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Monday, October 29, 2018

दिवाली: मात्र निबंध या पूजा नहीं



 दीपावली एक : अर्थ अनेक


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


बृहदारण्यक उपनिषद की ये प्रार्थना जिसमें प्रकाश उत्सव चित्रित है जो वास्तव में सनातन की दीवावली या दीवाली को समझाता है।
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
असत्य से सत्य की ओर। अंधकार से प्रकाश की ओर।
मृत्यु से अमरता की ओर।(हमें ले जाओ) ॐ शांति शांति शांति।।


भारत रत्न अटल बिहारी बाजपई की प्रकाश पर्व की यह रचना भी ऐसा ही कुछ कहती है।
जब मन में हो मौज बहारों की, चमकाएं चमक सितारों की।
जब ख़ुशियों के शुभ घेरे हों, तन्हाई  में  भी  मेले  हों।
आनंद की आभा होती है, उस रोज़ 'दिवाली' होती है॥
जब प्रेम के दीपक जलते हों, सपने जब सच में बदलते हों।
मन में हो मधुरता भावों की, जब लहके फ़सलें चावों की।
उत्साह की आभा होती है, उस रोज दिवाली होती है॥
जब प्रेम से मीत बुलाते हों,  दुश्मन भी गले लगाते हों।
जब कहीं किसी से वैर न हो, सब अपने हों, कोई ग़ैर न हो।
अपनत्व की आभा होती है, उस रोज़ दिवाली होती है॥
जब तन-मन-जीवन सज जायें, सद्-भाव  के बाजे बज जायें।
महकाए ख़ुशबू ख़ुशियों की,  मुस्काएं चंदनिया सुधियों की।
तृप्ति  की  आभा होती  है, उस रोज़ 'दिवाली' होती है॥    


दीपावली या दीवाली अर्थात "रोशनी का त्योहार" शरद ऋतु (उत्तरी गोलार्द्ध) में हर वर्ष मनाया जाने वाला एक प्राचीन हिंदू त्योहार है। विश्व के कई देशों में जैसे  नेपाल, भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर दीपावली एक सरकारी अवकाश है।

 
दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' अर्थात 'दिया' 'आवली' अर्थात 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है। इसके उत्सव में घरों के द्वारों, घरों व मंदिरों पर लाखों प्रकाशकों को प्रज्वलित किया जाता है। दीपावली जिसे दिवाली भी कहते हैं उसे अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकार जाता है जैसे : 'दीपावली' (उड़िया), दीपाबॉली' (बंगाली), 'दीपावली' (असमी, कन्नड़, मलयालम: ദീപാവലി, तमिल: தீபாவளி और तेलुगू), 'दिवाली' (गुजराती: દિવાળી, हिन्दी, दिवाली, मराठी:दिवाळी, कोंकणी:दिवाळी,पंजाबी), 'दियारी' (सिंधी:दियारी), और 'तिहार' (नेपाली) मारवाड़ी में दियाळी।  

इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है।

 
वैज्ञानिक दृष्टि से दीपावली पर घरों व दफ्तरों की साफ-सफाई व रंगाई-पुताई तो इस आस्था एवं विश्वास के साथ की जाती है, ताकि श्री लक्ष्मी जी यहां वास करें। लेकिन, इस आस्था व विश्वास के चलते वर्षा ऋतु से उत्पन्न गन्दगी समाप्त हो जाती है। दीपावली पर दीपों की माला जलाई जाती है। घी व वनस्पति तेल से जलने वाल दीप न केवल वातावरण की दुर्गन्ध को समाप्त सुगन्धित बनाते हैं, बल्कि वातावरण में सक्रिय कीटाणुओं व विषाणुओं को समाप्त करके एकदम स्वच्छ वातावरण का निर्माण करते हैं। कहना न होगा कि दीपावली के दीपों का स्थान बिजली से जलने वाली रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियां कभी नहीं ले सकतीं। इसलिए हमें इसप्रकाश-पर्व’ को पारंपरिक रूप मे ही मनाना चाहिए।

पुराणो के अनुसार दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। 

प्राचीन काल से दीवाली को हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में गर्मी की फसल के बाद के एक त्योहार के रूप में दर्शाया गया। दीवाली का पद्म पुराण और स्कन्द पुराण नामक संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख मिलता है जो माना जाता है कि पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीये (दीपक) को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, सूर्य जो जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और जो हिन्दू कैलंडर अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्तिथि बदलता है। कुछ क्षेत्रों में हिन्दू दीवाली को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ते हैं। नचिकेता की कथा जो सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है; पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में दर्ज़ की गयी है।

7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रतिपादुत्सव: कहा है जिसमें दिये जलाये जाते थे और नव दुल्हन और दूल्हे को तोहफे दिए जाते थे। 9 वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसे दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था। फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी, ने भारत पर अपने 11 वीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है। 

