विश्व का सर्वश्रेष्ठ जीवन ज्ञान:
उपनिषद
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
जिस प्रकार एक विषय को लेकर आजकल लोग पी एच डी डाक्टरेट करते हैं। उसी प्रकार वेदों के विषय लेकर मनीषियों ने शोध की और उनके शोध उपनिषद के रूप में अवतरित हुये। वास्तव में उपनिषद
भारत के अनेक दार्शनिकों, जिन्हें ऋषि
या मुनि कहा गया है, के अनेक वर्षों के गम्भीर चिंतन-मनन का परिणाम ही है। अत: इनकी संख्या हजारों में बताई जाती है पर समय के साथ मुगलों के अत्याचारो6 और अंग्रेजों के कारण यह मात्र 108 ही रह गये।
आप देखें विश्व के किसी भी धर्म में गहराई नहीं है। वे केवल एक ही व्यक्ति या अवतार या मसीहा के इर्द गिर्द घूमते हैं। उपनिषद अनेकों का सार और ज्ञान हैं। भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएं हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बांधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतरदृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
हम मानव जीवन को दो भागों बांट सकते हैं पहला वाहिक जीवन जो हम आंख खोलकर जगत में व्यवहार करते हैं। दूसरा आंतरिक जो हम आंख बंद कर महसूस करते हैं अनुभव करते हैं। इसमें निद्रा भी शामिल है।
आप देखें विश्व के किसी भी धर्म में गहराई नहीं है। वे केवल एक ही व्यक्ति या अवतार या मसीहा के इर्द गिर्द घूमते हैं। उपनिषद अनेकों का सार और ज्ञान हैं। भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएं हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बांधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतरदृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
हम मानव जीवन को दो भागों बांट सकते हैं पहला वाहिक जीवन जो हम आंख खोलकर जगत में व्यवहार करते हैं। दूसरा आंतरिक जो हम आंख बंद कर महसूस करते हैं अनुभव करते हैं। इसमें निद्रा भी शामिल है।
अपनी कुरान और बाईबिल के अध्ययन के बाद मैं यह निष्कर्ष निकालता हूं कि यह दोनों पुस्तकें सिर्फ और सिर्फ वाहिक जगत की बातें करती है और समझाती हैं। जैसे कैसे रहे, शादी करें, क्या खायें, दुश्मन के साथ क्या करें। दुनिया में कैसे रहें। सिर्फ इस तरह की वाहिक बातें जो मानव के जीवन रूपी समुद्र की सतह पर रहतीं हैं। जैन और बौद्ध कुछ कुछ आंतरिक बताते हैं पर पूर्णतय: नहीं। यह भी बताते हैं कि वाहिक क्या करें कि हमारा आंतरिक जीवन सुखमय और कल्याणकारी हो। हम कैसे शान्ति प्राप्त करें। वहीं सनातन एक विशाल महासागर। जिसके चार खंड चारो वेद। उपनिषद जिसमें गीता एक विशाल जहाज। बाकी शास्त्र इत्यादि उल्टी सीधी लकडी के पतरों से बनी नाव। जो डुबा भी सकती है।
सनातन के उपनिषद वाहिक के अलावा आंतरिक विज्ञान को वहां तक बताता है जो मनुष्य द्वारा प्रयोगिक है और अनुभवित भी है। अंदर से यह इतना गहरा और विशाल कि इसके आंतरिक विज्ञान को कुरान या बाईबिल न सोंच सकते हैं और न कुछ बोल सकते हैं। हां जैन और बौद्ध कुछ कुछ थाह लगा लेते हैं पर गहराई तक नहीं पहुंच पाते हैं
उपनिषद्
हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय
के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का
बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान
स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत् का
ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर
वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं।
उपनिषद
ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म। उपनिषदों को स्वयं भी
वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश
मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है। मुख्य उपनिषद 12
या 13 हैं। हरेक किसी न किसी वेद
से जुड़ा हुआ है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। १७वी
सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९वीं सदी में जर्मन
तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों में जो
रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं।
उपनिषद
