिया जाता है।
नवरात्रि
के पर्वों पर पारणा के समय जब इन नव दुर्गा देवी स्वरूपा कन्याओं को पुष्प, फल, भोजन और दक्षिणा आदि प्रदानकर उन्हें प्रसन्न
किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। उस समय उनके भोजनादि से निवृत्ति के
बाद बचे अवशिष्टï को मां का प्रसादस्वरूप मानकर ग्रहण किया
जाता है।
रसयामल
तंत्र के उत्तर तंत्र में इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्। विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैर्विविधै: भगवतीश्ननन्। विधाय वन्दितां तां च तदुच्छिष्ट स्वयंचरेत्॥
भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंश के प्रतापी अयोध्या के राजा प्रभु राम द्वारा वाम मार्ग का साधन करते हुए वनवास काल के दौरान शूद्रा शबरी के द्वारा उच्छिष्ट किए गए फलों को ग्रहणकर बिना किसी अहंकार के या छुआछूत के किसी भी मुद्दे पर विचार किए बिना वाममार्ग का पालन किया।
वाममार्ग
में कहा है कि अगर एक शक्तिशाली और सक्रिय (शिष्य) अपने जाति,
पंथ, अभिमान, अहंकार,
धन, आदि के प्रभाव में इन नौ (देवी नौ महिलाओं,
जो माँ देवी दुर्गा के नौ रूपों के बराबर माना जाता है) देवियों का
अपमान करता है तो वह अपनी शक्ति और ऊर्जा खो देता है, चाहे
वह स्वयं देवताओं का राजा इंद्र ही क्यों न हो। यदि इंद्र भी ऐसा करेगा तो वह भी
अपनी सत्ता और राज्य खो देता है।
वाम
मार्ग तंत्र में स्पष्ट कहा है कि
अविचारं शक्त्युच्छिष्ठ पिबेच्छक्रपुरो यदि। घोरञ्च नरकं याति
वाममार्गात्पतेद्ध्रुवम्॥
यह
मार्ग अघोर मार्ग है। भगवान् शिव को अघोरेश्वर कहा जाता है। वाम मार्ग को भगवान्
शिव का मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग प्रकृति के कृतित्व निर्माण के लिए जाना
जाता है, इसके माध्यम से बिना किसी भ्रम के
पुनरोत्पादन, पुनर्निर्माण, विकास और
क्रियात्मकता का मार्ग खुलता है।
भगवान शिव जो खुद वाम मार्ग
का अनुयायी कहा जाता है। वे अर्धनारीश्वर हैं, जिसका अर्थ
है – जो आधा स्त्री हो और आधा पुरुष हो।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
इस पथ का अनुयायी सब झंझओं से मुक्त हो जाता है और अघोरी शिष्य कहा जाता है, जो साधना के बल पर भगवान शिव के समान हो जाता है।
महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है- पाशबद्धो भवेज्जीव: पाशमुक्त:
सदाशिव:॥
ये भगवान् शिव ही भैरव रूप में
प्रगट होते है। भैरवोऽहम् शिवोऽहम्॥
अर्थात्
मैं भैरव हूँ और मैं शिव हूं। शिव हमेशा गहराई में ध्यान केंद्रित हैं। शक्ति में
स्थित हैं। बिना शक्ति के शिव शव मात्र हैं। शक्ति को धारण करने के बाद इस मार्ग
का शिष्य/अनुयायी भैरव के समान है जिसका अर्थ है वह खुद को शिव के रूप में ही
स्थिति पा लेता है।
वाममार्ग
उपासना में मद्य, मांस, मीन,
मुद्रा और मैथुन – ये पाँच आध्यात्मिक मकार जितेन्द्रिय, प्रज्ञावान योगियों के लिए ही प्रशस्य है क्योंकि इनकी भाषा सांकेतिक है
जिसे संयमी एवं विवेकी व्यक्ति ही ठीक-ठीक समझ सकता है।