भारत के कुछ पश्चिम और उत्तरी भागों में दीवाली का त्योहार एक नये हिन्दू वर्ष की शुरुआत का प्रतीक हैं।इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है। दीपावली धन की देवी लक्ष्मी के सम्मान में मनाई जाती है। मारवाडी चोपडों की पूजा करते हैं। क्षेत्रीय आधार पर प्रथाओं और रीति-रिवाजों में बदलाव पाया जाता है। धन और समृद्धि की देवी - लक्ष्मी या एक से अधिक देवताओं की पूजा की जाती है। 

हिंदू दर्शन में योग, वेदांत, और सामख्या विद्यालय सभी में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध अनंत, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है। दीवाली, आध्यात्मिक अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है।  लक्ष्मी के साथ-साथ भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश; संगीत, साहित्य की प्रतीक सरस्वती; और धन प्रबंधक कुबेर को प्रसाद अर्पित करते हैं। कुछ दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते है। मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग उस दिन उनकी पूजा करते है वे आगे के वर्ष के दौरान मानसिक, शारीरिक दुखों से दूर सुखी रहते हैं।

 
भारत के पूर्वी क्षेत्र उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में हिन्दू लक्ष्मी की जगह काली की पूजा करते हैं, और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं। मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान कृष्ण से जुड़ा मानते हैं। अन्य क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अन्नकूट) की दावत में कृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है और सांझे रूप से स्थानीय समुदाय द्वारा मनाया जाता है।  कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए।

 
जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था।  सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। और इसके अलावा 1619 में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था।  पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे। 

दीपावली को विशेष रूप से हिंदू, जैन और सिख समुदाय के साथ विशेष रूप से दुनिया भर में मनाया जाता है। ये, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिजी, मॉरीशस, केन्या, तंजानिया, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, नीदरलैंड, कनाडा, ब्रिटेन शामिल संयुक्त अरब अमीरात, और संयुक्त राज्य अमेरिका। भारतीय संस्कृति की समझ और भारतीय मूल के लोगों के वैश्विक प्रवास के कारण दीवाली मानाने वाले देशों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। कुछ देशों में यह भारतीय प्रवासियों द्वारा मुख्य रूप से मनाया जाता है, अन्य दूसरे स्थानों में यह सामान्य स्थानीय संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। इन देशों में अधिकांशतः दीवाली को कुछ मामूली बदलाव के साथ मनाया जाता है।  

दीपावली के दिन भारत में विभिन्न स्थानों पर मेले लगते हैं। दीपावली एक दिन का पर्व नहीं अपितु पर्वों का समूह है। दशहरे के पश्चात ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली होती है। इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन दीपावली आती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है। भाई दूज या भैया द्वीज को यम द्वितीय भी कहते हैं। इस दिन भाई और बहिन गांठ जोड़ कर यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बहिन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगा कर उसके मंगल की कामना करती है और भाई भी प्रत्युत्तर में उसे भेंट देता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं। 

दुनिया के अन्य प्रमुख त्योहारों के साथ ही दीवाली का पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव चिंता योग्य है। दीवाली की आतिशबाजी के दौरान भारत में जलने की चोटों में वृद्धि पायी गयी है। अनार नामक एक आतशबाज़ी को 65% चोटों का कारण पाया गया है। अधिकांशतः वयस्क इसका शिकार होते हैं। समाचार पत्र, घाव पर समुचित नर्सिंग के साथ प्रभावों को कम करने में मदद करने के लिए जले हुए हिस्से पर तुरंत ठंडे पानी को छिड़कने की सलाह देते हैं अधिकांश चोटें छोटी ही होती हैं जो प्राथमिक उपचार के बाद भर जाती हैं।

 
आधुनिक  युग में चाहे व्यक्ति मंगल पर पहुंच गया है मगर तंत्र-मंत्र में उसका विश्वास अडिग बना हुआ है। शास्त्रों में सांकेतिक भाषा में तंत्र-मंत्र के संबंध में कहा गया है। तंत्रशास्त्र में दो बातें मिलती हैं पहला साधना का फल व दूसरा विधि का अंश। विधि विधान संकेतों में बताए गए हैं। किस मनोभूमि का व्यक्ति, किस काल, किन मंत्रों का किन उपकरणों द्वारा क्या प्रयोग करें, यह सब संकेत सूत्र में छिपाकर रखा गया है। 

संसार की रचना के साथ ही कई चीजों का अविष्कार हुआ है। जैसे-जैसे मनुष्य ने उन्नति की अपने स्वार्थ, पुरुषार्थ, परोपकार के लिए कुछ न कुछ खोजता रहा, ये जिज्ञासा संसार में सदैव प्रबल रही है। कई ऐसे सिद्धिप्रद मुहुर्त होते हैं जिनमें तंत्रशास्त्र में रुचि लेने वाले तथा इसके प्रकांड ज्ञाता तंत्र-मंत्र की सिद्धि, प्रयोग, व अनेक क्रियाएं करते हैं। इन महूर्तों में सर्वाधिक प्रबल महूर्त हैं धनतेरस, दीपावली की रात, दशहरा, नवरात्र व महाशिवरात्री। इसमें दीपावली की रात्र को तंत्रशास्त्र की महारात्रि कहा जाता है। 