शब्द का अर्थ : विद्वानों ने 'उपनिषद' शब्द की व्युत्पत्ति 'उप'+'नि'+'षद' के रूप में मानी है।
इनका अर्थ यही है कि जो ज्ञान व्यवधान-रहित होकर निकट आये, जो
ज्ञान विशिष्ट और सम्पूर्ण हो तथा जो ज्ञान सच्चा हो, वह
निश्चित रूप से उपनिषद ज्ञान कहलाता है।
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास
बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना;
गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य
के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद
के मर्म तक पहुंचाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने
कहा: 'मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ,
तो मेरे आंसू बहने लगते हैं। यह कितना महान् ज्ञान है? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन
में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह
शक्ति कहां से प्राप्त हो? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं।
उनमें ऐसी शक्ति भरी पड़ी है, जो सम्पूर्ण विश्व को बल,
शौर्य एवं नवजीवन प्रदान कर सकें। उपनिषदें किसी भी देश, जाति, मत व सम्प्रदाय का भेद किये बिना हर दीन,
दुर्बल, दुखी और दलित प्राणी को पुकार-पुकार
कर कहती हैं- उठो, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और बन्धनों को
काट डालो। शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, अध्यात्मिक स्वाधीनता- यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।'
कविवर
रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा: 'चक्षु-सम्पन्न व्यक्ति
देखेगें कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथिवी
का धर्म बनने लगा है। प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिम किरणों से पूर्व दिशा आलोकित
होने लगी है। परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्र गगन में प्रकाशित होगा, तब उस समय उसकी दीप्ति से समग्र भू-मण्डल दीप्तिमय हो उठेगा।'
डा.
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा: 'उपनिषदों को जो भी मूल
संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव आत्मा और परम सत्य के गुह्य और
पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है।'
सन्त
विनोवा भावे ने कहा: 'उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। हिमालय जैसा पर्वत और उपनिषदों-
जैसी कोई पुस्तक नहीं है, परन्तु उपनिषद कोई साधारण पुस्तक
नहीं है, वह एक दर्शन है। यद्यपि उस दर्शन को शब्दों में अंकित
करने का प्रयत्न किया गया है, तथापि शब्दों के क़दम लड़खड़ा
गये हैं। केवल निष्ठा के चिह्न उभरे है। उस निष्ठा के शब्दों की सहायता से हृदय में
भरकर, शब्दों को दूर हटाकर अनुभव किया जाये, तभी उपनिषदों का बोध हो सकता है । मेरे जीवन में 'गीता'
ने 'मां का स्थान लिया है। वह स्थान तो उसी का
है। लेकिन मैं जानता हूं कि उपनिषद मेरी माँ की भी है। उसी श्रद्धा से मेरा
उपनिषदों का मनन, निदिध्यासन पिछले बत्तीस वर्षों से चल रहा
है।
डा. गोविन्दबल्लभ ने कहा: 'उपनिषद सनातन दार्शनिक ज्ञान के मूल स्रोत है। वे केवल प्रखरतम बुद्धि का
ही परिणाम नहीं है, अपितु प्राचीन ॠषियों की अनुभूतियों के
फल हैं।'
भारतीय मनीषियों द्वारा जितने भी दर्शनों का उल्लेख मिलता है, उन सभी में वैदिक मन्त्रों में निहित ज्ञान का प्रादुर्भाव
हुआ है। सांख्य तथा वेदान्त (उपनिषद) में ही नहीं, जैन और
बौद्ध-दर्शनों में भी इसे देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति से उपनिषदों का
अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इनके अध्ययन से भारतीय संस्कृति के अध्यात्मिक स्वरूप का
सच्चा ज्ञान हमें प्राप्त होता है।
केवल
भारतीय जिज्ञासुओं की ध्यान ही उपनिषदों की ओर नहीं गया है, अनेक पाश्चात्य विद्वानों को भी उपनिषदों को पढ़ने और समझने का अवसर
प्राप्त हुआ है। तभी वे इन उपनिषदों में छिपे ज्ञान के उदात्त स्वरूप से प्रभावित
हुए है। इन उपनिषदों की समुन्नत विचारधारा, उदात्त चिन्तन,
धार्मिक अनुभूति तथा अध्यात्मिक जगत् की रहस्यमयी गूढ़
अभिव्य्क्तियों से वे चमत्कृत होते रहे हैं और मुक्त कण्ठ से इनकी प्रशंसा करते