मद्यः शिव शक्ति के संयोंग से जो महान अमृतत्व उत्पनन्न होता है उसे ही मद्य कहा गया है अर्थात् योगसाधना द्वारा निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद परब्रह्म में विलय होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मद्य कहते हैं और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रपद्मदल से जो अमृतत्व स्रावित होता है उसका पान करना ही मद्यपान है। यदि इस सुरा का पान नहीं किया जाता अर्थात् अहंकार का नाश नहीं किया जाता तो सौ कल्पों में ईश्वरदर्शन करना असंभव है। तंत्रतत्त्वप्रकाश में आया है कि जो सुरा सहस्रार कमलरूपी पात्र में भरी है और चन्द्रमा कला सुधा से स्रावित है वही पीने योग्य सुरा है। इसका प्रभाव ऐसा है कि यह सब प्रकार के अशुभ कर्मों को नष्ट कर देती है। इसी के प्रभाव से परमार्थकुशल ज्ञानियों-मुनियों ने मुक्तिरूपी फल प्राप्त किया है।
मद्यः शिव शक्ति के संयोंग से जो महान अमृतत्व उत्पनन्न होता है उसे ही मद्य कहा गया है अर्थात् योगसाधना द्वारा निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानंद परब्रह्म में विलय होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मद्य कहते हैं और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रपद्मदल से जो अमृतत्व स्रावित होता है उसका पान करना ही मद्यपान है। यदि इस सुरा का पान नहीं किया जाता अर्थात् अहंकार का नाश नहीं किया जाता तो सौ कल्पों में ईश्वरदर्शन करना असंभव है। तंत्रतत्त्वप्रकाश में आया है कि जो सुरा सहस्रार कमलरूपी पात्र में भरी है और चन्द्रमा कला सुधा से स्रावित है वही पीने योग्य सुरा है। इसका प्रभाव ऐसा है कि यह सब प्रकार के अशुभ कर्मों को नष्ट कर देती है। इसी के प्रभाव से परमार्थकुशल ज्ञानियों-मुनियों ने मुक्तिरूपी फल प्राप्त किया है।
मांसः विवेकरूपी तलवार से काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पाशवी वृत्तियों का संहार कर उनका भक्षण करने की ही मांस कहा गया है। जो उनक भक्षण करे एवं दूसरों को सुख पहुँचाये, वही सच्चा बुद्धिमान है। ऐसे ज्ञानी और पुण्यशील पुरुष ही पृथ्वी पर के देवता कहे जाते हैं। ऐसे सज्जन कभी पशुमांस का भक्षण करके पापी नहीं बनते बल्कि दूसरे प्राणियों को सुख देने वाले निर्विषय तत्त्व का सेवन करते हैं।
आलंकारिक रूप से यह आत्मशुद्धि का उपदेश है अर्थात् कुविचारों, पाप-तापों, कषाय-कल्मषों से बचने का उपदेश है। किंतु मांसलोलुपों ने अर्थ का अनर्थ कर उपासना के अतिरिक्त हवन यज्ञों में भी पशुवध प्रारंभ कर दिया।
मीन (मत्स्य) - अहंकार, दम्भ, मद, मत्सर, द्वेष, चुगलखोरी – इन छः मछलियों का विषय-विरागरूपी जाल में फँसाकर सदविद्यारूपी अग्नि में पकाकर इनका सदुपयोग करने को ही मीन या मत्स्य कहा गया है अर्थात् इन्द्रियों का वशीकरण, दोषों तथा दुर्गुणों का त्याग, साम्यभाव की सिद्धि और योगसाधन में रत रहना ही मीन या मत्स्य ग्रहण करना है। इनका सांकेतिक अर्थ न समझकर प्रत्यक्ष मत्स्य के द्वारा पूजन करना तो अर्थ का अनर्थ होगा और साधना क्षेत्र में एक कुप्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा।
जल में रहने वाली मछलियों को खाना तो सर्वथा धर्मविरूद्ध है, पापकर्म है। दो मत्स्य गंगा-यमुना के भीतर सदा विचरण करते रहते हैं। गंगा यमुना से आशय है मानव शरीरस्थ इड़ा-पिंगला नाड़ियों से। उनमें निरंतर बहने वाले श्वास-प्रश्वास ही दो मत्स्य हैं। जो साधक प्राणायाम द्वारा इन श्वास-प्रश्वासों को रोककर कुंभक करते हैं वे ही यथार्थ में मत्स्य साधक हैं।