तंत्रशास्त्र गुप्त इस कारण है कि अनाधिकारी लोग इसे प्रयोग न कर सकें। साधना और उसके विधि-विधान को गुप्त रखने के अनेक आध्यात्मिक कारण है। तंत्रशास्त्र में अनेक विधान हैं जैसे की टोना, टोटका, उपाय, उतारा, साधना सिद्धि आदि। टोना का उपयोग शत्रु के अनिष्ट के लिए होता है। जबकि टोटका स्वार्थ पूर्ति के लिए ही किया जाता है। तंत्रशास्त्र का उपयोग त्यौहारों के आते ही आरंभ हो जाता है मगर तंत्रशास्त्र अनुसार दीपावली पर किए गए टोटके अत्यधिक प्रभावशाली होते हैं। दीपावली पर मंत्र जगाए जाते हैं व विशेष सिद्धियों पर विजय पाई जाती है। बदलते समय के साथ दीपावली पर होने वाले टोने-टोटके और ‍तांत्रिक गतिविधियों में अब कई तरह के बदलाव आ गए हैं। माना जाता है‍ कि दीपावली के पांच दिनों में खास करके दीपावली की रात्रि कई तांत्रिक अनेक प्रकार की तंत्र साधनाएं करते हैं। वे कई प्रकार के तंत्र-मंत्र अपना कर शत्रुओं पर विजय पाने, गृह शांति बढ़ाने, लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने तथा जीवन में आ रही कई तरह की बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए विचित्र टोने-टोटके अपनाते हैं।

मान्यतानुसार दीपावली की महारात्रि देवी लक्ष्मी अपनी बहन दरिद्रा के साथ भू-लोक की सैर पर आती हैं। जिस घर में साफ-सफाई और स्वच्छता रहती है, वहां मां लक्ष्मी अपने कदम रखती हैं और जिस घर में ऐसा नहीं होता वहां दरिद्रा अपना डेरा जमा लेती है। जादू-टोना, व टोटका आदि का संबंध ऋग्वेदकाल से माना जाता है। अथर्ववेद में भी इन विषयों का वर्णन है। कई स्थानों पर नवरात्र आरंभ होते ही लोग सजग हो जाते हैं तथा उनकी यह सजगता दीपावली के खत्म होने तक बनी रहती है। यहां तक की घर में बुजुर्ग स्त्रियों द्वारा भी घरेलू टोटके अपनाए जाते हैं। यह केवल गांवों ओर कस्बों तक ही सीमित नहीं बल्कि छोटे-बड़े शहरों में भी किए जाते हैं। त्यौहारों के मौसम में जब किसी दूसरे के घर से मिष्ठान आता है तो घर की महिलाएं उससे चुटकी भर पकावान निकाल कर फेंक देती हैं। इसके बाद ही वह पारिवारिक सदस्यों को खाने के लिए देती हैं। उनका मानना होता है कि अगर खाने में कोई टोना-टोटका किया गया होगा तो परिजनो पर इसका दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।

कुछ परिवारों में नजर उतारने हेतु थोड़ा सा नमक हाथों में लेकर नजर लगने वाले से उतारा जाता है और बाद में इसे पानी में बहा दिया जाता है। मान्यता है कि इस टोटके से बुरी बलाएं पास नहीं फटकती। लड़कियों को बाल खोल कर न घूमने की हिदायत दि जाती है। यहां तक कि घर में छत या सुनसान जगहों पर खेलने की इजाजत नहीं देते। 

मान्यतानुसार टोना सिद्ध करना मंत्र सिद्ध करने की अपेक्षा कठिन होता है। मंत्र को पढ़ उसे फेंका जाता है जबकि टोना केवल संकेत मात्र से काम कर जाता है। मंत्र को सिद्ध करने हेतु मांस-मदिरा की आवश्यकता पड़ती है। टोना सिद्ध करने हेतु विभिन्न जानवरों के मल-मूत्र की आवश्यकता होती है। मंत्र झाड़ने हेतु पलीते का उपयोग होता है। टोना झाड़ने हेतु मोर पंख या झाड़ू का उपयोग होता है। 

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यह सभी कर्म रात्रि के समय किए जाते हैं अर्थात सूर्य के आभाव में। जब महामावस्या अर्थात दीपावली पर चंद्रमा बलहीन हो जाता है तभी अभिचार कर्मा अपने परचम पर होता है।

कुछ मंत्र नीचे दिये हैं जो धन प्राप्ति हेतु किये जा सकते हैं।
1. कमल गट्‍टे की माला से गुलाबी आसन तथा महालक्ष्मी यंत्र के सामने उत्तराभिमुख हों। यंत्र की अनुपलब्धता में कमलासन पर विराजमान हस्तियों से अभिषेक करा रही लक्ष्मीजी के सुंदर चित्र के सामने निम्न मंत्र का चार लाख बार जाप करें। मंत्र : ''श्रीं क्लीं श्रीं।''

जप के बाद : हवन में तिल, जौ, श्रीफल, बिल्बफल, कमल, कमलगट्‍टे, लाजा, गुगल, भोजपत्र, शक्कर, इत्यादि से दशांस होम कर लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।

