क्या होता है अध्यात्म
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र,
मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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vipul luckhnavi “bullet"
यूं तो कई विद्वानों ने इस विष्य पर लिखा है किंतु मेरा
मानना है अध्य आत्म्। यानि अपनी आत्म को जो
सर्व प्रथम है उसको जानने के मार्ग पर चलना। क्यों अध्य के कई अर्थ हैं। प्रात: की
किरण, सबसे ऊपर। यह
दो ही मैंनें चुने हैं।
आध्यात्मिकता, मूर्तिपूजा शब्द के समान ही कई अलग
मान्यताओं और पद्धतियों के लिए प्रयुक्त शब्द है, यद्यपि यह
उन लोगों के साथ विश्वासों को साझा नहीं करती है जो मूर्तिपूजक हैं अथवा
अनिवार्यतः आत्मा के अस्तित्व में विश्वास या अविश्वास से
निर्मित नहीं है। आध्यात्मिकता की एक सामान्य परिभाषा यह हो सकती है कि यह ईश्वरीय
उद्दीपन की अनुभूति प्राप्त करने का एक दृष्टिकोण है, जो धर्म से अलग है। आध्यात्मिकता को, ऐसी परिस्थितियों में अक्सर धर्म की अवधारणा के विरोध में रखा जाता है,
जहां धर्म को संहिताबद्ध, प्रामाणिक, कठोर, दमनकारी, या स्थिर के
रूप में ग्रहण किया जाता है, जबकि अध्यात्म एक विरोधी स्वर
है, जो आम बोलचाल की भाषा में स्वयं आविष्कृत प्रथाओं या
विश्वासों को दर्शाता है, अथवा उन प्रथाओं और विश्वासों को,
जिन्हें बिना किसी औपचारिक निर्देशन के विकसित किया गया है। इसे एक
अभौतिक वास्तविकता के अभिगम के रूप में उल्लिखित किया गया है। एक आंतरिक मार्ग जो
एक व्यक्ति को उसके अस्तित्व के सार की खोज में सक्षम बनाता है; या फिर "गहनतम मूल्य और अर्थ जिसके साथ लोग जीते हैं।" आध्यात्मिक व्यवहार, जिसमें
ध्यान, प्रार्थना और चिंतन शामिल हैं, एक व्यक्ति
के आतंरिक जीवन के विकास के लिए अभिप्रेत है; ऐसे व्यवहार अक्सर एक बृहद सत्य
से जुड़ने की अनुभूति में फलित होती है, जिससे अन्य
व्यक्तियों या मानव समुदाय के साथ जुड़े एक व्यापक स्व की उत्पत्ति होती है;
प्रकृति या ब्रह्मांड के साथ; या दैवीय प्रभुता के साथ. आध्यात्मिकता
को जीवन में अक्सर प्रेरणा अथवा दिशानिर्देश के एक स्रोत के रूप में अनुभव किया
जाता है। इसमें, सारहीन वास्तविकताओं में विश्वास या अंतस्थ
के अनुभव या संसार की ज्ञानातीत प्रकृति शामिल हो सकती है।
अध्यात्म
का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना
और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना।
गीता
के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है।
"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते "|
आत्मा
परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है। अध्यात्म
की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है।
जब हम
क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद
मनाते हैं, जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही
गुलाम बना देता है। हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता
से करती है - हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?
जब
हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय
कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का
हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी
बन सकते हैं। |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है।
अब
प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ?
हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी,
हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित
सुधार कर सकेंगे।
गीता
के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है
यंयंवापि
स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः॥
अर्थात-"हे
कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर
का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |"
एक संत
ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी
आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण
होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा। अगर
किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को
सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में