मुद्राः आशा, तृष्णा, निंदा, भय, घृणा, घमंड, लज्जा, क्रोध – इन आठ कष्टदायक मुद्राओं को त्यागकर ज्ञान की ज्योति से अपने अंतर को जगमगाने वाला ही मुद्रा साधक कहा जाता है। सत्कर्म में निरत पुरुषों को इन मुद्राओं को ब्रह्मरूप अग्नि में पका डालना चाहिए। दिव्य भावानुरागी सज्जनों को सदैव इनका सेवन करना चाहिए और इनका सार ग्रहण करना चाहिए। पशुहत्या से विरत ऐसे साधक ही पृथ्वी पर शिव के तुल्य उच्च आसन प्राप्त करते हैं।
मैथुनः मैथुन का सांकेतिक अर्थ है मूलाधार चक्र में स्थित सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति का जागृत होकर सहस्रार चक्र में स्थित शिवतत्त्व (परब्रह्म) के साथ संयोग अर्थात् पराशक्ति के साथ आत्मा के विलास रस में निमग्न रहना ही मुक्त आत्माओं का मैथुन है, किसी स्त्री आदि के साथ संसार व्यवहार करना मैथुन नहीं है। विश्ववंद्य योगीजन सुखमय वनस्थली आदि में ऐसे ही संयोग का परमानंद प्राप्त किया करते हैं।
इस प्रकार तंत्रशास्त्र में पंचमकारों का वर्णन सांकेतिक भाषा में किया गया है किंतु भोगलिप्सुओं ने अपने मानसिक स्तर के अनुरूप उनके अर्थघटन कर उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ किया और इस प्रकार अपना एवं अपने लाखों अनुयायियों का सत्यानाश किया। जिस प्रकार सुन्दर बगीचे में असावधानी बरतने से कुछ जहरीले पौधे उत्पन्न हो जाया करते हैं और फलने फूलने भी लगते हैं, इसी प्रकार तंत्र विज्ञान में भी बहुत सी अवांछनीय गन्दगियाँ आ गयी हैं। यह विषयी कामान्ध मनुष्यों और मांसाहारी एवं मद्यलोलुप दुराचारियों की ही काली करतूत मालूम होती है, नहीं तो श्रीशिव और ऋषि प्रणीत मोक्षप्रदायक पवित्र तंत्रशास्त्र में ऐसी बातें कहाँ से और क्यों नहीं आतीं?
जिस शास्त्र में अमुक अमुक जाति की स्त्रियों का नाम से लेकर व्यभिचार की आज्ञा दी गयी हो और उसे धर्म तथा साधना बताया गया हो, जिस शास्त्र में पूजा की पद्धति में बहुत ही गंदी वस्तुएँ पूजा-सामग्री के रूप में आवश्यक बतायी गयी हों, जिस शास्त्र को मानने वाले साधक हजारों स्त्रियों के साथ व्यभिचार को और नरबालकों की बलि अनुष्ठान की सिद्धि में कारण मानते हों, वह शास्त्र तो सर्वथा अशास्त्र और शास्त्र के नाम को कलंकित करने वाला ही है। ऐसे विकट तामसिक कार्यों को शास्त्रसम्मत मानकर भलाई की इच्छा से इन्हें अपने जीवन में अपनाना सर्वथा भ्रम है, भारी भूल है। ऐसी भूल में कोई पड़े हुए हों तो उन्हें तुरंत ही इससे निकल जाना चाहिए।
आजकल ऐसे साहित्य और ऐसे प्रवचनों की कैसेटें बाजार में सरेआम बिक रही हैं। अतः ऐसे कुमार्गगामी साहित्य और प्रवचनों की कड़ी आलोचना करके जनता को उनके प्रति सावधान करना भी राष्ट्र के युवाधन को सुरक्षा करने में बड़ा सहयोगी सिद्ध होगा।
यन्त्र
विज्ञान एक स्वतंत्र विद्या है। प्राचीन काल में भारत के विज्ञानाचार्य अनेक
प्रयोजनों के लिए इसी मार्ग का अवलम्बन करते थे। प्राचीन इतिहास में ऐसी अनेक
साक्षियाँ मिलती हैं जिन से प्रकट होता है कि उस समय बिना यन्त्रों के भी ऐसे
अद्भुत कार्य होते थे जैसे आज यन्त्रों से भी संभव नहीं हो पाये हैं। युद्धों में