2. किसी भी गुलाबी आसन पर उत्तराभिमुख हों बैठ जाएं। सामने लक्ष्मी माता का सुंदर चित्र हो। तब कमल गट्‍टे की माला से निम्न मंत्र का चार लाख बार जाप करें। मंत्र : ''ऐं ह्रीं श्री क्लीं।।''

जप के बाद : हवन में तिल, जौ, श्रीफल, बिल्बफल, कमल, कमलगट्‍टे, लाजा, गुगल, भोजपत्र, शक्कर, इत्यादि से दशांस होम कर लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।

3. किसी भी गुलाबी आसन पर उत्तराभिमुख हों बैठ जाएं। कमलासन पर विराजमान लक्ष्मी माता का सुंदर चित्र हो। तब कमल गट्‍टे की माला से निम्न मंत्र का सवा लाख बार जाप करें। मंत्र : ''ऊं कमलवासिन्यै स्वाहा।।''

जप के बाद : हवन में तिल, जौ, श्रीफल, बिल्बफल, कमल, कमलगट्‍टे, लाजा, गुगल, भोजपत्र, शक्कर, इत्यादि से दशांस होम कर लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।

4. किसी भी गुलाबी आसन पर उत्तराभिमुख हों बैठ जाएं। कमलासन पर विराजमान लक्ष्मी माता का सुंदर चित्र हो या श्रीयंत्र हो। तब कमल गट्‍टे की माला से निम्न मंत्र का सवा लाख बार जाप करें।
मंत्र : ''ऊं श्ररीं ह्रीं श्री कमलालये प्रसीद प्रसीद श्री ह्रीं श्री महालक्ष्म्यै नम:।।'' यह मंत्र सबसे प्रसिद्ध है।

जप के बाद : हवन में तिल, जौ, श्रीफल, बिल्वफल, कमल, कमलगट्‍टे, लाजा, गुगल, भोजपत्र, शक्कर, इत्यादि से दशांस होम कर लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।



(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Thursday, October 18, 2018

ब्रह्म क्या है???



ब्रह्म क्या है???
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

कोई तुझे निर्गुण‌ कहे, कोई सगुण बखान।
तू बिरला बस एक है, दास विपुल यह जान।।
सगुण रूप तू ही लिए, निर्गुण रूप बनाय।
कौन फर्क बुद्धि पड़े, रूप अरूप को पाय।।


अर्जुन उवाच: किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते || 8/1||
अर्थ : हे पुरुषोत्तम ! ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, कर्म क्या है, अधिभूत कौन सा कहा गया है और अधिदैव किसे कहते हैं।

 
व्याख्या : भगवान से अब अर्जुन, अध्यात्म की गहराईयों के प्रश्न करने लगे। अर्जुन कहता है- हे पुरुषोत्तम ! यह ब्रह्म क्या है अर्थात अर्जुन में अब ब्रह्म की जिज्ञासा पैदा हो गयी। दूसरा प्रश्न किया कि अध्यात्म क्या है ? अर्थात अध्यात्म पथ पर बढ़ने की इच्छा भी जाग गयी। तीसरा प्रश्न किया कि कर्म क्या है, अर्थात कर्मयोग का भाव भी पक्का हो गया। चौथा प्रश्न किया कि अधिभूत कौन है और अधिदैव किसे कहते हैं, अर्थात सबके मूलकारण को भी जानने का भाव आ गया। इसप्रकार आठवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान् से अध्यात्म के मुख्य प्रश्न पूछकर मुक्ति का मार्ग जाना। इसलिए आठवें अध्याय में अर्जुन की शंका का समाधान करने के बाद नौवें अध्याय के प्रारम्भ में ही भगवान् अर्जुन का शक्तिपात कर देते हैं। 


ब्रह्म (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।

 
परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण ( मेरे विचार से निर्गुण भी एक गुण है) है असीम है। "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह् ही सत्य है,बाकि सब मिथ्या है। 'ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः । वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है।

 
अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं। वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है। अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है।

ब्रह्म का अनुभव महावाक्यों के द्वारा वर्णित है । इन महावाक्यों को मैनें अपने ब्लाग के लेख “योग की व्याख्याओं में समझाया है।

महावाक्य से उन उपनिषद वाक्यो का निर्देश है जो स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन विचार समाये हुए है। प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को महावाक्य माना जाता है –

अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )

उपनिषद के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है। यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है।
उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है।