आये हैं।
अरबदेशीय
विद्वान् अलबरुनी ने कहा: 'उपनिषदों की
सार-स्वरूपा 'गीता' भारतीय ज्ञान की
महानतम् रचना है।'
दारा
शिकोह ने कहा: 'मैने क़ुरान, तौरेत, इञ्जील,
जुबर आदि ग्रन्थ पढ़े। उनमें ईश्वर सम्बन्धी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिन्दुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ीं।
इनमें से उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है, जिससे आत्मा को शाश्वत
शान्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। हज़रत नबी ने भी एक आयत में इन्हीं प्राचीन
रहस्यमय पुस्तकों के सम्बन्ध में संकेत किया है।
जर्मन
दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर ने कहा: 'मेरा दार्शनिक मत उपनिषदों के
मूल तत्त्वों के द्वारा विशेष रूप से प्रभावित है। मैं समझता हूं कि उपनिषदों के
द्वारा वैदिक-साहित्य के साथ परिचय होना, वर्तमान शताब्दी का
सनसे बड़ा लाभ है, जो इससे पहले किसी भी शताब्दी को प्राप्त
नहीं हुआ। मुझे आशा है कि चौदहवीं शताब्दी में ग्रीक-साहित्य के पुनर्जागरण से यूरोपीय-साहित्य
की जो उन्नति हुई थी, उसमें संस्कृत-साहित्य का प्रभाव,
उसकी अपेक्षा कम फल देने वाला नहीं था। यदि पाठक प्राचीन भारतीय
ज्ञान में दीक्षित हो सकें और गम्भीर उदारता के साथ उसे ग्रहण कर सकें, तो मैं जो कुछ भी कहना चाहता हूं, उसे वे अच्छी तरह
से समझ सकेंगे उपनिषदों में सर्वत्र कितनी सुन्दरता के साथ वेदों के भाव प्रकाशित
हैं। जो कोई भी उपनिषदों के फ़ारसी, लैटिन अनुवाद का
ध्यानपूर्वक अध्ययन करेगा, वह उपनिषदों की अनुपम भाव-धारा से
निश्चित रूप से परिचित होगा। उसकी एक-एक पंक्ति कितनी सुदृढ़, सुनिर्दिष्ट और सुसमञ्जस अर्थ प्रकट करती है, इसे
देखकर आंखें खुली रह जाती है। प्रत्येक वाक्य से अत्यन्त गम्भीर भावों का समूह और
विचारों का आवेग प्रकट होता चला जाता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ अत्यन्त उच्च, पवित्र और एकान्तिक अनुभूतियों से ओतप्रोत हैं। सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल
उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं।
इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान
करेंगे।'
शोपेन
हॉवर ने आगे भी कहा— 'भारत में हमारे धर्म की जड़े कभी नहीं
गड़ेंगी। मानव-जाति की ‘पौराणिक प्रज्ञा’ गैलीलियो की घटनाओं से कभी निराकृत नहीं
होगी, वरन् भारतीय ज्ञान की धारा यूरोप में प्रवाहित होगी
तथा हमारे ज्ञान और विचारों में आमूल परिवर्तन ला देगी। उपनिषदों के प्रत्येक वाक्य
से गहन मौलिक और उदात्त विचार प्रस्फुटित होते हैं और सभी कुछ एक विचित्र, उच्च, पवित्र और एकाग्र भावना से अनुप्राणित हो जाता
है। समस्त संसार में उपनिषदों-जैसा कल्याणकारी व आत्मा को उन्नत करने वाला कोई
दूसरा ग्रन्थ नहीं है। ये सर्वोच्च प्रतिभा के पुष्प हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था
के आधार बनकर रहेंगे।' शोपेन हॉवर के उपरान्त अनेक पाश्चात्य
विद्वानों ने उपनिषदों पर गहन विचार किया और उनकी महिमा को गाया।
इमर्सन ने
कहा: 'पाश्चात्य विचार निश्चय ही वेदान्त के
द्वारा अनुप्राणित हैं।'
मैक्समूलर ने कहा: 'मृत्यु के भय से बचने, मृत्यु के लिए पूरी तैयारी
करने और सत्य को जानने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए, उपनिषदों
के अतिरिक्त कोई अन्य-मार्ग मेरी दृष्टि में नहीं है। उपनिषदों के ज्ञान से मुझे
अपने जीवन के उत्कर्ष में भारी सहायता मिली है। मै उनका ॠणी हूं। ये उपनिषदें,
आत्मिक उन्नति के लिए विश्व के समस्त धार्मिक साहित्य में अत्यन्त
सम्मानीय रहे हैं और आगे भी सदा रहेंगे। यह ज्ञान, महान,
मनीषियों की महान् प्रज्ञा का परिणाम है। एक-न-एक दिन भारत का यह श्रेष्ठ ज्ञान यूरोप
में प्रकाशित होगा और तब हमारे ज्ञान एवं विचारों में महान् परिवर्तन उपस्थित
होगा।'
प्रो.
ह्यूम ने कहा: 'सुकरात, अरस्तु, अफ़लातून आदि कितने ही
दार्शनिक के ग्रन्थ मैंने ध्यानपूर्वक पढ़े है, परन्तु जैसी
शान्तिमयी आत्मविद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं
देखने को नहीं मिली।
प्रो.
जी. आर्क ने कहा: 'मनुष्य की आत्मिक, मानसिक और सामाजिक गुत्थियां किस
प्रकार सुलझ सकती है, इसका ज्ञान उपनिषदों से ही मिल सकता है।
यह शिक्षा इतनी सत्य, शिव और सुन्दर है कि अन्तरात्मा की
गहराई तक उसका प्रवेश हो जाता है। जब मनुष्य सांसरिक दुःखो और चिन्ताओं से घिरा हो,
तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोघ साधन के रूप में उपनिषद ही
सहायक हो सकते हैं।
पॉल
डायसन ने कहा: 'वेदान्त (उपनिषद-दर्शन) अपने अविकृत रूप में शुद्ध नैतिकता का सशक्ततम
आधार है। जीवन और मृत्यु कि पीड़ाओं में सबसे बड़ी सान्तवना है।‘
डा.
एनीबेसेंट ने कहा: ‘भारतीय उपनिषद ज्ञान मानव चेतना की सर्वोच्च देन है।'
बेबर
ने कहा: 'भारतीय उपनिषद ईश्वरीय ज्ञान के महानतम ग्रन्थ हैं। इनसे सच्ची आत्मिक
शान्ति प्राप्त होती है। विश्व-साहित्य की ये अमूल्य धरोहर है।
प्रायः
उपनिषद वेदों के मन्त्र भाग, ब्राह्मण ग्रन्थ,
आरण्यक ग्रन्थ आदि से सम्बन्धित हैं। कतिपय उत्तर वैदिककाल के
ॠषियों द्वारा अस्तित्व में आये हैं, जिनका स्वतन्त्र
अस्तित्व है।
'मुक्तिकोपनिषद' में,(श्लोक संख्या 30 से 39
तक) 108 उपनिषदों की सूची दी गयी है। इन 108
उपनिषदों में से। 'ॠग्वेद' के 10 उपनिषद है। 'शुक्ल यजुर्वेद' के 19 उपनिषद हैं। 'कृष्ण यजुर्वेद' के 32 उपनिषद हैं। 'सामवेद' के 16 उपनिषद हैं। 'अथर्ववेद' के 31 उपनिषद हैं।
'मुक्तिकोपनिषद' में चारों वेदों की शाखाओं की संख्या भी दी है और प्रत्येक शाखा का एक-एक
उपनिषद होना बताया है। इस प्रकार चारों वेदों की अनेक शाखाएं है और उन शाखाओं की
उपनिषदें भी अनेक हैं। विद्वानों ने ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएं, यजुर्वेद की एक सौ नौ शाखाएं,
सामवेद की एक हज़ार शाखाएं तथा अथर्ववेद की पचास हज़ार शाखाओं का
उल्लेख किया हैं। इस दृष्टि से तो सभी वेदों की शाखाओं के अनुसार 1,180 उपनिषद होनी चाहिए, परन्तु प्रायः 108 उपनिषदों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें भी कुछ उपनिषद तो अत्यन्त लघु
हैं।
इनके
अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी
तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
मुख्य
उपनिषद: विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य
तथा प्राचीन माने जाते हैं।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने १० पर अपना भाष्य दिया है- (१) ईश, (२) ऐतरेय (३) कठ (४) केन (५) छांदोग्य (६) प्रश्न (७) तैत्तिरीय (८)
बृहदारण्यक (९) मांडूक्य और (१०) मुंडक।
उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा
है-
(१) श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।
अन्य
उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के कारण 'तांत्रिक' माने जाते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त,
वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है।
प्रतिपाद्य
विषय: डॉ॰ डासन, डॉ॰ बेल्वेकर तथा रानडे ने उपनिषदों
का विभाजन प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इस प्रकार किया है: क. गद्यात्मक उपनिषद् १.
ऐतरेय, २. केन, ३. छांदोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि। इनका
गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन
है। ख. पद्यात्मक उपनिषद्: १.ईश, २.कठ, ३. श्वेताश्वतर तथा नारायण। इनका पद्य वैदिक
मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है। ग.अवांतर
गद्योपनिषद्: १.प्रश्न, २.मैत्री (मैत्रायणी) तथा ३.मांडूक्य
४.आथर्वण (अर्थात् कर्मकाण्डी) उपनिषद्। अन्य अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस
श्रेणी में की जाती है।
भाषा
तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से डॉ॰ डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में
किया है: क. प्राचीनतम : १. ईश, २. ऐतरेय, ३. छांदोग्य, ४. प्रश्न, ५.
तैत्तिरीय, ६. बृहदारण्यक, ७. मांडूक्य
और ८. मुंडक। ख. प्राचीन: १. कठ, २. केन। ग. अवांतरकालीन: १.
कौषीतकि, २. मैत्री (मैत्राणयी) तथा ३. श्वेताश्वतर।
उपनिषदकाल