आज अनेक प्रकार के बहुमूल्य वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र प्रयोग होते हैं पर
प्राचीनकाल जैसे वरुणास्त्र, जो जल की
भारी वर्षा कर दे, आग्नेयास्त्र, जो
भयंकर अग्नि ज्वालाओं का दग्वानल प्रकट कर दे, सम्मोहनास्त्र-
जो लोगों को संज्ञाशून्य बना दे, नागपाश, जो लकवे की तरह जकड़ दे, आज कहाँ है? इसी प्रकार बिना इंजिन, भाप, पेट्रोल
आदि के आकाश में भूमि पर और जल में चलने वाले रथ आज कहाँ हैं? मारीच की तरह मनुष्य से पशु बन जाना, सुरसा की तरह
बहुत बड़ा शरीर बड़ा लेना, हनुमान की तरह मच्छर के समान
अतिलघु रूप धारण करना, समुद्र लाँघना, पर्वत
उठाना, नल-नील की भाँति पानी पर तैरने वाला पत्थरों का पुल बनाना,
रावण अहिरावण की भाँति बिना रेडियो के अमेरिका और लंका के बीच वार्तालाप
होना, अदृश्य हो जाना आदि अनेकों एक अद्भुत कार्य थे जो आज यन्त्रों
से भी नहीं हो पाते पर एक समय बिना किसी यन्त्र की सहायता के केवल आत्मशक्ति का
ताँत्रिक उपयोग होने से सुगमतापूर्वक हो जाते थे। इस क्षेत्र में भारत भारी उन्नति
कर चुका था उसके संसार पर चक्रवर्ती शासन करने एवं जगद्गुरु कहलाने का एक यह भी
कारण था।
नागार्जुन,
गोरखनाथ, मछीन्द्रनाथ आदि सिद्ध पुरुषों के
पश्चात भारत से इस विद्या का लोप होता गया और आज तो इस क्षेत्र में अधिकार रखने
वाले व्यक्ति कठिनाई से ढूंढ़े मिलेंगे। इस तन्त्र महाविज्ञान की कुछ लंगड़ी-लूली,
टूटी-फूटी शाखाएँ-प्रशाखाएँ जहाँ तक मिलती हैं, उनके चमत्कार दिखाने वाले जहाँ-तहाँ मिल जाते हैं। उनमें से एक शाखा है-
‘दूसरों के शरीर और मन पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालना’ है। जो इसे कर सकते हैं वे
यदि अभिचार करें तो स्वस्थ आदमी को रोगी बना सकते हैं, किसी भयंकर
प्राणघातक पीड़ा-वेदना या बीमारी में अटका सकते हैं, उस पर
प्राणघातक सूक्ष्म प्रहार कर सकते हैं, किसी भी बुद्धि को
फेर सकते हैं, उसे पागल, उन्मुक्त,
विक्षिप्त, मंदबुद्धि या उलटा सोचने वाला कर
सकते हैं। भ्रम, भय, संदेह आशंका और
बेचैनी के गहरे दलदल में फंसा कर उसके मानसिक धरातल को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं।
इसी प्रकार किसी अप्रत्यक्ष चेतना शक्ति द्वारा किसी व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा
हो तो उसे वे दूर भी कर सकते हैं। नजर लगना, उन्माद, भूतोन्भाव, ग्रहों का अनिष्ट, बुरे
दिन किसी के द्वारा प्रेरित अभिचार, मानसिक उद्वेग आदि को
शान्त किया जा सकता है। शारीरिक रोगों के निवारण, सर्प
बिच्छू आदि का दंशन, एवं विषैले कीड़ों का समाधान भी तन्त्र
द्वारा होता है। छोटे बालकों पर इस विद्या का बड़ी आसानी से भला या बुरा भारी
प्रभाव डाला जा सकता है। तंत्र साधना द्वारा सूक्ष्म जगत में विचरण करने वाली अनेक
चेतना ग्रन्थियों में से किसी विशेष प्रकार की ग्रन्थि को अपने लिए जागृत, चैतन्य, क्रियाशील एवं अनुचरी बनाया जा सकता है।
देखा गया है कि कई ताँत्रिकों को मसान, पिशाच, भैरव, छाया पुरुष, सेबड़ा,
ब्रह्मराक्षस, बेताल, कर्ण
पिशाचिनी, त्रिपुर, सुन्दी, कालरात्रि, दुर्गा आदि की सिद्धि होती है। जैसे कोई
सेवक प्रत्यक्ष शरीर से किसी के यहाँ नौकर रहता है और मालिक की आज्ञानुसार काम
करता है वैसे ही यह शक्तियाँ अप्रत्यक्ष शरीर से उस तंत्र-सिद्ध पुरुष के वश में