ब्रह्म क्या है ? –
श्रुतिभगवती ने उपदेश कर दिया ” तच्च ब्रह्म परोक्षभिहितम् ” अर्थात् सब कुछ जो है वह ब्रह्म है । लेकिन सब कुछ परोक्ष है । जो कुछ भी हमारे अनुभव मेँ आ रहा है , परोक्ष है , परोक्ष है , क्योँकि कुछ न कुछ बीच मेँ पर्दा रहता है । सोचते है कि सामने दरबाजा दीख रहा है । विचार करके देखेँ तो पता चलता है कि बीच मेँ कई पर्दे पड़े हुए है । पहले उसमेँ प्रकाश पर्दा पड़ा हुआ है । प्रकाश न हो तो दरबाजा कुछ और ही नजर आता है , मेरे भाई । इतना ही नहीँ , दरबाजे पर पेँट हुआ है , उसकी लकड़ी को छीला हुआ है , यह भी उसका पर्दा है । फिर आँख का पर्दा , आँख के द्वारा देख रहे हैँ , इसलिए आँख मेँ जितनी कमियाँ होँगी उनसे युक्त होकर दरबाजा दिख रहा है । मन का पर्दा पड़ा हुआ है। मन के संस्कारोँ के अनुसार दिखेगा । फिर अहं , अविद्या इत्यादि के पर्दे मान लेँ । हर हालत मेँ जिस पदार्थ को एतद् अथवा इदं शब्द से देख रहे हैँ वह कभी भी हम साक्षात् समझ मेँ नहीँ आता । वह हमेशा परोक्ष ही बना रहेगा ।

जब कहा ” सव्र हि एतद् ब्रह्म ” तो ब्रह्म परोक्ष ब्रह्म है। इन सब रूपोँ मेँ आने वाला ब्रह कैसा है ? यह पता नहीँ लगा । यह सारे रूप धारण करके जो आता है । जैसे सिनेमा देखने वाले को यह पता है कि अभुक एक्टर भीम कैसे बनता है या अमुक अर्जुन कैसे बनता है , लेकिन जब वह यह सब नहीँ बना हुआ है तब कैसा होता है ? यह किसी को पता नहीँ लगता । इसी प्रकार इन सब रूपो को लेकर ब्रह्म आ रहा है , इन सब रूपोँ मेँ ब्रह्म है , लेकिन उस ब्रह्म का रूप सचमुच कैसा है ? जब वह सब रूप नहीँ लेता है तब कैसा है ? ब्रह्म का परोक्ष रूप से ज्ञान तो हो गया , अब अति अनुग्रह करके श्रुतिभगवती कहती है – ” प्रत्यक्षतः विशेषेण निर्दिशति ” तुमको हम उसका अपरोक्ष , प्रत्यक्ष रूप बता देते हैँ जहाँ किसी प्रकार का व्यवधान नहीँ है ।

वह कौन सा रूप है ? ” अयमात्मा ब्रह्म ” जो तुम्हारा अपना स्वरूप है , वह ब्रह्म है । यह उसका प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया । अपने आप को जानने के लिए आप को रोशनी की जरूरत नहीँ है । रोशनी न हो और आप से कोई पूछे कि तु कहाँ बैठे है , तो यह कोई कहता है ” मेरे को पता नहीँ क्योँकि अंधेरा है । ” प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि मैँ हूँ । कोई व्यक्ति मरा है या नहीँ , इसका पता तब लगेगा कि डाक्टर पहले नाड़ी देखेगा , आँखे देखेगा , हृदय देखेगा । फिर निश्चय होता है कि मर गया । अगर किसी आदमी से पूछेँ कि तू जिन्दा है या मरा , तो क्या वह कहता है कि पहले स्टेथोकोप आ जाये तो पता लगे ? दूसरा मरा या नहीँ , इसका तो पता लगाना पड़ता है , लेकिन अपना स्वरूप तो प्रत्यक्ष सिद्ध है । इसके लिए किसी इन्द्रिय की जरूरत नहीँ है । गहरी निँद मेँ इसका पता लगता है । वहाँ से जब सोकर उठता है तो उससे अगर पूछे कि कैसा था तो कहता है कि बड़े आनन्द से था । यह नहीँ कहता कि पता नहीँ कि जिन्दा था या मर गया था । यहाँ मन भी नहीँ था लेकिन वह स्वयं था । अपना आपा नित्य अपरोक्ष है । यह प्रत्यक्ष है , इसमेँ किसी प्रकार के व्यवधान ( यदि आप उस ब्रह्म के वास्तविक स्वरूपको समझना चाहेँ तो जो कुछ इदं रूप से अनुभव होता है वह सब उसके उपर पर्दा हुआ और जब आप उसको अहम् रूप से अनुभव करते हैँ तो वह उसका पर्दारहित रूप है । अहं के उपर कुछ न कुछ पर्दा लगाकर देखने के आदि हो गये हैँ । इस लिये तो कोई कहता है मैँ ब्राह्मण हूँ । ब्राह्मण तो आप शरीर रूप उपाधि से हो मेरे भाई । इस जन्म के पहले आप हो सकते हो चमार रहे हो या अगले जन्म मेँ इंगलैण्ड मेँ म्लेच्छ पैदा हो जाओ । शरीर को लेकर ही ब्राह्मणत्व धर्म है । मैँ महामुर्ख हूँ , यह बुद्धि की उपाधि है । आपकी बुद्धि मूर्ख हो सकती है । मैँ तो वहाँ वैसा का वैसा है । उसमेँ क्या फरक पड़ता है ? यह उपाधि आपका रूप नहीँ है । आप स्वयं अपरोक्ष ब्रह्म हो । यह उपाधि तो सर्वम से कह दी गई । इसलिये भगवान गोड़पाद कहते हैँ – ” विशेषेण निर्दिशति ” ।