के पहले वैदिक युग सांसारिक आनंद एवं
उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को
संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के
विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्गार स्वयंस्फूर्त
आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में
शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से
भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक
दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद
सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना
की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी
प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम
स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे।
इस
उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न
करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए। जब प्रकृति करवट लेती थी तो
प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक
देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र
आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती
थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें। कुल
मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय,
सुखाकांक्षी, आशावादी और जिजीविषापूर्ण था।
उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी।
नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी।
कर्म
को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा
संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब
तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी
संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था
कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका
सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्गम कहाँ है, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह
सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये
प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु
मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।
उपनिषदकालीन विचारों का उदय: ऐसा नहीं है
कि आत्मा,
पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही
नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने
यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं,
परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं। आत्मा शरीर से
भिन्न तत्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती है इस सिद्धांत का
आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का आवागमन क्यों होता
है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं हुए।
अपनी
समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को छोड़कर
श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद
लेने के बजाय उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी
हुआ कि वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह
सृष्टि किसने बनाई है?' और 'कौन देवता
है जिसकी हम उपासना करें'? वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि
बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत:
अधिकार है।
वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन
आख्यान उपनिषद हैं।'वेदों में यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि
इस जीवन में सुखी, संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के
लिए आवश्यक है कि देवताओं की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ
है। यज्ञ के कर्मफल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही
सूत्र चारों ओर गुँजित थे। दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने
यज्ञ को बहुत अधिक महत्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक
बढ़ गई तब इस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात
हुआ। लोग सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?'