भगवान् का ही स्मरण करेंगे |बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो
हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे।
अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा की खोज, परमात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति,
जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका संबंध,
इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म
से पूर्व और उसके पश्चात की स्थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण
चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं की गईं और
उनके आधार पर अपनी-अपनी स्थापनाएं दी गईं। इन्हीं के आधार पर पुराणों और अन्य
शास्त्रों में व्याख्याएं, कथाएं, सूत्र,
सिद्धांत लिखे और गढ़े गए।
आधुनिक भौतिक विज्ञानों के विकास के साथ प्रयोगधर्मी
अनुसंधानों, तार्किक चिंतन,
गणितीय शोध, खगोल संबंधी विभिन्न खोजों,
पृथ्वी के आकार पृथ्वी के आकार, गति तथा उसकी
सूर्य एवं समूचे ग्रह मंडल में स्थिति के सही-सही आकलन ने पुराने विश्वासों और स्थापनाओं
के आधार को हिला दिया और वे अब अप्रासंगिक लगने लगे।
अब जो भी सामने है, तर्क और वैज्ञनिक प्रयोगों से
प्रमाणित करने योग्य है, वहीं विश्वसनीय रह गया है। अज्ञात,
अबूझ, अपरिभाषित, कल्पनाजन्य,
अप्रकट या असिद्ध तत्व अब मान्य हैं और वैज्ञानिक विचारधारा से मेल
खाने वाले नहीं होने के कारण अस्वीकार्य हो गए हैं। फिर
भी यदि वे अपनी भावनाओं, धारणाओं, आस्थाओं,
मान्यताओं, व्यक्तिगत अनुभवों के अनुकूल लगते
हैं तो हर व्यक्ति अपने विश्वास को बनाए रखने को स्वतंत्र है।
यह भी सही है कि नैतिकता, पवित्र जीवनमूल्य, नकारात्मक कार्यों और विचारों से बचना, सामाजिक और
राष्ट्रीय जीवन को आघात पहुंचाने वाले कार्यों को पाप समझना, परोपकार, सत्य, न्याय, कर्तव्यनिष्ठा जैसे शाश्वत मूल्य सदैव अपने जीवन को प्रकाशित करते रहें,
इसमें कभी किसी का विश्वास नहीं डिगना चाहिए। यही सच्चा अध्यात्म है।
अध्यात्म
रोचक शब्द है। सामान्यतया भक्ति या ईश्वर विषयक चर्चा को अध्यात्म कहा जाता है।
पूजा पाठ करने वाले ‘आध्यात्मिक’ कहे जाते हैं। अध्यात्म का मूल अर्थ
‘ईश्वर सम्बंधी’/ईश्वरीय चर्चा या ईश्वर ज्ञान कदापि नहीं है।
गीता
के अध्याय 8 की शुरूवात अर्जुन के प्रश्नों से होती
है, पूंछते है ”हे पुरूषोत्ताम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और कर्म के माने क्या है?
(अध्याय 8 श्लोक1, लोकमान्य
तिलक का अनुवाद, गीता रहस्य पृष्ठ 489) मूल श्लोक है ‘ किं तद् ब्रह्मं किम् अध्यात्मं किं कर्म पुरूषोत्ताम”।
प्रश्न सीधा है। यहां ब्रह्म की जिज्ञासा है, ब्रह्म ईश्वरीय
जिज्ञासा है। आगे अध्यात्म जानने की इच्छा है। अध्यात्म ईश्वर या ब्रह्म चर्चा से
अलग है। इसीलिए अध्यात्मक का प्रश्न भी अलग है। कर्म भी ईश्वरीय ज्ञान से अलग एक विषय
है। इसलिए कर्म विषयक प्रश्न भी अलग से पूछा गया है।
अब श्रीकृष्ण का सीधा उत्तार
देखिए ”अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों
अध्यात्म उच्यते – परम अक्षर अर्थात कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है और
प्रत्येक वस्तु का अपना मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म है। (तिलक-गीता रहस्य पृष्ठ 490)
वासुदेवशरण अग्रवाल का अनुवाद है ”परम अक्षर (अविनाशी) तत्व ही
ब्रह्म है। स्वभाव अध्यात्म कहा जाता है।” (गीता नवनीत, पृष्ठ
175)
अध्यात्म
पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का
अध्ययन-अध्ययन-आत्म। वासुदेवशरण अग्रवाल ने अध्यात्म की सुसंगत व्याख्या की है,
”इसका तात्पर्य यह है कि जो अपना भाव अर्थात् प्रत्येक जीव की एक-एक
शरीर में पृथक पृथक सत्ता है, वही अध्यात्म है। समस्त
सृष्टिगत भावों की व्याख्या जब मनुष्य शरीर के द्वारा (शारीरिक संदर्भ लेकर) की
जाती है तो उसे ही अध्यात्म व्याख्या कहते हैं।”
(वही,
पृष्ठ 55) गीता में श्रीकृष्ण का उत्तार सरल
है – स्वभावो अध्यात्म उच्यते – स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है। (8.3) स्व शब्द बड़ा प्यारा है। इससे कई शब्द बने हैं। ‘स्वयं’ शब्द इसी का