होकर सदा उसके समीप उपस्थित रहती है और जो आज्ञा दी जाती है उसको वे अपनी
सामर्थ्यानुसार पूरा करती हैं। इस रीति से कई बार ऐसे-ऐसे अद्भुत काम किये जाते
हैं कि उनके कारण आश्चर्य से दंग होना पड़ता है।
होता
यह है कि अदृश्य लोक में कुछ ‘चेतना ग्रन्थियाँ’ सदा विचरण करती रहती हैं।
ताँत्रिक साधना विधानों के द्वारा अपने योग्य ग्रन्थियों को पकड़कर उनमें प्राण
डाला जाता है। जब वह प्राणधान हो जाती हैं तब उसका सीधा आक्रमण साधक पर होता है,
यदि साधक अपनी आत्मिक बलिष्ठता द्वारा उस आक्रमण को सह गया, उससे परास्त न हुआ तो प्रतिद्दत होकर वह ग्रन्थि उसके वशवर्ती हो जाती है
और चौबीस घंटे के साथी आज्ञाकारी सेवक की तरह काम करती है। ऐसी साधनाएं बड़ी खतरे
से भरी हुई होती हैं। निर्जन, श्मशान आदि भयंकर प्रदेशों में
ऐसी रोमाँचकारी विधि-व्यवस्था का प्रयोग करना पड़ता है जिससे साधारण मनुष्य का
कलेजा दहल जाता है। उस समय में ऐसे-ऐसे घोर अनुभव होते हैं जिनमें डर जाने पर
बीमार पड़ जाने, पागल हो जाने या मृत्यु के मुख में चले जाने
की आशंका रहती है। ऐसी साधनाएं हर कोई नहीं कर सकता। कोई कर ले तो सिद्धि मिलने पर
उन अदृश्य शक्तियों को साथ रखने की जो कष्टसाध्य शर्तें होती हैं उनका पालन नहीं
कर सकता। यही कारण है कि इस मार्ग में चलने का कोई विरले ही साहस करते हैं,
जो साहस करते हैं उनमें से कोई विरले ही सफल होते हैं, जो सफल होते हैं उनमें से कोई विरले ही अन्तकाल तक उनसे समुचित लाभ उठा
पाते हैं।
यह
ठीक है कि आज ऐसे व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ते जो प्रत्यक्ष रूप से यह प्रमाण दे सकें
कि किस प्रकार अमुक यन्त्र का काम, अन्दर की
बिजली से हो सकता है। यह विद्या जगत दो हजार वर्षों से धीरे-धीरे लुप्त होती चली
आई है और अब तो ऐसे उस विद्या के ज्ञाता, ढूंढ़े नहीं मिलते,
वैसे तो वैज्ञानिक यन्त्रों के अनेक आविष्कारों के कारण उनकी उतनी आवश्यकता
आज नहीं रही है फिर भी उस महाविद्या का प्रकाश तो जारी रहना ही चाहिए। वह आज के
ताँत्रिकों का कर्तव्य है कि इस लुप्त प्रायः सावित्री विद्या को अथक परिश्रम
द्वारा पुनर्जीवित करके भारतीय विज्ञान की महत्ता संसार के सामने प्रतिष्ठित करें।
आज के ताँत्रिक जितना कर लेते हैं यद्यपि वह भी कम महत्वपूर्ण और कम आश्चर्यजनक
नहीं है। फिर भी इस मार्ग के पथिकों को तब तक चैन नहीं लेना चाहिए जब तक कि परमाणु
प्रकृति पर आत्म शक्ति द्वारा अधिकार करने के विज्ञान में पूर्वकाल जैसी सफलता
प्राप्त न हो जाए।
वर्तमान
काल में तन्त्र का जितना अंश प्रचलित, ज्ञात
एवं क्रियान्वित है उसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। मनुष्यों पर अदृश्य प्रकार से
भला या बुरा प्रभाव डालना आज के तंत्र विज्ञान की मर्यादा है। वस्तुओं का रूपांतर,
परिवर्तन, प्रकटीकरण, लोप
एवं विशेष जाति के परिमाणुओं का एकीकरण करके उनके शक्तिशाली प्रयोग की माँग आज
लुप्तप्राय है। चैतन्य ग्रन्थियों का जागरण और उनकी वशीवर्ती बनाकर आज्ञा पालन
कराने में विक्रमादित्य के समान सफल साधक तो आज नहीं हैं पर किन्हीं अंशों में इस विद्या
का अस्तित्व मौजूद अवश्य है।
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास
विपुल खोजी