'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस
रूप के प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक
पहुँचा देंगे?' इस प्रकार, कर्मकाण्ड
पर बहुत अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में
प्रतिपादित किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार
करने को प्रेरित किया।
प्रकृति
के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी
हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत,
पूषन, मित्र, पितर,
यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के
दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता
और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग
प्रशस्त किया।
उपनिषदों
का स्वरूप: उपनिषद चिंतनशील एवं कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं।
जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी
दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की
हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया
जाता है। उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके
लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग-अनुसंधान सुविधाएँ संभव
है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार
पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है। उपनिषद
अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए
हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान,
विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति
आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है।
सृष्टि के उद्गम एवं उसकी रचना के संबंध
में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों
के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत में कहा यह गया कि हमारी
श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस
रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं
जानता हो।'
संक्षेप
में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं
प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी
कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने
के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया
गया था। उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के
पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के
साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न
किया। यही उनका तप था।
(१) संहिता में वैदिक देवी देवताओं की स्तुति के मंत्र हैं। (२) ब्राह्मण में वैदिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का वर्णन है। (३) आरण्यक में कर्मकाण्ड और यज्ञों की रूपक कथाएँ और तत् सम्बन्धी
दार्शनिक व्याख्याएँ हैं और (४) उपनिषद् में वास्तविक वैदिक
दर्शन का सार है।
उपनिषद्
में आत्म और अनात्म तत्त्वों का निरूपण किया गया है जो वेद के मौलिक रहस्यों का
प्रतिपादन करता है। प्राय: उपनिषद् वेद के अन्त में ही आते हैं। इसलिए ये वेदान्त के नाम से भी प्रख्यात
हैं। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को तीन प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणित करते हैं जो प्रस्थानत्रयी के नाम से विख्यात
हैं, ये हैं - उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता।
उपनिषद्
ब्रह्म विद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या नष्ट हो जाती है (विवरण);
वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति); जिससे
मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दु:ख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। फलत: उपनिषद् वे ‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रंथ माने जाते हैं जिनके अभ्यास
से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
उपनिषदों
की भौगोलिक स्थिति मध्यदेश के कुरुपांचाल से लेकर विदेह (मिथिला)
तक फैली हुई है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है पर उपनिषदो का काल
३००० ईसा पूर्व से ३५०० ई पू माना गया है। वेदो का रचना काल भी यही समय माना गया
है। उपनिषद् काल का आरम्भ बुद्ध से पर्याप्त पूर्व है।
"ग्रेट एजेज ऑफ मैन" के सम्पादक इसे लगभग ८०० ई.पू. बतलाते हैं।
उपनिषदों
के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की
मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’
और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश स्वीकार किये गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद
का है। कुछ उपनिषद स्वतन्त्र रूप से रचे गये हैं। वे सभी बाद में लिखे गये हैं। उपनिषदों
के काल-निर्णय के लिए मन्त्रों को आधार माना गया है।
उनमें भौगोलिक परिस्थितियां, सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं या ॠषियों के नाम और खगोलीय योगों के विवरण
आदि प्राप्त होते हैं। उनके द्वारा उपनिषदों के रचनाकाल की सम्भावना अभिव्यक्त की
जाती है, परन्तु इनसे रचनात्मक का सटीक निरूपण नहीं हो पाता;
क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियों में जिन नदियों आदि के नाम गिनाये
जाते हैं, उनके उद्भव का काल ही निश्चित्त नहीं है। इसी
प्रकार राजाओं और ॠषियों के एक-जैसे कितने ही नाम बार-बार ग्रन्थों में प्रयोग किये
जाते हैं। वे कब और किस युग में हुए, इसका सही आकलन ठीक
प्रकार से नहीं हो पाता। जहां तक खगोलीय योगों के वर्णन का प्रश्न है, उसे भी कुछ सीमा तक ही सुनिश्चित माना जा सकता है।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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