संसार मेँ लोग परमेश्वर को किसी अन्य रूप मेँ पकड़ना चाहते है लेकिन वह रूप परमेश्वर का अपना रूप कभी नहीँ हो सकता । क्योँकि अपने से भिन्न जड़ होता है । जिस चीज को हम देखते है वह जड़ है । दूसरे आदमी को नहीँ देखते , उसके शरीर को हम देखते हैँ और वह शरीर जड़ है । उस शरीर मेँ बैठने वाले को देखने का हमारे आपके पास कोई तरीका नहीँ है । जब कभी आप अपने से भिन्न किसी को देखोगे तो उसके उपाधि को , जड़रूपता को पकड़ेँगे । जब अहं अर्थात् मैँ को पकड़ते हैँ तब चेतन का स्पर्श है । ” मैँ ” इस ज्ञान मेँ किसी प्रकार का जड़ पकड़ मेँ नहीँ आता बल्कि चेतन पकड़ मेँ आता है , और ब्रह्म चेतन स्वरूप है । आपको सामने पहाड़ दिखाई दे रहा है । पहाड़ का ज्ञान हो रहा है लेकिन पहाड़ का ज्ञान किसको ? आपको हो रहा है । बिना पहाड़ का और आपका सम्बन्ध हुए पहाड़ का ज्ञान नही हो सकता और सिवाय ज्ञान के पहाड़ मेँ कोई प्रमाण नहीँ । किसी दूसरे ने बता दिया कि नैनीताल का पानी बिल्कूल खराब हो गया है , उसमेँ जहरीली घास आ गई है , तो वहाँ भी जब आप आपको बताया और वह आपको ज्ञान हुआ तभी नैनीताल के पानी के अन्दर खराबी है यह आपको प्रमाणिक ज्ञान हुआ । इसलिए बिना ज्ञान से सम्बन्धित हुए कोई भी चीज़ ज्ञात नहीँ होती अर्थात् जानी नहीँ जाती । बिना ज्ञान के किसी पदार्थ की सिद्धि नहीँ । किसी भी चीज़ को जानेँगे तभी वह सिद्ध होगी , उसके पहले नहीँ । तो सीधी ही कह देँ कि मैँ हमेशा चेतन ज्ञानस्वरूप हूँ । मेरे साथ अगर हिमालय पहाड़ का तादात्म्य हो गया तो मैनेँ हिमालय पहाड़ को जाना . वह पहाड़ मेरी ही उपाधि बन गया । इसलिए जहाँ जहाँ जिस किसी चीज़ को देख रहे हैँ , देखने के साथ ही वह चीज़ आपकी ही उपाधि बन रही है । इन सब उपाधियोँ को धारण करने वाले आप ही ब्रह्मरूप हो । ऐसा नहीँ कि कोई दूसरा ब्रह्म इन रूपोँ को धारण करके आ रहा है ।

इसलिए सारे जगत् की उपाधियोँ को आपका अपना ज्ञान ही धारण करता जा रहा है और आप स्वयं ही ब्रह्मरूप हो । इसलिये श्रुतिभगवती ने कहा ” अयमात्मा ब्रह्म ” । ” अयं ” शब्द के द्वारा क्या बताया ? सामने पड़ी चीज को जब आदमी हाथ से दिखाकर कहता है ” यह ” । किसी चीज़ को कहने की इच्छा वाला व्यक्ति , उस चीज़ का ज्ञान स्पष्ट हो जाये , इसके लिए जो शरीर से कोई विशिष्ट काम करता है उसको अभिनय कहते हैँ ।

भगवान् भाष्यकार श्रीआद्य शङ्कर कहते है – ” अयमिति चतुष्पात्त्वेन प्रविभज्यमानं प्रत्यगात्मतयाभिनयेन निर्दिशति ” अभिनय का मतलब क्या होता है ? ” विवक्षितार्थप्रतिप्रत्त्यर्थमसाधारणः शारीरो व्यापारः ” हम जिस चीज को कहना चाह रहे हैँ , जो विवक्षित अर्थ है उसका आपको ज्ञान हो इसके लिये किया शारीरिक इशारा ।

जैसे किसी को केवल मुख से कहा कि यह दरी लाल है तो उसका ज्ञान उतना स्पष्ट नहीँ होता है , लेकिन अगर शरीर व्यापार से दिखा देँ कि ” यह दरी ” तो झट उसके अनुसार ही चीज को जानते हैँ और ज्ञान हो जाता है । केवल मुख से कहने पर व्यक्ति दाँयेँ बायेँ देखता है कि किधर की दरी की बात कर रहे हैँ । अगर केवल इतना कहेँ कि यह मदन है , तो किसी को पता नहीँ लगेगा । यदि शरीर व्यापार से बता दिया कि यह मदन है , तो मनुष्य की आँख वहाँ टिक जायेगी । ठीक इसी प्रकार यदि श्रुतिभगवती ने ” अयम् ” इसको अभिनय से न बताया होता तो ज्ञान न होता । आप कहोगे कि श्रुति तो ग्रन्थ हुआ