विस्तार है। स्वार्थ भी इसी का हितैषी है। स्वानुभूति अनुभव विषयक ‘स्व’ है। सभी
प्राणी मरणशील हैं, जब तक जीवित हैं, तब
तक स्व हैं, तभी तक सुख हैं, संसार है,
जिज्ञासाएं हैं, प्रश्न हैं। विज्ञान और दर्शन
के अध्ययन है। प्रत्येक ‘स्व’ एक अलग इकाई है। इसकी अपनी काया देह है, अपना मन है, बुध्दि है, विवेक
है, दृष्टि है विचार हैं। इन सबसे मिलकर भीतर एक नया जगत्
बनता है। इस भीतरी जगत् की अपनी निजी अनुभूति है, प्रीति और
रीति भी है। अपने प्रियजन हैं, अपने इष्ट हैं। इन सबसे मिलकर
बनता है ”एक भाव” इसे ‘स्वभाव’ कहते हैं। स्वभाव नितांत निजी वैयक्तिक अनुभूति
होता है लेकिन स्वभाव की निर्मिति में माँ, पिता, मित्र परिजन और सम्पूर्ण समाज का प्रभाव पड़ता है। स्वभाव निजी सत्ता और
प्रभाव बाहरी। जब स्वभाव प्रभाव को स्वीकार करता है, प्रभाव
घुल जाता है, स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। इसका उल्टा भी
होता है, लेकिन बहुत कम होता है।
वृहदारण्यक
उपनिषद् (2.3.4) में कहते हैं ”अध्यात्म का वर्णन
किया जाता है ”अथ अध्यात्म मिदमेव”। समझाते है ”जो प्राण से
और शरीर के भीतर आकाश से भिन्न है, यह मूर्त के, मर्त्य के इस सत् के सार हैं।” यहां अध्यात्म का विषय प्राण और आकाश को
छोड़कर बाकी देह है। शंकराचार्य के भाष्य के अनुसार ”आध्यात्मिक
शरीराम्भकस्य कार्यस्यैष रस: सार: – आध्यात्मिक शरीराम्भकस्य कार्यस्यैष रस: सार:
– आध्यात्मिक यानी शरीराम्भक भूतों का यही रस यानी सार है।” वृहदारण्यक
(शांकरभाष्यार्थ, गीता प्रेस पृष्ठ 520)
शरीर
के भीतर चैतन्य है, प्राण है। इसके भीतर आकाश भी है। इसके
अलावा बाकी जो कुछ है वह अध्यात्म है। अध्यात्म का अर्थ ‘स्व’ ही है। छान्दोग्य उपनिषद्
का प्रथम अध्याय-प्रथम प्रपाठक ओ3म से प्रारम्भ होता है।
यहां प्राण को श्रेष्ठ बताया गया है। फिर अधिदैवत् – देवों से सम्बंधित विवेचन
(तीसरा खण्ड) है। प्रणव और उद्गीथ की व्याख्या है। ऋग्वेद के
विद्वान ओ3म् को प्रणव कहते है। सामवेदी इसे उद्गीथ बताते
हैं। दोनो एक हैं। यहां सृष्टि का विस्तार से वर्णन है। सातवें खण्ड में कहते हैं
– अर्थ अध्यात्मम् यानी अब अध्यात्म सुनिए। (1.7.1) अनुवादक
का विवेचन है, ”अध्यात्म (शरीर के सम्बंध में) कहते हैं।
(छान्दोग्य उप0, प्रो0 राजाराम,
डायनमिक पब्लिकेशन, पृष्ठ 22) यहां अध्यात्म शरीर चर्चा है। कहते है ”ऋचा वाणी है, साम प्राण है। (शंकराचार्य के अनुसार जो नासिका में प्राण है अर्थात
घ्राण) साम गान ऋचा यानी वाणी के सहारे है।” फिर कहते हैं ”ऋचा आंख हैं। साम आत्मा
(स्वयं) है। यह साम (स्वयं) इसी आंख के सहारे है।” फिर कहते हैं ”आंख की चमक ऋचा है,
इसका नीला वर्ण साम है। इसका नीला अंश दीप्ति के सहारे है।” (वही,
2., 3, 4) अध्यात्म स्वयं का ही अध्ययन विश्लेषण है। यह एक
अंतर्यात्रा है।
डॉ0 राधाकृष्णन् ने गीता के ‘अध्यात्म’ (8.3) विषयक तत्व
पर टिप्पणी की है ”अध्यात्म – शरीर का स्वामी, उपभोक्ता। यह
ब्रह्म की वह प्रावस्था है जो वैयक्तिक बनती है।” (श्रीमद्भगवद् गीता, डॉ0 राधाकृष्णन पृष्ठ 207) यहां
ब्रह्म चेतना वैयक्तिक चेतना बन गया है। ब्रह्म बना या कोई और, असली बात वैयक्तिक चेतना ही है। वैयक्तिक चेतना का गहन अध्ययन
विवेचन-अध्यात्म ही मूल तत्व तक पहुंचाएगा। गीता के 7वें
अध्याय (श्लोक 29) में भी अध्यात्म शब्द का प्रयोग हुआ है।
कृष्ण कहते है ”जो मुझमें शरण लेते है और बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने की
कोशिश करते हैं, वे ब्रह्म अध्यात्म व कर्म के सम्बंध में सब
कुछ जान जाते हैं।” (डॉ0 राधाकृष्णन का अनुवाद) बुढ़ापा से
मुक्ति की कोशिश सांसारिक कार्रवाई है। मृत्यु कष्ट से मुक्ति के प्रयास मानवीय
इच्छाए हैं। ब्रह्म या ईश्वर जानने की इच्छा आदिम है। अध्यात्म का ज्ञान अर्थात
निजी अध्ययन संसार में रहने का प्रथम सोपान है। कर्म प्रवीणता के बिना कोई उपलब्धि
नही। मूल बात है स्वयं का विवेचन, स्वयं के अंतस् का अध्ययन,
भीतर की ऐषणाओं के केन्द्र बिन्दु की खोज, अपने
रागद्वैष, काम क्रोध, राग विराग के
स्रोत की जानकारी। पूर्वजों ने इसे ही अध्यात्म कहा था।
ब्लाग
: https://freedhyan.blogspot.com/
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास
विपुल खोजी