हमारे आचार्यो ने श्रुति को चेतन माना है । यह बात ठीक से समझेँगे । कारण क्या है ? हमारे आचार्यो ने श्रुति को ग्रन्थ नहीँ माना । श्रुति का अर्थ होता है सुनी जाये । गुरु के मुख से सुनने पर ही हम वेद को श्रुति कहते है ।

शिव ! शिव !! आप चाहे जितनी पुस्तकोँ को बाँच लो , पढ़ लो उसको आचार्यगण श्रुति या वेद नहीँ कहते । श्रुति पारिभाषिक शब्द है अर्थात् जो सुनी जाये । हमारी परम्परा मेँ ब्राह्मणोँ के पूजन का आधार ही यह है । हमलोग ब्राह्मणोँ का पूजन करते है । कई बार लोग शङ्का करते है कि कोई ब्राह्मण ” महाकामुक ” हो , क्रोधी हो तो क्या उनका भी पूजन कहते हैँ कि जरूर करना चाहिये । क्योँ करना चाहिये ? जैसे कुरान यदि किसी अखबार के कागज पर , मोटे कागज पर लिखी हो , स्याही भी ठीक छपी न हो तो क्या उस कुरान की किताब को मुसलमान पूजा नहीँ मानता ? उस पर कुरान लिखी है इसलिए उस विषय को लेकर पूज्5?कर पूज्य है । कागज या स्याही का पूजन थोड़े ही है । यद्यपि बाहर से किताब की पूजा हो रही है लेकिन उस किताब मेँ जो लिखा हुआ है , उसकी पूजा हो रही है , कागज की नहीँ । अगर वही कागज , स्याही अलग – अलग पास मेँ रख दो तो मुसलमान उसकी पूजा नहीँ करेगा ! ठीक इसी प्रकार से ब्राह्मण को वेद का अध्ययन कराया गया है । ब्रह्म नाम वेद का है । उसने वेद का अध्ययन किया है । उसके शरीर मेँ , दिमाग मेँ , बुद्धितत्त्व मेँ वेद मंत्र लिखे हुए हैँ । जैसे वह कागज मोटा हो सकता है . खराब स्याही से छपा हुआ हो सकता है । इसी प्रकार ब्राह्मण का जो शरीर है , वह कामुक , क्रोधी , लोभी भी हो सकता है। काम , क्रोध , लोभ के कारण उसकी कीमत तो अपने लिये घटती – बढ़ती रहेगी , क्योँकि उसने खुद फायदा नहीँ उठाया तो नरक वह जायेगा । लेकिन उसके हृदय मेँ जो वेद लिखा हुआ है , वह तो ठीक ही लिखा हुआ है । हम लोग चूँकी श्रुति को चेतन मानते है , इसलिये चेतन जो मनुष्य है , उसके उपर उसके दिमाग मेँ वैदिक मंत्र लिखे हुए हैँ , अतः हम उसी को ग्रन्थ मानकर उसकी पूजा करते है ।

ऐसा मानने मेँ हेतु क्या है ? किसी भी भाषा का हमेशा एक रूप नहीँ रह सकता । शब्द बदलता रहता है , शब्दोँ का कालान्तर मेँ बुरे भाव वाला हो जाता है । बहुत प्रसिद्ध शब्द है – ” राक्षस ” । ” रक्ष एव राक्षसः ” राक्षस का मतलब होता है जो रक्षा करने वाला होता है । रक्ष धातु से राक्षस शब्द बना । वर्तमान मेँ जो महादुष्ट हो उ𹨛्ट हो उसे राक्षस कहते हैँ । फिर मन मेँ आता है कि अगर इसका अच्छा मतलब था तो राक्षस का मतलब बुरा क्योँ ? जो आपकी रक्षा करता है , उसी के हाथ मेँ जब शक्ति अधिक दिन तक रहने लगती है तो वही अत्याचारी बनने लगता है । इसलिए वही राक्षस हो गया । पहले जो राक्षा के लिये नियत था , वही जब शक्ति का दुरुपयोग करने लगा तो उसे राक्षस कह दिया। अथवा ” असुर ” शब्द है । वेदोँ मेँ ” असुर ” शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिये हुआ है । इन्द्र को कई जगह असुर कहा है। लेकिन वर्तमान मेँ इसका अर्थ भी बुरा हो गया है । ” असु ” नाम प्राणोँ का है । गीताकार – भगवान् ने श्रीगीता जी मेँ गाया है – ” गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ” । जिसे प्राण चलाये और जिसे प्राण न चलाये वह जिन्दा या मरा है । प्राण जिसमेँ खूब रमण करे अर्थात् प्राणशक्ति जिस समय प्रबल हो , वह ” असुर ” कहा जायेगा । परमेश्वर से अधिक बल वाला कौन होगा ? इसलिये प्राचीन काल मेँ यह शब्द प्रशंसावाची है । उसी शब्द का अपभ्रंश होकर ” अहुर्रमजदा ” फारसी मेँ परमेश्वर का नाम ही माना गया है । जो बल वाला होता है वही आगे चलकर लोगोँ को दबाने लगता है । जब वह दबाने लगा तो इस शब्द मेँ बुरा भाव आ गया और बुरे अर्थ मेँ यह शब्द रूढ हो गया । हर हालत मेँ शब्दोँ का भाव बहुत ज्यादा बदल जाता है । आज यदि कोई चाहे कि हम ” ऋग्वेद ” के ” असुर ” शब्द को लेकर इन्द्र को बुरा सिद्ध करे क्योँकि इसका रूढार्थ वही है तो सारा गड़बड़ हो जायेगा । ये थोड़े से शब्द हैँ , ऐसे अनेक शब्द हैँ जिनका भाव कालान्तर मेँ बदल जाता है । और यदि जड़ पुस तक का सहारा लेँगे तो कभी भी ” इदमित्थं ” भाव से निश्चय नहीँ हो सकता कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है।

हम लोगोँ ने इसका बचाव ऐसे किया कि शब्द वही रहे लेकिन उसका श्रवण उसके मुख से किया जाये जिसने परम्परा से अध्ययन किया हो । उसने गुरु से उसका अर्थ समझा , गुरु ने आगे अपने गुरु से जाना । इस प्रकार शब्द वे सब रहने पर भी ज्ञान कराने के लिये अर्थ वर्तमान भाषा मेँ बताये । यदि आप कहो कि वे भाषा मेँ ही लिख देते तो क्या हर्ज था ?


भाषा मेँ अगर लिखते तो समस्या फिर वही होती कि तीन सौ साल बाद उसका अर्थ कौन समझता ? इसलिये हमने माना कि समझाने का काम चेतन अपनी भाषा मेँ करता चला जाये , सहारा वेद मन्त्रोँ का रहे । बजाय इसके कि हर सौ पचास साल बाद एक नया अनुवाद लिखेँ , व्यक्ति प्रधान होगा । दूसरी बात चाहे जितना अनुवाद करेँ हर आदमी एक सा नहीँ समझता । सामने बैठे हैँ तौ नजर से नजर मिलाकर देखते है कि यह शब्द समझ मेँ नहीँ आया तो दूसरे शब्द से कहेँ । इसलिये श्रुति हमारे यहाँ चेतन है । उलटा अर्थ नहीँ कि पैर होते होँगे और चलती होगी ।


श्रुति केवल चेतन व्यक्ति से श्रवण की जाती है , इसलिये चेतन के अभिनय द्वारा भगवान् भाष्यकार बता रहे हैँ कि गुरु जब शिष्य कौ उपदेश देता है तब अभिनय करके श्रुति कह रही है । गुरु बतायेँगे ” अयमात्मा ब्रह्म ” जिसका आपको अनुभव हो रहा है , आप जिसके द्वारा सबका अनुभव कर रहे हो वही तुम । यदि अभिनय न करके केवल ” आत्मा ब्रह्म ” कहा गया होता हो आदमी समझता कि ब्रह्म जैसे बड़ी चीज , वैसे ही आत्मा कोई दूसरा होगा । ब्रह्म नपुंसक लिँग वाला और आत्मा पुल्लिँग वाला , इसलिये संसार के दो परमेश्वर हैँ – एक आत्मा और एक ब्रह्म । जैसे कहीँ स्रीलिँग शक्ति वाचक शब्द का प्रयोग और कहीँ शिववाचक पुल्लिँग शब्द का प्रयोग कर लिया तो समझते हैँ कि शिव शक्ति दो जरूर है । वे नहीँ समझ पाते कि वही जिस समय किसी कार्य को नहीँ करता है उसी को शिव , वही जिस समय अपने धर्म को प्रकट करता है उस समय उसको शक्ति कह दिया जाता है । जैसे अंग्रेजी मेँ दो शब्दोँ का प्रयोग होता है ” काइनैटिक एनर्जी ” और ” पोटैँश्यल एनर्जी ” । जिस समय वह एनर्जी काम करने लगी , स्पष्टता के लिये उसे ” काइनैटिक ” कह दिया । जिस समय वह काम नहीँ करती है उस समय उसे ” पोटैँश्यल ” कह दिया । इसी प्रकार शिव शक्ति दो चीज नहीँ । स्रीलिँग और पुल्लिँग शब्दो को देखकर कल्पना करते है कि दुनिया को चलाने वाली एक औरत और एक मर्द होँगे । जैसे घर मेँ औरत और मर्द चलाने वाले हैँ । ऐसी भिन्न – भिन्न कल्पनायेँ कर लेते हैँ । इसलिये ” अयमात्मा ” के द्वारा बताया कि आत्मा कोई दूसरी चीज नहीँ । जिसका आप निरन्तर अनुभव कर रहे हो , जो आपके ” अहंप्रत्यय ” मेँ प्रत्यक्ष है , वह आत्मा ही ब्रह्म है ।

आशा है कि यह किताबी ज्ञान कुछ आंच तो पहुंचा ही देगा। बाकी हरि इच्छा।

हरिओम। ॐ मम कृष्णम । 





"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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